नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin Of Accupressure)

गतांश से आगे...
  
                                त्रयोदश अध्याय
                               चिकित्सा-प्रक्रिया
          नाड्योपचार(एक्युप्रेशर)पद्धति द्वारा चिकित्सा करने की मूल प्रक्रिया है—दबाव देना। व्याधि-निदान हो या चिकित्सा सर्व प्रथम और प्रधान क्रिया दबाव डालना ही है। अतः इस सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश डालना अत्यावश्यक है।
            चिकित्सा-प्रक्रिया में मुख्यतया तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है—  1. दबाव कैसे दिया जाय 2. दबाव कितना दिया जाय 3. दबाव किस स्थिति में दिया जाय। यहां उक्त तीन बातों पर किंचित प्रकाश डाला जा रहा है,ताकि चिकित्सा-प्रक्रिया स्पष्ट हो सके। यथा—
1)    प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव कैसे दिया जाय,यह विषय विचारणीय है,क्यों कि गलत ढंग से दिया गया दबाव कदापि लाभकारी नहीं हो सकता। वैसे विशेष हानि की आशंका नहीं है,किन्तु नुकसान की गुंजायश नहीं है,यह सोच कर प्रक्रिया के प्रति लापरवाही वरतना उचित नहीं है। अतः सम्यक् विधि का ज्ञान और अनुपालन अति आवश्यक है। यह दबाव कैसे दिया जाय,इस प्रश्न में भी दो बातें छिपी हैं—
(क) दबाव किस चीज से दिया जाय— किसी भी क्रिया के लिए करण आवश्यक है। एक्युप्रेशर चिकित्सा के लिए भी उक्त करण का विचार समीचीन है। इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण करण साबित हुआ- जापानी एक्युप्रेशर विशेषज्ञ का—हाथ की अँगुली द्वारा दाब उपचार। इस प्रकार शिआत्सु सार्थक हुआ। हाथ की अंगुली रुपी करण का व्यवहार इस बात का संकेत देता है कि इस पद्धति में किसी वाह्य उपकरण की आवश्यकता ही नहीं है। चीनी टिन-एन विशेषज्ञ भी हाथ की अंगुली से ही दबाव देकर उपचार करने की बात करते हैं। भारतीय शिरादाब पद्धति के प्रणेता तो योग-साधना-उपासना से जुड़े हुए हैं ही। शिरादाब की चिकित्सा व्यवस्था इनके लिए अलग से कोई क्रिया तो थी ही नहीं,क्यों कि वह  इनके दैनन्दिन में समाहित थी। तदनुसार स्थानिक आवश्यकतानुसार विभिन्न हस्त-मुद्राओं का व्यवहार किया जाता था,जिसका प्रचलन आज भी उपासना क्रम में जारी है। यौगिक मुद्राओं का विशद उपयोग(प्रयोग) है योग के साथ-साथ कर्मकांडों में भी। भारतीय आयुर्विज्ञान में मालिश की विधि का भी वर्णन है । मूल रुप से  इस मालिश में विन्दुओं का दबाव स्वयमेव समाहित है।

           दबाव-प्रक्रिया का चुनाव व्यक्ति,स्थिति और आंगिक स्थिति के अनुसार करना चाहिए। यह प्रक्रिया काफी हद तक चिकित्सक पर भी निर्भर है,क्यों कि मुख्य उद्देश्य है—उचित दबाव पड़ना, चाहे वह अँगूठे से दिया जाय,या किसी अन्य अंगुली से,या दाब-उपकरण से। आमतौर पर अंगूठा या तर्जनी ही अधिक उपयुक्त जंचता है। इनमें भी अंगूठे से दबाव देना अधिक व्यावहारिक है। दबाव देते समय अंगुठे की स्थिति प्रतिबिम्ब-केन्द्र की आधार रेखा से सीधे  के कोण पर न हो,इससे एक तो दबाव देने में असुविधा होगी,और दूसरी बात यह कि दबाव भी सही ढंग से नहीं पड़ सकेगा। अतः अंगुली और प्रतिबिम्ब-केन्द्र के बीच 40 का कोण बनाना उचित है। इस स्थिति में उचित स्थान पर सर्वाधिक अनुकूल दबाव भी पड़ता है,और अंगुली पर प्रतिकूल श्रम-भार भी नहीं पड़ता। कुछ लोगों को कुछ स्थानों पर तर्जनी या मध्यमा अंगुली से दबाव देना सुविधाजनक लगता है। इन अंगुलियों के साथ भी अंगूठे वाली स्थिति (40 का कोण)ही होनी चाहिए। कभी-कभी अधिक दबाव डालने के लिए एक साथ तर्जनी के साथ मध्यमा का भी सहयोग लिया जा सकता है। ऐसी स्थिति में मध्यमा को नीचे रखते हुए,ऊपर से तर्जनी के सहयोग पूर्वक दबाव देना चाहिए। इन उभय अंगुलियों की स्थिति में भी अंगुलियों का कोण पूर्व क्रमानुसार ही बनना चाहिए। सीधी अंगुली से दबाव देने से सबसे बड़ा खतरा केन्द्र पर नाखून चुभने का होता है। लागातार के इस चुभन से प्रत्यक्षतः उस स्थान पर फफोले हो जा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं भी होता ,तो भी स्थानीय सूक्ष्म कोशिकाओं को तो नुकसान पहुंचता ही है। अतः सीधे (यानी 90  दबाव कदापि न दिया जाए। कभी कभी किसी व्याधि में अंगुलियों का व्यवहार सामूहिक रुप से करना पड़ता है। उदाहरणतया, कब्ज आदि उदर विकारों में तर्जनी,मध्यमा और अनामिका—दोनों हाथ की तीनों अंगुलियों को एक समय में प्रयोग करना पड़ता है। यहां भी ध्यान रखना चाहिए कि अंगुलियों और उपचार किये जा रहे केन्द्रों के बीच का कोण पूर्व कथित (40  ही हो,और इस क्रम में  दबाव नाखून से नीचे, अंगुलियों के मांसल भाग से ही दिया जाए। इतना ही नहीं, चिकित्सक (उपचार-कर्ता) का नाखून हमेशा कटा हुआ (साफ-सुथरा) होना चाहिए। कभी-कभी अंगुलियों को मोड़ कर,मध्यमा के मध्य खंड से ,उल्टे तरफ से दबाव देने की प्रक्रिया भी अपनानी पड़ती है,किन्तु यह उतना लोकप्रिय नहीं है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि त्वचा की रुक्ष बनावट के कारण अथवा किसी केन्द्र विशेष पर विशेष दबाव देने के लिए एक हाथ के अंगूठे पर दूसरे हाथ के अंगूठे का सहारा देकर भी दबाव देना पड़ता है। यूं तो आजकल,एक्यूप्रेशर पद्धति के विशेष प्रचार-प्रसार को देखते हुए, व्यावसायिक बुद्धि अधिक सक्रिय है। फलतः विविध दाब-उपकरण(लकड़ी,प्लास्टिक,धातु आदि के) आ गये हैं बाजार में । उपलब्धि और सुविधानुसार उनका भी उपयोग किया जा सकता है। कभी-कभी एक साथ आसपास फैले केन्द्र समूहों को समान समय में समान रुप से उपचारित करने के लिए खास तरह के विहित उपकरण अनिवार्य हो जाता है। वैसी स्थिति में निःसंकोच रुप से उपलब्ध आवश्यक उपकरणों का व्यवहार किया जा सकता है। लकड़ी के बने उपकरणों को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। प्रदर्शन (दिखावे) के लिए कई विशेषज्ञ विभिन्न तरह के फिजियोथेरापी के उपकरणों को भी अपने एक्यूक्लीनिक में रखते हैं,ताकि रोगी से अधिक पैसा ऐंठा जा सके। किन्तु इससे मूल सिद्धान्त का हनन हो रहा है,साथ ही जनता का भयंकर शोषण भी। गुरुदेव मणिभाई जी ने मात्र चार-पांच उपकरणों का ही प्रयोग किया,उनमें भी मूलतः तीन ही उपकरण हैं,जिन्हें यहां चित्रांक 35 में प्रदर्शित किया जा रहा है।

ऊपर के चित्र में एक को छोड़कर,बाकी उपकरण सुन्दर,सुडौल लकड़ी से बने हैं। इनकी कीमत भी बहुत ही कम है। और आसानी से बाजार में उपलब्ध भी हैं। उचित ये है कि प्रत्येक घर में ये सारे उपकरण अवश्य रखे जायें ताकि समय पर प्रयोग किया जा सके। सबसे लम्बा सा जो उपकरण है,उसे लोग फुटरोलर कहते हैं,जिसे कुर्सी पर बैठ कर पैर के तलवे में आसानी से रोगी स्वयं चला सकता है,या फिर सामने टेबल पर रखकर,दोनों हथेलियों में भी चला सकता है। गुरुदेव ने इसके लाभ को देखते हुए इसका नामकरण किया है – कृपाचक्र । दूसरा उपकरण है शक्तिचक्र, जिसे सुविधानुसार शरीर के किसी भाग में फिराया जा सकता है। किसी प्रकार के मांसपेशियों के दर्द में इसका निरापद उपयोग है। शेष सभी विभिन्न प्रकार के प्रेशरटूल हैं, जिन्हें प्रतिबिम्ब केन्द्रों की स्थिति और आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाना चाहिए। सबसे मोटा चट्टु खास कर तलवे के कठोर चमड़ी के लिए है,और सबसे पतला धातु चट्टु सूक्ष्म विन्दुओं पर आहिस्ते से दबाव देने में उपयोगी है।  
(ख)दबाव किस तरीके से दिया जाय—दबाव किस तरीके से दिया जाए,इसे समझने के लिए रोग-निवारण-सिद्धान्त-अध्याय में वर्णित बातों पर गौर करना चाहिए,ताकि दबाव क्यों दिया जाता है यह बात स्पष्ट हो सके।

नाड्योपचार पद्धति में दबाव का उपयोग निदान और चिकित्सा दोनों उद्देश्य से किया जाता है । जहां दुःखे वहां दबायें का मूल मन्त्र ग्रहण कर निदान  किया जाता है,और पुनः उसी प्रकार चिकित्सा भी की जाती है। प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर खास तरह का दर्द एक प्रकार का संकेत है—उपचारार्थ संकेत,तत्सम्बन्धी अवयव की विकृति यानी अनियमितता का संकेत। इन संकेतों में मुख्य रुप से दो बातें छिपी होती हैं-   (I) उपशामक संकेत और (II) उत्तेजक संकेत। अर्थात संकेत-प्रदाता-केन्द्र(विन्दु) या तो कुछ आधिक्य अनुभव कर रहा है,या अभाव,जिसका वह संकेत है। दर्द रुपी संकेत ही केन्द्र की भाषा है,जिसे समझना चिकित्सक का कर्तव्य है। उक्त दो तरह के संकेतों के आधार पर , केन्द्रों पर दिए जाने वाले दबाव भी दो तरह के होंगे,यानी दबाव देने का दो तरीका होगा—(1) केन्द्र-त्यागी(उपशामक)दबाव,और (2) केन्द्र-गामी (उत्तेजक) दबाव।  अब आगे,इन दोनों स्थितियों का विचार करना है,यानी किस स्थिति में किस, किस स्थान पर,किस प्रकार का दबाव दिया जाए।
(1)    केन्द्र-त्यागी (उपशामक) दबाव (Sedative type of pressure)- शक्ति-प्रवाह-पथ(meridian) में प्राण-शक्ति (ची ) के प्रवाह का एक खास समय-संकेत चित्रांक 20 द्वारा स्पष्ट किया गया है। तदनुसार अहोरात्र(24घंटे)के खास दो घंटों में खास मेरेडियन में शक्ति-प्रवाह अधिक पाया जाता है,जिसके परिणाम स्वरुप उस काल में उस शक्ति-प्रवाह-पथ से सम्बन्धित अवयव रोग-ग्रस्त होकर सम्बन्धित प्रतिबिम्ब-केन्द्र पर वेदना का संकेत भेजता है। उदाहरणतया- दिन में 11 बजे से 1 बजे तक हृदय शक्ति-संचार-पथ(Heart meridian) में प्राण-शक्ति का अतिरेक पाया जाता है। परिणामतः यदि उस काल में इस मेरिडियन से सम्बन्धित किसी भी प्रतिबिम्ब-केन्द्र पर दर्द की अनुभूति(उपचार संकेत)प्राप्त हो तो,उसका उपचार केन्द्र-त्यागी यानी उपशामक दबाव देकर करना श्रेयस्कर है। तात्पर्य यह है केन्द्र-त्यागी दबाव का उपयोग प्रत्येक अतिरेक की अवस्था में किया जाना चाहिए,चाहे वह मेरीडियन से सम्बन्धित हो या कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (Endocrine Glands) या किसी अन्य अवयव से। यानी किसी प्रकार के अतिस्राव,सूजन,उत्तेजना आदि को शमित करने के लिए इस प्रकार के दबाव का उपयोग किया जाना चाहिए। केन्द्र-त्यागी दबाव उत्पन्न संकट का उपशमन करता है,अवयव या ग्रन्थि की अवांछित उत्तेजना को शान्त करता है। अवयविक कार्य-प्रणाली के अतिरेक को नियमित कर, सुख-शान्ति प्रदान करता है।

केन्द्रत्यागी दबाव का तरीका—केन्द्र-त्यागी दबाव देने से पूर्व आवश्यक प्रतिबिम्ब केन्द्र की पहचान उचित रीति से कर लेनी चाहिए। तदुपरान्त केन्द्र स्थान पर जिम्मी(चट्टु) (लकड़ी या प्लास्टिक का छोटा सा दाब उपकरण-चित्रांक 35) को स्थिर कर,गहरा और भारी दबाव देना चाहिए। दबाव देते हुए जिम्मी को इस प्रकार हिलावे कि शनैः-शनैः उत्तरोत्तर वर्द्धमान वर्तुल बनता जाय,जैसा कि आगे चित्रांक 36 क-ख में स्पष्ट दर्शाया गया है। सुविधा और आवश्यकतानुसार यह क्रिया अंगुली से भी की जा सकती है,किन्तु पतली वाली जिम्मी अधिक उपयोगी होता है। जिम्मी या अंगुली को इस प्रकार घुमायें कि प्रतिक्षण एक वर्तुल बन जाए। ध्यान देने की बात है कि केन्द्र-त्यागी दाब का यह तरीका,एक समय में सिर्फ एक ही केन्द्र के लिए उपयुक्त है। अन्य केन्द्र पर आवश्यक हो तो इसी भांति पुनः क्रिया करे। ज्ञातव्य है कि शरीर के सभी प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर इस खास तरह के दाब उपचार की आवश्यकता भी नहीं पड़ती।



(1)    केन्द्र-गामी(उत्तेजक) दबाव( Stimulating  type of pressure)— केन्द्र त्यागी की ठीक विपरीत स्थिति को केन्द्र-गामी कहते हैं। ज्ञातव्य है कि जिस भांति प्रति अहोरात्र(24घंटे)में किसी खास दो घंटे शक्ति-प्रवाह-पथ में अधिकतम प्रवाह होता है,उसी भांति ठीक उसके विपरीत समय में यानी बारह घंटे बाद उस खास मेरीडियन में प्राणशक्ति-प्रवाह न्यूनतम भी हो जाता है,इसे स्मरण दिलाने हेतु  गत अध्याय में दिये गये चित्रांक 20 को यहां पुनः प्रदर्शित करते हैं।


       यूं तो यह सामान्य नियम है कि अधिकतम शक्ति-प्रवाह-काल में ही किसी विकार की अधिक आशंका रहती है,किन्तु कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है,यानी न्यूनतम शक्ति-प्रवाह काल में भी विकार उत्पन्न हो सकता है। परन्तु इस काल में उत्पन्न विकार अतिरेक मूलक न होकर,अभाव मूलक होता है। कहने का तात्पर्य ये है कि दर्द संकेत की स्थिति तो बनेगी,किन्तु वस्तुतः वह अभाव का संकेत होगा,जिसे समझ पाना जरा विकट है। वह निर्बलता या अवसाद का संकेत होगा। शक्ति-प्रवाह-सिद्धान्तों की इन बातों पर गौर करने पर दावे के साथ कहा जा सकता है कि खास तरह की व्याधि खास समय में ही उग्र रुप ले सकती है। जैसे- दिन में 11 बजे से 1 बजे के बीच उच्चरक्तचाप(High Blood Pressure) की शिकायत तेज हो सकती है,किन्तु निम्न रक्तचाप (Low Blood Pressure) की आशंका प्रायः कम ही होगी,क्यों कि यह समय हृदयसंचारपथ के उत्तेजना का काल है। अतः दबाव(चाप)बढ़ने की अधिक आशंका होती है, घटने की कम। इसी प्रकार अन्य मेरिडियनों एवं ग्रन्थियों के साथ भी लागू होता है।
   न्यूनतम  शक्ति-प्रवाह-काल में उत्पन्न अभाव(न्यूनता)संकेत को उपचारित करने के लिए जो दबाव दिया जाता है,उसे केन्द्रगामी दबाव कहते हैं।

केन्द्रगामी दबाव का तरीका—हम स्पष्ट कर चुके हैं कि केन्द्र-त्यागी-दाब के ठीक विपरीत स्थिति है केन्द्र-त्यागी-दाब। अतः इसके उपचार का तरीका भी पहले के ठीक विपरीत ही होगा। यानी केन्द्र त्यागी दाब में उत्पन्न उत्तेजना को उपशमित करते हैं,और इस केन्द्रगामी दबाव में उत्तेजना को उत्पन्न करते हैं। ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार के दबाव की स्थिति में जिम्मी या अंगुली को मूल केन्द्र के केन्द्र में न रख कर,जरा बाहर हट कर स्थापित करेगे,और छिछला(हल्का)दबाव देते हुए,उत्तरोत्तर छोटा वर्तुल बनाते हुए,तीव्र गति से केन्द्र की ओर जायेंगे,जैसा कि चित्रांक 36 ख में स्पष्ट किया गया है। बाहर से केन्द्र की ओर आने की क्रिया एक बार पूरी हो जाने के बाद,पुनः जिम्मी को उठा-उठा कर,पूर्व क्रिया की आवृत्ति करते रहेंगे। यानी परिधि से केन्द्र की ओर। और यह काम आधे से लेकर दो मिनट तक करनी चाहिए। मानसिक अवसाद की स्थिति में आवश्यकतानुसार प्रत्येक 15 से 20 मि. पर उक्त क्रिया को सम्पन्न किया जा सकता है। ध्यान रहे- यह आपातकालिक बैठक का क्रम अन्य केन्द्रों की भांति ही होगा,जैसा कि पूर्व अध्याय में निर्दिष्ट है।
           उपर्युक्त केन्द्र-त्यागी और केन्द्र-गामी दबाव प्रक्रियाओं में (चित्रांक 36 क-ख)में ध्यान देने योग्य बात यह है कि दबाव का तरीका दक्षिणावर्त वा वामावर्त (clockwise or anticlockwise)से मतलब नहीं रखता,बल्कि केन्द्र-त्यागी दबाव देने के लिए दबाव केन्द्र से परिधि की ओर और केन्द्र-गामी दबाव के लिए दबाव परिधि से केन्द्र की ओर होना चाहिए। हां,एक में बनने वाली वर्तुल की गति तीव्र,तो दूसरे में मन्द होनी चाहिए। एक और बात का भी ध्यान रखना जरुरी है कि केन्द्र-गामी दबाव में मुख्य केन्द्र से जरा हट कर दाब-प्रक्रिया शुरु करेंगे,तो केन्द्र-त्यागी विधि में सीधे केन्द्र पर क्रिया प्रारम्भ करेंगे। यानी केन्द्रगामी में आवर्त को क्रमशः छोटा करते जायेंगे,और केन्द्र-त्यागी में क्रमशः बड़ा करते जायेंगे।
        उक्त दो प्रकार के दबाव प्रक्रिया के अतिरिक्त सामान्य तौर पर प्रायः सभी केन्द्रों के लिए व्यवहृत दबाव के लिए दो और तरीके हैं—सीधा और तिरछा दबाव। तिरछे दबाव की प्रक्रिया वस्तुतः केन्द्रत्यागी दबाव का ही विशिष्ट क्रम है, जो किसी खास केन्द्र के लिए व्यवहृत होता है। इस विशिष्ट संकेत को स्पष्ट करने हेतु कहीं-कहीं प्रतिबिम्ब-केन्द्रों के दिये गये चित्रों में विशेष संकेत भी पाया जाता है। डॉ.चु लियेन का कथन है कि कभी-कभी सौम्य उत्तेजना की आवश्यकता महसूस की जाती है, किसी केन्द्र के उपचार के क्रम में। वैसी स्थिति में हल्के धक्के देकर दबाव देना चाहिए। इस स्थिति में ध्यान रहे कि अंगुली या उपकरण सदा मुख्य स्थिति में ही टिका रहे यानी उसका स्थान परिवर्तन हर धक्के के साथ कदापि न हो। इस प्रकार के तिरछे दबाव की आवश्यकता विशेष कर शरीर के सीमावर्ती केन्द्रों पर उपचार करते समय महसूस की जाती है।
        सीधे दबाव की प्रक्रिया दबाव का सर्वाधिक सरल और लोकप्रिय तरीका है। इसमें किसी प्रकार के विनिश्चय की आवश्यकता नहीं है। यानी केन्द्र कैसा, कौन सा,दबाव कैसे दिया जाय आदि बातों के झंझट में जरा भी पड़ने की आवश्यकता नहीं होती।  सीधा दबाव प्रक्रिया में  शक्ति-प्रवाह पथ में न्यून है या अति—इसका भी विचार नहीं किया जाता। अन्य सभी विधियां विशेष अनुभव और ज्ञान पर निर्भर हैं,जब कि सीधा दबाव सामान्य अनुभवी(जानकार)भी सहज ही दे सकता है। इस क्रिया में अंगुली या उपकरण सीधे( 90 )पर न रख कर, थोड़ा तिरछे (40  रखना होता है। साथ ही ध्यान रहे—रोग, रोगी, और उसकी त्वचा की बनावट (सुकोमल,रुक्ष,क्लिष्ट आदि) पर सूक्ष्मता पूर्वक ध्यान देते हुए, यथावश्यक, यथाविधि,यथासम्भव गहरा दबाव डालना चाहिए। प्रारम्भ में दबाव कुछ तेजी से देकर,फिर धीरे-धीरे कम करते जाना चाहिए। किन्तु बाद की मात्रा अधिक होगी,सिर्फ गति कम रहेगी। दूसरी बात यह कि मसलने या रखड़ने जैसा दबाव नहीं देना चाहिए। और न दबाव देकर, लागातार अंगुली या उपकरण को रोके ही रहना चाहिए। अभिप्राय ये कि पम्प की तरह—दबाना-छोड़ना,दबाना-छोड़ना होना चाहिए। पम्पिंग की इस क्रिया को आवश्यकता और स्थिति के अनुसार 10-20-30-40-50-60-या अधिक से अधिक 100 बार तक किया जा सकता है किसी एक विन्दु पर।
                
(2) दबाव कितना दिया जाय— चिकित्सा-प्रक्रिया का अगला विचार विन्दु हैदबाव देने का मूल उद्देश्य ‘रोग-निवारण-सिद्धान्त अध्याय’ में स्पष्ट किया जा चुका है। उसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु दबाव की मात्रा का निर्धारण करना है। दबाव देने का उद्देश्य न तो रोगी को पीड़ा पहुंचाना है,और न सुखानुभूति कराना ही। अतः दबाव उतना ही डाला जाय,जितने से मुख्य उद्देश्य की पूर्ति हो सके,यानी केन्द्रगत अवरोध,उत्तेजना या अवसाद का अन्त हो सके। दबाव की मात्रा कई बातों पर निर्भर है। यानी कि यह मात्रा समय,व्यक्ति और स्थान सापेक्ष है। अतः इन तीनों पर यहां विचार करना उचित प्रतीत हो रहा है—

(क)पात्र-सापेक्ष—  दबाव की मात्रा काफी हद तक पात्र (रोगी व्यक्ति)पर निर्भर है। यानी उपचार किये जा रहे व्यक्ति के अनुसार(उम्र,त्वचा,लिंग आदि) के हिसाव से न्यूनाधिक मात्रा तय की जानी चाहिए। एक बालक को जितनी मात्रा में दबाव दिया जाना चाहिए,स्वाभाविक है कि एक वयस्क के लिए कई गुना अधिक दाब-मात्रा होगी। इसी भांति पुरुष-स्त्री का भी भेद है- मात्रा-निर्धारण में। थोड़ी देर के लिए पात्र-सापेक्षता को उम्रगत न कह कर,त्वचा की बनावट के हिसाब से कहें तो अधिक स्पष्ट होगा। बालक की त्वचा काफी कोमल होती है,इस कारण उसे हल्के दबाव से उपचारित करना चाहिए, जब कि वयस्क को अधिक दबाव दिया जाना चाहिए तभी कारगर होगा। वृद्धों की त्वचा भी किंचित दुर्बल (सुकुमार नहीं) होती है, स्त्रियों की त्वचा बालकों की तरह सुकुमार होती है; एक बुद्धिजीवी और श्रमजीवी की त्वचा में भी अन्तर पाया जाता है —आदि बातों का ध्यान रखना जरुरी है। अन्यथा लाभ के बजाय हानि की आशंका रहेगी। हानि का कारण होगा—उपचार-कर्ता का अनुभव-ज्ञान का अभाव,और बदनामी का सेहरा बँधेगा चिकित्सा-पद्धति पर। अतः सावधान—अपनी कमी(खामी) के कारण किसी पद्धति को हानि न पहुंचायें। इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि पात्र-सापेक्षता सिद्धान्त में मुख्य चार बातें है—रोगी की उम्र,चमड़ी की बनावट,स्वास्थ्य एवं बलाबल। दबाव की विहित मात्रा का निर्धारण अनुभव से ही किया जा सकता है। हालाकि आजकल मात्रक जिम्मी भी बाजार में उपलब्ध है,जिससे यह पता चल जाता है कि हम कितना दबाव दे रहे हैं। प्लास्टिक के बने जिम्मी के नोक वाले भाग में भीतर स्प्रिंग लगी होती है,और ऊपर में निशान, जो पॉन्ड-प्रेशर का माप बताता है। इससे सहज ही पता चल जाता है कि दबाव कितना दिया जा रहा है।

(क) काल-सापेक्ष— चिकित्सा के प्रारम्भ में(निदान क्रम में भी) दबाव की मात्रा काफी कम होनी चाहिए। चिकित्सा के प्रारम्भ में (उपचार क्रम में भी)दबाव की मात्रा काफी कम(हल्की) होनी चाहिए। इस हेतु त्रिसूत्रीय विधि अपनायी जाती है। सबसे पहले प्रभावित (विनिश्चित या अनुमानित) प्रतिबिम्ब केन्द्र का स्पर्श करके(अंगुली से) अनुभव करना चाहिए। इसके बाद आहिस्ते-आहिस्ते मसलना चाहिए (squeezing system) तदुपरान्त रोग-रोगी और स्थान (वोर्ड) का विचार करते हुए,उचित मात्रा में दबाव देना चाहिए। प्रारम्भिक दबाव काफी हल्का,किन्तु गहरा होना चाहिए। फिर धीरे-धीरे स्थिति और आवश्यकतानुसार दबाव जनित अधिक बल का प्रयोग किया जा सकता है। ध्यान रहे कि नवीन व्याधियों में प्रायः प्रारम्भिक दबाव असह्य प्रतीत हुआ करता है,जबकि जीर्ण व्याधियों में केन्द्रगत संवेदनशीलता  भी बढ़ जाती है। कभी-कभी केन्द्र पर इन दोनों बातों का अपवाद भी पाया जाता है। अतः सूक्ष्म विचार(निर्णय)पूर्वक उपचार करना चाहिए।
(ख)      देश-सापेक्ष— दबाव की मात्रा देश(स्थान)सापेक्ष भी है। सच पूछा जाय तो इसका सर्वाधिक महत्त्व है। स्थान(देश)से तात्पर्य है शरीरगत विभिन्न प्रतिबिम्ब केन्द्रों से। अर्थात एक ही व्यक्ति के लिए,एक ही व्याधि हेतु अलग-अलग प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूहों (स्विचवोर्डों)पर दिया जाने वाला दबाव अलग-अलग)मात्रा वाला होगा। जैसे- दमा के मरीज को दमा केन्द्र पर तलवे में उपचार करने के लिए कम से कम चार पौंड का (वयस्क को) दबाव देना आवश्यक है,जब कि उक्त केन्द्र के लिए ही हथेली में तीन पौंड से अधिक दबाव कदापि उचित नहीं होगा। चेहरे और कान पर के केन्द्रों पर क्रमशः एक और आधे पौंड का दबाव ही पर्याप्त है। इसी भांति अन्य व्याधियों में भी दबाव की मात्रा-भिन्नता होगी शरीरगत विभिन्न केन्द्रों पर।
उपर्युक्त तीनों बातों का सामंजस्य बैठाते हुए,सम्यक् रुप से दबाव की मात्रा का निर्धारण करना चाहिए। अन्यथा पद्धति की लोकप्रियता को ठेस पहुंचने की आशंका हो सकती है। यहां प्रसंगवश यह बता दूँ कि दबाव की मात्रा का मापन अनुभव सिद्ध है। इसके लिए आजकल दाब-मापक उपकरण भी बाजर में उपलब्ध हैं। छोटी सी जिम्मी मे स्पिंग लगा होता है,जिसमें पौंड-मापन का चिह्न दिया रहता है। फलतः सहज ही पता लगाया जा सकता है,उपचार-कर्ता द्वारा दिया जा रहा दबाव कितना है।

(3)दबाव किस स्थिति में दिया जाय—निदान या चिकित्सा काल में रोगी की शारीरिक स्थिति कैसी हो,इस बात पर भी नाड्योपचार के अनुभवी उपचारक को ध्यान रखना जरुरी है। सामान्यतया रोग-निदान काल में रोगी की शारीरिक स्थिति यथा सुविधा रखी जा सकती है। हालाकि स्थिति का प्रभाव रोग-निदान पर अवश्य पड़ता है। अतः उस वक्त में भी ध्यान रखा जाय तो बहुत ही अच्छा है,किन्तु उपचार-काल में तो परमावश्यक है। अन्यथा पद्धति से प्राप्त परिणाम(लाभालाभ) में अन्तर आयेगा,यानी सही स्थिति में किए जाने वाले उपचार से अधिक लाभ मिलना स्वाभाविक है,गलत स्थिति में दिए गये उपचार की तुलना में।
            उपचार कालिक शारीरिक स्थिति मुख्यतया दो बातों पर निर्भर करती है— (क)रोग का प्रकार, और (ख) चुना गया प्रतिबिम्ब केन्द्र। यहां इन दोनों पर एक नजर डाल ली जाये—
(क)रोग का प्रकार— नाड्योपचार के लिए सर्वमान्य पहला नियम है- रोगी को सुखासन में रखना यानी  सोकर,बैठकर(जमीन,कुर्सी,तख्त आदि पर)जैसे भी रोगी को आराम मिले,और पूरे उपचार काल तक स्थिर,सुख से बैठ सके। किन्तु खास-खास बीमारियों में रोगी की विशेष (विहित) शारीरिक स्थिति का पालन परमावश्यक है। उदाहरणतया- स्नायुमण्डल से सीधे सम्बन्ध रखने वाली व्याधियों का उपचार करते समय रोगी को पीठ के बल,बिना तकिया के, शवासन मुद्रा में लिटा कर रखा जाना चाहिए,क्यों कि ऐसी स्थिति में अन्य मुद्राओं की अपेक्षा शवासन मुद्रा में त्वरित लाभ होगा। स्नायुसंस्थान(Nervous system) के साथ-साथ रक्तवह संस्थान (Circulatory system) भी जिन व्याधियों में मुख्य रुप से प्रभावित रहता हो,उन व्याधियों का उपचार करते समय भी वैसा ही करना चाहिए। उच्चरक्तचाप(HBP) एवं हृदय रोगों में तो शवासन ही एकमात्र उपयुक्त आसन कहा जा सकता है। श्वसनसंस्थान (Respiratory System) की व्याधियों का उपचार खंड-पश्चिमोत्तासन(आंशिक)में किया जाय तो अधिक अच्छा है। साथ ही रोगी को सुझाव दिया जाए कि जब भी आराम से बैठने की इच्छा हो,तो शशांकासन में बैठने की आदत डाले। पाचनसंस्थान(Digestive System)की बीमारियों में उपचार के लिए सर्वाधिक मुद्रा है- दीवार के सहारे सीधे खड़ा होना। यहां यह ध्यान रहे कि बिना सहारे के खड़ा होना निरापद(और उचित)नहीं है। मूत्रवहसंस्थान(Urinary System) (आधुनिक समय में इसका नाम उत्सर्जन संस्थान-Excretory System  कर दिया गया है,और क्षेत्र भी व्यापक हो गया है) का उपचार करते समय दोनों पैर मोड़कर,पूरे पांव के तलवे पर शरीर का पूरा भार देकर,यानी चुकमुक मुद्रा में बैठकर,उपचार लेने से अत्यधिक लाभ मिलता है।
            संस्थान-क्रम उपर्युक्त शारीरिक स्थितियों (मुद्रा-आसन) के अतिरिक्त एक ही संस्थान के अलग-अलग रोगों में समय-समय पर आसन या मुद्रा परिवर्तन  की भी आवश्यकता पड़ती है। इस सम्बन्ध में आगे यथास्थान संकेत दिया गया है।

(ख)प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूह— शरीर के किस प्रतिबिम्ब-केन्द्र-समूह(वोर्ड)पर उपचार करना है, इस पर भी रोगी की शारीरिक स्थिति निर्भर करती है। किन्तु  खंड क (रोग के प्रकार) में रोगी के लिए निर्दिष्ट मुद्राओं(आसनों) से अति विरोधाभास न हो,इसका भी ध्यान रखना उपचार कर्ता का कर्तव्य है। इन स्थितियों का चुनाव चिकित्सक अपने विवेक से आसानी से कर सकता है। अतः यहां प्रसंगवश कतिपय निषेधात्मक स्थियों का संकेत भर दिया जा रहा है—
            हृदयरोगी को पीठ के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर उपचार करना हो तो बायीं करवट कदापि न लिटायें। इसके लिए उचित होगा अर्द्धपद्मासन या सम्भव हो तो पद्मासन में बैठाकर,दोनों हथेलियों को जरा आगे झुकाते हुए,जमीन पर टिकाकर,स्थिर अवस्था में रखकर,आहिस्ते- आहिस्ते उपचार करना। श्वसनसंस्थान की उग्र व्याधियों की  स्थिति में भी यही मुद्रा उचित है उपचार हेतु। हृदय एवं फेफड़ों के अतिरिक्त अन्य रोगों का उपचार करना हो यदि खास कर पृष्ठभाग के केन्द्रों पर तब रोगी को आराम से पेट के बल लिटा कर,उपचार करें।  इस मुद्रा में दोनों हाथ मोड़कर,उसी के सहारे,रोगी अपना सिर टिकाये रखे। चेहरे एवं वक्षस्थल समूह पर उपचार करते समय रोगी के बैठने की मुद्रा पूर्वकथित—पद्मासन या अर्द्धपद्मासन ही होना चाहिए। किन्तु हथेलियां आगे के बजाय पीछे जाकर,आधार पर टिकेंगी। तलवे के प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर उपचार करने के लिए रोगी की मुद्रा है— दोनों पैरों को सीधा सामने फैलाकर,दोनों हथेलियों को पीछे आधार पर टिकाकर,बिलकुल आराम से बैठना। तलहथियों के विन्दुओं को उपचारित करना हो तो,पैर की मुद्रा तो पूर्ववत रहेगी,किन्तु ऊपर का भाग सीधा होगा,और हथेलियां सुविधानुसार आगे रखी जायेंगी। उदर-प्रदेश के विन्दुओं पर रोगी यदि स्वयं उपचार ले रहा हो तो उचित है कि आराम से धीरे-धीरे टहलते हुए ले, एवं चिकित्सक द्वारा उपचारित किया जा रहा हो तो दीवार के सहारे खड़े होकर उपचार कराये। हाथ,पैर,सिर, गर्दन आदि अंगों पर उपचार करने के लिए सुविधानुसार किसी भी सुखासन का उपयोग किया जाना चाहिए। वैसे,शवासन सर्वोत्तम मुद्रा है,जिसमें पीठ के अतिरिक्त सभी प्रतिबिम्ब केन्द्र समूहों पर उपचार किया जा सकता है।
            उपचार-काल में शरीर के किसी भाग में (मन में भी) अवांछित तनाव न रहे,इस बात का ध्यान रोगी और उपचारकर्ता दोनों को होना चाहिए। उपचारकर्ता को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जिस विन्दु पर उपचार किया जा रहा हो,उस विन्दु,उससे सम्बन्धित अवयव(अंग) एवं प्रभावित(रुग्ण) अंग के बीच यानी त्रिकुटी सम्बन्ध यथासम्भव सीधा और तनाव-मुक्त (वाधा-रहित) हो। ऐसा करने से त्वरित लाभ की आशा काफी होती है।
            पूर्व अध्याय—चिकित्सा-काल में भी अव्यक्त रुप से रोगी की शारीरिक मुद्रा का यदा कदा निर्देशन हुआ है,जो व्यवहार काल में ध्यातव्य है। उक्त बातों के अतिरिक्त शरीरिक स्थिति और रोग का प्रकार क्रम में कुछ और भी खास बातें हैं,जिनपर रोगी से अधिक उपचार करने वाले का ध्यान रहना आवश्यक है। यथा—
            1.रोगी शारीरिक रुप से थका हुआ हो,लम्बी यात्रा- खास कर पदयात्रा,या सायकलिंग करके आया हो,मेहनत-मजदूरी,कुस्ती-कसरत करके आया हो,पसीने से लथपथ हो, सांस फूल रही हो,जोरों की भूख-प्यास लगी हो,आतंक या भयग्रस्त हो,अत्यधिक चिन्तित हो—इन स्थितियों में तत्काल उपचार प्रारम्भ कर देना,लाभ के बजाय हानिकारक ही होगा। उचित होगा कि इन स्थितियों में आवश्यकतानुसार विश्राम10-20मि.(विलम्ब करके),किंचित अन्न-जल पूरित करके ही,उपचार करे। विशेष स्थिति में सर्वप्रथम चारो चैनलों (दोनों हाथ-पैर के) पर अतिसामान्य दबाव देकर,10मि.शवासन मुद्रा में लिटा दे,फिर उपचार प्रारम्भ करे।
            2.नाड्योपचारक को मनोविश्लेषणात्मक बुद्धि रखते हुए बालकों,कोमल प्रकृतिवालों, महिलाओं आदि की चिकित्सा आते के साथ हठात प्रारम्भ न करे।
            3.महिलाओं की शारीरिक स्थिति का ध्यान (ज्ञान) रखना परम आवश्यक है। रजोदर्शन(menstruation period) में प्रजननांग केन्द्रों पर गहरा एवं केन्द्रगामी               ( stimulating type of pressure) उपचार से रज-प्रवाह बढ़ने की आशंका रहती है, जिसके परिणाम स्वरुप अवसादक स्थिति(sedative) उत्पन्न हो जा सकती है। अतः चिकित्सक को चाहिए कि दर्शन, स्पर्शन, सम्भाषण की निदान त्रिकुटी का सहारा लेते हुए,विवेक-पूर्ण कार्य करे। दुःसंयोगवश यदि अवसाद की स्थिति उत्पन्न ही हो जाये तो शीघ्र ही रुग्णा को शवासन में लिटाकर,चारो खंड के प्रथम चैनलों(अंगूठे-तर्जनी के बीच वाले मांसल भाग) पर आधे-आधे मिनट तक बारी-बारी से दबाव देना चाहिए। उपलब्ध हो तो कृपाचक्र या शक्तिचक्र नामक विशेष उपकरण का भी उपयोग किया जा सकता है।
            4.गर्भवती महिलाओं को गर्भ के प्रथम एवं अन्तिम मास में सीधे प्रजनन-तन्त्र (Re- productive  system) सम्बन्धी केन्द्रों पर उपचार यथासम्भव न किया जाए। तत्सम्बन्धी अप्रत्यक्ष केन्द्रों को ही उपचारित करके,यथोचित लाभ पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए। विशेष स्थिति में यदि अत्यावश्यक प्रतीत हो,तो कम मात्रा में हल्का दबाव देकर उपचार किया जा सकता है। अप्रत्यक्ष केन्द्रों में सभी चैलन(4x4)सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कहे गये हैं। विशेष कर आसन्न प्रसव की स्थिति में ही सीधे प्रजनांगों से सम्बन्धित केन्द्रों को उपचारित किया जाना चाहिए।
            5.चोट,मोच,ब्रण आदि आगन्तुज व्याधियों की स्थिति में सीधे प्रभावित अंगारुढ़ केन्द्रों पर कदापि उपचार न करे। इसके लिए अन्य विहित केन्द्रों का चुनाव कर लेना ही श्रेयस्कर है।
            6.हृदयरोगियों की चिकित्सा काफी सावधानी से करनी चाहिए। खास कर हृदय-केन्द्र को उपचारित करते समय अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। अवसादक स्थिति उत्पन्न होने पर पूर्वकथित उपचार करना चाहिए। अस्तु।

क्रमशः...

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