नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)

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(3) पृष्ठ भाग-   नाड्योपचार पद्धति में प्रतिबिम्ब केन्द्र समूहों में अब बारी है- पृष्ठप्रदेश की। एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से सम्पूर्ण मानव-शरीर को दो तरह से,दो भागों में बांटा गया है-क-दायें-बायें,और ख- आगे-पीछे । दो विभाजनों के उपयुक्त चार उपविभागों के अन्तर्गत ही समस्त प्रतिबिम्ब-केन्द्रों का अध्ययन किया जाता है। उन्हीं में एक है- पृष्ठप्रदेश।
            इस खंड के सभी प्रतिबिम्ब-केन्द्रों का परिचय प्राप्त करने से पूर्व इस पूरे खंड के सम्बन्ध में थोड़ी जानकारी अत्यावश्यक है,क्यों कि एक्यूप्रेशर चिकित्सा की दृष्टि से यह काफी महत्त्वपूर्ण खंड है,साथ ही काफी जटिल और संवेदनशील भी। अतः बिना गहन ज्ञान के इस पर उपचार करना,इष्ट के वजाय अनिष्टकर ही साबित होगा। सच पूछा जाय तो योगशास्त्र और प्रत्यत्क्षशारीरम्(Anatomy) के अनुसार इसकी गहराई में बहुत सी बातें हैं,बहुत सी सावधानियां हैं,जो विशेषकर योग-साधकों को जानने योग्य हैं। सामान्य जन को उसकी खास आवश्यकता नहीं है,फिर भी संक्षेप में कतिपय उन बातों को यहां स्पष्ट कर देना अत्यावश्यक है, जिनका ज्ञान और ध्यान एक श्रेष्ठ नाड्योपचार-विशेषज्ञ को अवश्य रखना चाहिए।
            अध्ययन की सुविधा के लिए उक्त पृष्ठ-प्रदेश को दो भागों में बांटा जा रहा है-
(क)मेरुदण्ड(Spinal cord)-  जैसा कि चित्रांक 24 क-ख में दिखलाया गया है। चित्रांक 24 क में सामने से पूरे अस्थिसंस्थान को दिखलाया गया,जिसके अन्तर्गत मेरुदण्ड को स्पष्ट देखा

जा सकता है और चित्रांक 24 ख में पृष्ठ प्रदेश का दृश्य है,जिसमें मेरुदण्ड को पांच भागों में विभक्त दिखाया गया है ।


मेरुदण्ड सिर्फ मानव-शरीर का ही मेरुदण्ड (आधार) नहीं है,प्रत्युत योग-साधना का भी मेरुदण्ड है। इसकी बनावट,कार्य-प्रणाली,महत्ता तथा उपयोगिता का गहन ज्ञान प्राप्त किये वगैर,अच्छा चिकित्सक बनना तो दूर,योग साधक बनने का भी सवाल नहीं है। हालांकि आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान काफी गहराई से इसका अध्ययन-मनन कर रहा है,फिर भी बिलकुल बौना भौतिकवाद(और इस पर आधारित आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान) मेरुदण्ड के वास्तविक ज्ञान और महत्त्व से आज भी अछूता है। वस्तुतः यह विषय अध्यात्म-विज्ञान का है, जो भौतिक-विज्ञान से अपरिमित गहन और सूक्ष्म है। एक्यूप्रेशर उस गहन विज्ञान का ही अति क्षुद्र (लघु) अंश है,जो सूक्ष्म आधार पर आधृत होते हुए भी काफी स्थूल है। अध्यात्म विज्ञान (योगविज्ञान) की पृष्ठभूमि पर आधुनिक भौतिक विज्ञान का अध्ययन यदि किया जाय,तो शायद अधिक स्पष्ट हो सकेगा। हालांकि सामान्य एक्यूप्रेशर के अभ्यासियों और जिज्ञासुओं के लिए अधिक गहराई की आवश्यकता नहीं है। फिर भी आधुनिक विज्ञान दृष्ट, वर्णित, अन्वेषित,ज्ञान तो अवश्य ही रखना चाहिए। कुछ ऐसी ही बातों पर यहां संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा है।
 मेरुदण्ड एक अति सुकुमार अंग है। इतना नाजुक,इतना संवेदनशील कि हम इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। अतः इन प्रतिबिम्ब केन्द्र समूहों पर उपचार (प्रयोग) बड़ी दक्षता और सावधानी पूर्वक करना चाहिए। दाब उपचार तो अन्ततः एक प्रकार का उपचार ही है, सामान्य स्पर्श के लिए भी थोड़ा विचार आवश्यक है। किस व्यक्ति द्वारा,किसी व्यक्ति को,किस स्थिति और किस काल में स्पर्श या कि उपचार किया जा रहा है- इसका ध्यान रखा जाना अति आवश्यक है। यदि अधिकारवाद की बात की जाय,तो कह सकते हैं कि हर व्यक्ति,हर व्यक्ति के मेरुदण्ड को छूने तक का अधिकारी नहीं है। आधुनिक विचारवादी इसे छूआछूत की बात कह कर विरोध जता सकते हैं,किन्तु सच पूछा जाय तो इन आधुनिकों को छूआछूत की असली परिभाषा, सीमा,तथा नियम की जरा भी जानकारी नहीं है। एक ओर हम वायरस (जीवाणु) से लेकर डी.एन.ए.तक की बात कर ले रहे हैं,ऑपरेशन-थियेटर से लेकर कम्प्यूटर-रुम तक में,शुचिता की बात कर लेते हैं,पर दैनन्दिनी में अधिकार और अतिक्रमण को नासमझी पूर्वक इनकार भी करते रहते हैं।
ध्यातव्य है कि मेरुदण्ड-प्रदेश से ग्रहण-संप्रेषण का कार्य निरंतर होते रहता है। इस कारण भी इसकी सुरक्षा आवश्यक है। स्पर्शक और स्पर्शी के खान-पान,रहन-सहन,विचार आदि के तालमेल का भी ध्यान रखा जाना चाहिए- खास कर सावधानी के तौर पर। जहां तक स्थिति और काल का सवाल है- बहुत देर से सोये हुए व्यक्ति या गहरी नींद में सोये हुए व्यक्ति के मेरुदण्ड का हठात (सीधे,जल्दी) स्पर्श कदापि नहीं करना चाहिए। हालांकि प्रकृति द्वारा इस अति संवेदनशील अंग की सुरक्षा का पर्याप्त प्रबन्ध किया गया है,फिर भी सावधानी के तौर पर इन सारी बातों का ध्यान रखना चाहिए।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति में मुख्य रुप से प्रयुक्त होने वाला खंड है—मेरुदंड का वाम और दक्षिण प्रान्त। गर्दन,पीठ और कमर की मध्य रेखा में अंगुली से टटोलने पर,डंडे जैसी कड़ी और खड़ी चीज जो मालूम पड़ती है,उसे ही रीढ़ की हड्डी, मेरुदण्ड,पृष्ठवंश,Vertebral Coleman आदि नामों से जाना जाता है। ऊपर से यह दण्ड सिर के पिछले भाग से प्रारम्भ होकर,नीचे नितम्ब (back of Pelvic) तक एक श्रृंखला के रुप में चली जाती है,जैसा कि चित्रांक 24 क-ख में दर्शाया गया है। चित्रांक 24 क में प्रत्यक्षशारीरम् (anatomy)  का अस्थिसंस्थान—कंकालतन्त्र (Skelton System)  दर्शाया गया है,जिसमें हम देखते हैं कि शरीर का पूरा ऊपरी भाग इसी पर आधारित है। चित्रांक 24 ख इसी बात को पीछे से स्पष्ट करता है।
एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के आधार-स्तम्भ—चौदह शक्ति-संचार-पथ (14 meridians) में दो प्रधान पथ—संतुलनात्मक एवं नियंत्रक (Governing Vessel Meridian & Conception Vessel Meridian) में भी सर्व प्रधान (GVM) इस मेरुदंडीय भाग से ही होकर गुजरता है। इस प्रकार इसकी महत्ता और उपादेयता स्वतः स्पष्ट है।
एक वयस्क पुरुष में मेरुदण्ड की औसत लम्बाई 28 ईंच,एवं स्त्री में 24 ईंच हुआ करती है। सामान्यतया 60 से 70 सें.मी. लम्बाई वाले शरीर की तुलना में रीड़ की हड्डी की लम्बाई का अनुपात 1: 2.4 – 2.6 (एक अनुपात दो दशमलव चार से दो दशमलव छः)पाया जाता है। ध्यान देने की बात है कि यह पूरी लम्बाई अपने आप में अकेली या स्वतन्त्र नहीं है, बल्कि श्रृंखलावद्ध है। इसका निर्माण छोटे-बड़े छब्बीस टुकड़ों के मेल से हुआ है। इसमें भी नीचे वाली दो अस्थियां कई अन्य छोटी-छोटी अस्थियों के मेल से बनी हैं। इस प्रकार मेरुदण्ड रुपी माला (श्रृंखला) के सभी मनकों(टुकड़ों) की गणना करने पर कुल संख्या 33 हो जाती है। इन्हें कशेरु या मोहरा कहते हैं। ग्रीवा एवं धड़ को सुविधापूर्वक गतिशील बनाने में इन कशेरुओं का ही कमाल है। यदि इनकी बनावट मोहरेदार न होकर,एकाकार होती,यानी दृढ़ लम्बवत होती तो उक्त भाग में गति कदापि सम्भव न हो पाती। उक्त 33 केशेरुओं (Vertebrae) का अन्तर्विभाजन स्थिति और स्थान के अनुसार पांच भागों में किया गया है। इस विभाजन में भी असमानता है। यथा- सर्वप्रथम ऊपरी भाग में 7,इसके बाद पृष्ठभाग में 12,कटि भाग में 5,एवं इससे भी नीचे वस्तिगह्वर की पिछली दीवार में त्रिकास्थि तथा गुदास्थि का निर्माण करने वाले क्रमशः 5 और 4 कशेरु (मनके) हैं। स्थानानुसार इनके नाम भी अलग-अलग हैं,जैसा कि निम्नांकित तालिका में स्पष्ट किया गया है — उक्त पांच खंडों में ऊपर के तीन खंड स्वतन्त्र सरीके,गत्यमान होते हैं,अर्थात प्रारम्भ के 24 कशेरु स्वतन्त्र हैं,और इनमें लचीलापन पर्याप्त है। किन्तु बाद यानी चौथे और पांचवें खंड के कुल 9 कशेरु आपस में मिलकर,एक जैसा बने रहते हैं,और इनमें ऊपरी कशेरु की तरह लचीलापन नहीं होता है। सामान्यतया इन कशेरुओं की बनावट अंगूठी की तरह है। ये सभी अंगूठियां (कशेरु) एक के ऊपर एक खड़ी होकर,अपने बीच एक लम्बी, पोली, लचकदार नलिका का निर्माण करती है,जिसे कशेरु-नलिका कहते हैं। इस सुव्यवस्थित अति सुरक्षित नलिका का काफी महत्त्व है—

विभाग
कशेरु-संख्या
कशेरु-नाम
Name of Vertebrae
1.
7
ग्रीवा कशेरु
Cervical
2.
12
पृष्ठ कशेरु
Thoracic
3.
5
कटि कशेरु
Lumber
4.
5
त्रिकास्थि कशेरु
Sacral
5.
4
गुदास्थि कशेरु
Coccyx















योगशास्त्र एवं चिकित्साशास्त्र में भी। योगशास्त्रानुसार इस अस्थि-निर्मित नलिका के भीतर क्रमशः कम होती गयी परिधि वाली तीन और भी नलिकायें हैं। वस्तुतः ये ही प्रधान नाडियां हैं। सबसे मध्य में सुषुम्णानाडी है,जिसके इर्द-गिर्द दायें-बायें क्रमशः पिंगला और इडा नाडी है। योगियों के अनुसार जो पन्द्रहवी नाड़ी है उसका नाम है ब्रह्मनाडी,जो सुषुम्णा के भीतर है। किन्तु इससे हमारे एक्यूप्रेशर चिकित्सा का सीधा(प्रत्यक्ष) सम्बन्ध नहीं है। अतः इसके बारे में यहां विशेष कुछ कहना अप्रासंगिक होगा। एक्यूप्रशर का सम्बन्ध तो चौदहवीं यानी सुषुम्णानाडी तक ही है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की भाषा में कहा जाय तो कह सकते हैं कि कशेरु नलिका के भीतर ही स्नायुसंस्थान (Nervous System) का मुख्य भाग मेरुरज्जु (Spinal Cord) स्थित होता है। इसी स्थान से 31 वातनाडियों के जोड़े (pair of nervous) निकलकर,समस्त संस्थानों का नियंत्रण और संचालन करते हैं। मस्तिष्क को सूचनायें इन्हीं नाडियों द्वारा मिलती है,और पुनः मस्तिष्क द्वारा दिये गये आदेशों का पालन  भी इन्हीं से होता है। सायटिका जो आम रुप से एक व्याधि के नाम से जानी जाती है,वास्तव में वातसंस्थान(तन्त्रिकातन्त्र)(Nervous System) की एक प्रधान नाडी है,जो मेरुरज्जु (spinal cord) के चौथे और पांचवें लम्बर,तथा तीसरे सेकरल से निकलकर नीचे की ओर आती है। कई प्रकार के मांसपेशियों के दर्द (defend type of muscular pains) इसी सियाटिका नाड़ी (Sciatica  nerve) की गड़बड़ी से उत्पन्न होती है। मांसपेशियों के शक्ति-प्राप्ति का मुख्य स्रोत मेरुरज्जु ही है। मानव शरीर(कंकाल)की मुख्य धुरी है यह। शरीर का सर्वाधिक बोझिल(वजनी) अंग सिर है,जिसका पूरा भार इस मेरुदण्ड को ही वहन करना पड़ता है। वक्षस्थल की बारह जोड़ी पर्शुकायें (Ribs) रीढ़ की हड्डी के पृष्ठकशेरु (Thoracic vertebrae) के साथ ही जुड़ी होती है। शरीर को गतिशील और लचकदार बनाने में इनका पूरा योगदान है।
               इस प्रकार हम देखते हैं कि मेरुदंड का काफी अधिक महत्त्व है। यही कारण है कि नाड्योपचार पद्धति में अन्य सभी प्रतिबिम्ब केन्द्र समूहों से इसकी उपयोगिता अधिक मानी जाती है,फिर भी चुँकि यह तलवे-तलहथी की तरह सहज-सुगम नहीं है, तथा विशेष सावधानी और अनुभव की अपेक्षा रखती है,इस कारण वरीयता क्रम में तीसरे स्थान पर इसे रखा गया है। क्यों कि एक्यूप्रेशर जन सामान्य की चिकित्सा पद्धति है।  सामान्य जन उसे सहजता से ग्रहण कर सकता है,जिसमें सरलता और अन्य सुविधायें हों। यही कारण है कि इस मामले में रिफ्लेशोलॉजी(तलवे-तलहथी) आगे निकल जाता है। फिर भी गहन एक्यूप्रेशर- विचार से मेरुदंड की उपादेयता कम थोड़े ही है।
                    एक्यूप्रेशर विशेषज्ञों का दावा है कि शरीरगत 90% व्याधियों का उपचार सिर्फ मेरुदण्ड समूह के प्रतिबिम्ब केन्द्रों से सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
                     मेरुदण्ड की बनावट और महत्त्व की संक्षिप्त चर्चा के बाद,अब इस पर स्थित विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर विचार किया जा रहा है। चित्रांक 24 क-ख में मेरुदण्ड के बनावट को आगे एवं पीछे से स्पष्ट किया गया है।
पूर्व अध्याय में चित्रांक 18 में दिखलाया गया है कि किस प्रकार एक सीधी रेखा की तरह सिर के ऊपरी घेरे से होकर, गुद-प्रदेश तक नियंत्रण-शक्ति-संचार-पथ(GVM) गुजरा है। यह संचार-पथ वस्तुतः इस मेरुदण्डीय भाग पर ही है, जैसा कि पूर्व में भी कहा जा चुका है – इस पर अनेक प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं। ध्यातव्य है कि नियंत्रण संचार पथ सभी मेरिडियनों का नियंत्रण करने के साथ-साथ खुद का भी नियंत्रण करता है,अतः स्वाभाविक है कि यहां भी प्रतिबिम्ब केन्द्र हों। उन अनेक केन्द्रों में 8 केन्द्र अति महत्त्वपूर्ण एवं तुलनात्मक दृष्टि से अति सक्रिय हैं,जिनका परिचय यहां दिया जा रहा है।
वस्तुतः यह चित्रांक 18 का ही अंश है, नियंत्रण-शक्ति-संचार-पथ (GVM) पर (कटि भाग से लेकर,ऊपर पीठ को पार करते हुए,नाक और उसके नीचे,ऊपरी होठ तक) कुछ अति संवेदनशील केन्द्रों को घेर कर दिखलाया गया है,जैसा कि आगे दिये गये चित्र में हम देख रहे हैं।  इन केन्द्रों को क्रमशः नीचे से ऊपर की ओर आगे की तालिका में भी स्पष्ट किया जा रहा है—

केन्द्रांक
अंग
व्याधि-सम्बन्ध
1
कटिप्रदेश
कटिशूल,शिरोशूल,नपुंसकता,जननांग व्याधि
2
स्नायुमंडल
स्नायविक विकार,अर्धांगवात,लकवा
3
फेफड़े
श्वांस,कास,नजला-जुकाम,आधाशीशी आदि
4
ग्रीवा
ज्वर,श्वांस-कास,जुकाम,शिरोशूल,शीतपित्ती
5
ग्रीवोर्द्ध्व
नकसीर,नजला-जुकाम,नासार्श आदि
6
ब्रह्मरन्ध्र
तीब्र एवं जीर्ण शिरोशूल,चक्कर,अनिद्रा,अर्श
7
ललाट का ऊपरी भाग
सिर एवं नासा रोग
8
नासा
चक्कर,बेहोशी,नशाखोरी,हिस्टीरिया,मिर्गी आदि

मेरुदण्ड के नियंत्रण-शक्ति-संचार-पथ(GVM)पर स्थित आठ विशेष महत्त्वपूर्ण प्रतिबिम्ब केन्द्रों के परिचय के बाद,उसके दायें-बायें(अगल-बगल)के केन्द्रों से परिचय करना भी अति आवश्यक है,क्यों कि मेरुदण्ड-प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूह के ये प्रधान केन्द्र हैं। इनकी स्थिति और स्थिति का कारण अतिशय सूक्ष्म और गहन है।
        योगशास्त्रानुसार विदित है कि समस्त नाडियों की साम्राज्ञी—सुषुम्णा  के बायें-दायें उसकी सहयोगिनी नाडियां—इडा-पिंगला स्थित हैं। ध्यातव्य है कि ये दोनों बायें-दायें होते हुए भी सीधी उर्ध्व रेखा में गमन नहीं करतीं,प्रत्युत सर्पाकार(बलखाती हुयी)चलती हैं। फलतः कभी इडा दायें चली आती है,तो पिंगला बायें। दिशा-परिवर्तन का यह क्रम भी पूरे मार्ग में क्रमबद्धता पूर्वक कई बार होता है, जिसे चित्रांक 24 ग में स्पष्ट किया गया है। मेरुदण्ड के मूल भाग में जहां से सुषुम्णा प्रारम्भ होती है, वहीं से इडा भी चलती है- वायीं ओर से,और वहीं से पिंगला भी चलती है- दायीं ओर से। थोड़ा आगे आकर,दोनों एक दूसरे को काटती हुयी,दिशा-परिवर्तन करती है, और बार-बार इस सर्प-गति की आवृत्ति होती है। परिणामतः प्रत्येक बार कुछ कोणदार स्थल बनते हैं,जिसे चित्र में भी स्पष्ट दर्शाने का प्रयास किया गया है। उक्त स्थिति को आधुनिक शरीरशास्त्र(Anatomy) की दृष्टि से देखने पर हम पाते हैं कि अंगूठीदार कुल 33 मोहरों से पूरा मेरुदण्ड बनता है। स्वाभाविक हैं कि 33 अंगूठियां, क्रम से यदि एक-दूसरे पर रखी जायें तो प्रत्येक के बीच हल्की दरार (सन्धिस्थल)होगी। इस स्थिति को चित्रांक 24 घ में स्पष्ट देखा जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के मेरुदण्ड को टटोल कर अनुभव किया जाय,तो भी ये बातें स्पष्ट हो सकती हैं।


 मेरुदण्ड प्रतिबिम्ब केन्द्र इन्हीं मिलन-विन्दुओं(सन्धि-स्थल) पर स्थित है। कशेरुओं की संख्या कुल 33 है,एवं उनके दोनों ओर (दायें-बायें)सन्धि-स्थल पर एक एक प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं,अतः 33x2=66 केन्द्र हुये—दोनों ओर मिलाकर। किन्तु गिनती में 66 होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से 33 ही हैं। यानी प्रत्येक कशेरु के दायें- बायें स्वतन्त्र रुप से स्थित एक-एक केन्द्र, एक और एक मिलकर दो नहीं होते, बल्कि एक ही का काम करते हैं।उदाहरणतया—बायें भाग में आँख का प्रतिबिम्ब केन्द्र है जिस कशेरु पर,तो उसके दायें भाग में भी आँख का ही केन्द्र होगा। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उक्त कशेरु आँख से सम्बन्धित है। इसी भांत प्रत्येक कशेरु के दायें-बायें स्वतन्त्र रुप से एक-एक प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं,जो अलग-अलग अवयवों, व्याधियों, तन्त्रों(system) से सम्बन्ध रखते हैं,जिसकी तालिका आगे दी गयी है। इन प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर उपचार करने का तरीका भी औरों से बिलकुल भिन्न है। रोगी को पेट के बल लिटा कर,या सीधे पद्मासन में बैठाकर,जिस कशेरु पर उपचार करना हो,उसे ठीक से टटोलकर समझ लेना चाहिए। फिर चिकित्सक अपने दोनों हाथ के अंगूठे से आवश्यक कशेरु के दोनों ओर के विन्दु पर समान रुप से एक साथ दबाव दे। ऐसा नहीं कि बारी-बारी से दायें-वायें उपचार किया जाय,या सिर्फ किसी एक ओर ही उपचार करके छोड़ दिया जाय,यह सोचकर कि दोनों तरफ का केन्द्र समानधर्मी(एक सा गुणवाला) तो है,फिर क्या जरुरत है दोनों तरफ उपचार करना ! जैसा कि पूर्व में मेरुदण्ड की वनावट,महत्ता,और संवेदनशीलता के साथ-साथ स्पर्श के अधिकार की बात कही गयी है,जहाँ तक सम्भव हो,इन बातों का ध्यान यदि रखा जाय,तो लाभ अधिक होता है,और अकारण ही अज्ञात रुप से हो जाने वाली हानि से भी बचा जा सकता है।  हालाकि आज की सभ्यता और आधुनिक व्यवहारिकता की दृष्टि से यह जरा कठिन और असंगत जैसा प्रतीत अवश्य होता है। फिर भी सावधानी के तौर पर उपचार काल में चिकित्सा में काम आनेवाले नायलॉन के दस्ताने का व्यवहार किया जा सकता है। ये दस्ताने पूरी हथेली के लिए, एवं अलग-अलग अंगुलियों के लिए उपलब्ध हैं,डॉक्टरी सामानों के विक्रेताओं के यहां।
       जहां तक उपकरणों का सवाल है,किसी अन्य उपकरणों का प्रयोग मेरुदण्ड पर नहीं करना चाहिए। इसके लिए विशेष प्रकार का मेरुदण्ड-उपचार-उपकरण ही उचित है। सर्वोत्तम तरीका है—अंगुठे द्वारा ही उपचार करना।
            अब,मेरुदण्ड के 33 मनकों(कशेरुओं)पर दायें-बायें स्थित विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों की क्रमशः ऊपर से नीचे ओर की तालिका दी जा रही है,जिसमें क्रमांकों (प्रतिबिम्ब केन्द्रों के आगे अवयव-सम्बन्ध और कतिपय व्याधियों की भी चर्चा की गयी है —
           
क्रमांक
अवयव-सम्बन्ध
1.
गर्दन के ऊपर के सभी अंग—नाक,आंख,कान,दांत,मुंह, ललाट, जीभ, मस्तिष्क आदि
2.
नाक से सम्बन्धित व्याधियां
3.
गाल,दांत,कान,चेहरे पर का सम्पूर्ण कोष
4.
मुंह,होठ,नाक,कान की अन्तःनलिका
5.
स्वरयन्त्र(vocal cords),गले के आसपास की ग्रन्थियां, ग्रसनी (Pharynx),
6.
गले की मांसपेशियां,टॉन्सिल,कन्धा
7.
बगल की झिल्लीदार ग्रन्थियां,कुहनी, अवटुकाग्रन्थि(Thyroid glands)
8.
हाथ में कुहनी के नीचे का भाग,श्वांस मार्ग(Trachea),ग्रासप्रणाली (Esophagus)
9.
हृदय,हृदयावरण(Pericardium), हृदय के दोनों अलिंद और निलय के कपाट (Four Valves of the heart)
10.
छाती,फेफड़ा,स्तन,श्वांसनलिका(Trachea)
11.
पित्ताशय(Gallbladder)
12.
यकृत(Liver),रक्तउपादान(RBC,WBC,etc.),नाभीचक्र
13.
आमाशय(Stomach)
14.
आंत का विशिष्ट खंड(Duodenum, Pancreas)अग्न्याशय
15.
प्लीहा(Spleen),डायफ्रॉम(फेफड़े सम्बन्धित)
16.
अधिवृक्क(Adrenal glands)
17.
वृक्क(Kidney)
18.
गर्भाशय(Greeters)
19.
छोटीआंत(Small Intestine)
20.
बड़ी आंत(Large Intestine)
21.
उदर,आन्त्रपुच्छ(Abdomen),(Appendix)
22.
जननेन्द्रिय,जातीयग्रन्थियां,मूत्राशय(Penice ,Vegina, Uterus, Urine bladder, Ovaries, Testis, etc.)
23.
पौरुषग्रन्थि(Prostate glands, Sciatica nerve,)
24.
कमर के नीचे के भाग(Lower lumber)
25.
कटिकशेरुका(Sacral vertebrae)से इन पांचों केन्द्रों का सम्बन्ध है।
26.
तत्सम्बन्धी सभी व्याधियों में –कटिशूलादि ,तथा प्रसववेदनादि में
27.
इनका सामूहिक रुप से प्रयोग होता है।
28.

29.

30.
गुदकशेरुका(Coccyx vertebrae) से इन चारों केन्द्रों का सम्बन्ध है
31.
अतः मलाशय एवं गुदा मार्ग तथा वावासीर,भगन्दर आदि व्याधियों
32.
में इनका प्रयोग किया जाता है।
33.
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नोटः- 1) ध्यातव्य है कि तलवे-तलहथियों (चित्रांक 22 एवं 23)में दर्शाये गये मेरुदण्ड सम्बन्धी केन्द्र पर भी ,सभी कशेरुओं से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर भी, सभी कशेरुओं से सम्बन्धित 33 केन्द्रों के लिए भी,इसी मेरुदण्डतालिका का उपयोग करना चाहिए।आगे चित्रांक 25 क,ख,ग में मेरुददण्ड प्रतिबिम्ब केन्द्रों को दर्शाया गया है,जिसमें क में सीधे पृष्ठभाग पर के 33विन्दु,ख में ग्रीवाप्रदेश और उसके इर्द-गिर्द के विन्दु तथा ग में पैरों में मेरुदण्ड के स्थान को मोटी लकीरों से दिखलाया गया है। इन सबके लिए उक्त तालिका का प्रयोग करना चाहिए।  उदाहरणतया—गुदप्रदेश की व्याधियों में केन्द्रांक 30 से 33 तक का प्रयोग करना है। ये मेरुदण्ड पर कटि भाग से नीचे हैं। इसी भांत पैर में एड़ी के पास , एवं हाथ में मणिबन्ध से ऊपर 1.5 सुन तक ये केन्द्रांक पाये जाते हैं। इसी ग्रीवाकशेरु (Cervical vertebrae) जो मेरुदण्ड के सबसे ऊपरी भाग पर है,तदनुसार पैर एवं हाथ के अंगूठों के बाहरी किनारों पर भी प्रथम पोरुओं पर मेरुदण्ड केन्द्रांक 1 से 7 तक मौजूद है। इस तालिका में निर्दिष्ट क्रम से ही इनका भी उपयोग किया जाना चाहिए।
            2)   मेरुदण्ड पर उक्त प्रतिबिम्ब केन्द्रों के लिए स्थान काफी लम्बा है,किन्तु पैर और हाथ में उसकी तुलना में काफी कम है। फलतः सभी केन्द्रों को स्वतन्त्र रुप से निश्चित कर पाना जरा कठिन है। अतः इनके उपयोग के लिए 33 कशेरुओं के मूल विभागों (जो पांच विभाग इसी अध्याय में मेरुदण्ड परिचयमें बतलाये गये हैं, का सही पहचान करके,प्रयोग किया जाता है। मूल विभागों की पहचान अति सरल है,जैसा कि चित्रांक 24 ख  में स्पष्ट है—अलग-अलग टुकड़ा करके दिखलाया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि केन्द्रांक 1 से 7, 8 से19, 20 से 24, 25 से29,एवं 30से 33तक,अलग-अलग पांच विभाग किये गये हैं। अब यदि गुर्दे सम्बन्धी कोई उपचार पैर एवं हाथ के मेरुदण्ड केन्द्र पर करना है,तो दूसरे पूरे विभाग(8-19) पर उपचार कर सकते हैं,क्यों कि केन्द्रांक 17 गुर्दे से सम्बन्धित है,जो कि मेरुदण्ड के दूसरे खंड में है। सूक्ष्म परख,और अनुभव-अभ्यास हो जाने पर किसी प्रकार की समस्या भी नहीं रहती।
            3)   मेरुदण्ड-प्रतिबिम्ब-केन्द्रों का अवयवादि सम्बन्ध उक्त तालिका में स्पष्ट किया गया है। इन केन्द्रों की स्थिति को चित्रांक 25 क में दर्शाया गया है। यहां चित्र में गणना करने पर हम पाते हैं कि विन्दुओं की संख्या उतनी नहीं है,जितनी होनी चाहिए,किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि चित्रांक गलत है,प्रत्युत चित्र का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि मेरुदण्ड-केन्द्रों की स्थिति का संकेत दे दिया जाय। वस्तुतः मध्य में मेरुदण्ड है,और उसके दायें-बायें,बिलकुल आमने-सामने 33-33 प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं। शरीर पर बड़ी सुगमता से इन कशेरुओं को टटोलकर पहचाना जा सकता है,और आवश्यकतानुसार यथाविधि उपचार भी किया जा सकता है।
            4) पूरे मेरुदण्ड पर कभी-कभी ही उपचार की आवश्यकता महसूस की जाती है, विशेषकर व्याधि-निवारण हेतु नहीं,बल्कि स्वास्थ्य-रक्षण हेतु,जैसे हम नियमित योगासन या व्यायाम करते हैं। पूरे मेरुदण्ड पर उपचार करते समय यह सदा ध्यान रखा जाना चाहिए कि दबाव देने का क्रम हमेशा ऊपर से नीचे की ओर ही हो,न कि नीचे से ऊपर की ओर। यानी क्रमांक 33 से 1 की ओर उपचार-धारा प्रवाहित न किया जाय। एक बैठक में मान लिया 50 बार दबाव देना है सभी केन्द्रों पर,या मेरुदण्ड-चक्र चालित करना है,ऐसी स्थिति में ऊपर—ग्रीवा-खण्ड क्रमांक 1 से प्रारम्भ करके,नीचे गुदप्रदेश पर्यन्त क्रमांक 33 तक(या जहां तक आना आवश्यक हो)आकर,पुनः ऊपर क्रमांक 1 पर चले जायेंगे। यानि बार-बार हाथ उठा-उठा कर चक्रचालन करना चाहिए। इस नियम का पालन अति सावधानी से करना चाहिए,अन्यथा विपरीत फलदायी हो सकता है। स्वास्थ्य लाभ के वजाय हानि हो सकती है,मानसिक विचलन होसकता है। अन्य प्रकार की परेशानियां भी हो सकती है, अतः सावधान।

क्रमशः...


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