गतांश से आगे...
ग्यारहवां अध्याय का पहला भाग
ग्यारहवां अध्याय का पहला भाग
एकादश अध्याय
नाभिचक्रःएक
विशिष्ट केन्द्र
पिछले अध्याय में नाड्योपचार
तन्त्र के विभिन्न प्रतिबिम्ब-केन्द्रों के बारे में विशद रुप से परिचय प्राप्त
किया गया,किन्तु एक विशिष्ट केन्द्र की चर्चा अभी बाकी है,जिसके बिना परिचय अधूरा
है। वस्तुतः इस परिचयात्मक श्रृंखला को यथावत वहीं होना चाहिए था,किन्तु
इसका वहां रहना,इसकी महत्ता और सार्वभौमिकता को नकारना जैसा होता, अतः इसकी
विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए,स्वतन्त्रता का दर्जा दिया गया।
प्राणीमात्र लोक के अन्तर्गत है,भले
ही उसका चरम(परम)लक्ष्य परलोक है। इहलोक में रहते हुए,या कहें रहकर ही परलोक की
साधना सम्भव है,क्यों कि कर्मभूमि यही है,अन्यत्र नहीं। योगशास्त्रों में इसकी
अद्भुत महिमा बतलायी गयी है। इस पर विजय(पराजय का विपरीत नहीं,प्रत्युत पराजय के
पार जाना) प्राप्त करने का विशिष्ट महत्त्व है,विशेष विधि भी। योगियों ने इस
केन्द्र को ही लोक माना है।
‘लोक’ यानि समस्त
का मूल, सबका आधार। अपनी साधनात्मक यात्रा में थका योगी,यहां ठहर कर कतिपय विश्राम
पाता है। लोकाकांक्षी तो प्रायः यहीं आकर ठहर जाते हैं,भटक भी जाते हैं। अतः उनके
लिए भी यह केन्द्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। उन्हें अपने आध्यात्मिक स्वास्थ्य-लाभ
हेतु इसी केन्द्र पर ध्यानोपचार करना चाहिए। आगे की यात्रा में भी यह बहुत उपयोगी
है। नाभिचक्र की उपादेयता जीवन ही नहीं, प्रत्युत ‘ जीवन-चक्र
’ को
व्यवस्थित करने में है। वस्तुतः इसे पूरी ‘महायात्रा’ का मध्यान्तरी कहना चाहिए। इसका
विशद वर्णन योग-ग्रन्थों में विशद रुप से उपलब्ध है।
शास्त्रों में नाभि को पाताल लोक
भी कहा गया है। एक रहस्यमय बात यह है कि घोषित
प्रत्यक्ष मृत्यु के बाद भी प्राण-वायु नाभि-चक्र में सोलह पल(यानी करीब छः मिनट) तक चैतन्य रहता है। उच्च योग-साधक वैसी स्थिति में आत्मबल का प्रयोग कर, चाहें तो व्यक्ति की
प्राणवायु को वापस लाकर,हृदय में स्थापित कर सकते हैं। यानी कि घोषित मृत को
पुनर्जीवित भी किया जा सकता है।
प्रसंगवश यहां शरीर-शास्त्र(विज्ञान)के अनुसार थोड़ा विचार कर
लिया जाय। उदर- प्रदेश में आमाशय के निचले भाग में प्राकृत आवर्त-पूर्ण(गड्ढेदार)
जो स्थान है,जिसे आम भाषा में नाभि कहा जाता है,यही वह स्थान है ,जिसकी प्रशस्ति
योग-शास्त्रों में व्यापक रुप से गायी गयी है। आधुनिक शरीरविज्ञान (Anatomy) के अनुसार भी इसकी महत्ता कम नहीं है। इस आवर्त-युक्त स्थान में ध्यान से
देखने पर कई छोटे-छोटे छिद्र नजर आते हैं,जो दो शरीरों के आपसी सम्पर्क के द्वार
है। सद्यःजात शिशु में यहां एक लम्बी,पोली,मांसल डोरी(नाड़ी) नजर आती है,जिसका
दूसरा शिरा कमल(Placenta) से जुड़ा होता है,फलतः इस नाड़ी
विशिष्ट को कमल-नाल के नाम से जाना जाता है। गर्भगत बालक का माता से सीधा
सम्पर्क-सूत्र इस नाड़ी-द्वारा ही होता है। भ्रूण का पालन-पोषण,श्वसन,रक्त-संचालन
आदि सारी क्रियायें इसी माध्यम से होती हैं। गर्भगुहा से बाहर आ जाने के
पश्चात्,शिशु के लिए इसकी कोई उपयोगिता नहीं रह जाती,फलतः जन्म के कुछ देर बाद
इसका विच्छेदन कर दिया जाता है। हालांकि इस छेदित नाल का भी बहुत उपयोग है।
प्राचीन समय में तन्त्र और आयुर्वेद दोनों में इसका प्रयोग होता था। बाद में,धीरे-धीरे
ये चीजें लुप्त वा गुप्त होती गयी। अभी कुछ दिनों से आधुनिक शरीर-शास्त्रियों का भी
ध्यान इस ओर गया है,और नाल(Umbilical cord)को
लम्बे समय तक सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जा रही है,जिससे भविष्य में उस नाल-धारक
के किंचित जटिल और असाध्य रोगों की चिकित्सा सुलभ हो।
वस्तुतः शरीरगतगत
समस्त नाड़ियों का संगम-स्थल है—नाभिकेन्द्र । ध्यातव्य है कि नाड़ियां ही
योग-साधना का आधार है। नाड़ियों की गति,स्थिति और अवरोध पर ही अवलम्बित है-
नाड्योपचारतन्त्र यानी आधुनिक एक्युप्रेशर चिकित्सा विज्ञान। इस प्रकार इस विशिष्ट
केन्द्र की उपादेयता स्वयमेव सिद्ध है।
उदर-प्रदेश के प्रतिबिम्ब-केन्द्रों में इसे चित्रांक 31 में
दर्शाया गया है। पुनः यहां चित्रांक 33 में विशेष कर नाभिचक्र की विकृत स्थितियाँ
दर्शायी जा रही हैं।
क्रमशः...
क्रमशः...
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