नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin of Accupressure)

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                            द्वादश अध्याय
                            चिकित्सा-काल
            किसी कार्य के लिए समय के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। यूं तो सामान्यतया नाड्योपचार(एक्युप्रेशर) समय और स्थान सापेक्ष नहीं है—पहाड़ की चोटी हो या घाटी, समुद्रतट हो या मरुस्थल,मैदान हो या सड़क,घर हो या दफ्तर, कहीं भी किसी भी समय सुविधा और आवश्यकतानुसार उपचार लिया जा सकता है; किन्तु ध्यान देने की बात है कि कहीं भी का आशय है—हर हाल में उपचार का नियम-पालन,न कि लापरवाही। वैसे सर्वोत्तम स्थान तो अपना घर (या पेशेवर उपचारक का स्थान) ही हो सकता है,जो स्वच्छ, शान्त,वायु और प्रकाश-युक्त हो। यही बात समय के सम्बन्ध में भी है। यह सही है कि जरुरत के मुताबिक उपचार कभी भी,कहीं भी लिया-किया जा सकता है,किन्तु कभी भी का संकेत आपात स्थिति से है,न कि सामान्य स्थिति में। आधी रात में यदि भयंकर उदर-शूल प्रारम्भ हो जाय, तो प्रातःकाल आने की प्रतीक्षा मूर्खता ही कही जायेगी।  परन्तु सामान्य स्थिति में समय सुनिश्चित होना भी आवश्यक है।
       सुनिश्चित समय के सम्बन्ध में  चीनी विशेषज्ञों का ‘घटिका संकेत’(Organ Clock) चित्रांक 20 भी विचारणीय है, जिसमें यह दर्शाया गया है कि किस अवधि में चेतना-प्रवाह किस ओर(किस अंग में)हुआ करता है। जैसा कि सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि अध्याय में कहा गया है—प्राणशक्ति का अधिकतम वहन प्रत्येक शक्ति-प्रवाह-पथ(meridian) में खास समय में ही हुआ करता है,और उसके ठीक बारह घंटे बाद,उस प्रवाह-पथ की स्थिति ठीक विपरीत यानी न्यून प्रवाह वाली हो जाती है। उदाहरणतया प्रातः 3-5 बजे के बीच फेफड़े के मेरीडियन अधिक प्राणवाही होते हैं। सिद्धान्त कहता है कि प्राण-प्रवाह का उच्चत्तम काल ही सम्बन्धित प्रवाह-पथ के अंग-उपांगों की विभिन्न व्याधियों का प्रकोप(अति प्रभाव)काल होगा। अतः चिकित्सा-काल का नियम कहता है कि उक्त प्रकोप-काल में यदि उपचार किया जाय तो अपेक्षाकृत अधिक लाभ होगा; किन्तु सिद्धान्ततः यह बिलकुल सही होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से सही नहीं प्रतीत होता,इस कारण समुचित पालनीय नहीं कहा जा सकता । फलतः सुविधाजनक काल-निर्धारण उचित प्रतीत हो रहा है।
           आपात तो आपात है ही,शेष यानी सामान्य स्थिति में नाड्योपचार के प्रयोग का कालान्तर(दो बैठकों के बीच का अन्तराल) छः-छः घंटे का होना ही चाहिए,यानि प्रातः, दोपहर, सायं,रात्रि में उपचार लिया जाय। अब अलग-अलग इन चारों कालों पर विचार करना चाहिए—
       प्रातःकाल शौचादि से निवृत्त होने पर,खाली पेट उपचार लेना चाहिए। खाली पेट का मतलब- भोजन,नास्ता आदि ठोस आहार से है। यानी जल,दूध,फलों के रस या अन्य स्वास्थकर पेय पदार्थ वर्जित नहीं हैं। सर्वोत्तम होगा कि मात्र दो गिलास(अधिक नहीं) मौसम के अनुसार शीतल या उष्ण जल-पान करके,उपचार लिया जाय। उपचार समाप्ति के आधे घंटे बाद (सम्भव न हो तो कम से कम 15मि. अवश्य) देर करके ही ठोस आहार (नास्तादि) लिया जाना चाहिए।
            दोपहर के उपचार में भी कुछ ऐसी ही बातों का ध्यान रखना चाहिए। भोजन और उपचार के बीच जितना अन्तराल हो सके वरता जाय। इसमें भी उपचार के बाद भोजन 15 मि.बाद ही लेना चाहिए। जब कि भोजन के बाद उपचार कम से कम 45 मि.के अन्तराल पर लिया जाना चाहिए।
           सायंकालिक उपचार का सम्बन्ध सूर्यास्त से है। दिवा-रात्रि सन्धि-बेला सायंकालिक उपचार का सर्वोत्तम काल है। इस काल की महत्ता पर योगशास्त्रों ने व्यापक प्रकाश डाला है। अतः इसका पालन कर,अपेक्षाकृत अधिक लाभान्वित हुआ जा सकता है।
            रात्रिकालिक उपचार के लिए भी दोपहर की तरह ही भोजन और उपचार के अन्तराल का विचार किया जाना चाहिए। उपचार के तुरत बाद शयन किया जा सकता है।
   उपर्युक्त उपचार का कोई भी काल हो(प्रातः,सायं,दोपहर,रात्रि)इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जोरों की भूख लगी हो तो उपचार न करे। ऐसी स्थिति में सुविधानुसार जल या अन्य पेय लिए जाने चाहिए। उक्त काल-नियमों के अतिरिक्त उपचार के लिए अन्य बातों का ध्यान भी रोगी और उपचार कर्ता को अवश्य रखना चाहिए—
1.बिलकुल भरे पेट में उपचार कदापि न लें।
2.बिलकुल खाली पेट भी उपचार कदापि न लें।
3.स्नान के तुरन्त बाद उपचार लिया जा सकता है,किन्तु उपचार के तुरन्त बाद स्नान कदापि न किया जाय। योगासनों के सम्बन्ध में भी ठीक यही नियम लागू होता है।
4.उपचार के तुरत बाद कठिन शारीरिक श्रम किया जा सकता है,किन्तु कठिन शारीरिक श्रम के बाद तुरत उपचार नहीं लेना चाहिए।
नाड्योपचार के काल सम्बन्ध मात्रा से भी है,अर्थात् नित्य (एक अहोरात्र- 24घंटें में) कुल कितनी बार उपचार लिया जाय। इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों में जरा मतान्तर है। होमियो पैथी की उच्च शक्ति वाली औषधि-सेवन की तरह कुछ विशेषज्ञों की राय है कि शिरादाब उपचार सप्ताह में 1-2 बार लेना ही पर्याप्त है,अधिक की कोई आवश्यकता ही नहीं है। तो दूसरी ओर कुछ विशेषज्ञ ठीक विपरीत—न्यून शक्ति वाली होमियो औषध की तरह अपना तर्क देते हैं—यानी  प्रति दिन 6-8 बार उपचार लेना चाहिए। किन्तु विशेषज्ञों के ये दोनों मत अपने-अपने अति की सीमा पर हैं। फलतः भ्रामक और अनुचित प्रतीत होते हैं—सात दिन में एक बार,और एक दिन में सात बार—का क्या औचित्य ! अति आहार,अल्प आहार, अनियमित आहार,जिस भांति तीनों अनुचित हैं,उसी भांति उक्त दोनों अतिमूलक सिद्धान्तों का मध्यम मार्ग ही सर्वोचित प्रतीत होता है। क्यों कि सप्ताह में एक बार उपचार लेने का कोई अर्थ ही नहीं। नाड्योपचार कोई यौगिक शंखप्रक्षान की क्रिया नहीं है,जो साप्ताहिक या पाक्षिक किया जाय। यह तो किसी व्याधि का उपचार है,जो व्याधि की स्थिति और उग्रता के अनुसार उपचार की अपेक्षा रखता है। ठीक दूसरी ओर प्रतिदिन सात-आठ बार का उपचार  भी बेतुका है- ठीक वैसा ही,जैसे तन्दुरुस्ति के लिए घी,दूध,विटामिन के टब में डुबकी लगाना। क्यों कि इससे लाभ के वजाय हानि की ही अधिक आशंका है। क्यों कि विहित विधि से उपचार करके एक ओर प्राण-प्रवाह को सक्रिय और सबल बनाया जाता है,तो दूसरी ओर अनियमित तौर पर अति दबाव(अनावश्यक,बार-बार )से उपचारित केन्द्र को दुर्बल और निष्क्रिय होने को उत्प्रेरित किया जाना है। अति उपचार के सम्बन्ध में एक और बात ध्यान देने योग्य है,जैसा कि सिद्धान्त अध्याय में बतलाया जा चुका है—नाड्योपचार प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देने से रक्तवाहिनियों(blood vessels) एवं स्नायुसंस्थान (Nervous system) के अवांछित पदार्थ धक्के खाकर बाहर निकलते हैं, और दाब उपचार के इस क्रम में गुर्दों (kidney)को आवश्यकता से अधिक कार्य करना पड़ जाता है जहरीले तत्त्वों  (toxin)का बोझ उठाकर। परिणामतः बारम्बार के दबाव से गुर्दों को अनावश्यक छेड़छाड़ होने से नुकसान होने का खतरा रहता है,साथ ही एक ही स्थान पर बारबार दबाव पड़ने से तत्स्थानीय उत्तकों (tissues)को भी नुकसान पहुंचने की आशंका रहती है। उपचार का अन्तराल कम रहने से प्राकृतिक(स्वाभाविक)रुप से उन्हें सुधरने का अवसर नहीं मिल पाता, जिसके परिणामस्वरुप भीतर ही भीतर जख़्म बनने का भी खतरा पैदा हो जाता है । अतः सर्व सम्मति से मध्म मार्ग का अनुकरण करते हुए कहा जा सकता है कि आपात स्थिति को छोड़कर सामान्य स्थितियों में प्रति चौबीस घंटों में उपचार-बैठक चार बार से अधिक कदापि न हो। दो-तीन बार हो तो अतिउत्तम। इस प्रकार प्रत्येक बैठक का अन्तराल क्रमशः 6-8-12 घंटे का उत्तरोत्तर उत्तम माना जाता है।
समय सम्बन्धी एक और बात ध्यान देने योग्य है,जिसे काल-नियम का अपवाद कह
सकते हैं—हृदय,फेफड़े और गुर्दों की जीर्ण व्याधियों का उपचार प्रारम्भ करते समय प्रारम्भिक दो-चार दिनों तक चौबीस घंटों में मात्र एक बार ही उपचार करना उचित है,वो भी रोग और रोगी का विचार करते हुए,काफी सावधानी पूर्वक। इस नियम को अत्यावश्यक समझकर पालन करना चाहिए। अन्यथा उपचार कर्म की असावधानी और अज्ञानता का दोष नाड्योपचार पद्धति पर लगेगा, और दूसरी ओर रोगी को लाभ के वजाय हानि की ही अधिक आशंका रहेगी।
            नाड्योपचार क्रम में काल-निर्धारण का उपर्युक्त सभी सिद्धान्त(नियम)सिर्फ अहोरात्र (प्रति चौबीस घंटों में) उपचार-बैठक का काल-निर्धारण करता है। इस प्रकार यह तो स्पष्ट हो गया कि नित्य प्रति किस स्थिति में कितनी बार उपचार लेना चाहिए। किन्तु प्रतिबार(प्रति बैठक)कितने समय तक उपचार करना है,यह भी विचारणीय है,क्यों कि ‘ किस समय ’ के साथ-साथ ‘ कितने समय ’ का विचार रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
            काल-निर्धारण के इस द्वितीय खंड के भी दो उपखंड हैं—1.बैठक का कुल समय कितना होना चाहिए , और  2.एक विन्दु पर कितना समय देना चाहिए ।
            सामान्यतया किसी भी व्याधि में कम से कम एक-दो-तीन प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर उपचार करना होता है। कभी-कभी उपचार के लिए विहित विन्दुओं की संख्या आठ-दस भी हो जाती है,साथ ही शरीर के कई प्रतिबिम्ब समूहों पर इतनी ही(या कुछ कम) संख्या में विन्दुओं का चुनाव करना पड़ता है,और इस प्रकार कुल संख्या काफी अधिक और उबाऊ हो जाती है। उदाहरणार्थ—सर्दी,खांसी,बुखार,पेट दर्द,मरोड़,दस्त आदि कई-कई लक्षण एक साथ प्रकट होते हैं,ऐसी स्थिति में विन्दु परीक्षण करने पर एक साथ करीब 14-20 विन्दु उपचार-संकेत दे रहे होते हैं- किसी एक वोर्ड पर। और इस प्रकार पूरे शरीर का परीक्षण करने पर कुल संख्या सौंकड़ों में हो जाती है। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि क्या सभी विन्दुओं पर उपचार किया जाय? क्यों कि सिद्धान्त कहता है—जहां दुःखे वहां दबावो। किन्तु बात ऐसी नहीं है। अति विन्दु संकेत की स्थिति में चिकित्सक का कर्तव्य होता है कि विन्दुओं की छंटाई वरीयता क्रम से की जाय, या फिर व्याधि के मूल कारण का अनुसंधान किया जाय। और इस निर्णय पर पहुंचने के लिए नाड्योपचार सिद्धान्त का ज्ञान रखने के साथ-साथ शरीर-शास्त्र,और रोग-निदान-सिद्धान्त का भी भरपूर ज्ञान रखना आवश्यक है। यानी स्पष्ट कहें तो पूरे तौर पर चिकित्सा-विज्ञान के सभी उपशास्त्रों का अनुभव और ज्ञान होना चाहिए। किन्तु कभी-कभी पर्याप्त दक्षता के बावजूद विन्दुओं की संख्या कम कर पाना बड़ा ही कठिन कार्य हो जाता है। वैसी स्थिति में उपचार-उपकरणों का उपयोग करके ,समय को समेटा जाना चाहिए।
            सामान्यतः प्रति उपचार बैठक का समय आधा घंटा पर्याप्त है। वच्चों और वृद्धों के लिए इससे भी कम समय रखना चाहिए। किन्तु किसी-किसी जटिल व्याधि में इससे दूना समय भी देना पड़ सकता है,परन्तु इसे सार्वभौम नियम नहीं कहा जा सकता।
            अब रही बात प्रति उपचार केन्द्र पर दिये जाने वाले समय की बात,तो यह समय व्यक्ति,व्याधि और विन्दु सापेक्ष है। अतः इन तीनों बातों पर विचार करना आवश्यक है।
            1)व्यक्ति-सापेक्ष—प्रति प्रतिबिम्ब-केन्द्र पर,प्रति बैठक बालकों के लिए 30सेकेन्ड समय पर्याप्त है। कोमलांगी स्त्रियों के लिए भी यही समय उचित है। पुरुषों के लिए अपेक्षाकृत अधिक समय(45 से 60 सें.)होना चाहिए।
            2)व्याधि-सापेक्ष—एक ही व्यक्ति में अलग-अलग व्याधियों में एक समय में उपचार किए जाने वाले समय में अन्तर होगा। उदाहरणार्थ- पुरुषों के लिए 1मि. का उपचार-काल यथेष्ट माना गया है एक विन्दु पर,किन्तु हृदय,फेफड़े और गुर्दे की व्याधियों में पूर्वोत्तर क्रम से उपचारावधि अधिक रखी जानी चाहिए। यानी गुर्दे हेतु सर्वाधिक(1मि.),फेफड़े हेतु 30सें,एवं हृदय हेतु मात्र 15से.यथेष्ट है।
            3)विन्दु-सापेक्ष—समय की मात्रा विन्दु-सापेक्ष दो तरह से है—एक का सम्बन्ध अवयव से है,और दूसरे का सम्बन्ध प्रतिबिम्ब-समूह(वोर्ड) से है। दोनों ही स्थितियों में समय की सामान्य मात्रा से अपेक्षाकृत अन्तर रखा जाना जरुरी है। उदाहरणतया- हृदय के विन्दु पर सामान्य से काफी कम समय देना चाहिए—कम से कम आधी मात्रा को ही यहां सामान्य माना जायेगा। और संयोग से रोगी यदि हृदय का ही हो तब तो मात्रा और भी कम(चौथाई) हो जायेगी।  इसी भांति और भी सुकोमल और आशुप्रभावी अवयवों के सम्बन्ध में चिकित्सक को अपने विवेक से काम लेना चाहिए। विन्दु-सापेक्षता का सम्बन्ध विभिन्न विन्दु-समूहों से भी है। जैसे- तलवे के केन्द्रों पर सर्वाधिक दबाव दिया जा सकता है। इसकी तुलना में हथेली पर कम समय दिया जायेगा। पीठ,पेट आदि अन्य अंग-विन्दु-समूहों पर और भी कम समय देना होगा। सर्वाधिक न्यून समय चेहरे और कान के केन्द्रों पर दिया जाना चाहिए। इन विभिन्न प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूहों पर समय के न्यूनाधिकता का मुख्य कारण प्रतिबिम्ब-समूहों की सक्रियता का अन्तर ही है,अन्य कुछ नहीं।
            प्रतिबिम्ब-काल-निर्धारण की उक्त मात्रा को परिमित कैसे किया जाय,यह भी विचारणीय है। जिसमें सबसे आसान तरीका हुआ- घड़ी का प्रयोग,किन्तु यह पैमाना सरल होते हुए,जरा कठिन भी है,और झमेले वाला भी। अतः सर्वोचित है- गणना द्वारा मात्रा का निर्घारण। सामान्यतया 100 तक की गिनती किसी एक केन्द्र को उपचारित करने हेतु होना चाहिए। इस सर्वमान्य गणना की मात्रा के अनुसार व्यक्ति,विन्दु और व्याधि का विचार करते हुए संख्या तय करनी चाहिए। किन्तु हां,गिनती की लयबद्धता का ध्यान भी रखा जाना चाहिए। अन्यथा वास्तविक समय में काफी अन्तर आ जायेगा,जो कदापि उचित नहीं है। अतः गिनी जाने वाली संख्याओं का अन्तराल सम्यक् और एकवद्धता-पूर्ण हो- इस बात का सदा ध्यान रखा जाय।
            नाड्योपचार पद्धति के प्रयोग हेतु सभी निर्दिष्ट काल-नियमों का यथासम्भव पालन अति आवश्यक है,तभी उचित लाभ प्राप्त हो सकेगा,और पद्धति के दुष्परिणामों से बचा जा सकेगा। क्यों कि अपने अनुभव में मैंने पाया है कि पद्धति की ज्यादातर वदनामी प्रयोगकर्ता(चिकित्सक)की लापरवाही  के कारण होती है,न कि पद्धति स्वयं में दोषपूर्ण है। अस्तु।
                                       
 

           
           

           क्रमशः... 

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