नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)

गतांश से आगे...
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चित्रांक 22- 1 के बाद का..यानी 22-2 से 10 तक चित्र

(नोट- इस सम्बन्ध में चर्चा अगले पोस्ट में की जायेगी)




प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूहों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है- दोनों पैर के तलवे,जिसे चित्रांक 22 में स्पष्ट किया गया है। चित्रांक 22 के विषय वस्तु को अधिकाधिक स्पष्ट करने हेतु सह क्रमांक 1,2,3,4,5 का सहयोग लिया गया है। आगे आप देख सकते हैं कि इन सह क्रमांकों में प्रथमतः तो अंकाकृति भर है,जो विभिन्न विन्दुओं को दर्शाते हैं,और उसके बाद के क्रमांक अंगाकृति युक्त चित्रों के माध्यम से विन्दु-विनिश्चय में सहयोगी हो रहे हैं। प्रत्येक चित्र में दोनों तलवों को एक साथ दिखलाया गया है,ताकि दायें-बायें का तुलनात्मक भेद भी स्पष्ट हो सके। चित्रांक 22 के सहक्रमांक 1 में प्रतिबिम्ब केन्द्रों को घेरा डालकर अंक-क्रम दिया गया है,तो दूसरे में अंगों का चित्र बनाया गया है- उस खास दायरे में। दायरे से तात्पर्य है कि उस क्षेत्र में नियत विन्दु को ढूंढकर कहीं भी उपचारित किया जा सके। 22-3 तलवे के ऊपरी भाग को दर्शाता है। पुनः 22-4 तलवे की ही स्पष्ट अंगाकृति युक्त है।


मोटे तौर पर कहा गया है कि दोनों तलवों में 38-38 केन्द्र हैं,किन्तु गौर किया जाय  तो  इनकी संख्या कम ही मिलती है वहां। वस्तुतः इसके लिए शरीर का उपखंड (Zone) ही जिम्मेवार है। या कह सकते हैं कि अवयवों की स्थिति पर ये संख्यायें निर्भर हैं। यथा—हृदय शरीर के बायें भाग में है,इस कारण हृदय का चित्र या क्रमांक 36 सिर्फ वायें तलवे में ही उपलब्ध है। इसी भांति यकृत,पित्ताशय,आन्त्रपुच्छ आदि शरीर के सिर्फ दायें भाग में ही हैं,अतः उनका चित्र एवं अंक सिर्फ दायें तलवे में ही दिया गया है। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी क्रमांक हैं जो दोनों तलवे में समान रुप से पाये जाते हैं। वस्तुतः ये उभय क्षेत्रीय अंगों से सम्बन्धित हैं। जैसे—फेफड़ा,आँख,कान,नाक,वृक्क आदि अंग चुंकि शरीर के बायें-दायें दोनों भाग में हैं,इस कारण चित्रों के दोनों खंडों में दर्शाये गये हैं। किन्तु इसका ये अर्थ भी नहीं है कि उपचार-काल में सिर्फ एक ही तरफ दबाव देना है। मान लिया कि सिर्फ बायें कान में पीड़ा है,ऐसी स्थिति में पहले बायें तलवे के क्रमांक 31 पर दबाव देकर परीक्षण करेंगे,फिर दायें तलवे के भी उक्त क्रमांक की परीक्षा अवश्य करेंगे। क्यों कि प्रायः पाया जाता है कि आन्तरिक रुप से उभय पक्षीय अंगों के दोनों केन्द्र प्रभावित होते हैं। तदनुसार दोनों केन्द्रों पर उपचार करना चाहिए। यदि दोनों ओर के केन्द्रों पर परीक्षण करने पर भी दर्द-संकेत न मिले,तब ऐसी स्थिति में अन्यान्य स्विच-वोर्डो(केन्द्र-समूह)पर भी इसी भांति परीक्षा करनी होगी।

दूसरी बात ध्यान देने योग्य ये है कि क्रमांक 11 से 15 तक का सम्बन्ध प्रजनन संस्थान से है। इसमें 11 और 15 सिर्फ पुरुषों के हैं,12 और 14 सिर्फ स्त्रियों के हैं,एवं 13 उभयलिंगी क्रमांक है। इनमें जो अंग जिस लिंग में अनुपस्थित है,स्वाभाविक है कि उसका स्थान भी रिक्त होगा उस लिंग में। साथ ही ध्यान देने की बात है कि ये सभी क्रमांक(11,12,13,14,15) तलवे में मौजूद ही नहीं है,बल्कि थोड़े ऊपर आकर मिलते हैं। जैसा कि चित्रांक 22-5 में हम देख रहे हैं। इन्हीं विन्दुओं को चित्रांक 22-1 में भी कुछ दूसरे तरीके से दिखलाया गया है।
दोनों पैरों में केन्द्रों का स्थान एक जैसा है,इस कारण दोनों पैर का अलग-अलग चित्र नहीं दिया गया है,किन्तु एक ही पैर के बाहरी और भीतरी चित्र क्रमशः  दोनों चित्रों में दर्शाये गये हैं। चित्रांक 22-6 को चित्रांक 22-1 में भी पहले ही दिखाया जा चुका है।

तलवे के ऊपरी भाग में टखने के इर्द-गिर्द और भी कई महत्त्वपूर्ण केन्द्र पाये जाते हैं,अतः उन्हें भी इसी प्रथम समूह (तलवे के प्रतिबिम्बकेन्द्र) में शामिल कर लिया गया है। प्रजननतन्त्र से सम्बन्धित मुख्य अंगों के अतिरिक्त कुछ अन्य विन्दु दर्शाये गये हैं,जो खास कर किसी एक अवयव से सीधे सम्बन्ध न रखते हुये भी विशेष व्याधि में प्रतिनिधित्व करते हैं।यथा—वावासीर, कब्ज, हृद्रोग, श्वांस, नेत्रविकार आदि, जिनकी स्पष्टी के लिए चित्रांक 22-7 और 22-8 का सहयोग लिया गया है। उसके बाद भी कुछ अत्यावश्यक विन्दु संकेत शेष रह गये हैं जिन्हें चित्रांक 22-9 में दर्शाया गया है। 


         
 इनके आगे के चित्रों पर गौर करें, एड़ी के समीप से प्रारम्भ होकर टखने से कोई चार सुन(4 tsun) ऊपर तक मोटी जालीदार रेखाओं से सियाटिका नामक वातनाड़ी (Sciatic nerve) को दिखलाया गया है। यों तो यह नाड़ी काफी ऊपर तक चली गयी है,किन्तु इस पर उपचार करने मात्र से पूरी नाड़ी का उपचार हो जाता है।


कुछ अति महत्त्वपूर्ण प्रतिबिम्ब केन्द्रों को चित्रांक 22-9 और 22-10 में रेखाओं द्वारा दिखलाया गया है। ये कुल चार हैं- प्रत्येक पैर में। यानी पैर की पांच अंगुललियों (पांच तत्त्वों के प्रतिनिधि) के सहयोग से चार स्थल बनते हैं। आकाश तत्त्व शेष चारो तत्त्वों पर आधिपत्य रखते हुए स्वयं तटस्थ रहता है, फलतः इसका स्वतन्त्र स्थल नहीं बनता। शेष चार स्थलों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं—
1.कनिष्ठा और अनामिका के मध्य पृथ्वीस्थल
2.अनामिका और मध्यमा के बीच जलस्थल
3.मध्यमा और तर्जनी के बीच अग्नस्थल
4.तर्जनी और अंगुष्ठ के बीच वायु स्थल

पाश्चात्य एक्यूप्रेशर विशेषज्ञों ने इन चारों का एक ही नाम रखा है—चैनल-1,2,3,4,क्यों कि इनका उपयोग भी वे एक ही तरह करते हैं- किसी भी स्नायविक विकार के लिए। हालाकि यह बात काफी हद तक सही भी है,किन्तु संकीर्ण जरुर कहेंगे। भारतीय योगशास्त्र के अनुसार विचार करने पर कुछ और भी तथ्य स्पष्ट होते हैं।

क्रमशः...

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