नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin Of Accupressure)

गतांश से आगे...
नाड्योपचारतन्त्रम् का तेैंतीसवां भाग ,
पन्द्रहवां अध्याय 




                                  पञ्चदश अध्याय
                            नाड्योपचार और योगासन
       
महर्ष पतञ्जलि प्रणीत योगदर्शन , भारतीय छः आस्तिक दर्शनों में एक है। इसके मुख्य आठ अंग हैं,जिसे अष्टांगयोग के नाम से जाना जाता है। यथा—यम,नियम,आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान और समाधि। वस्तुतः ये आठ सीढ़ियां हैं,जिन पर शनैःशनैः ऊपर बढ़ते हुए,साधक अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करता है। योगासन इसका ही तीसरा पायदान है।
         स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास हो सकता है। मन का पूर्णतया स्वस्थ, स्वच्छ,और शान्त होना ही लक्ष्य प्राप्ति का करण है। शरीर और मन जब दोनों स्वस्थ होंगे, तभी हम पूर्ण स्वस्थ कहला सकते हैं। यथा—समदोषः समाग्निश्च समधातु मलक्रियः, प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनाः स्वस्थित्य भिधीयते ।। यानी कि मन भी जब पूर्णतया स्वस्थ होगा,तभी साधना हो सकेगी। चाहे वह धर्म की साधना हो,या कि अर्थ की,काम की,या मोक्ष की। तात्पर्य यह कि पुरुषार्थ चतुष्टय के लिए स्वस्थ रहने की आवश्यकता है, और स्वास्थ्य की बहुत बड़ी कुञ्जी है- योगासन।
            शरीर की परिशुद्धि एवं अन्तः शुद्धि(कुल मिलाकर- विशुद्धि) अति आवश्यक है। इसके लिए स्रष्टा की स्वनियोजनान्तर्गत अद्भुत व्यवस्था है। शरीरगत विभिन्न विकारों का निरन्तर निर्हरण,शरीर के विभिन्न मार्गों –नथुने,कान,आँख,मुंह,गुदा,मूत्रेन्द्रिय तथा त्वचा द्वारा नियमित रुप से होते रहता है। मिथ्या आहार-विहार के कारण उक्त उत्सर्जनों ( excretion)में किंचित भी व्यवधान आ जाने से शरीर रोगी हो जाता है,यह योग-शास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य-विज्ञान की भी मान्यता है। नाड्योपचारतन्त्र चुंकि इस योग-शास्त्र से बिलकुल अभिन्न है,अतः यहां भी रोगोत्पत्ति का मूल कारण अवरोध को ही माना गया है। वर्तमान एक्युप्रेशर इसी का आधुनीकिकरण है,अतः सिद्धान्त-साम्य कदापि संदेहास्पद नहीं है। रक्तवह-प्रणाली या तन्त्रिका-प्रणाली या कहें उत्सर्जन-प्रणाली का किंचित अवरोध ही रोगोत्पति का मूल कारण बनता है। स्पष्ट रुप से कह सकते हैं कि योग रुप विशाल वृक्ष की एक मोटी शाखा है- नाड्योपचारतन्त्रम्— एक्युप्रेशर। प्रत्यक्षतः (व्यवहार में) भी हम पाते हैं कि  इस पद्धति में , अवरोध दूर करना ही चिकित्सक का पहला कर्तव्य होता है। अवरोध गया, कि बीमारी गयी। इस अवरोध को दबाव देकर(धक्के)दूर करते हैं,एवं योग विधि में कायगत अवरोध(जकड़न)आदि को दूर करने के लिए शरीर द्वारा विभिन्न मुद्राओं(आसनों) का उपयोग करते हैं,जिसके परिणामस्वरुप अंग-प्रत्यंगों पर खास-खास ढंग से तनाव, संकोच, लचक, दबाव आदि का प्रभाव पड़ता है। कहीं-कहीं तो दोनों पद्धतियां—योगासन और नाड्योपचार एकदम अविभाज्य रुप से एक दूसरे में समाहित प्रतीत होती हैं।
यथा—
        1)नमस्कारासन(प्रणाममुद्रा) में कुछ देर स्थिर बैठने पर,या खड़ा रहने पर अपूर्व रुप से मानसिक शान्त मिलती है। इस स्थिति के सम्बन्ध में एक्युप्रेशरीय दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि प्रणाम-मुद्रा में दोनों हथेलियों को मिलाकर (हल्के दबाव सहित) रखने के क्रम में सभी अंगुलियों के अग्रभाग स्थित मानसिक नस वाले प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर सामान्य उपचार स्वतः होने लगता है,फलतः मानसिक शान्ति मिलती है।
          योगानुसार उक्त मुद्रा का विवेचन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि दोनों हाथों की पांचों अंगुलियाँ,जो क्रमशः आकाशादि पांच महाभूतों(तत्त्वों)की संग्राहिका हैं,आपस में मिलकर विशिष्ट प्रकार की जैविक ऊर्जा का सृजन करती हैं,जिसका सुप्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता है। उक्त प्रभाव वश मस्तिष्क में अल्फा और वीटा तरंगों का बनना शिथिल पड़ जाता है, फलतः तत्काल मानसिक शान्ति मिलने लगती है।
       योगशास्त्र सिर्फ सामान्य स्पर्श को ही महत्त्व देता है,जबकि एक्युप्रेशर में उक्त स्पर्श को अधिक जोरदार बनाते हैं—दबाव देकर।
            2)पद्मासन या अन्य सुखासन रीति से बैठकर दोनों हाथ की तर्जनी और अंगुष्ठ को मिलाने की परिपाटी योग-साधकों में विशेष कर पायी जाती है,क्यों कि उत्तम ध्यान के लिए एक विशिष्ट मुद्रा है यह। इस स्थिति में वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसा कि क्रमांक 1 में ऊपर स्पष्ट किया गया है।
                       3)वकासन,तुलासन,लोलासन,कुक्कुटासन,उत्थितपद्मासन,उत्तमांगासन,द्विहस्त- भुजासन आदि योगासनों में पूरी हथेली पर विशेष प्रकार का दबाव पड़ता है,जिसके कारण एक साथ कई प्रतिबिम्ब-केन्द्र स्वयमेव उपचारित हो जाते हैं।
            4)मयूरासन में दोनों कुहनियों का विशिष्ट दबाव उदर प्रदेश के खास स्थलों पर पड़ता है,जहाँ उदर पटल पर एक्युप्रेशर के प्रधान प्रतिबिम्ब-केन्द्र हैं। इनके उपचारित होने से एक ओर तो पाचन क्रिया का परिष्कार होता है,कब्ज का निवारण होता है,और परोक्ष रुप से शुक्र-स्तम्भन होकर, व्रह्मचर्य का अद्भुत विकास होता है,जिसका मनोदैहिक प्रभाव नित्य- अभ्यासी को काफी लाभान्वित करता है। इस आसन में भी हथेली के अधिकांश प्रतिबिम्ब-केन्द्र उपचारित हो जाते हैं,जिनका परोक्ष प्रभाव बड़े सुन्दर ढंग से स्वास्थ्य पर पड़ता है।
            5)सिद्धासन में बैठने से सीवनी प्रदेश के विशिष्ट प्रतिबिम्ब-केन्द्र पर समुचित दबाव पड़ता है,जिसके फलस्वरुप विभिन्न वीर्य-विकारों का परिमार्जन होकर स्तम्भन शक्ति का अद्भुत विकास होता है। चित्त का उद्वेलन कम होता है। साथ ही अनिद्रा,प्रलाप आदि का शमन होकर,मानसिक  और वौद्धिक शक्ति को बल मिलता है।
            कहने का तात्पर्य यह है कि नाड्योपचार के अभ्यास के साथ-साथ योगासनों का, अथवा योगासनों के अभ्यास के साथ-साथ नाड्योपचार के विशिष्ट प्रतिबिम्ब-केन्द्रों का दाब अभ्यास यदि जारी रखा जाये तो दोनों ही प्रकार के अभ्यासियों को पहले(एक)की अपेक्षा अधिक लाभ होगा।
योगासनों में सूर्यनमस्कार एक विशिष्ट आसन-समूह है,जिसका कम से कम तीन चक्र
नित्य प्रातः-सायं अभ्यास करने के बाद 5-10 मि.शवासन में विश्राम के पश्चात कोई भी नाड्योपचार लिया जाय तो आशातीत लाभ मिलता है। यानी जिन लोगों को लम्बे समय तक     प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर उपचार लेना हो किसी लम्बी (जटिल) बीमारी में तो वे ऐसा करके अधिक लाभ ले सकते हैं।
  वस्तुतः आसन और शिरादाब(नाड्योपचार)दोनों ही योग के अंग हैं। योगासनों के अभ्यास से एक्युप्रेशरीय बहुत सा उपचार स्वतः होते रहता है। तो दूसरी ओर हम कह सकते हैं कि नाड्योपचार का प्रयोग करने पर विविध योगासन(मुद्रायें)अनजाने में ही सम्पन्न होती रहती हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक के समान है। इनके समग्र स्वरुप को अंगीकार करके ही हम अपने परम लक्ष्य को लब्ध हो सकते हैं,जो मनुष्य मात्र का अधिकार और परम कर्तव्य भी।

(नोट- योगासनों के सम्बन्ध में विशेष जानकारी किसी अधिकृत योग-पुस्तक से करनी चाहिए। बाजार में कचरे बहुत भरे हुए हैं,जहां आसन-मुद्राओं का सही दृश्यांकन नहीं हुआ है। गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित स्वामी ओंमानन्द जी की टीका सहित योगदर्शन नामक पुस्तक में कतिपय आसनों से परिचय कराया गया है। बिहार योगविद्यालय मुंगेर से भी योग की अधिकृत पुस्तकें प्राप्र की जा सकती हैं। )


                                       क्रमशः... 

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