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अध्याय 10 का अगला शेषांश...
अध्याय 10 का अगला शेषांश...
(ख)आँख—चेहरे के वाह्य पटल पर स्थित
प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूह में आँखों का भी स्वतन्त्र उपखंड समूह के रुप में स्थान दिया
गया है। ध्यातव्य है कि पंच ज्ञानेन्द्रियों में आँखों का सर्वोत्तम स्थान है। “आँख है तो जहान है”— पुरानी कहावत है। वस्तुतः आँखों
का कुछ ऐसा ही महत्त्व है,जिस कारण यह उक्ति चरितार्थ होती है। प्राकृतिक रुप से
कैमरा और प्रोजेक्टर की तरह शरीर में आँख की स्थिति है,या कहें उससे भी कहीं
अधिक,व्यापक।
आकृति के विचार से तो यह काफी छोटा
है,साथ ही इसकी बनावट भी अति जटिल और सूक्ष्म है। चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से
भी आँखों का बहुत महत्त्व है। अद्यतन पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति हो या प्राचीन
आयुर्वेद शास्त्र,रोग-निदान-क्रम में आँखों की महत्ता और उपयोगिता को नकारा नहीं
जा सकता। नाड्योपचार(एक्युप्रेशर)में तो इसका उपयोग(प्रयोग) और भी बढ़-चढ़कर है।
खासकर रोग-विनिश्चय(विन्दु-विनिश्चय)काल में चिकित्सक की अँगुलियां या उपकरण तो
विन्दु को टटोलने में लगी होती हैं,किन्तु आँखें सामने बैठे रोगी की आँखों और चेहर
पर ही टिकी होती हैं,जहां वह कुछ तलाशता होता है। ऐसा होना भी चाहिए,क्यों कि जहां
दुःखे वहीं दबायें—यही तो एक्यूप्रेशर का मूल मन्त्र है। सच पूछें तो आँखों से ही
प्रतिविम्बित होता है—चिकित्सक द्वारा दिये जा रहे दबाव का क्या, कितना,कहां, कैसा
प्रभाव पड़ रहा है रोगी पर,उसकी आँखें ही बताती हैं। दबाव जनित वेदना की
प्रतिक्रिया सहज रुप से इन आँखों पर ही प्रतिबिम्बित होती हैं,जिसके परिणामस्वरुप
चिकित्सक को सही प्रतिबिम्ब केन्द्र का अन्दाजा सहज ही लग जाता है। यही कारण है कि
चिकित्सक को चाहिए कि निदान और चिकित्सा(विशेष कर निदान काल में तो अवश्य)काल में
रोगी की पलकों और पुतलियों पर अपना ध्यान केन्द्रित रखे। किसी भी केन्द्र पर दिये
जा रहे दबाव का कितना,कैसा प्रभाव पड़ रहा है,यह आसानी से पता लग जायेगा,क्यों कि
उसके अनुसार ही पुतलियां सिकुडती या फैलती हैं,साथ ही पलकें भी अपनी स्वाभाविक गति
को विसार कर,कुछ नये अन्दाज में झपकने लगती हैं,जिसके परिणामस्वरुप अनुभवी
चिकित्सक को रोग-विनिश्चय का काफी कुछ अनुमान लग जाता है। हालांकि अपवाद स्वरुप
कुछ ऐसे भी रोगी मिलते हैं,जिनकी आँखों पर दबाव का विशेष प्रभाव प्रतिलक्षित नहीं
हो पाता। फलतः निदान कर्ता को थोड़ी कठिनाई अवश्य होती है। ऐसा विशेषकर दो
स्थितियों में होता है—एक तो तब जब रोगी कठोर प्रकृति वाला हो,और दूसरे तब जब रोग
कठोर प्रकृति वाला हो,या कि जीर्ण हो। जीर्ण रोगों में आसन्न कष्ट के अभाव की
स्थिति पायी जाती है। इसे हम कह सकते हैं कि पुराने रोगों में तत्सम्बन्धित
प्रतिबिम्ब केन्द्र मृतप्राय (सुप्त) हो जाता है,फलतः प्रथम परीक्षण में आँखों में
प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं हो पाती, किन्तु पूर्व रुप से (अनुभव के आधार पर) निश्चित
केन्द्र पर बारबार परीक्षण करने से यह समस्या भी दूर हो जाती है। यानी आँखों को
बतलाना ही पडता है—वेदना की अनुभूति का माप। किन्तु ठीक इससे विपरीत परिस्थिति
होती है—भावुक और कोमल प्रकृति वाले रोगी, तथा किसी नवीन रोग की स्थिति में। ऐसे
रोगियों की आँखें पल भर में ही छलछला उठती हैं, मुंह से सीत्कार निकल पड़ता
है,ज्यूं ही सही विन्दु पर थोड़ा सा भी दबाव पड़ता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि
रोग-निदान हेतु आँखों का सम्यक् उपयोग है। ध्यातव्य है कि रोगी यदि चश्माधारी हो
तो,निदान काल में उसका चश्मा अवश्य उतरवा दिया जाय,ताकि सही अनुमान लगाने में
सुविधा हो, आँखों की प्रतिक्रिया सहजता से जानी जा सके।
आँखों की इन विशेषताओं की चर्चा के
बाद,अब इन पर स्थित विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों का आकलन कर लिया जाए। ज्ञातव्य है कि दोनों आँखें समान
आकार और गुण वाले अनेक प्रतिबिम्ब केन्द्रों से घिरी हैं,किन्तु इनसे परिचय
प्राप्त करने से पूर्व आवश्यक प्रतीत हो रहा है—पूर्व वर्णित विभिन्न शक्ति संचार
पथों पर एक सरसरी दृष्टि डाल लेना।
चित्रांक 18 में स्पष्ट है कि
नियंत्रक शक्ति संचार पथ(Governing Vessel Meridian) पृष्ठ-प्रदेश से होते हुए सिर को लांघ कर दोनों भहों(eyebrow) को भेद कर,नीचे आकर,ऊपरी होठ पर
समाप्त होता है। चित्रांक 17- उष्मा-शक्ति-संचार-पथ (Warmer meridian)
का प्रारम्भ आँखों के बहुत करीब यानी कनपट्टी से हुआ है। चित्रांक 16 पित्ताशय-
शक्ति-संचार-पथ (Gallbladder meridian)
भी इसी आसपास से होकर गुजरा है। चित्रांक 15 में प्रदर्शित
मूत्राशय-शक्ति-संचार-पथ (Urine bladder meridian)
का प्रारम्भ तो पाद- कनिष्टिका से होता है,किन्तु इसका अन्त होता है
आँख के किनारे पर। चित्रांक 14 में दर्शित आमाशय संचार-पथ( Stomach
meridian) पादांगुष्ठ से
प्रारम्भ होकर,ऊपर आकर,दो भागों में विभाजित हो जाता है,जिसका एक सिरा आँख के
निचले पलक के पास आकर समाप्त हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुख्य 14
शक्ति-संचार-पथों (Meridians)
में से पांच का सम्बन्ध ,किसी न किसी रुप से आँखों से है। यहाँ एक और बात ध्यान
देने योग्य है कि उक्त पांच में चार का सम्बन्ध ‘ची के यांग’ यानी ऊर्जा के धनप्रवाह (पोजीटिव) से
है,एवं एक तो सबका संचालक (मास्टर) ही है। इस प्रकार एक्यूप्रेशर के मेरीडियन
सिद्धान्त के आधार पर भी आँखों की महत्ता सुस्पष्ट है।
शरीर के विभिन्न भागों से आने वाले
पांच शक्ति-संचार-पथों का मिलन-स्थल (Junction) आँखें
अति संवेदनशील हैं,यह ऊपर के वर्णन से स्पष्ट हो चुका है। अतः इन पर स्थित विभिन्न
प्रतिबिम्ब केन्द्रों का आमयिक प्रयोग भी विशेष दक्षता पूर्वक और अनुभवी चिकित्सक के
हाथों से ही होना चाहिए,अन्यथा आँखों को नुकसान हो सकता है। यहाँ के सभी केन्द्रों
पर उपचार बिना किसी उपकरण के,मात्र अंगुलियों से ही,आहिस्ते-आहिस्ते दबाव
देकर(बिलकुल सहलाने की तरह) होना चाहिए।
यूँ तो विभिन्न बीमारियों से
सम्बन्धित अनेक प्रतिबिम्ब केन्द्र समान रुप से दोनों आँखों के आसपास मौजूद
है,किन्तु अधिकांश केन्द्र काफी सूक्ष्म हैं,जिनका परीक्षण सामान्यतया जटिल है।
दूसरी बात यह है कि ज्यादातर केन्द्र प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से दोनों आँखों से
ही सम्बन्ध रखते हैं। अतः उन सबका विश्लेषण उलझनात्मक होगा। सामान्य तौर पर वस
इतना ही काफी है कि नित्य प्रातः-सायं कम से कम दो मिनट,दोनों आँखों के चारो ओर
पलकों,किनारों,बरौनियों
आदि पर आहिस्ते-आहिस्ते मालिश करने की तरह,एवं पम्प की तरह दबाव देने का अभ्यास
रखा जाय,तो आँखों की प्रायः सभी बीमारियों से रक्षा हो सकती है। आँखें स्वस्थ और
सुन्दर होंगी। इस सम्बन्ध में एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है,जो यथासम्भव अवश्य पालनीय है—आँखों पर दाब उपचार अनामिका और
मध्यमा अंगुलियों से ही देना चाहिए। अन्य अंगुलियों का प्रयोग यौगिक तत्त्व
मीमांसा के विचार से अनुचित है।
अनेकानेक सूक्ष्म केन्द्रों के
अतिरिक्त कुछ बड़े केन्द्र भी हैं,जिनका आकार छोटे-छोटे सरसो के दाने सदृश है।
इनका उपयोग आँखों की बीमारियों के अतिरिक्त अन्य बीमारियों में भी होता है,अतः
परिचय और उपयोग की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण
होने के कारण इनका चित्र तालिका सहित प्रस्तुत किया जा रहा है। पूर्व
निर्दिष्ट विधि से उपयुक्त व्याधियों में सावधानी पूर्वक,दक्ष चिकित्सक द्वारा
प्रयोग करने से कोई हर्ज नहीं है।
केन्द्रांक---अवयवादि सम्बन्ध ( चित्रांक 29 क के लिए)
1)
स्नायु
संस्थान
2)
आँख,पैरों
के निचले भाग,पेट
3)
आँख
तथा मूत्राशय
4)
आँख
तथा पित्ताशय
5)
आँख
तथा स्नायुसंस्थान,शरोशूल,माइग्रेन,आधाशीशी
6)
आँखों
की लाली,माइग्रेन,रतौंधी,स्नायुसंस्थान
7)
आँख
8)
वातव्याधि
और पित्ताशय
9)
आँख
10)
आँख
11)
आँख
12)
आँख
13)
आँख
14)
वातव्याधि
और पित्ताशय
15)
आँख
एवं मूत्राशय
16)
आँख
एवं पित्ताशय
17)
आँख
एवं स्नायुसंस्थान,शिरोशूल,माइग्रेन,आधिशीशी
18)
आँख
एवं स्नायुसंस्थान,शिरोशूल,माइग्रेन,आधिशीशी
19)
आँख
एवं उदर-विकार
20)
आँख
एवं उदर-विकार
21)
रक्तवहसंस्थान(Circulatory system)विशेषकर हृदयव्याधि
22)
रक्तवहसंस्थान(Circulatory system)विशेषकर हृदयव्याधि
ऊपर दी गयी तालिका से स्पष्ट है कि करीब-करीब सभी केन्द्र
प्रत्यक्ष रुप से आँखों से ही सम्बन्धित हैं,साथ कुछ अन्य व्याधि विशेष से भी
सम्बन्ध रखते हैं.,और इन सबका सीधा सम्बन्ध पूर्व वर्णित पांचो शक्ति संचार पथों
से है,जो आँख या आँख के समीप आकर समाप्त हो रहे हैं। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील
क्रमांक 1 और 2 है,जो वस्तुतः नियंत्रक संचार पथ(G.V.M.)का है। यह इतना प्रभावशाली है कि सिर्फ इन दो केन्द्रों से ही सच पूछा जाय
तो उक्त 22 केन्द्रों का काम लिया जा सकता है। फिर भी जहां दुःखे वहां दबाओ के
सिद्धान्तानुसार उचित परीक्षण करके उपचार करना ही चाहिए।
आँखों से सम्बन्धित एक और चित्र यहां हम देख रहे हैं
(चित्रांक 29 ख) इसमें कोई क्रमांक नहीं है,साथ ही इसकी सूची भी कहीं नहीं दी गयी
है। वस्तुतः आँखों के चारो ओर अनगिनत सूक्ष्मकेन्द्र हैं,जिनका आँखों से सीधा
सम्पर्क है। अतः पूर्व निर्दिष्ट विधि से आँखों पर मसाज मात्र करने से ये सभी
केन्द्र चैतन्य होकर,अपना कार्य करने लगते हैं। आँखों की बीमारियां ही दूर नहीं
होती,बल्कि स्वस्थ व्यक्ति भी इन पर नियमित मसाज करे तो आँखों के सौन्दर्य में
वृद्धि होती है। किन्तु हां,इतना ध्यान रखे कि यह कार्य आहिस्ते-आहिस्ते होना
चाहिए,और 1 मिनट से ज्यादा न हो।
उक्त सभी केन्द्रों(चित्रांक 29 क,ख) के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य है कि करीब सभी प्रधान केन्द्र
चेहरे के बाह्य पटल (चित्रांक28) में भी दिखाये गये हैं। सुविधा के लिए यहां भी
कुछ विशेष वर्णन सहित प्रस्तुत कर दिया गया है,अन्यथा इसे द्विरुक्ति दोष ही कहा
जायेगा।
क्रमशः...
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