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अध्याय दस का अगला भाग...
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(ग)जिह्वा—
मुख-मण्डल में आनेवाले उपसमूह
क्रम में चेहरे के वाह्य पटल और आँखों के बाद स्थान है जिह्वा यानी जीभ का।
मुख-गह्वर में दन्त-कवच से परिवेष्ठित , जल-तत्त्व के रस तन्मात्रा का आस्वादन
कराने वाले एक अति प्रधान अवयव है यह। रसास्वादन-गुण-विशिष्ट के कारण इसका एक नाम ‘रसना’ भी है। प्रत्यक्षतः
स्वरोच्चारण इसका कार्य है। पाचन-क्रिया में इसका विशेष योगदान है। इस अंग का
निर्माण थुलथुली विशेष प्रकार की मांस पेशियों से हुआ है। ऊपर एक पतली झिल्लीदार
कवच(आवरण)है इस पर। गौर से देखने पर इसकी बनावट में एक और विचित्रता नजर आती है—शहतूत
के फल के ऊपर उभरे छोटे-छोटे दानों की तरह जीभ के ऊपरी भाग पर असंख्य दाने नजर आते
हैं। आम रुप से इन दानों को विशेष प्रकार की लालास्राव(लार) उत्पन्न करने वाली
ग्रन्थि के रुप में जाना-माना जाता है। नाड्योपचार(एक्यूप्रेशर)में इन असंख्य
ग्रन्थियों का ही उपयोग(महत्त्व) है। वस्तुतः ये दानेदार ग्रन्थियां ही एक्युप्रेशर
प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं। इन केन्द्रों की
सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक्यूप्रेशर के सर्वमान्य नियम के ये अपवाद हैं—अर्थात
इनका एक पक्षीय उपयोग है,जहां दुःखे वहां दबायें- वाला मूलमन्त्र यहां लागू नहीं
होता।
अन्यान्य
चिकित्सा-पद्धतियों में व्याधि-निदान में जीभ काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है, किन्तु
एक्यूप्रेशरीय रोग-निदान की दृष्टि से इसका उपयोग न के बराबर है,फिर भी चिकित्सा
की दृष्टि से उतना ही महत्त्वपूर्ण है,जितना शरीर के अन्य प्रतिबिम्ब-केन्द्र।
जीभ पर स्थित प्रायः सभी
प्रतिबिम्ब-केन्द्र बहुत ही छोटे हैं,साथ ही अति सघन भी, फलतः सामान्य तौर पर किसी
केन्द्र की स्वतन्त्र पहचान बड़ी जटिल है। इनमें अधिकांश पाचन संस्थान(Digestive system)
से सम्बन्धित हैं। जिनमें पित्ताशय(G.B.) की
प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त प्रजनन संस्थान ( Reproductory
system) के भी एक-दो अति विशिष्ट
केन्द्र यहां पाये जाते हैं। सीधे गर्भाशय(Uterus) और पीयूषग्रन्थि(Pituitary Gland) से
सम्बन्ध रखने वाला तीन प्रमुख केन्द्र जिह्वाग्र में(बाहरी किनारे पर आधा सून(tsun)
क्रमशः दायें-बायें एक ही सीध में पाये जाते हैं,जिनका प्रयोग प्रसव-वेदना
में(तीब्र और कारगर बनाने हेतु) किया जाता है। इन तीनों विन्दुओं पर उपचार का
तरीका भी जरा भिन्न है—उपचार के लिए न तो किसी उपकरण की आवश्यकता है,और न अंगुली
से दबाव देने की,और न चिकित्सक के सहयोग की ही। चिकित्सक सिर्फ आसन्न प्रसवा को
निर्देश देता है,यानी समझा देता है इस केन्द्र के बारे में,और प्रसूता स्वयं प्रयोग
करती है इन केन्द्रों पर। इसका तरीका ये है कि प्रसूता आँखें बन्द करके,जीभ के अग्रभाग
पर अपना ध्यान केन्द्रित करे,और दांतों के बीच जीभ को रख कर,सहन होने भर दबाव
डाले-छोड़े-डाले-छोड़े। इस क्रिया को प्रत्येक पांच मिनट के अन्तराल पर जारी
रखे,जब तक कि सुखप्रसव हो न जाये। ध्यातव्य है कि खुली आंखों से भी इस प्रयोग को किया
जा सकता है,किन्तु बन्द आँखों से करने पर ध्यान अधिक केन्द्रित होगा,जिसका परिणाम
भी त्वरित होगा। वैसे व्यावहारिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि,ऐसे नाजुक समय में
चित्त की एकाग्रता बहुत ही कठिन है,फिर भी प्रयास कर,लाभान्वित हुआ जा सकता है।
इन्हीं केन्द्रों का उपयोग स्त्री सम्भोग के समय भी कर सकती है,या अन्य समयों में
भी करने से सम्भोग-सुख में वृद्धि होगी,यानी शीतकामुकता की मानसिक व्याधि में यह
केन्द्र अद्भुत लाभकारी है।
उक्त केन्द्रों के अतिरिक्त जीभ के निचले तले में भी उसी
स्थान के आसपास कई और बड़े आकार के केन्द्र भी हैं,जो मुंह,दांत,मसूड़े आदि से
सम्बन्धित हैं। इनपर दबाव देने से तत् सम्बन्धी अंगों का लाभ मिलेगा। तरीका उसी
तरह है—गर्भाशय-केन्द्र जैसा ही। जीभ को जरा भीतर की ओर उल्टा करके भी इस पर दांतों का दबाव दिया जा सकता है.
स्वास्थ्य-रक्षण के विचार से जीभ के
सभी प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर सामूहिक दाब उपचार नित्य प्रति करना चाहिए,जिसकी
सर्वोत्तम विधि और समय है—प्रातः दन्त धावन के समय, दातुन करने के बाद,दातुन की
जीभी से आहिस्ते-आहिस्ते रगड़ देना। इस विधि से एकत्र रुप से सभी केन्द्र जागृत-चैतन्य
हो जाते हैं। इससे स्वास्थ्य में भी काफी सुधार होता है। किन्तु ध्यान रहे जीभी
करने का काम धातु या प्लास्टिक की जीभी से न किया जाय। उचित है कि नीम,करंज,बबूल
आदि के दातुन का ही प्रयोग किया जाय।
जीभ से सम्बन्धित प्रतिबिम्ब-केन्द्र
के लिए अलग से कोई तालिका नहीं दी जारी है, क्यों कि सहज-बोध प्रतिबिम्ब केन्द्रों
के लिए इसकी आवश्यकता ही नहीं प्रतीत हो रही है।
(घ)
मुखगह्वर में ऊपर-नीचे अर्द्धवृत्ताकार दो कतारों में
दाडिम-बीज की भांति करीने से सजे हैं सुन्दर,सुकोमल मसूड़ों के बीच दन्त-समूह। सामान्यतया
इनकी संख्या 28 से 32 तक हुआ करती है। किसी किसी व्यक्ति में यह संख्या न्यूनाधिक
भी हो सकती है। दांतों को पाचन संस्थान का प्रमुख सहयोगी माना जाता है। भोजन को
कूट-पीस कर,लुग्दीनुमा बनाने का काम प्रारम्भिक स्तर पर इन दांतों का ही होता है।
शरीर रुपी गृहस्थी के लिए चक्की की तरह इनका उपयोग है,अतः इनकी सुपुष्टता हेतु
,यथासम्भव-यथाशक्ति मार्जन, प्रक्षालन,सम्यक् सफाई आदि अति आवश्यक है। इसका पालन न
करने से अनेकानेक प्रत्यक्ष और परोक्ष व्याधियों का शिकार होना पड़ता है। यही कारण है कि हमारे शास्त्रों में नित्यकर्म
में दन्त-धावन को शौचकर्म का प्रधान अंग माना गया है। समय,सुविधा और स्थिति के
अनुसार जहां तक सम्भव हो दांतों की सफाई पर ध्यान रखा जाना चाहिए। यूँ तो
परम्परागत हमारे यहां दन्त-धावन के लिए काष्ठ-दण्ड(दतुअन)का चलन है,जिसका स्थान
आधुनिक समय में टूथब्रश और पेस्ट ने ले लिया है। मुख्य उद्देश्य तो साफ-सफाई है।
दतुअन के लिए खास-खास काष्ठ ही विहित हैं। यथा—नीम,बबूल,करंज आदि। अभाव में अन्य
वृक्षों के टहलियों का भी उपयोग लोग कर लिया करते हैं,किन्तु इसमें विशेष सावधानी
रखने की आवश्यकता है। मुख्य बात है कि कूची सहज रुप से बन जाये,जो मुलायम और
स्वादु हो,साथ ही औषधीय गुण-युक्त हो। दतुअन के नाम पर जो-सो लकड़ी चबा लेने से
बेहतर है कि ब्रश का प्रयोग किया जाय, किन्तु इसके चुनाव पर भी ध्यान रखना आवश्यक
है। कड़े तन्तु वाले ब्रश सुकोमल मसूड़ों के लिए अति घातक होते हैं।
दतुअन या ब्रश से दांतों के कोने-कोने
में छिपे अवांछित पदार्थों को सही तरीके से बाहर निकालने का काम तो अवश्य पूरा हो
जाता है,किन्तु एक्युप्रेशर चिकित्सा की दृष्टि से यह काम अधूरा ही रह जाता है।
पूरा तब होगा,जब दांतों के आधार-स्तम्भ मसूड़ों की सही मालिश होगी। इसके लिए महीन
वस्त्र-पूत कीट-नाशक,दन्त-पोषक किसी मंजन का उपयोग किया जा सकता है। सर्वोत्तम
होगा महीन पिसा हुआ सेन्धा नमक(अन्य नमक नहीं) और सरसो का तेल। इनके व्यवहार से
दोहरा लाभ है- सफाई और पोषण-रक्षण।
एक्युप्रेशर प्रतिबिम्ब-केन्द्र की
दृष्टि से दांतों का महत्त्व नहीं के बराबर है।
महत्त्व है तो उन मसूड़ों का ही,जिन पर आधारित हैं ये दन्त-पंक्ति।
प्रत्येक मसूड़ों में एक-एक एक्युप्रेशर प्रतिबिम्ब-केन्द्र पाये जाते हैं,जो
मुख्य रुप से उस दांत के लिए महत्त्वपूर्ण होता है,जो उस पर स्थित है। इसके
अतिरिक्त आँख,कान,नाक और गले (ENT) के
विभिन्न रोगों से भी सम्बन्ध रखता है। यही कारण है कि ई.एन.टी. से सम्बन्धित सभी
व्याधियों में निदान के तौर पर सभी दन्त-केन्द्रों का सम्यक् परीक्षण अति आवश्यक
माना जाता है। इसके लिए सामान्य दाब-विधि का प्रयोग किया जाना चाहिए। तर्जनी अंगुली
से आहिस्ते-आहिस्ते दबाव दे देकर प्रभावित केन्द्र की जांच की जानी चाहिए। परीक्षण या उपचार हेतु दिया जाने वाला दबाव ,
सीधे मसूड़े पर हो- यह आवश्यक नहीं, बल्कि मुंह बन्द करके,ऊपर ही होठों पर दबाव
देने से वही काम होता है,जो भीतर दबाव देने से होगा।
सभी मसूड़ों पर स्थित एक्युप्रेशर
प्रतिबिम्ब-केन्द्रों के अतिरिक्त दन्त-व्याधियों से सम्बन्धित अन्य
प्रतिबिम्ब-केन्द्र भी हैं,जिनकी कुल संख्या 16 है। इनकी स्थानिक विशेषता यह है कि
ये बिलकुल अलग(दूर)हैं यहां से। दन्त-व्याधियों का सीधा सम्बन्ध तत्त्व-संतुलन से
है। अतः सभी दांतों का सम्बन्ध तत्त्वों के संग्राहक-स्थल (अंगुलियों) से बना हुआ
है। चित्रांक 30 में ऊपर-नीचे दो कतारों में सभी दांतों को दिखलाया गया है। पुनः
उनका विभाजन लम्बवत किया गया है,जिसका
उद्देश्य है— दक्षिण-वाम विभाजन। चित्र में भीतर की ओर से , एक और संकेत नजर आरहा
है—दो-दो दांतों को अलग-अलग कोष्टकों में रखकर क्रमांक 1,2,3,4 का क्रम दिया हुआ
है। इन क्रमांकों की चार आवृत्ति हुयी है।
दन्त-पंक्तियों के उभय पार्श्व में दोनों पंजों को दिखलाया गया है,जिनमें क्रमशः
तर्जनी,मध्यमा,अनामिका,और कनिष्ठा को तो अंकित किया गया है,परन्तु अंगुष्ठ को
इसमें शामिल नहीं किया गया है। दूसरी बात है कि सुविधानुसार सिर्फ हाथ का पंजा ही
दर्शाया गया है चित्र में, पैरों को नहीं। किन्तु ध्यातव्य है इनका उपयोग भी उसी
भांति किया जाना चाहिए। उक्त चित्र पर गौर करने पर,दांतों और अंगुलियों का आपसी
सम्बन्ध स्पष्ट होता है। यथा—क्रमांक 1 से निर्दिष्ट अंगुली है तर्जनी, और दांत है
ऊपर-नीचे की पंक्तियों में कोष्टकबद्ध चार जोड़े। दांयीं ओर ऊपर-नीचे दो-दो दांतों
का सम्बन्ध दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली से है,और इसी प्रकार बांयीं ओर ऊपर-नीचे
दो-दो दांतो का सम्बन्ध बायीं तर्जनी से है। यही सम्बन्ध पैरों की तर्जनी से भी
समझना चाहिए। तत्सम्बन्धित रोगों(सूजन,दर्द,सड़न) में सीधे दांत के मसूड़ों पर
दबाव देने के साथ-साथ तत् सम्बन्धित अंगुली पर भी दबाव देना चाहिए ताकि शीघ्र लाभ हो
सके। ध्यातव्य है कि अंगुलियों पर किया गया दाब-उपचार,सीधे मसूड़ों पर किये गये
उपचार की तुलना में अधिक और शीघ्र कारगर होता है। साथ ही सुविधाजनक भी है। दबाव
देने के लिए सामान्य दाब-विधि ही उपयुक्त है। किन्तु यथासम्भव उपकरण भी व्यवहृत हो
सकते हैं। कपड़े सुखाते समय इस्तेमाल किये जाने क्लिपों, या फिर रबर-बैंड का भी
उपयोग (लागातार दबाव हेतु) किया जा सकता है। यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि
शरीर के अन्य सभी भागों में एक्युप्रेशर प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर दबाव
पम्पिंग-विधि से(यानी लागातर नहीं,दबाते-छोड़ते हुए) देते हैं,किन्तु दांतों पर
लागातार 3 से 5 मिनट तक दबाव दिया जाना चाहिए। यही कारण है कि क्लिपों या रबर के
छल्लों का प्रयोग सही माना जाता है। हां, समय का ध्यान रखना जरुरी है—अधिक देर
करने से वहां के सूक्ष्म तन्तुओं तथा रक्तवाहिकाओं को नुकसान हो सकता है।
यूं तो सभी दांतों के लिए स्वतन्त्र
रुप से अपने अपने जड़ों में उपचार हेतु
प्रतिबिम्ब मौजूद हैं ही,किन्तु खासकर दांत-दर्द में प्रायः निश्चय करना मुश्किल
हो जाता है कि किस दांत में दर्द है,यानी मुख्य रुप से कौन सा दांत प्रभावित है।
क्यों कि वेदना की तीव्रावस्था में आसपास के दांत भी पूर्ण प्रभावित जैसे प्रतीत
होते हैं। अतः ऐसी अवस्था में विशिष्ट केन्द्र के चुनाव के झमेले में पड़ने से
कहीं अच्छा है कि एक साथ सभी अंगुलियों पर बन्धन या दबाव दे दिया जाए।
दांतों से सम्बन्धित इन
केन्द्रों की एक और उपयोगिता है- तीव्र ज्वर की अवस्था में एक साथ सभी अंगुलियों
पर क्लिप या रबर के छल्लों का प्रयोग किया जाता है- 5-7मि. के लिए । ज्वर जनित
कष्ट में त्वरित लाभ अनुभव होता है। किन्तु ध्यान रहे- बन्धन कठोर न हो,अन्यथा
रक्त-प्रवाह अतिवाधित होकर हानिकारक भी हो सकता है।
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क्रमशः...
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