मग-महिमा
और मेरी व्यथा
पहला भाग
पहला भाग
महाभारत वर्णित यक्षप्रश्न की
तरह स्कन्दपुराणान्तर्गत नारदप्रश्न भी है,जिसे बहुत कम लोग जानते होंगे। गरिमामय
प्रश्न अति चुनौती पूर्ण है। प्रश्नों की संख्या मात्र बारह है,जो भट्टादित्य
महामठस्थापन प्रसंग में वर्णित है। उसकी कुछ बानगी यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ। यथा-
मातृका
को विजानाति,कतिधा कीदृशक्षरम् । पञ्च-पञ्चाद्भुतं गेहं को विजानाति वा द्विजः ।। बहुरुपां
स्त्रियां कर्तुंमेकरुपाञ्च वेत्ति कः । को वा चित्रकथो वंधं वेत्ति संसार गोचरः ।।
को वार्णव महाग्राहं वेत्ति विद्या परायणः । को वाष्टविधि ब्राह्मण्यं वेत्ति
ब्राह्मण सत्तमः ।।…..
भट्टादित्य महामठस्थापन हेतु
नारद जी अपनी वीणा पर उक्त प्रश्नावली का गान करते हुए, भूमंडल पर सर्वश्रेष्ठ
द्विजों की खोज में भटकने लगे। प्रश्न थे— मातृकाविद्या का ज्ञाता कोई है
? अक्षर कितने हैं और उनका
वैज्ञानिक रुप क्या है ? पांच गुने पांच यानी पच्चीस के
अद्भुत गृह को कौन जानता है ? बुहरुपा स्त्री को एकरुपा
बनाने की कला किसे मालूम है? विचित्र चित्रबंध क्या है
? सर्वाधिक भयंकर महाग्राह का ज्ञान किसे है ?
अष्टविध ब्राह्मणों का ज्ञान किसे है ? चारो युगों के प्रथम
दिन कौन-कौन हैं ? चौदह मन्वन्तरों की आद्यतिथि क्या है
? सर्वप्रथम सूर्यनारायण किस दिन रथारुढ़ हुए ? नित्यप्रति संसार को उद्विग्न कौन करता है ? सुदक्ष
कौन है ?
नारदजी की मान्यता थी कि इन
प्रश्नों का सम्यक् ज्ञाता ही सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण कहा जाना चाहिए। उनकी मान्यता
का दूसरा पहलू ये भी हो सकता है कि जिसे इन प्रश्नों का उत्तर न मालूम, वो ब्राह्मण
कहाने के योग्य नहीं। और वैसे ही सुयोग्य ब्राह्मण की खोज में भटक रहे थे देवर्षि ।
सुदीर्घ भटकाव के पश्चात् वे कलाप ग्राम
पहुंचे,जो द्विजोत्तमों का प्रधान ग्राम कहा जाता था। ज्ञातव्य है कि ये वही
ग्रामश्रेष्ठ है,जहां महाप्रलय काल में सृष्टिबीज संग्रहित किया जाता है। देवर्षि अपना
प्रश्न वहां भी रखे,जिसके उत्तर में एक विप्र ने कहा कि हे महाराज !
इन प्रश्नों का उत्तर तो हमारे यहां बच्चा-बच्चा जानता है। कृपया इन
सामान्य प्रश्नोत्तरों में हमारा समय नष्ट न करें। कोई और गूढ़ बात हो तो हमसे
चर्चा करें।
ये तो रहा प्रश्न,वो भी
पौराणिक काल का, किन्तु आगे जो कहना चाह रहा हूँ, वो बिलकुल ही पौराणिक नहीं है।
हां, प्रसंग कोई साठ साल पुराना जरुर है। मेरे पितृव्य पं.वालमुकुन्द पाठक जी
उत्तराखंड की यात्रा पर थे। जमाना ‘ अतिथि देवो भव’
वाला था, ‘
होटल-ग्राहको भव
’ वाला बिलकुल नहीं। दिन भर की यात्रा
के बाद, जहां अन्धेरा हुआ, किसी द्वार पर दस्तक दें दें, स्वागत के लिए तत्पर है
वह। मेरे स्वयंपाकी पितृव्य महोदय भी ऐसे ही एक विप्र के द्वार पर टिके। एक बालिका
ने चूल्हा-चौका,अन्नादि का प्रबन्ध कर दिया। गृहस्वामी ने सादर निवेदन किया कि
सबकुछ व्यवस्थित है,आप अपना भोजन बनायें। किन्तु पितृव्य ने कहा कि ईंधन तो है,पर
अग्नि नहीं। बालिका शायद भूल गयी है। गृहस्वामी मुस्कुराये,और अपनी बालिका को बुलाकर
कहा कि पंडितजी को आग जलाने में सहयोग करो। फुदकती हुयी छोटी बालिका आयी। गोइठा
तोड़ कर सजायी,और हाथों में उठा कर,फूंक मार दी। अग्नि प्रज्वलित हो उठा। पितृव्य
आवाक। उधर गृहस्वामी भी। गृहस्वामी ने सशंकित दृष्टि डाली — पंडितजी
! आपने तो कहा कि हम शाकद्वीपीय ब्राह्मण हैं, और भोजन बनाने के लिए
आग मांग रहे हैं ? मेरे यहां तो छोटी बच्चियां भी निपुण हैं
इस विधा में...।
मेरे दादा-परदादा हाथी रखते थे,हम
उसकी सांकल झनझनाते फिर रहे हैं— यही तो दशा है हमारी। कहने को तो मगद्विजकुलोद्जात
हैं,परन्तु सामान्य संध्या-गायत्री से भी कोसों दूर। जब कि शास्त्र कहते हैं कि तीन
दिन भी संध्या-गायत्री छूठ जाये तो ब्राह्मण चाण्डालवत हो जाता है। कृष्ण ने गीता
में विप्र-कर्म-संकेत किया है— शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं
विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। या फिर एक और संकेत है,जो शायद सरल
लगे — अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन,दान-प्रतिग्रह वाला । किन्तु यहां भी घपला मार
जाते हैं - तीनों जोड़ों को अधियाकर — ज्ञानार्जन में अभिरुचि नहीं,प्रवचन खूब
करते हैं। स्वयं यजन में जरा भी रुचि नहीं,पर याजन(यजमनिका) को परम कर्तव्य समझते
हैं। दान लेने हेतु सदा हाथ पसरा रहता है,पर देने में महा संकोची...।
लगता है देवर्षि को पुनः
कलापग्राम की यात्रा करनी होगी- नये बीज हेतु, किन्तु डर है कि कहीं वो भी ‘हाईब्रीड’
न हो ! महाकवि की उक्ति याद आती है- हम
कौन थे,क्या हो गए,और क्या होंगे अभी ? आओ विचारें बैठ कर,
हम समस्यायें सभी....। उत्तिष्ठ ! जाग्रत ! !
क्रमशः...
क्रमशः...
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