गतांश से आगे...
नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)
छब्बीसवां भाग(दशवें अध्याय का अन्तिम भाग)
3)हृदय-संचार-पथ(Heart Meridian)- इस प्रवाह-पथ पर सर्वप्रमुख दो प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं, इनमें प्रथम का उपयोग हृदय से सीधे सम्बन्ध रखने वाली सभी व्याधियों से है,और दूसरे केन्द्र का उपयोग कोष्ठबद्धता-निवारण के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की बेहोशी दूर करने के लिए भी किया जाता है। चुंकि दूसरे केन्द्र का सम्बन्ध रक्तप्रवाह से है,इस कारण अनिद्रा निवारण में भी इसका उपयोग कारगर सिद्ध होता है।
7)प्लीहा संचार-पथ(Spleen Meridian)— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से तीन प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं, इनमें प्रथम केन्द्र का उपयोग अनिद्रा, गर्भाशयिक व्यतिक्रम, सन्धिवात, पाचन तन्त्र की गड़बड़ी आदि में किया जाता है। दूसरे केन्द्र का उपयोग खासकर घुटने के दर्द एवं शोथ(सूजन)में होता है। तथा तीसरे केन्द्र का उपयोग स्त्री के प्रजनांगों से है। अनियमित ऋतुस्राव में इसका विशेष उपयोग होता है।
11) आमाशय-संचार-पथ (Stomach Meridian)— )— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से नौ प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं, इनका उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
क्रमशः..
नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)
छब्बीसवां भाग(दशवें अध्याय का अन्तिम भाग)
(8)
शक्ति-संचार-पथों पर प्रतिबिम्ब-केन्द्र— शरीरान्तर्गत
सभी एक्यूप्रेशर प्रतिबिम्ब केन्द्र
अपने समीपवर्ती मुख्य धारा से सम्बन्ध रखे हुए हैं। मुख्य धारा(प्रवाह) से निकलने
वाली विभिन्न उपप्रवाहों के मार्ग में ही सभी केन्द्र अवस्थित हैं, जहाँ निदान/चिकित्सा-काल में दबाव दिया जाता है,जिनका
विस्तृत परिचय ऊपर के समूह-खंडों में दिया गया।
भौतिक विद्युत-संचार-प्रणाली मे जैसा
कि देखा जाता है,कहीं-कहीं सीधे मुख्य धारा से व्यवहार-केन्द्र का सम्पर्क बना
रहता है,और वह मुख्य धारा स्थित व्यवहार-केन्द्र भी ठीक उसी भांति कार्य करता
है,जैसा उपधारा स्थित व्यवहार-केन्द्र। इसी प्रकार शिरादाब शक्ति-संचार-पथों पर भी
अनेक व्यवहार-केन्द्र बने हुए हैं,जिनका उपयोग सामान्य रुप से अन्यान्य
प्रतिबिम्ब-केन्द्रों के तरह ही किया जाता है। इस तरह के केन्द्र सभी संचार-पथों(meridians) पर पाये जाते हैं,जिनमें अति विशिष्ट
केन्द्रों की क्रमवार तालिका प्रस्तुत की जारही हैः-
1)
विनिश्चय
अथवा शासक-प्रवाह-पथ(Governing Vessel
Meridian)- इस मुख्य प्रवाह-पथ पर नौ प्रतिबिम्ब केन्द्र विशिष्ट है, इन
केन्द्रों का उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
कटिशूल,प्रसव-वेदना,नपुंसकता
|
2.
|
अर्द्धांगवात,लकवा,पोलियो(वालपक्षाधात)
|
3.
|
श्वांस,दमा,कास,जुकाम,नासा-रोग
|
4.
|
शिरोशूल,ज्वर,पित्तशयिक
व्याधि,शीतपित्त
|
5.
|
शिरोशूल,जुकाम,नकसीर
|
6.
|
समस्त
नासा-रोग
|
7.
|
अर्श(बावासीर)
|
8.
|
उर्ध्वजत्रुरोग(नाक,कान,आँख,गला)ई.एन.टी
|
9
|
हिक्का(हिचकी)विभिन्न
कारण जनित बेहोशी
|
2) धारणा-प्रवाह-पथ(Conception Vessel Meridian)- इस प्रवाह-पथ पर मुख्य रुप से मात्र चार प्रतिबिम्ब-केन्द्र
हैं,इन केन्द्रों का उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
प्रजनन
संस्थान की सभी व्याधियां
|
2.
|
दस्त,गर्भाशय,उदर-शूल,कोष्ठबद्धता
|
3.
|
आमाशयिक
व्याधियां- वमन,गैस आदि
|
4.
|
हृदय
एवं हृदयावरण, दमा, रक्तचाप
|
3)हृदय-संचार-पथ(Heart Meridian)- इस प्रवाह-पथ पर सर्वप्रमुख दो प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं, इनमें प्रथम का उपयोग हृदय से सीधे सम्बन्ध रखने वाली सभी व्याधियों से है,और दूसरे केन्द्र का उपयोग कोष्ठबद्धता-निवारण के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की बेहोशी दूर करने के लिए भी किया जाता है। चुंकि दूसरे केन्द्र का सम्बन्ध रक्तप्रवाह से है,इस कारण अनिद्रा निवारण में भी इसका उपयोग कारगर सिद्ध होता है।
4)हृदयावरण-संचार-पथ
(Pericardium
Meridian)— इस प्रवाह पथ पर भी मुख्य दो ही प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं, इनमें
प्रथम केन्द्र का उपयोग वमन एवं उबकाई तथा अनिद्रा में किया जाता है,और दूसरे
केन्द्र का उपयोग सुस्ती-थकान दूर करने के साथ-साथ निम्न रक्तचाप में किया जाता
है।
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
श्वांस,कास,नजला-जुकाम
|
2.
|
फेफड़े
से सम्बन्धित समस्त व्यधियां,एवं कुहनी तथा बाहों का दर्द
|
3.
|
अर्श(बावासीर)
|
4.
|
सर्दी-जुकाम,शिरोशूल,अर्दित,(चेहरे
का लकवा)
|
5.
|
गले
एवं फेफड़े से सम्बन्धित समस्त व्याधियां
|
6.
|
गले
एवं फेफड़े से सम्बन्धित समस्त व्याधियां
|
5) फुफ्फुस-संचार-पथ(Lungs
Meridian)— इस संचार-पथ पर महत्त्वपूर्ण छः प्रतिबिम्ब
केन्द्र हैं, इनका उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार होना चाहिए-
6) यकृत
संचार-पथ(Liver Meridian)— इस संचार-पथ पर मुख्य
रुप से पांच प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं । इनका उपयोग निम्नांकित तालिका के अनुसार
करना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
शिरोशूल
एवं चक्कर
|
2.
|
कमर,घुटना,टखना
आदि जोड़ों की व्याधियाँ
|
3.
|
गर्भाशयिक
व्याधिविशिष्ट- कष्टरजादि
|
4.
|
वमन,आंत
एवं आमाशयिक व्याधि
|
5.
|
पक्ष,पर्शुका,स्तन,(दुग्धवर्धक
विशेष)
|
7)प्लीहा संचार-पथ(Spleen Meridian)— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से तीन प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं, इनमें प्रथम केन्द्र का उपयोग अनिद्रा, गर्भाशयिक व्यतिक्रम, सन्धिवात, पाचन तन्त्र की गड़बड़ी आदि में किया जाता है। दूसरे केन्द्र का उपयोग खासकर घुटने के दर्द एवं शोथ(सूजन)में होता है। तथा तीसरे केन्द्र का उपयोग स्त्री के प्रजनांगों से है। अनियमित ऋतुस्राव में इसका विशेष उपयोग होता है।
8)वृक्क-संचार-पथ(Kidney
Meridian)— इस शक्ति संचार-पथ पर सिर्फ दो महत्त्वपूर्ण
प्रतिबिम्ब
केन्द्र हैं, इसमें प्रथम का उपयोग हिक्का,चक्कर, एवं कष्टरज में किया जाता है।
एवं दूसरे केन्द्र का उपयोग खासकर वृक्कों से सम्बन्धित सभी प्रकार की व्याधियों
में किया जाना चाहिए।
9)
बड़ीआंत(Large Intestine Meridian)— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से छः प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं, इनका उपयोग
निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
ज्वर
एवं दस्त
|
2.
|
कोष्ठबद्धता,दस्त,दांतों
का दर्द
|
3.
|
मानसिक
अशान्ति,चिड़चिड़ापन
|
4.
|
कन्धे
से कलाई पर्यन्त दर्द,अकड़न आदि
|
5.
|
कन्धों
का दर्द विशेष
|
6.
|
सर्दी-जुकाम
|
10)
छोटीआंत-संचार-पथ (Small
Intestine Meridian)— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से चार
प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं, इनका उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
हाथ
की अंगुलियों का लकवा(Writer’s cramp
|
2.
|
कब्ज
|
3.
|
कन्धे
का दर्द
|
4.
|
कान
की समस्त व्याधियाँ
|
11) आमाशय-संचार-पथ (Stomach Meridian)— )— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से नौ प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं, इनका उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
अर्दित,चेहरे
की झुर्रियां,आँखों की बीमारियाँ
|
2.
|
सर्दी,जुकाम,सायनोसाइटिस
|
3.
|
दांत
की बीमारियां
|
4.
|
दांत
की बीमारियां
|
5.
|
उच्च
रक्त चाप
|
6.
|
उदरशूल,प्रवाहिका,
दस्त
|
7.
|
उदरशूल,प्रवाहिका,एवं
घुटने का दर्द
|
8.
|
मानसिक
अशान्ति
|
9
|
उदरशूल,दन्त-शूल
आदि
|
12)मूत्राशय-संचार-पथ( Urine -bladder
Meridian)—सीधे प्रतिबिम्ब-केन्द्रों की अवस्थिति के अनुसार देखा जाय तो यह संचार-पथ
बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। इसका गमन-मार्ग भी काफी लम्बा है,जैसा कि पूर्व प्रसंग
में दिये गये चित्र में हम देख रहे हैं कि सधन केन्द्रों को संजोये हुए यह संचार
पथ नाक के ऊपरी भाग,आँख के कोने से प्रारम्भ होकर, ऊर्ध्वगमन-रीति से ऊपर सिर को
लांघते हुए पीछे मेरुदण्ड प्रदेश से अवरोहित लम्ब की भांति उतरते हुए पूरे पैर को
पार कर,पैर के कनिष्ठिका पर समाप्त हो रहा है। इसकी एक सबसे बड़ी विशेषता ये
लक्षित होती है कि मुख्य धारा के समानान्तर ही एक सहधारा का विकास हुआ है,जो
वस्तुतः सहयोगी जैसा प्रतीत होने पर भी,मुख्य पथ का ही अभिन्न अंग है। जैसा कि
चित्रांक में स्पष्ट है,ग्रीवा-प्रदेश से इस पथ की उपधारा थोड़ा हटकर प्रवाहित
हुयी है,जो नीचे घुटने के पृष्ठभाग पर आकर पुनः मुख्यधारा में शामिल हो गयी है।
विस्तार-व्यापकता के कारण मुख्य रुप से महत्त्वपूर्ण प्रतिबिम्ब केन्द्रों की
संख्या में भी वृद्धि होजाना स्वाभाविक है,जैसा कि निम्नांकित तालिका से स्पष्ट
है-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
नेत्र-व्याधि-दाह,शोथादि
|
2.
|
शिरोशूल,सर्दी-जुकाम
|
3.
|
खांसी,दमा,फेफड़े
की अन्य बीमीरियां
|
4.
|
खांसी,दमा,फेफड़े
की अन्य बीमीरियां
|
5.
|
धारणसंचारपथ
(C.V.M)की विशिष्ट गड़बड़ी
|
6.
|
हृदय
सम्बन्धी विभिन्न व्याधियाँ
|
7.
|
शासक-संचार-पथ(G.V.M) की गड़बड़ी
|
8.
|
आमाशयिक
विकार,उदरशूल
|
9.
|
यकृत
|
10.
|
पित्ताशय
|
11.
|
अग्न्याशय
एवं प्लीहा
|
12.
|
समस्त
उदर व्याधि
|
13.
|
दस्त,उदरशूल,फेटीगएसिड
की वृद्धि
|
14.
|
वृक्क
एवं मूत्र-प्रणाली
|
15.
|
बड़ीआंत
|
16.
|
कटिशूल
|
17.
|
छोटीआंत
|
18.
|
गर्भाशय
|
19.
|
कटिशूल,सायटिका
|
20.
|
कमर,घुटना,जांघ
की पीड़ा
|
21.
|
कमर
सहित नीचे के पूरे भाग
|
22.
|
मेरुदण्ड
|
23.
|
दमा,खांसी,गर्दन
एवं कंधे की बीमारियां
|
24.
|
दमा
|
25.
|
खांसी
|
26.
|
हिचकी,वमन,आमाशयिक
विकार
|
27.
|
उदरशूल,प्रवाहिका(पतले
दस्त)
|
28.
|
वृक्कशूल,कटिशूल
|
29.
|
सायटिका,पैरों
का ऐंठन आदि
|
30.
|
सायटिका,हिचकी,चक्कर
|
31.
|
प्रसववेदना
|
नोटः- उक्त
तालिका में क्रमांक 5 एवं 7 C.V.M. & G.V.M. की गड़बड़ी के लिए
विशेषज्ञों ने सुझाया है,किन्तु ध्यान देने योग्य है कि इन दो संचालक पथों में
अपनी गड़बड़ी शायद ही कभी आये,और यदि आजाय तो समझ लें कि उनका निवारण भी सामान्य
उपचार से सम्भव नहीं है। ये किसी भी चिकित्सा से ठीक नहीं हो सकता। हां कोई सिद्ध
योगी मिल जाये तो और बात है। आमतौर पर नाड्योपचार-तन्त्र-विशेषज्ञ मात्र चिकित्सा
पक्ष के ही अनुभवी होते हैं,न कि साधना पक्ष के।
13)पित्ताशय-संचार-पथ(Gall
Bladder Meridian)— इस शक्ति-संचार-पथ पर मुख्य रुप से
तेरह प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं, इनका उपयोग निम्नांकित तालिकानुसार किया जाना चाहिए-
केन्द्रांक
|
उपयोग
|
1.
|
ललाट,आँख
एवं आँखों की गड़बड़ी से होने वाला सिरदर्द
|
2.
|
कान
|
3.
|
सर्दी,जुकाम,सिरदर्द,चक्कर
|
4.
|
कन्धे
का दर्द,स्तनों में दूध की कमी
|
5.
|
पित्ताशय
के विविध रोग
|
6.
|
आमाशयिक
विकार,वमन,उदरशूल आदि
|
7.
|
कटिशूल
|
8.
|
निम्नांगों
में रक्तवाहिनियों की मन्द स्थिति
|
9.
|
अर्द्धांगवात(निम्नांग
विशेष)(नीचे के अंगों का लकवा)
|
10.
|
सिरदर्द,टखने
का दर्द
|
11.
|
पित्ताशय
के विविध रोग एवं पथरी
|
12.
|
गर्भाशय
विकार (विशेषकर कष्टरज)
|
13.
|
गर्भाशय
विकार (विशेषकर कष्टरज),एवं पैर के पंजों का दर्द
|
14)अति
उष्मा-संचार-पथ (Tripple Warmer Meridian)— इस
उष्मा-प्रदायी पथ पर विशेष महत्त्वपूर्ण मात्र एक ही प्रतिबिम्ब केन्द्र
है,जिसका उपयोग कन्धे के दर्द में किया जाता है। उक्त
सभी तालिकाओं को ठीक से समझने के लिए पूर्व में दिये गये चौदह शक्ति संचार पथों से
सम्बन्धित चित्रों का पुनरावलोकन करना चाहिए।
चौदह शक्ति-संचार-पथों पर निजी तौर पर स्थित
एक्युप्रेशर-प्रतिबिम्ब-केन्द्रों के परिचय के साथ-साथ केन्द्र-परिचय का यह
विशिष्ठ प्रसंग समाप्त होता है। यूं तो नित नये एक्युप्रेशर-प्रतिबिम्ब-केन्द्रों
का अन्वेषण जारी है विशेषज्ञों द्वारा। हो सकता है कि आने वाले समय में भौतिक
विकास के दौड़ में आध्यात्मिक केन्द्र-संख्या तक पहुँच जायें हमारे नये
विशेषज्ञ,किन्तु जबतक दौड़ जारी है,तबतक तो अद्यतन केन्द्र-परिचय से ही यथासम्भव
लाभान्वित होना चाहिए। अस्तु।
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