नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin Of Accupressure)

गतांश से आगे...
ग्यारहवें अध्याय का दूसरा भाग-

शरीर को रोग- मुक्त रखने (करने) में इस नाभि-केन्द्र (solar plexus) का बहुत महत्त्व है। उक्त स्थान(नाभि के गड्ढे में) पर हाथ के अंगूठे से हल्का सा दबाव देते हुए,स्पर्श किया जाय तो एक विशिष्ट प्रकार की घड़कन(स्पन्दन) महसूस की जा सकती है। नाभिकेन्द्र के परीक्षण का सही तरीका यही है। हां,इस परीक्षण के समय परीक्षार्थी (रोगी) की शारीरिक मुद्रा भी विशेष ढंग की होगी—पीठ के बल चित लेटकर,दोनों पांव को घुटने से मोड़ते हुए,खड़ा रखे। इस मुद्रा में उदर-प्रान्त की सही जांच हो पाती है। समय का भी ध्यान रखना जरुरी है- सर्वोत्तम है- सुबह खाली पेट, शौचादि के ठीक बाद।
            नाभि-केन्द्र के स्पन्दन का सही स्थान पर होना,इस बात की सूचना है कि परीक्षार्थी उदर रोग-मुक्त है,क्यों कि यह केन्द्र सही ढंग से काम कर रहा है। निदान और चिकित्सा के एक्यूप्रेशरीय सिद्धान्त के अनुसार नाभिचक्र अपने आप में अपवाद है। यही एकमात्र ऐसा प्रतिबिम्ब-केन्द्र है,जहां एक्युप्रेशर का मूल मन्त्र—जहां दुःखे,वहीं दबावो—लागू नहीं होता, न निदान हेतु और न चिकित्सा हेतु ही। स्पन्दन का अपने स्थान पर सही अनुभव होना ही,इस केन्द्र के स्वस्थ होने की सूचना है,यानी निदान हो गया,चिकित्सा की आवश्यकता नहीं है। अपवादात्मक विशेषताओं में एक दूसरी विशेषता यह भी है कि पूरे शरीर में यही एक केन्द्र है जो स्थान-भ्रष्ट हो जाता है,यानी अपने नियत स्थान से ऊपर-नीचे,बांयें-दायें कहीं भी खिसक जा सकता है,जिसके परिणामस्वरुप शरीर में कई तरह के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। ये लक्षण अलग-अलग रोगों के सूचक हैं। इसके स्थान-भ्रष्टता के कारण कई अन्य प्रतिबिम्ब-केन्द्र भी प्रभावित होकर,अपनी विकृति की सूचना देने लगते हैं।
            अतः सामान्य तौर पर एक्यूप्रेशर चिकित्सक का कर्तव्य होता है कि आगन्तुक रोगी का सर्वप्रथम नाभिकेन्द्र-परीक्षण करे। चिकित्सक का यह कर्तव्य तब और बढ़ जाता है,जब रोगी सुस्त,चिड़चिड़ा,पाचनतन्त्र की विविध व्याधियों का शिकार हो। इस केन्द्र की लाक्षणिक गड़बड़ी एकमात्र स्थान-भ्रष्टता ही है; और यह सिर्फ लक्षण ही नहीं,बल्कि कारण भी बनता है- अन्यान्य व्याधियों का। अतः सर्वप्रथम इस लक्षण के कारण पर विचार किया जाय।
            आमतौर पर लोग प्रायः यही जानते हैं कि भारी बोझ उठाने से कभी-कभी नाभि सरक जाता है,जिसे आम भाषा में नाला उकसना या धरण पड़ना कहते हैं। डॉक्टरी भाषा में इसे वेनाकाभा का सरकना (displacement of Venacaba ) कहते हैं। आधुनिक जीवन-शैलीभाग-दौड़, तनाव-दबाव भरे प्रतिस्पर्धा-पूर्ण वातावरण में काम करते रहने के कारण व्यक्ति का नाभि-चक्र निरंतर क्षुब्ध होते रहता है। परिणामतः नाभिचक्र अव्यवस्थित हो जाता है। झटका या भारी बोझ उठाना तो मुख्य कारण है ही। पेट की पुरानी बीमारियों में भी प्रायः धीरे-धीरे नाभिचक्र प्रभावित होने लगता है,और फिर अन्य लक्षण भी प्रकट होने लगते हैं। इस स्थान के संतुलक तन्तु शनैःशनैः ढीले होने लगते हैं,और जरा-जरा में नाभि सरकने की समस्या खड़ी हो जाती है। जीर्ण उदर रोगियों में ऐसी घटना का इतिहास प्रायः अवश्य मिलता है। 
      जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है,इस केन्द्र की स्थान-भ्रष्टता चारों ओर कहीं भी हो सकती है। चार ही नहीं, दशो दिशाओं में कहना उधिक उचित होगा। भ्रष्टता की ये स्थितियाँ मुख्य रुप से दो प्रकार की होती हैं—प्रथमतः विशिष्ट अथवा तीव्र प्रभावकारी, जिसका लक्षण भी सद्यः प्रकट हो जाता है। नानाविध परेशानियां शुरु हो जाती हैं,फलतः ध्यान तुरत चला जाता है, किन्तु  द्वितीय स्थिति में अति सामान्य भ्रष्टता होती है,जिसका अनुभव रोगी को प्रायः नहीं हो पाता है,क्यों कि तत्काल कोई लक्षण(कष्ट) प्रतीत नहीं होता । यहां तक कि सामान्य भ्रष्टता का निदान चिकित्सक के लिए भी कठिन होता है। यह सामान्य भ्रष्टता ही आगे चल कर जटिल उदर-व्याधियों के गिरफ्त में ले जाता है। लंबे समय तक नाभि-चक्र के अव्यवस्थित रहने से उदर विकार के अलावा आसपास के क्षेत्र—मूत्राशय, गर्भाशय,डिम्बाशय आदि भी प्रभावित होने लगते हैं। स्त्रियों का मासिक-चक्र असंतुलित हो जा सकता है। इतना ही नहीं दांत, नेत्र, बाल आदि के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। दांतों की स्वाभाविक चमक कम होने लगती है। यदाकदा दांतों में पीड़ा होने लगती है। नेत्रों का सौन्दर्य व ज्योति क्षीण होने लगती है। बाल असमय सफेद होने लगते हैं। आलस्य,थकान,चिड़चिड़ाहट,काम में मन न लगना,दुश्चिंता,निराशा,अकारण भय जैसी नकारात्मक वृत्तियाँ भी हावी होने लगती हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि नाभिचक्र के असंतुलन से मनुष्य शारीरिक-मानसिक, आध्यात्मिक  तीनों रुपों से प्रभावित हो जाता है।
नाभिचक्र के स्थान-भ्रष्ट होने की घटना ज्यादातर ऊपर या नीचे ही होती है। ऊपर की ओर सरकने से कठोर कोष्ठबद्धता ( constipation), सामान्य या तीब्र सिरदर्द (माइग्रेन या आधाशीशी), आँखों तले अन्धेरा छाना,रोशनी कांपती हुयी प्रतीत होना, सुस्ती, थकान, बैचैनी, चिड़चिड़ापन, अन्यमनस्कता आदि लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। एवं नाभि-केन्द्र के नीचे की ओर सरकने से उदर में असह्य वेदना,पतले दस्त,मरोड़,मिचली ,वमन, वदहजमी आदि लक्षण पाये जाते हैं। अन्य दिशाओं में भ्रष्टता की स्थिति में उक्त दोनों में से कुछ भी,या मिश्रित लक्षण देखे जाते हैं,ऐसी स्थिति में निदान(निश्चय) करना कठिन हो जाता है।
यदि नाभि-स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है याने छाती की तरफ तो अग्न्याशय और फेफड़े भी प्रभावित होने लगते हैं।  मधुमेहअस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए तो पतले दस्त होने लगते हैं। बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कफ-जनित रोग जल्दी-जल्दी होते हैं। दाहिनी तरफ हटने पर यकृत(Liver) खराब होकर अरुचि,मंदाग्नि, अपच,अफारा जैसी बीमारियाँ  हो सकती है। पित्ताधिक्य, एसिडजलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं। चुंकि इसमें सूर्यचक्र निष्प्रभावी हो जाता है, जिसके लक्षण स्वरुप गर्मी-सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है। 
यदि नाभि पेट के ऊपर की तरफ आ जाए यानी आगे की ओर निकल(खिसक) आये, तो मोटापा हो सकता है, या वायु विकार (गैस आदि शिकायत) हो सकता है। नाभि नीचे (पीछे) की ओर (रीढ़ की हड्डी की तरफ) चली जाए तो व्यक्ति कुछ भी खाए, वह दुबला होता चला जाएगा,यानि पोषक-तत्त्वों का संतुलन विगड़ जायेगा। मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमताएँ भी कम हो जाती हैं।
गौर तलब है कि नाभि-चक्र सही रुप से काम कर रहा होता है, तभी स्त्रियाँ गर्भ-धारण योग्य होती हैं। यदि  मध्यम स्तर से खिसककर नीचे (पीछे) रीढ़ की तरफ चली जाए तो ऐसी स्थिति में गर्भ-धारण कदापि नहीं हो सकता। वस्तुतः इस अवस्था में डिम्बवाहिनी नलिका ( Fallopian tube) अवरुद्ध होकर,प्रभावित हो जाती है। और जब डिम्ब का संचार ही नहीं, फिर गर्भ-धारण कैसे !  
इस प्रकार हम देखते हैं कि नाभि-चक्र का महत प्रभाव और उपयोग है मानव जीवन में। अतः इसकी महत्ता को ध्यान में रखते हुए,सम्यक् परीक्षण और फिर परिष्कार की आवश्यकता है।
नाभि-चक्र-परीक्षण-विधिः-
नाभि-चक्र-परीक्षण की अनेक विधियां हैं,जिनमें तीन-चार प्रमुख हैं। यथा-
(क)प्रातःकाल खाली पेट की स्थिति में रोगी को शान्त मुद्रा में पीठ के बल लिटा कर,तथा दोनों पैरों को घुटनों से मोड़कर खड़ा रखते हुए, चिकित्सक अपने हाथ का अँगूठा रोगी के नाभि-स्थान पर(गड्ढे में)हल्के दबाव पूर्वक रखे। इस स्थान पर हृद्स्पन्दन-तुल्य अनुभूति होगी। सामान्य स्थिति में कुछ अनुभव न हो तो,जरा और दबाव देकर देखना चाहिए। क्यों कि खास कर चर्वीदार उदर में नाभि-चक्र की सही स्थिति के लिए थोड़े गहराई में जाना पड़ता है। पुरुष की तुलना में भी नारियों में अपेक्षाकृत अधिक गहराई में जाना पड़ता है,तभी पता चल पाता है। सही स्थान पर सही रुप से स्पन्दन की अनुभूति नाभि-चक्र के सही होने की सूचना है।
       उक्त स्थिति में प्रथम परीक्षण-क्रम में स्पन्दन सही स्थान पर,सही रुप से न मिले तो उसी अवस्था में धीरे-धीरे अंगूठे को अगल-बगल—यानी अंगूठा तो पूर्ववत नाभि गह्वर में ही रहेगा,किन्तु दबाव विविध दिशाओं में देंगे। ध्यान देने की बात है कि अंगूठे के प्रत्येक परिवर्तन पर जरा रुके,और स्पन्दन की प्रतीक्षा करे,ऐसा नहीं कि शीघ्रता से भ्रमण करता रहे। आहिस्ते-आहिस्ते स्थान परिवर्तन(दाब की दिशा) करते हुए,स्पन्दन की खोज करे। कहीं न कहीं स्पन्दन अवश्य मिल जायेगा। हां,यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति में स्पन्दन की मात्रा(वेग) और अवधि समान हो। किसी किसी व्यक्ति में स्पन्दन इतना मन्द होगा कि नये अभ्यासी (परीक्षक) को जरा भी अनुभव नहीं हो पायेगा। अतः परीक्षक को शान्त चित्त होकर परीक्षण करना चाहिए। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि एक बार के परीक्षण में कुछ भी अनुभव न मिले। ऐसी स्थिति में कुछ देर बाद पुनर्परीक्षण करे।  कहीं न कहीं स्पन्दन तो मिलना ही है। स्पन्दन की दिशा-परिवर्तन ही भ्रष्टता की सूचना है। परीक्षण की यह विधि सबसे अच्छी और विश्वस्त कही गयी है।

(ख)पूर्ववत मुद्रा में ही रोगी लेटा रहे। करीब 30-40 से.मी. लम्बा, जरा मोटा धागा लेकर, उसका एक छोर नाभि स्थान पर रखे,तथा दूसरे छोर को चुचुक(nipple) पर रखे,और इस स्थान पर निशान डाल दे धागें पर। अब पहले छोर को यथावत नाभि पर ही रखते हुए,दूसरे छोर को उठाकर,दूसरे चुचुक पर ले जाये,और ये देखे कि पूर्व में लगाये गये निशान पर ही आया है,या कि भिन्न(आगे-पीछे)। चुचुक(वायें-दायें) परिवर्तन क्रम में सावधानी वरतें कि नाभि-केन्द्र पर रखे गये धागे का स्थान न सरक जाये,अन्यथा निर्णय गलत होगा,क्यों कि मापन का आधार-विन्दु नाभि ही है। दोनों चुचुकों से नाभि-केन्द्र की दूरी की समानता स्वस्थ नाभि-केन्द्र का सूचक है,और असमानता,अस्वस्थ का। ध्यातव्य है कि इस परीक्षण में सिर्फ दो ही विकल्प (रिजल्ट) हैं। स्थान भ्रष्टता की सही दिशा (दश में कौन) का निश्चय कदापि नहीं हो पाता। इस परीक्षण-विधि की सबसे बड़ी  खामी ये है कि पुरुषों में तो इसका प्रयोग आसान और व्यवहारिक है,किन्तु स्त्रियों में अव्यवहारिक के साथ-साथ काफी उलझाउ भी। फिर भी परीक्षण की यह विधि काफी लोक-प्रचलित है। नाभि-चक्र का जरा भी ज्ञान रखने वाला हर जानकार इस विधि का प्रयोग प्रायः करता ही है।

(ग)परीक्षण की इस तीसरी विधि में भी रोगी की शारीरिक मुद्रा पूर्ववत ही रहेगी। रोगी के पैर के दोनों अंगूठों को आपस में सटाकर,दोनों नोकों पर परीक्षक गौर करे। यहां ध्यान रखने की बात है कि दोनों पैर के टखनों (ankle) को आपस में सटायेंगे(मिलायेंगे) और तब अंगूठों के नोक को देखेंगे। यानी मापन का आधार विन्दु टखना है। यदि दोनों अंगूठे समान ऊँचाई बतलावें तो समझना चाहिए कि नाभिचक्र यथा स्थिति सही है। स्थान-भ्रष्टता कि स्थिति में एकाध सें.मी. तक का अन्तर पाया जा सकता है। वैसे मी.मी.का अन्तर भी शरीर को प्रभावित करने हेतु पर्याप्त है,जो कि नये परीक्षक की पकड़ में भी नहीं आ पाता। ध्यातव्य है कि यहां भी इस बात का निर्णय नहीं हो पा रहा है कि भ्रष्टता किस दिशा में है। परीक्षण की विधि तो अति सरल है, किन्तु निदान ठोस नहीं हो पाने के कारण त्रुटिपूर्ण ही है।

(घ)परीक्षण की एक चौथी विधि भी कही गयी है। शान्त चित पलथी मार बैठ जाये। दोनों हथेलियों को आपस में सटाये। ध्यान रहे कि हथेली में आयुरेखा कही जाने वाली मोटी लकीर,जो कनिष्ठा के नीचे से प्रारम्भ होकर अंगूठे की ओर जाती है,को आपस में मिलाना है। यानी इस परीक्षण-विधि में आधार-विन्दु यही रेखा है। अब दोनों हाथ की कनिष्ठा अंगुली की नोक को देखे। यदि वे बिलकुल बराबर हैं, यानी इधर आयुरेखा मिल रही हो,और उधर कनिष्ठा का नोक मिल रहा हो,तो समझे कि नाभिचक्र सही स्थान पर है,अन्यथा भ्रष्ट है। परीक्षण की इस विधि में भी वही त्रुटि है जो ऊपर कही गयी विधि—ग में है। इसे चित्रांक 34 में दिखलाया गया है—चित्र में स्पष्ट देखा जा सकता है कि कनिष्ठाग्र के साथ-साथ दोनों हथेली की आयुरेखा और मातृरेखा का मिलन हो रहा है,यानि नाभिचक्र सही स्थान पर है।




इस प्रकार हम पाते हैं कि नाभिचक्र परीक्षण की सर्वोत्तम विधि प्रथम विधि ही है, जो अपने आप में परिपूर्ण है। नये परीक्षकों को चाहिए कि सुविधानुसार सभी विधियों को आज़मा कर अवश्य देखें। परीक्षण हो जाने पर उपचार की बात आती है।
क्रमशः...

Comments

  1. बहुत उपयोगी जानकारी है

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  2. नाभी चिकित्सा पर मेरे बहुत से लेख विभिन्न पत्रिकाओं मे प्रकाशित होते रहते है

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