गतांश से आगे...
चतुर्दश
अध्याय—लाभालाभ
लाभ— पूर्व
अध्यायों में नाड्योपचार के सम्बन्ध में काफी कुछ कहा जा चुका है। उन सबका सम्यक्
अध्ययन,मनन,अवलोकन और विश्लेषण करने पर इस तथ्य पर आसानी से पहुँचा जा सकता है कि एक्युप्रेशर
उपचार से काफी लाभ है। इन लाभों पर एकबार पुनः विहंगम दृष्टिपात कर लिया जाए। नाड्योपचार
से मिलने वाले लाभों को वर्तमान एक्युप्रेशर के कार्यों और प्रभावों के नजर से
परखा जाय तो अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट होगा।
मानव का मूल धन है—स्वास्थ्य,जिसके
प्रति आधुनिक भाग-दौड़ वाले जीवन में काफी लापरवाही और उदासीनता वरती जा रही है।
स्वास्थ्य और आरोग्य पर विचार, प्रायः पराया विषय सा हो गया है। बीमार
होकर,नर्सिंगहोम में भर्ती होकर,अपने स्वास्थ्य की कुंजी डॉक्टर और नर्स के हाथों
सौंप कर निश्चिन्त हो जाना लाचारी और फैशन दोनों हो गया है। आहार-विहार का भयावह
विपर्यय (उल्टा-पल्टा) अनेकानेक जटिल व्याधियों को उत्पन्न कर दिया है,जिनसे त्राण
पाना मुश्किल पड़ रहा है। इस बुरी और चिन्ता-जनक स्थिति में अपनी आदतों में
सुधार(परिष्कार)लाने के लिए अवसर देना—नाड्योपचार पद्धति का अहम कार्य है। इस
पद्धति के प्रभाव और चमत्कार से प्रभावित होकर अभिज्ञान की प्राप्ति (गलत भटकाव से
वापसी) नाड्योपचार पद्धति का दूसरा महत्त्वपूर्ण लाभ है।
नाड्योपचार(एक्युप्रेशर)पद्धति के
त्वरित दृश्यमान प्रभावों में वेदना-निवारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सिर का दर्द
हो या कि सन्धि-स्थलों (joints pain) का ,दांत का दर्द हो या कि कमर की
पीड़ा,या चोट-मोच जनित पीड़ा हो, एक्युप्रेशर उपचार से फौरन लाभ मिलता है।
एक्युप्रेशर उपचार तन्द्राकारक प्रभाव
(sedative
effect) उत्पन्न करता है,जिसका प्रमाण E.E.G.(Electro
encephalo gram) जांच से प्राप्त किया जा सकता है। कुछ विशिष्ट
विन्दुओं पर उपचार करके देखा गया है कि मस्तिष्क में डेल्टा और थीटा तरंगे कम हो
जाती हैं,जिससे प्रमाणित होता है कि मन को शान्ति मिली। वर्तमान समय में (अन्य
कालों में भी) मानसिक शान्ति सर्वाधिक अनमोल वस्तु है,जिसे नाड्योपचार के सामान्य
अभ्यास से भी प्राप्त किया जा सकता है।
आहार-विहार विपर्यय,पर्यावरण और खाद्य
सामग्रियों की आधुनिकतापूर्ण विकृति आदि कारणों से मनुष्य में
रोग-प्रतिरोधी-क्षमता का ह्रास दिनानुदिन काफी
तेजी से होता जा रहा है। परिणामतः रोग-प्रभाव का क्षेत्र पूर्वापेक्षा अधिक
गहराता जा रहा है। इस जटिल समस्या का भी सहज समाधान है नाड्योपचार के पास। रोग-प्रतिरोधी-क्षमता
को मजबूत करने में एक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति काफी लाभकारी सिद्ध हुआ है।
चुंकि एक्युप्रेशर उपचार पूर्णरूपेण
प्राकृतिक नियमों पर आधारित है, इस कारण विशिष्ट जीवनी-शक्ति प्रदान कर रोग-रिपु
से लड़ने में सहायक है।
चुंकि यह सिर्फ उपचार नहीं है,बल्कि
अभ्यास भी है,जिसके नियमित पालन से
मनुष्य
बीमार होने से बचा रह सकता है। नियमित अभ्यास से शारीरिक सुधार के साथ-साथ मानसिक
सुधार भी होता है। नयी चेतना का संचार होकर,अद्भुत स्फूर्ति प्राप्त होती है।
कायगत अवांछित तत्त्वों का परिमार्जन होता है। अस्थि-संस्थान( Skelton
system) में सुदृढ़ता आती है। मांसपेशियाँ सबल होती हैं।
अन्तःस्रावीग्रन्थियों ( endocrine glands)की कार्य-प्रणाली
में सुदृड़ता आती है। और इन सबके परिणाम स्वरुप नित्य अभ्यासी का कायाकल्प हो जाता
है।
नाड्योपचार अत्यन्त सरल और सहज
ग्राह्य है। नर-नारी,आबालवद्ध इसे बड़ी आसानी से अपना सकते हैं। घर बैठे,अपने
हाथों से आवश्यक रोगोपचार के साथ-साथ रोग-रक्षण भी हो जाता है। और सबसे बड़ी बात है
कि पैसे की बरबादी और प्रति-प्रभावों का खतरा भी नहीं रहता। और न अन्य किसी
चिकित्सा पद्धति से किसी तरह का टकराव ही है, यानी रोगी यदि चाहे,तो किसी पद्धति
की कोई दवा खाते रहते हुए भी इस अभ्यास को जारी रख सकता है। अतः निर्द्वन्द्व भाव
से इसे अंगीकार किया जा सकता है।
हानि— स्थूल रुप से विचार करने पर एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति
के सिर्फ लाभ ही लाभ नजर आते हैं,हानि के नाम पर कुछ भी नहीं मालूम पड़ता। वस्तुतः
इसकी हानियाँ हैं भी नहीं,किन्तु लाभ को गुण और हानि को दोष मानकर सूक्ष्म विचार
करें तो किंचित दोष अवश्य मालूम पड़ेंगे। यथा—
1.वर्तमान समय में मानव जीवन जटिलताओं और संघर्ष से परिपूर्ण
है। ग्रामीण परिवेश की अपेक्षा,शहरी परिवेश,विशेष कर महानगरीय वातावरण में
व्याधियों का वाहुल्य है, किन्तु दुर्भाग्यवश समय का भी पर्याप्त अभाव है। हर कुछ
मशीनी हो गया है। परिणामतः मानव भी मानव न रह कर मशीन बन गया है। समय भी यन्त्रवत
हो गया है। ऐसी स्थिति में एक्यूप्रेशर जैसी स्व-उपचार पद्धति ,जो दीर्घ समय-साध्य
पद्धति है,इसके लिए समुचित उपचार हेतु समय निकालना कठिन ही नहीं असम्भव सा है। ऐसी
स्थिति में स्वास्थ्य रक्षात्मक अभ्यास तो दूर की बात है,रोग निवारण उपचार भी
नियमित रुप से कर पाना हर कोई के वश की बात नहीं है। सामान्य से सिर दर्द को दूर
करने के लिए शरीर के दो-चार स्थलों पर इत्मिनान से बैठ कर दबाते रहने से बेहतर
लगता है- चटपट दर्द-निवारक कोई टिकिया खा लेना। और आम आदमी यही करता भी है। इस
प्रकार इसे एक उबाऊ पद्धति कह सकते हैं।
2.प्रायः रोगों के उपचार हेतु एक साथ कई प्रतिबिम्ब केन्द्रों
पर ,नित्य कई बार दाब उपचार करना पड़ता है। समय भी काफी लगता है(घंटे भर या इससे
भी अधिक)जो बिलकुल ही उबाऊ प्रक्रिया है। फलतः रोगी प्रारम्भ तो चिकित्सक के सुझाव
और प्रभाव में आकर अभ्यास शुरु भी करता है,किन्तु लम्बे समय तक उसका निर्वाह कर
पाना कठिन हो जाता है। परिणामतः उपचार सुचारु रुप से चल नहीं पाता,जिसके कारण
रोग-मुक्ति भी नहीं होती,
और
रोगी को लगता है कि हम नाहक ठगे गये।
3.कुछ ही व्याधियाँ ऐसी हैं ,जिनमें त्वरित लाभ परिलक्षित
होता है,अन्य बीमारियों में काफी समय तक(2-4-6 माह)उपचार करना पड़ता है,जब कि रोगी
आतुर होता है— शीघ्र आरोग्य प्राप्ति हेतु। रोगी को तो त्वरित लाभ चाहिए,भले ही
उसका प्रतिप्रभाव(side effect) क्यों न हो, या कि उपचार अधिक
खर्चीला ही क्यों न हो।
4.वस्तुतः यह बुद्धिजीवी वर्ग की चिकित्सा पद्धति बन कर रह
गयी है। सामान्य जन को पद्धति के प्रति आकर्षण और विश्वास जम नहीं पाता।
5.आधुनिक व्यावसायिकता-प्रधान युग में जहां कि सभी चिकित्सा
पद्धतियां पूर्णरुप से व्यावसायिक बन कर रह गयी हैं,(जबकि चिकित्सा अपने आप में
सेवा-कार्य है,होना भी चाहिए)। इसका प्रभाव इस निःशुल्क सेवा पद्धति पर भी
संक्रामक रुप से पड़ा है। आये दिन देखने-सुनने को मिलता है कि एक्युप्रेशर के नाम
पर भारी भरकम अर्थमोचन कर रहे हैं इसके जानकार लोग। दवा तो नहीं,पर मशीनी चिकित्सा
बना दिये हैं लोग। यह बड़ी ही भयावह और घृणास्पद स्थिति है। इसका दूसरा पक्ष ये भी
है कि रोगी को भी सोचना चाहिए कि कोई मेरे लिए अपना श्रम और समय दे रहा है,उसे कुछ
तो चाहिए ही सेवा के बदले। हां,राजकीय स्तर पर यदि पहल किया जाय तो कुछ कल्याण हो-
जनता का भी और पद्धति का भी। प्रसंगवश यहां मैं अपना एक कटु अनुभव बताना चाहता हूँ—एक
बार एक सेमीनार में मुझे आमन्त्रित किया गया। देश के विभिन्न भागों से एक्युप्रेशर
के जानकार लोग आये थे,जो अपना अनुभव शेयर कर रहे थे मंच पर,साथ ही कुछ परिचय और
निर्देश भी दे रहे थे। किन्तु मुझे यह जान-देख कर बहुत क्षोभ हुआ कि मूल
नाड्योपचार से कोसों दूर की बातें वे कर रहे थे। अनधिकृत रुप से आयुर्वेद की
दवाइयों और बूटियों का प्रयोग सुझाये जा रहे थे,साथ ही उपकरणों के प्रयोग पर भी जोर
दे रहे थे। इतना ही नहीं आधुनिक ढंग से उपचार केन्द्र (क्लीनिक) सजाने और समुचित
शुल्क की भी बात कर रहे थे। सच पूछा जाय तो आधुनिक ढंग से क्लीनिक खोले बैठे
एक्युप्रेशर उपचारकों का शुल्क किसी जाने-माने डॉक्टर से कम नहीं है। और कुल खर्च
भी उसी हिसाब से पड़ जाता है।
निष्कर्ष— उपर्युक्त लाभ-हानियों(गुण-दोषों)
पर गम्भीरता पूर्वक तटस्थ होकर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि नाड्योपचार के
गुण(लाभ) ही प्रधान हैं। किंचित दोष जो दीख रहे हैं,वो वास्तव में पद्धति के
नहीं,प्रत्युत पालक (उपचारक) के हैं। नाड्योपचार एक प्राकृतिक उपचार पद्धति है।
स्रजनात्मक पद्धति है। पोषणात्मक क्रिया है। सुव्यवस्थात्मक क्रिया है। ध्यातव्य
है कि सृजन,पोषण, सुव्यवस्था—अपने आप में समय-साध्य तो होता ही है। आतुरता और
यान्त्रिकता का परिणाम अच्छा नहीं कहा जा सकता । अर्थलोलुप पद्धति के तथाकथित
प्रेमियों (प्रयोगकर्तोंओं) में किंचित विचार-परिवर्तन हो जाय,मानवता का अनमोल रत्न
पहचान में आ जाये,और पद्धति को सेवा भाव से (सामान्य शुल्क पर) जनसामान्य तक
पहुँचाया जाय, तो मानवता का बहुत ही कल्याण हो। इसके लिए स्वयंसेवी संस्थायें और
साथ ही सरकार भी आगे आये और पहल करे। अस्तु।
क्रमशः...
Comments
Post a Comment