नाड्योपचारतन्त्रम्(The Origin Of Accupressure)

गतांश से आगे...

                                 षोडश अध्याय
                             ज्ञातव्य और ध्यातव्य

नाड्योपचार(एक्युप्रेशर) के सम्बन्ध में पूर्व अध्यायों में काफी कुछ कहा जा चुका है। उन्हीं में से कुछ खास बातों को यहां सूत्रवत प्रस्तुत किया जा रहा है—
              1)एक्युप्रेशर चिकित्सा के बारे में आम धारणा है कि जहां अन्य चिकित्सा पद्धतियां असफल हो जाती हैं,वहां भी यह चमत्कारी सिद्ध होता है। किन्तु वस्तुतः बात ये है कि अन्य पद्धतियों से थक-हार कर जब निराश हो जाते हैं,तब इस पद्धति की याद आती है। या सोचते हैं—अब जरा इसे भी आजमा लें। हमें चाहिए कि समय पर(प्रारम्भ में ही)इसे अपना लिया जाय,ताकि समय,श्रम,और अर्थ के साथ-साथ कष्ट भी कम झेलना पड़े। सीधे कहें कि इसे अन्तिम पद्धति न मान कर प्रथम पद्धति कहना (मानना) अधिक श्रेयस्कर है।

          2)चिरकालिक व्याधियों में सावधानी,धैर्य और सततता पूर्वक,धीरे-धीरे चिकित्सा प्रारम्भ करके,पहले रोगी का विश्वास प्राप्त करना उचित है। चिकित्सक का प्रधान कर्तव्य है—रोगी का विश्वास,न कि थके-हारे इन्सान से धन-मोचन। नाड्योपचार को धन कमाने का एकमात्र जरिया न बनायें,प्रत्युत इसे सेवा भाव से लोककल्याणार्थ करें। सेवा के एवज में कुछ न्यूनतम शुल्क लिया जाय,ताकि सेवा का दुरुपयोग भी न हो। क्यों कि मुफ्त की सेवा लेने वालों की भी कमी नहीं है।

            3)आपात्कालिक,गम्भीर और घातक बीमारियों में आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान का सहयोग लेना भी आवश्यक है—सवारी की सुविधा रहते पद-यात्रा कोई बुद्धिमानी नहीं। इन स्थितियों में नाड्योपचार को सहयोगी चिकित्सा के रुप में ग्रहण किया जाय,न कि मुख्य चिकित्सा के रुप में।

            4)नाड्योपचार पद्धति इतना सामर्थ्यवान है कि अनुभवी विशेषज्ञ बिना किसी मशीनी जांच-परख के ही काफी हद तक निदान का सच्चा सूत्र पकड़ ले सकता है।  किन्तु उपलब्ध यान्त्रिक विधि से भी परीक्षण करा लेना रोगी और चिकित्सक दोनों के हक में अच्छा है।

            5)नाड्योपचार विशेषज्ञ के लिए सिर्फ प्रतिबिम्ब-केन्द्रों की तालिका  रट लेना ही पर्याप्त नहीं। पूर्ण विशेषज्ञ वही कहा जा सकता है,जिसे शरीर-विज्ञान और शरीर-क्रिया- विज्ञान(anatomy  & physiology)के साथ-साथ योगशास्त्र का यथाविध ज्ञान और अनुभव हो। हां,आम आदमी किंचित  प्रतिबिम्ब-केन्द्रों की सामान्य जानकारी रख कर भी काम चला ले सकता है। ऐसा नहीं कि पूरा जाने वगैर कुछ करने का अधिकार ही नहीं। क्यों कि अन्य उपचार पद्धतियों की तरह इसका प्रतिप्रभाव या खतरा न के बराबर है।
     6)नाड्योपचार के लिए भी पथ्यापथ्य का विचार रखना अत्यावश्यक है,ताकि पूर्ण लाभ मिल सके। ऐसा न समझा जाए कि दवा तो खानी नहीं है,फिर पथ्य-अपथ्य का परहेज क्यों । क्यों कि पुरानी कहावत है—सौ दवा ना एक परहेज।

      7)नाड्योपचार में सिर्फ व्याधि(शारीरिक रोग) का ही उपचार नहीं होता,प्रत्युत आधि(मानसिक रोग)का उपचार भी सम्भव है,क्यों कि इसका उद्भव ही योगशास्त्र है।

      8)स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा एवं अस्वस्थ को स्वास्थ्य लाभ प्रदान कराना किसी भी चिकित्सा पद्धति का मूल उद्देश्य है। एक्युप्रेशर के साथ भी यह बात पूर्ण घटित होता है। अतः सिर्फ रोगी ही नहीं,स्वस्थ्य व्यक्ति भी इसे अपना कर लाभान्वित हो सकता है।

      9)नाड्योपचार की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह पूर्णतया दुष्प्रभाव रहित(without any side effect or side effect less) पद्धति है। अतः निःशंक अपनाया जा सकता है।

    10)नाड्योपचार बच्चे,बूढ़े,जवान,स्त्री,पुरुष सबके लिए समान गुणकारी है। साथ ही सरल और सुगम भी।

     11)नाड्योपचार अर्थ का मुहताज नहीं,अतः निर्धनों के लिए वरदान की तरह है।

   12)किसी भी रोग के उपचार में प्रत्येक बैठक के प्रारम्भ में मुख्य स्नायुसंस्थान का नियंत्रक स्थल(हाथ के चारो प्रथम चैनलों-चित्रांक 22-1,और 23-6)सर्वप्रथम उपचारित करने से त्वरित लाभ होता है। इसी भांति उपचार बैठक की समाप्ति (क्रमांक 26,चित्रांक 22,23) को उपचारित करके ही करना चाहिए, ताकि अधिक लाभ मिल सके। रक्तवह- संस्थान, एवं मूत्रवह-संस्थान की बीमारियों में तो ऐसा अवश्य ही करना चाहिए।

स्नायुसंस्थान केन्द्र (चैनलों)पर प्रारम्भिक उपचार पूरे स्नायुसंस्थान को चैतन्य(सजग) कर,शीघ्र आरोग्य लाभ का द्वार खोल देता है,तो गुर्दे के केन्द्रों पर किया गया समापन उपचार रक्तवहसंस्थान की शुद्धता और स्वच्छता में सहयोगी होता है। उपचार काल में (या पूर्व में) रक्त-परिभ्रमण-पथ में आए किंचित अवांछित तत्त्व गुर्दे के उपचार से धक्के खाकर,बाहर निकलने को मजबूर हो जाते हैं।

13)गर्भवती एवं अति संवेदनशील महिलाओं का उपचार थोड़ी सावधानी से करनी चाहिए । गर्भकाल में जननांगों से सम्बन्धित  प्रतिबिम्ब-केन्द्रों पर सीधे उपचार सामान्यतया नहीं करना चाहिए। इसके लिए विशेष दक्षता की जरुरत है।

14)आगन्तुज व्याधि—चोट,मोच,व्रण आदि पर सीधे उपचार कदापि न किया जाय, प्रत्युत तत्सम्बन्धी अन्यान्य केन्द्रों को उपचारित करके,आवश्यक लाभ प्राप्त करना चाहिए।

15)नाड्योपचार में अद्भुत गुण है- रोग-प्रतिरोधी-क्षमता उत्पन्न करने की। फलतः किसी बीमारी से वचने के लिए एहतियात के तौर पर,इसका उपयोग बड़ा कारगर होता है। वर्तमान युग की सर्वाधिक घातक व्याधि—कैंसर और एड्स से भी बचा जा सकता है इसके प्रयोग से।

16)उपचार काल में रोगी का शरीर एकदम ढीलाढाला रहे। किसी प्रकार का तनाव न हो। नसों का स्वाभाविक ढीलापन उपचार के लिए अधिक प्रभावी होता है।

17)मानसिक एवं कायिक स्वाभाविकता हेतु उपचार प्रारम्भण के पूर्व पीठ के बल (शवासन)लेटकर या आराम से पलथी जमाकर,बैठकर,आँखें बन्द कर,गहरी सांस लेते-छोड़ते हुए अधिक से अधिक 100 तक गिनती गिने। इससे तत्काल लाभ मिलता है। शरीर और मन उपचार-ग्रहण के योग्य बन जाता है।

18)उपचार प्रारम्भ करने से पूर्व आवश्यक केन्द्र के आसपास तेल,पाउडर,क्रीम आदि कोई स्नेहक पदार्थ का व्यवहार कर देने से उपचार का प्रभाव तीव्र और गहन हो जाता है,साथ ही त्वचा पर अत्यधिक दाब जनित दुष्प्रभाव भी नहीं पड़ता।

19)उपचार प्रारम्भ करने पर रोग का लक्षण और उग्र हो जाये तो इससे घबराना नहीं चाहिए,बल्कि यह शुभ संकेत है,यानी प्रकृति रोग जनित विषाक्तता का परिष्कार करना कबूल कर ली है।

20)उपचार काल में घबराहट,बैचैनी,सुस्ती,मूर्छा आदि किसी प्रकार का संकट आ जाय तो,तत्क्षण उपचार बन्द कर देना चाहिए। रोगी को विश्राम हेतु लिटा कर सभी चैनलों पर आहिस्ते-आहिस्ते दबाव देना चाहिए। कृपाचक्र या शक्तिचक्र नामक उपकरण उपलब्ध हो तो, हथेली और तलवों में 5-10 मि. फिराना चाहिए।

21)किसी दवा का सेवन किये हों तो आध-एक घंटे बाद ही उपचार लिया जाना उचित है।

उक्त सूत्रों को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा करने से रोगी एवं चिकित्सक दोनों को ही लाभ है। अतः निर्देशों,संकेतों,नियमों का यथासम्भव पालन करना अनिवार्य है।अस्तु।

क्रमशः...

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