नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)

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ग्यारहवें अध्याय का तीसरा भाग-


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ग्यारहवें अध्याय का तीसरा भाग

परिष्कार विधि— नाभिचक्र का सम्यक परीक्षण हो जाने के बाद परिष्कार का उपाय करना चाहिए। परिष्कारोपचार हेतु समय और शारीरिक मुद्रा परीक्षण क्रमांक क की तरह ही होनी चाहिए। यानी सुबह शौचादि से निवृत होने के बाद,खाली पेट में ही प्रथम उपचार होना चाहिए। बाद के उपचार के लिए सुविधानुसार अन्य समय का चुनाव भी किया जा सकता है, किन्तु पेट का खाली रहना आवश्यक है। यानी भोजन के दो-तीन घंटे बाद के कोई समय का चुनाव किया जा सकता है। उपचार प्रातः-सायं पर्याप्त है।
        उपचार की भी कई विधियां है। सुविधानुसार एकाधिक विधि का प्रयोग किया जा सकता है। ऐसा कोई कठोर नियम नहीं है कि उपचार की एक विधि अपना ली गयी,तो अब दूसरे का प्रयोग वर्जित है। जीर्ण और जटिल स्थिति में तो एकाधिक विधियों का प्रयोग एकाधिक बार करना ही पड़ता है। दूसरी बात यह कि प्रत्येक रोगी के लिए,प्रत्येक उपचार, प्रत्येक स्थिति में करना सम्भव भी नहीं हो पाता। अतः स्थिति और आवश्यकतानुसार विधि का प्रयोग (चुनाव) करना श्रेयष्कर है। मुख्य विधियाँ निम्नांकित हैः-
(1)नाभिचक्र की स्थान-भ्रष्टता को नाड्योपचार की लोकप्रिय विधि से आसानी से ठीक किया जा सकता है। ऊपर दिये गये उदर-प्रदेश के चित्र में हम देख रहे हैं कि नाभि-मंडल के चारों ओर एक-डेढ़ ईंच के वृत्त में क्रमांक दिये गये हैं,जो स्थान-भ्रष्टता के सूचक विन्दु के साथ-साथ शोधक विन्दु भी हैं। परीक्षण क्रम में उस विन्दु को चुटकी से पकड़ने का प्रयास करें,मानों भ्रष्ट स्थान सही रुप से पकड़ा गया है, और अब उसे सही दिशा में यानी केन्द्र की ओर झटके से धक्का दें। धक्का देने में रोगी की उम्र,चमड़ी की बनावट आदि का ध्यान रखना आवश्यक है। यानी बच्चे,बूढ़े,जवान,पुरुष,स्त्री सबके लिए दबाव (धक्के) की मात्रा भिन्न-भिन्न होगी।  इस क्रिया को थोड़ा रुक-रुक कर आठ-दश बार दुहरायें। प्रायः देखा जाता है,नये रोगियों में एक ही बार के (बैठक के) प्रयास से स्थिति सुधर जाती है। पुराने रोगियों में इस क्रिया को अन्य बैठकों में भी करना पड़ता है। नाभिचक्र परिष्कार की यह सर्वोत्तम और सरल विधि है।

(2)पूर्व निर्दिष्ट विधि के अनुसार ही समय,मुद्रा और स्थिति का ध्यान रखते हुए, ऊपर कही गयी परीक्षण विधि- ग के अनुसार पैर के अंगूठे पर गौर करे। तुलनात्मक दृष्टि से जो अंगूठा छोटा मालूम पड़े उसके विपरीत पैर को घुटने से मोड़ दें,यानी उसका कोई उपयोग नहीं है। उपचार कर्ता रोगी के छोटे अंगूठे को कस कर पकड़ ले एक हाथ से,और दूसरे हाथ से उसके पसरे हुए घुटने पर दबाव डाले,तथा पहले हाथ से छोटे अंगूठे को जोर से खींचे- झटका दे-दे कर। इस क्रिया को दो-चार बार करे। और फिर दोनों पैरों को परीक्षण विधि की तरह रख कर मिलान करे। इस क्रिया का  दो-चार बैठकों में प्रयोग करे। नाभिचक्र की स्थान भ्रष्टता दूर हो जायेगी। इस विधि का प्रयोग उस अवस्था में तो विशेष रुप से करे,जब परीक्षण की तीसरी विधि का संकेत मिल रहा हो।

(3)परीक्षण की चौथी विधि के अनुसार भी परिष्कार की विधि है। मान लिया रोगी के बायें हाथ की कनिष्ठिका अंगुली परीक्षण में छोटी प्रतीत हुयी,ऐसी स्थिति में बायां हाख सीधा सामने ले जाये,और दायें हाथ से बायी बांह को (कुहनी और कंधा के मध्य) पूरी ताकत से पकड़ ले। अब प्रभावित (बायी) मुट्ठी को कस कर बन्द करे,और हाथ को झटके से मोड़ कर बायें कन्धे को छूने का प्रयास करे। इस क्रिया को इसी मुद्रा में आठ-दस बार करे। दो-चार बैठकों में नाभिचक्र प्रायः दुरुस्त हो जाता है।

(4)नाभिचक्र की स्थान-भ्रष्टता को ठीक करने के लिए एक विधि आमलोगों में काफी प्रचलित है। अपने आप में यह विधि अच्छी और कारगर तो है,किन्तु किंचित सावधानी  आवश्यक है। अन्यथा काफी परेशानी हो सकती है।
            इस विधि के प्रयोग के लिए समय और स्थिति तो पूर्व विधियों की भांति ही होगी, किन्तु हां,कुछ सामग्री की आवश्यकता होगी। मिट्टी का छोटा सा दीया लेकर घी या तेल की वत्ती पूरित कर दें। बत्ती गोल वाली हो,न कि लम्बी वाली,ताकि दीए में बीचोबीच खड़ा होकर प्रज्ज्वलित हो सके। रोगी के उदर-प्रदेश पर सरसो या तिल तेल की हल्की मालिश कर दें। चित लेटे रोगी के नाभि पर ठीक बीचोबीच दीपक जला कर स्थापित कर दें। अब मिट्टी का एक सकोरा (प्याली- मध्यम आकार का) लेकर उस दीपक पर उल्टा रख दें,और हाथ से हल्का दबाव डालें,ताकि सकोरा स्थिर रहे नाभिमंडल पर। स्वाभाविक है कि थोड़ी देर में सकोरे के अन्दर का ऑक्सीजन शेष हो जायेगा और दीपक बुझ जायेगा। अब,दो-चार मिनट प्रतीक्षा करके,सकोरे और बुझे दीए को हटा लें। इस बैठक का प्रयोग पूरा हो गया। इसी प्रयोग को पुनः-पुनः दो-चार बार प्रयोग करें- प्रातः-सायं क्रम से।
इस विधि में रिक्ततादाब(Vacuum pressure) सिद्धान्त से उपचार हो रहा है। ढक्कन के रुप में व्यवहृत पात्र मिट्टी का ही हो,इस बात का सख्ती से पालन किया जाय। धातु के पात्र से परेशानी भी हो सकती है। रिक्ततादाब के कारण शरीर से पात्र मजबूती के साथ चिपक जायेगा यदि तो निकालना मुश्किल होगा। झटके से खींचना भी उचित नहीं, हो सकता है इससे चमटी उघड़ जाये। मिट्टी का पात्र रहने पर,उसे आसानी से तोड़कर भी हटाया जा सकता है। धातु आदि के साथ ये सुविधा नहीं है। कांच का पात्र रखना भी निरापद नहीं कहा जासकता।

(5)नाभिचक्र की भ्रष्टता को दूर करने के लिए नाड्योपचार के विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्र समूहों में कई केन्द्र भी ऐसे हैं,जिनसे लाभ पाया जा सकता है। उपचार की विधि अन्य व्याधियों की भांति ही है—चित्रांक 22 क-ख क्रमांक 19,20,21 और 29 इसके लिए विशेष उपयोगी हैं।
            चित्रांक 23 क-ख क्रमांक 19,20,21 और 29 इसके लिए विशेष उपयोगी हैं।
(6) नाभिचक्र की भ्रष्टता को दूर करने के लिए कुछखास योगासनों का प्रयोग भी किया जाता है। यथा-उत्तानपादासन, मत्स्यासन, धनुरासन, चक्रासन, वक्रासन आदि। इनके नियमित अभ्यास से धीरे-धीरे नाभिचक्र यथास्थान स्थित हो जाता है। इन आसनों की सही विधि जानने के लिए किसी अधिकारी (श्रेष्ठ)योगासन पुस्तक का अवलोकन करना चाहिए।

(7) नाभिचक्र की भ्रष्टता को दूर करने के लिए पारम्परिक कुछ अन्य विधियां भी हैं,जिनमें एक बहुप्रचलित विधि है—पैर के अंगूठे में (विकृत दिशा में) चांदी के छल्ले पहने से भी भ्रष्टता दूर होती है। स्वस्थ स्थिति में धारण किये रहने से भ्रष्टता की स्थिति ही नहीं बनने पाती। कुछ ऐसे ही वैज्ञानिक शोधपूर्ण अनुभव रहे होंगे भारतीय परम्परा में,जिससे प्रेरित होकर प्रायः महिलायें पैर में चांदी का पोरुआ(विछिया)पहनती हैं। अनजाने में ये प्रथा अब भी जारी है,प्रायः हर समाज में।

(8)आयुर्वेद का एक अद्भुत प्रयोग है नाभिचक्र भ्रष्टता को दूर करने हेतु—आंमले का चूर्ण अदरख-स्वरस में पेस्ट जैसा बना कर नाभिक्षेत्र पर लेप कर,सहज रुप से सूखने के लिए छोड़ दें। बाद में धो डालें। एक दूसरा प्रयोग है—सौंफ और गुड़ का कुछ दिनों तक सेवन- गरम पानी के साथ- खासकर रात सोते समय। इससे पेट भी साफ रहता है, और पित्तज विकृतियां—गैस,अफारा इत्यादि का भी शमन होता है। स्वस्थ व्यक्ति भी इसे सेवन करके , लाभान्वित होसकते हैं।
            उपर्युक्त नियमानुसार नाभिचक्र का परीक्षण और उपचार करने के पश्चात् ही अन्य नवीन या जीर्ण उदर-व्याधियों का उपचार करना उचित है,क्यों कि यदि नाभिचक्र सही नहीं है, तो अन्य कोई भी उदर-व्याधि-उपचार(औषधीय वा एक्युप्रेशरीय) लाभदायक नहीं होगा।
                                   

                                         क्रमशः.... 


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