गतांश से आगे...
नाड्योपचारतन्त्रम् (The Origin of Accupressure) का सत्रहवां भाग (दसवें अध्याय का शेषांश)
चैनलों
पर विशेष विचार—
जैसा कि पूर्व में
कहा जा चुका है- चारो चैनल चार तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते है,तदनुसार तत्त्वों के ही नाम-गुण-वोधक हैं। आकाश(पांचवां
प्रधान तत्त्व) सबमें (शेष चार में) समान रुप से व्याप्त है। विद्वानों को यह
ज्ञात है कि वायु तत्त्व (दोष) की प्रधानता होती है किसी भी रोग-संक्रमण में।
आयुर्वेदज्ञों ने इसी गुण के कारण कफ और पित्त को पंगु कहा है। वस्तुतः वायु के
सहयोग से ही ये चालित होते हैं। उसी भांति यहां भी है। वायु का स्थान (उपादान) आकाश
है,और यह सर्वव्याप्त है,अतः स्वतन्त्र रुप से चिकित्सा-क्रम में इसकी आवश्यकता
नहीं है। शेष चार तत्त्वों के निवारण (संतुलन) से ही काम चल जाता है।
अब
देखना यह है कि इनका उपयोग कहाँ और किस भाँति करना है।
सर्वप्रथम तो यह ध्यान
रखना है कि इन सभी चैनलों पर उपचार किसी कठोर उपकरण से कदापि नहीं किया जाय।
सर्वोत्तम उपचार-विधि है- शियात्सु यानी अंगुली से आहिस्ते-आहिस्ते दबाव देना।
दूसरी बात है कि किस चैनल का उपयोग कहाँ करें। इस सम्बन्ध में मुख्य बातों पर एक
नजर डाल लें—
Ø किसी भी बीमारी में,खासकर जीर्णावस्था
में उपचार प्रारम्भ करने से पूर्व सभी चैनलों को थोड़ी देर तक(10-20 सेकेन्ड प्रति
चैनल) उपचारित कर देने से अन्य (व्याधि का निजी केन्द्र) केन्द्रों की प्रतिक्रिया-क्षमता
में आशातीत वृद्धि हो जाती है।
Ø तत्त्वमीमांसा के अनुसार निदान करने
पर,जिस व्यक्ति में (व्याधि में) जिस तत्त्व की विकृति की प्रधानता प्रतीत हो,उसी तत्त्व-स्थल को
प्रथमतः उपचारित करना चाहिए। इसके बाद ही उस व्याधि के मुख्य प्रतिबिम्ब केन्द्र
को उपचारित किया जाए। यथा- आँख में काफी तकलीफ है,और प्रधानता लाली और जलन की है।
अब यहाँ अग्निस्थल (पैर की मध्यमा और तर्जनी का मध्य भाग) पर पहले कुछ देर दाब
उपचार करने के बाद आँख के केन्द्र को उपचारित करेंगे,तो निश्चित ही लाभ अधिक होगा।
इसी भांति शरीर के किसी भाग में सूजन है,या कहें जल-तत्त्व जनित विकृति है,वैसी
स्थिति में अनामिका और मध्यमा के मध्य स्थल पर उपचार प्रारम्भ करने से अधिक लाभ
होगा।
Ø विशेष कर आँख, कान आदि अंगों के
प्रतिबिम्ब-केन्द्र पर सीधे उपचार करने से पूर्व,उसके पास वाले चैनल पर उपचार कर
देने से लाभ अधिक होता है। यथा- आँख,कान पर उपचार से पूर्व तर्जनी और मध्यमा के
मध्य स्थल को जागृत कर लेना चाहिए।
Ø सभी चैनलों का सम्बन्ध मस्तिष्क के
सूक्ष्म स्नायु-केन्द्रों से है। अतः हृदयरोग, रक्तचाप, माइग्रेन,अपस्मार,मिर्गी,जैसे
सीधे मानसिक प्रभाव वाले व्याधियों में सर्वप्रथम सभी चैनलों को उपचारित करना
श्रेयस्कर होता है।
चैनलों का वास्तविक स्थान,जैसा कि चित्रांक
22-9,10 में स्पष्ट है,सभी अंगुलियों के ऊपरी (सुपली) हिस्से में प्रत्येक दो के
बीच एक चैनल करीब दो सुन(तीन अंगुल)लम्बा पतला क्षेत्र घेरे हुये है। इन्हीं पर
आवश्यकतानुसार उपचार करना होता है।
अब, चैनलों के सम्बन्ध में इन विशिष्ट
बातों के मुख्य विन्दु पर आते हैं। चित्रांक 22
- 10 में सभी अंगुलियों के अग्र नोक पर तारांकित स्थल निर्दिष्ट है। ये सभी विन्दु
विशेष तौर पर मानस-व्याधियों से सम्बन्धित हैं। वास्तव में इनका क्षेत्र प्रत्येक
अंगुलि का समूचा पहला पोरुआ(खण्ड) है। करीब-करीब सभी मानसिक
विकृति(अनिद्रा,अपस्मार,मिर्गी आदि) जन्य व्याधियों में इनका उपयोग अवश्य करना चाहिए।
चैनलों की सीमा जहां समाप्त होती
है,वहीं से स्नायुमंडल का केन्द्र समूह प्रारम्भ हो जाता है। परोक्ष रुप से इनका
सम्बन्ध चैनलों से ही जुड़ा होता है। सक्रियता के क्रम में स्नायुमंडल पर प्रभाव
डालने में ये तीसरे दर्जे पर हैं। अब्बल दर्जे पर हैं चारो चैनल। स्नायुमंडल के
तीसरे दर्जे के इन केन्द्रों को भी उक्त चित्रांक में स्पष्ट किया गया है।
मेरुदण्ड शरीर का
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग है,अतः सभी अंगों की भांति इसे भी पैरों में स्थान मिला
हुआ है,जैसा कि चित्रांक 22-8 में स्पष्ट है। मेरुदण्ड के सभी उपविभागों का
प्रतिनिधित्व इस स्थल से पूरा हो जाता है। कई मायने में तो सीधे मेरुदण्ड पर उपचार
करने के अपेक्षा इस मेरुदण्ड-प्रतिनिधि-स्थल पर उपचार करना ही सुरक्षित और
श्रेयस्कर माना जाता है। (मेरुदण्ड के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी अगले प्रसंग
में दी जायेगी)
अभी प्रसंग चल रहा है तलवे के प्रतिबिम्ब केन्द्रों के
सम्बन्ध में। इस सम्बन्धित कुछ और भी बातें ध्यान देने योग्य है,जिन्हें यहां
क्रमवार स्पष्ट किया जा रहा है—
v क्रमांक 17 और 24 हैं तो वास्तव में
तलवे में ही,किन्तु इनकी वास्तविक सक्रियता वहां नहीं के बराबर है। अतः उपचार-काल
में क्रमांक-क्षेत्र के ऊपरी भाग(तलवे के विपरीत- सुपली) पर व्यवहार करना चाहिए।
v क्रमांक 38 के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसी
ही बात है। इसकी वास्तविक स्थिति (सक्रियता) क्रमांक 30 के विपरीत यानी तलवे के
ऊपरी भाग पर है। हालांकि डॉ.वोरा इसका स्थान तलवे में ही क्रमांक 30 के नीचे मानते
हैं,किन्तु अनुभव के आधार पर देखा गया है कि सभी रोगियों में वहाँ यह सक्रिय नहीं
पाया जाता। अतः परीक्षण के क्रम में इसका निश्चय दोनों जगह कर लेना चाहिए। इस
प्रतिबिम्ब केन्द्र के सम्बन्ध में सबसे
महत्त्वपूर्ण बात ये है कि चुंकि यह केन्द्र थायमस ग्रन्थि का है,जो कि सिर्फ
बच्चों में ही सक्रिय पाया जाता है। विशेषज्ञों की राय है कि थायमस ग्रन्थि का
मुख्य कार्य वाल-विकास है,अतः 15 से 17 वर्ष की अवस्था के पश्चात् यह ग्रन्थि
बिलकुल निश्क्रिय हो जाती है। अतः वयस्कों में इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता।
परिणामतः वयस्कों में यह केन्द्र भी किसी उपयोग का नहीं रह जाता,जब कि बालकों में
अति आवश्यक है। इस विशिष्ट ग्रन्थि के सम्बन्ध हमारा योगशास्त्र और भी बहुत कुछ
संकेत देता है। वस्तुतः यह मातृकाग्रन्थि है, जिसका उपयोग आगे चल कर साधकों के लिए
सहायक और उपयोगी है, और यह उपयोग आजीवन के लिए है,न कि केवल वचपन में। साधक को
निरापद साधना-पथ पर प्रशस्त करने में इस ग्रन्थि का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
हाँ,एक्यूप्रेशर चिकित्सा के उद्देश्य से अविकसित लक्षण वाले बच्चों का उपचार इस
विन्दु से अवश्य करना चाहिए।
v क्रमांक 29 नाभिकेन्द्र का है,जिसके बारे में
विस्तृत रुप से अलग (नाभिकेन्द्र) अध्याय में जानकारी दी जायेगी। आवश्यकतानुसार
तलवे में भी इसका उपयोग किया जाता है।
v क्रमांक 32 का नाम शक्तिकेन्द्र है।
वास्तव में इस नाम का कोई अंग तो शरीर में होता नहीं। इसका उपयोग
शीतांगता,सुस्ती,बैचैनी,अतिशय थकान,निम्न रक्तचाप आदि की स्थिति में आवश्यकतानुसार
किया जाना चाहिए।
v ऊपर गिनाये गये केन्द्रों के अतिरिक्त
सभी प्रतिबिम्ब केन्द्रों का यथा नाम अवयव सम्बन्ध है। अतः व्याधि-विनिश्चय हेतु
पूर्व वर्णित विधियों से ही उन सभी का उपयोग किया जाना चाहिए। आगे यहां, सुविधा के
लिए दोनों तलवों से सम्बन्धित सभी प्रतिबिम्ब केन्द्रों (चित्रांक 22 मुख्य) की
तालिका प्रस्तुत है।
ध्यातव्य है कि यही तालिका समान नाम-रुप से दोनों हथेलियों
के लिए भी प्रयुक्त होती है।
क्र.
|
अवयव
सम्बन्ध
|
Organs
|
१.
|
मस्तिष्क
|
Brain
nerves
|
२.
|
मानसिक
नसें
|
Mental
nerves
|
३.
|
पीयूष
ग्रन्थि
|
Pituitary
gland
|
४.
|
चेतना
ग्रन्थि
|
Pineal
gland
|
५.
|
ललाट
|
Forehead
|
६.
|
गला
|
Throat
|
७.
|
गर्दन
|
Neck
|
८.
|
अवटुका
ग्रन्थि
|
Thyroid,
parathyroid
|
९.
|
मेरुदण्ड
|
Spinal
cord
|
१०.
|
अर्शग्रन्थि
|
Piles
gland
|
११.
|
पौरुषग्रन्थि
|
Prostate
gland
|
१२.
|
गर्भाशय
|
Uterus
|
१३.
|
जननेन्द्रिय
|
Penis
& Vagina
|
१४.
|
अण्डाशय
|
Ovaries
|
१५.
|
शुक्रपिण्ड
|
Testes
|
१६.
|
मेरुदण्ड
का निचला भाग
|
Lower
lumber & lymph
|
१७.
|
कमर,घुटना,जांघ
|
Hip,
knee, Thigh
|
१८.
|
मूत्राशय
|
Urine
bladder
|
१९.
|
छोटीआंत
|
Small
intestine
|
२०.
|
बड़ीआंत
|
Large
intestine
|
२१.
|
आन्त्र
पुच्छ
|
Appendix
|
२२.
|
पित्ताशय
|
Gall
Bladder
|
२३.
|
यकृत
|
Liver
|
२४.
|
कंधा
|
Shoulders
|
२५.
|
अग्न्याशय
|
Pancreas
|
२६.
|
वृक्क(गुर्दे)
|
Kidney
|
२७.
|
आमाशय
|
Stomach
|
२८.
|
अधिवृक्क
|
Adrenal gland
|
२९.
|
सूर्यकेन्द्र
|
Solar
Plexus
|
३०.
|
फेफड़ा
|
Lungs
|
३१.
|
कान
|
Ear
|
३२.
|
शक्तिकेन्द्र
|
Energy
point
|
३३.
|
अन्तःकर्ण
|
Ear nerves
|
३४.
|
नाक
|
Nose
|
३५.
|
आंख
|
Eye
|
३६.
|
हृदय
|
Heart
|
३७.
|
प्लीहा
|
Spleen
|
३८.
|
मात्रिका
ग्रन्थि
|
Thymus
gland
|
(2)
दोनों हथेलियाँ- प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूहों में
सुविधा और सक्रियता के क्रम में पैर के तलवों के बाद हथेलियों की बारी आती है,या
कह सकते हैं कि तलवे और हथेलियों का एक समान महत्त्व है। अमेरिकन रिफ्लेक्सोलॉजी
के ये ही चारो आधार हैं। किन्तु अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि तलवे और तलहथियों
का महत्त्व समान होते हुए भी थोड़ा अन्तर अवश्य है। कुछ केन्द्र तलवे में अधिक
सक्रिय पाये जाते हैं,तो कुछ तलहथी में। यह बात अलग है कि तलवे का आकार हथेली की
तुलना में थोड़ा बड़ा होता है,इस कारण व्यावहारिक दृष्टि से विन्दु-विनिश्चय में
भी थोड़ी सुविधा होती है;किन्तु दूसरी ओर यह बात भी प्रासंगिक है
कि चलने-फिरने में अधिक दबाव पड़ने के कारण,तलवे के केन्द्रों में पायः
निश्क्रियता पायी जाती है,खास कर उन लोगों में तो अवश्य जो ज्यादातर नंगे पांव
चलने के अभ्यासी हैं । ठीक यही स्थिति श्रमिक वर्ग में हथेलियों की भी होती है।
अतः उपयोगिता की दृष्टि से दोनों को बिलकुल समान महत्त्व देना चाहिए,और जहां अधिक
सक्रियता प्रतीत हो,प्रयोग करना चाहिए।
तलहथी
में पायी जाने वाली विन्दुओं की संख्या और स्थिति (व्यवस्था)ठीक तलवे की तरह ही है। यही कारण है कि अलग से इसकी तालिका प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
विन्दु
संख्या 11 से 15 तक,जिस प्रकार तलवे से बाहर हैं,उसी प्रकार यहां भी हथेली से बाहर
ही हैं। पांवों में टखने का जो स्थान है,वही स्थान हाथों में मणिबन्ध खंड (कलाई) का
है। ध्यान से देखा जाय तो,ये सभी सूक्ष्म वनावट दोनों जगह समान मिलेंगे। अतः समझने
और व्यवहार करने में किसी तरह की कठिनाई नहीं होनी चाहिए। तलवे की अंकाकृति
चित्रांक 23-1 एवं अंगाकृति चित्रांक 23-2 और 23-3 एवं तत्स्पष्टी हेतु दिये गये
अन्यान्य चित्रांकों को ठीक से समझ लेने के बाद,तदनुसार बड़ी ही सहजता से हथेलियों
के सभी केन्द्रों को समझा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त चित्रांक 23-4 में हथेली के दो विशिष्ट वन्दुओं
को दिखलाया गया है-सूर्य केन्द्र और शक्ति केन्द्र के नाम से।
इसके
बाद चित्रांक 23-5 में हथेली के विपरीत भाग को दिखाया गया है। चित्रांक 23-6 में चारो
चैनलों (तत्त्वस्थल)की स्थिति को दर्शाया गया है,जो ठीक तलवे की तरह ही है,और उनके
व्यवहार का नियम और तरीका भी वैसा ही है,अतः इसके लिए तलवे समूह में बतलाये गये
नियमों का ही अवलोकन करना चाहिए।
अन्य
केन्द्रों (17,24,30,38)आदि की स्थिति और उपयोग-प्रक्रिया भी वैसी ही है। क्रमांक
16 के सम्बन्ध में आशंका जतायी जा सकती है,क्यों कि तलवों में इसका स्थान एड़ी
में(बगल में 18 के पास)है,जब कि हथेली में बात ऐसी नहीं है। कलाई में मणिबन्ध
स्थान पर क्रमांक 16 है। अतः यहीं उपचार करना चाहिए। कुछ विशेषज्ञों की राय है कि
इसकी सक्रियता कलाई पर विपरीत भाग में (बाहर)पायी जाती है। अतः व्यवहार-काल में
इसकी परीक्षा कर लेनी चाहिए।
क्रमांक 10 के सम्बन्ध में भी यही बात
है। तलवे में इसका स्थान ठीक एड़ी में अर्द्धचन्द्राकार क्षेत्र युक्त है,किन्तु
कलाई में क्रमांक 11 से एक सुन(Tsun)ऊपर
है। इसके व्यवहार की भी विशेष विधि है- कलाई के गड्ढेदार भाग पर(जहां क्रमांक 10
अंकित है)अंगूठा रख कर,ऊपर (अंगुलियों की दिशा में) दबाव डालना चाहिए,तभी अर्शरोग
में उचित लाभकारी होता है। नीचे की ओर धक्का देते हुए दबाव देने से उसका प्रभाव
क्रमांक 11 की ओर सरक जाता है। हालाकि इसके कारण कुछ नुकसान नहीं होता,किन्तु
क्रमांक 10 पर उपचार का लाभ भी नहीं मिल पाता।
क्रमांक 28 (अधिवृक्क) (Adrenal gland ) के सम्बन्ध में भी विचार कर लेना
आवश्यक है। तलवे में यह क्रमांक 26 के ठीक ऊपर है,जो उचित ही है। तदनुसार हथेली
में भी क्रमांक 26 के ऊपर ही होना चाहिए। डॉ.देवेन्द्रवोरा आदि कई एक्यूप्रेशर
विशेषज्ञों ने इसे यहीं माना है जो
तर्कसंगत भी है—क्रमांक 28 अधिवृक्क का प्रतिबिम्ब केन्द्र जैसा है,और
अधिवृक्क का स्थान शरीरशास्त्र(Anatomy) के अनुसार
वृक्कों(गुर्दे-Kidney) के ऊपर ही है। अतः क्रमांक 28 को
क्रमांक 26 के ठीक ऊपर ही होना चाहिए। किन्तु इस सम्बन्ध में गुरदेव श्री मणिभाईजी
का विचार है कि क्रमांक 28 का स्थान हथेली में तर्जनी अंगुलियों के नीचे (क्रमांक
35 से आधा टसुन नीचे) होना चाहिए। अतः मतान्तर की स्थिति में व्यावहारिक तर्क को
ही प्रश्रय देना चाहिए। रोगी में परीक्षा करके ही इस विन्दु का निश्चय करना उचित
होगा। हो सकता है, किसी में पूर्व स्थान पर,तो किसी में पर स्थान पर प्राप्त हो।
चित्रांक
23-8 में एक और नयी चीज देखने को मिल रही है,जो तलवे के चित्रांकों में नहीं है।
वह है मध्यमा अंगुली का मध्य पोरुआ का बाहरी हिस्सा,जिसे जरा मोटा करके दिखाया गया
है। यह प्रतिबिम्ब स्थल है,जिसका सम्बन्ध गले और फेफड़े से है। इसका उपयोग
जुकाम,खांसी और टॉन्सिलाइटिस में किया जाता है। इस पर उपचार करने का तरीका है-
अंगूठे और तर्जनी के सहारे मध्यमा अंगुली के इस अंश को दोनों ओर से यथा सह्य दबाव
देना। उक्त चित्रांक 23-8 में कुछ और विन्दु हैं – स्नायुतन्त्र सम्बन्धी,जो सभी
अंगुलियों के अग्रभाग पर काली मोटी लकीर से दिखलायी गयी है। इन विन्दुओं को
चित्रांक 23-1,2 में भी दिखलाया गया है,फिर भी महत्ता की दृष्टि से पुनः चर्चा की
जा रही है। इस स्थिति को तलवों वाले
चित्रांक 22-1,2 में भी यथास्थान दिखलाया गया है। व्यवहार का तरीका और कारण वैसा
ही है। इसकी स्पष्टी वहीं चित्रांक 22 से ही करनी चाहिए। चित्रांक 23-9 विशेष कर बालकों के लिए
है,जो प्रायः विस्तर गीला करते हैं।
नोटः- 1) उपर्युक्त सभी विशिष्ट बातों के अतिरिक्त शेष
बातें तलवे की तरह ही हैं। अतः दोनों समूहों का अध्ययन-मनन साथ-साथ ही होना चाहिए।
2)
हथेलियों के चित्रांकों में क्रमांकों की तालिका अलग से यहां नहीं दी जा रही
है,क्यों कि तलवों की तालिका ही उपयुक्त है।
3)
नंगे पांव चलने के अभ्यासियों का उपचार तलवे में करने के वजाय,हथेली में करना उचित
और आशुकारी होगा।
4) सामान्य जन के उपचार क्रम में भी तलवे पर किसी
दाब-उपकरण का प्रयोग आवश्यक है,ताकि सही ढंग से दबाव पड़ सके,किन्तु हथेलियों की
बनावट अपेक्षाकृत कोमल होती है। अतः इसके लिए दाब उपकरण अत्यावश्यक नहीं है। सीधे
शिआत्सु विधि (अंगुली से दबाव ) ही प्रयोग करना चाहिए।
क्रमशः....
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