मगमहिमा और मेरी व्यथा--चौथा भाग

गतांश से आगे...
चौथा भाग

प्रश्न .  पञ्चपञ्चाद्भुतं गेहं को विजानाति वा द्विजः – पांच गुने पांच यानी पचीस तत्त्वों के अद्भुत गृह को कौन जानता है ?

उत्तर— पञ्चभूतानि पञ्चैव कर्मज्ञानेन्द्रियाणि च । पञ्च पञ्चापि विषया मनोबुद्ध्यहमेव च ।। प्रकृतिः पुरषश्चैव पञ्चविंशः सदाशिवः । पञ्चपञ्चभिरेतैस्तु निष्पन्नं गृहमुच्यते ।। (स्क.पु.कुमारिकाखंड ३-२७१) वस्तुतः त्रिगुणात्मिका सृष्टि पचीस ईंटों का अद्भुत भवन है। महर्षि कपिल ने सांख्य दर्शन में इन्हें विशद रुप से वर्णित किया है, जो नास्ति सांख्यसमं ज्ञानं, नास्ति योगसमं बलम् -  को चरितार्थ करता है। आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी— पांच महाभूत ; शब्द,स्पर्श,रुप,रस, गन्धादि इनके पांच विषय ; हस्त,पाद, मुख,गुदा,उपस्थादि पांच कर्मेन्द्रिय ; कर्ण,नासिका,नेत्र, जिह्वा,त्वचादि पांच ज्ञानेन्द्रिय; मन,बुद्धि,अहंकार,प्रकृति और पुरुष—ये ही कुल पच्चीस मूलतत्त्व हैं। इनका सम्यक् (तत्त्वतः) ज्ञान ही परमात्म बोध है। यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वाधास्या अहम् ।  स्युष्टे सत्या इहाशिषः ।। (ऋग्वेद-६.३.४०.२३) हे प्रकाशस्वरुप परमात्मन् ! यदि मैं तू हो जाऊँ और तू मैं हो जाय तो तेरा आशीर्वाद सच हो जाय। यानी द्वैत भाव मिटकर,एकत्वभाव उत्पन्न हो जाये। उक्त सांख्य का यही तो परिपाक है। इसे जो जान लेता है उसका द्वित्व तिरोहित हो जाता है। अस्तु।

प्रश्न . बहुरुपां स्त्रियं कर्तुंमेकरुपाञ्च वेत्ति कः  – बहुरुपा स्त्री को एकरुपा बनाने की कला किसे मालूम है?

उत्तर— स्त्री एक रुप अनेक—एक ऐसी स्त्री जो सदा अनेकानेक रुप धारण करते रहती है—प्रश्न प्रथम दृष्ट्या बड़ा ही जटिल प्रतीत होता है। मानवी बुद्धि में समाने वाला विषय ही नहीं है यह,किन्तु किंचित ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री तो अनेक रुपा है ही। निर्बुद्धि पुरुष को रिझाने हेतु सदा अनेकानेक रुप धारण करते रहती है। और पुरुष उलझा रहता है सदा उसके जाल में। कदाचित निकल जाये जंजाल से तो मुक्त हो जाये। पुरुषवादी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे ठीक से समझ नहीं पाने के कारण इसके विरोध में खड़ा हो गया है। और विरला कोई समझ गया इसके चरित्र को,तो मुस्कुरा कर बाहर निकल गया,या कहें निर्विकार खड़ा रह गया- यथास्थान,और वह स्वयं ही निराश होकर परे हट गयी।

नारद के इस प्रश्न में सांख्य के बाइसवें तत्त्व- बुद्धि के बारे में कहा गया है। बुद्धिरुपां स्त्रियं प्राहुर्वुद्धिं वेदान्तवादिनः । सा हि नानार्थभजनान्नानारुपं प्रपद्यते ।। धर्मस्यैकस्य संयोगाद्वहुधाप्येकिकैव सा। इति यो वेद तत्वार्थं नासौ नरकमाप्नुयात् ।। बुद्धि स्त्री ही है न ! स्त्रीलिंगी। ध्यातव्य है कि यह आद्यशंकर की माया नहीं। ये तो बुद्धि है- मन के बाद वाला जटिल तत्त्व,जो सदा मनुष्य को अनेकानेक रुप धारण करके नचाते रहती है। क्षण में कुछ,क्षण में कुछ। सत्य को मिथ्या, असत्य को सत्य,कुरुप को रुप,रुप को कुरुप बताते रहती है। जिसका कोई अस्तित्त्व ही नहीं,उसे अस्तित्त्ववान साबित कर देती है अपनी वाक्पटुता से,चातुर्य से। वेदान्तवादियों ने इसे ठीक से पहचाना है, और जैसे छोटे से लौह अंकुश से विशाल गजराज वशीभूत हो जाता है, उसी भांति धर्माचरण के अंकुश से इसे वश में करने की युक्ति सुझायी है।  दश लक्षणयुक्त धर्मानुयायी सदा इस बहुरुपा के चंगुल से बाहर निकलने में सफल हो जाता है। या कहें उसकी अनेकरुपता ही निरस्त होजाती है- धर्माचारी के सामने। अतः विद्वान मनुष्य को सतत सावधान रहकर, यत्न पूर्व धर्म का पालन करना चाहिए। (अब यहां धर्म को हिन्दू,मुसलमान, ईसाई,पारसी,जैन,बौद्ध,सिक्ख आदि न समझ ले कोई। ये सब धर्म कदापि नहीं हैं। ये सब बहुरुपा बुद्धि के भ्रमजाल हैं हमें फंसाने-उलझाने हेतु।) धर्मस्य तत्त्वं निहिते गुहायां...। अस्तु।

प्रश्न . को वा चित्रकथं वंधं वेत्ति संसार गोचरः –  विचित्र चित्रबंध क्या है ?

उत्तर— अब वटुक सुतनु देवर्षि के चित्रवंध विषयक चौथे प्रश्न का उत्तर दे रहा है । मुनियों ने जिसे नहीं कहा है, यानी तत्त्वदर्शियों द्वारा जो प्रमाणित(अनुभूत)नहीं है, जो वचन देवों को मान्य नहीं है यानी स्वीकार नहीं है,उसे ही विद्वानों ने विचित्र कथा से मुक्त बन्ध(वाक्यविन्यास) कहा है। तथा जो कामयुक्त वचन है, वह भी इसी श्रेणी में आता है। ऐसा वचन कदापि सुनने और मानने योग्य नहीं है। वास्तव में वह बन्धन है,मोक्ष कदापि नहीं।अस्तु।

प्रश्न . को वार्णवमहाग्राहं वेत्ति विद्यापरायणः - समुद्र में रहने वाले सर्वाधिक भयंकर महाग्राह का ज्ञान किसे है ?

उत्तर- एको लोभो महान् ग्राहो लोभात्पापं प्रवर्तते । लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रवर्तते ।। स्कन्दपुराण कुमारिकाखंड ३-२७७ से प्रारम्भ कर अगले दश श्लोकों में लोभ रुपी महाग्राह की विशद चर्चा है । संसार रुपी महार्णव में उबचूब हो रहे प्राणी(विशेष कर मनुष्य - जो एकमात्र बुद्धि सम्पन्न है) को लोभ रुपी महाग्राह सदा ग्रसे रहता है । काम, क्रोध, मोहादि सब इसके ही साथी-संगी हैं। कहा गया है- लोभः पापस्य कारणम् । बहुधा पापों का मूल कारण लोभ ही है। इसका स्वरुप सर्वदा एक समान नहीं रहता। बहुत बार तो इसे ठीक से पहचानने भी कठिनाई होती है। और न पहचान पाने के कारण बुद्धिमान मनुष्य भी लोभ के शिकार हो जाते हैं। लोभी अजितेन्द्रिय पुरुष में दम्भ,द्रोह,निन्दा,चुगली,डाह आदि दुर्गुण सहज ही समाविष्ट हो जाते हैं। लोभासक्त मनुष्य सदाचार से दूर हो जाता है। ऐसे लोगों की गति तिनके-पत्तों से ढके गहरे कुंए के पार जाने जैसी होती है,जो युक्तिवाद का आश्रय लेकर अनेकानेक पन्थ चला देते हैं, और धर्म के सन्मार्ग का लोप कर देते हैं।  यहां तक कि धर्म को अलंकार बनाकर संसार को ठगने-लूटने का साधन बना लेते हैं। अतः प्रज्ञावान पुरुष को सदा इससे सावधान रहना चाहिए। अस्तु।

प्रश्न . - को वाष्टविधं ब्राह्मण्यं वेत्ति ब्राह्मण सत्तमः - अष्टविध ब्राह्मणों का ज्ञान किसे है ?

उत्तर- अब देवर्षि नारद के छठे प्रश्न का उत्तर देते हुए ब्राह्मण वटुक सुतनु कहते हैं- अथ ब्राह्मणभेदांस्त्वमष्टौ विप्रावधारय । मात्राश्च ब्राह्मणश्चैव श्रोत्रियश्च ततः परम् ।। अनूचानश्च तथा भ्रूणो ऋषिकल्प ऋषिर्मुनिः । इत्येतेऽष्टौ समुद्दिष्टा ब्राह्मणाः प्रथमं श्रुतौ ।। तेषां परं परः श्रेष्टो विद्यावृत्तविशेषतः । ब्राह्मणानां कुले जातो जातिमात्रो यदा भवेत् । अनुपेतक्रियाहीनो मात्र इत्यभिधेयते ।। एकोदेशमतिक्रम्य वेदस्याचारवानृजुः । स ब्राह्मण इति प्रोक्तो निभृतः सत्यवाग्घृणी ।। एकां शाखां सकल्पां च षड्भिरङ्गैरधीत्य च । षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रियो नाम धर्मवित् ।। .... 
(नोट— आलेख बोझिल होने के वजह से सभी श्लोकों को यहां नहीं दिया जा रहा है। जिज्ञासुओं को इसे मूल ग्रन्थ में देखना चाहिए।) 

इस प्रकार स्कन्दपुराण कुमारिका खंड ३- २८७ से २९८ तक बारह श्लोकों में ब्राह्मणों के आठ भेद (कर्मानुसार) बतलाये गये हैं।  यथा- १. मात्र,२.ब्राह्मण, ३.श्रोत्रिय, ४.अनुचान, ५.भ्रूण, ६.ऋषिकल्प, ७.ऋषि, और ८.मुनि । ज्ञान, विद्या और सदाचार की विशेषता से उक्त आठ प्रकार पूर्व-पूर्व की तुलना में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ कहे गए  हैं।

अब यहां संक्षेप में इनका विशेष परिचय भी दिए देता हूँ, ताकि सामान्य जन को समझने में सुविधा हो।

यथा- .मात्र- जो मात्र जन्मना ब्राह्मण है,यानी माता-पिता ब्राह्मण हैं जिनके,परन्तु उसका निज संस्कार उपनयनादि, संध्यावन्दनकर्मादि लोप हो गया है, वह मात्र नामक ब्राह्मण कहलाता है।

२.ब्राह्मण- जो व्यक्तिगत स्वार्थ की उपेक्षा करके,वैदिक आचार का पालन करते हुए, सरल,एकान्तप्रिय,सत्यवादी और दयालु है उसे ब्राह्मण कहते हैं।(ध्यातव्य है कि यहां अष्टविध ब्राह्मणों में ब्राह्मण एक प्रकार है, न कि जाति बोधक)

३.श्रोत्रिय- जो वेद की किसी एक शाखा को कल्प और षडङ्गों सहित पढ़ कर, ब्राह्मणोंचित षट्कर्मों (अध्यापन, अध्ययन, यजन,याजन,दान,प्रतिग्रह) में संयमित,संलग्न रहता है वह धर्मज्ञ विप्र श्रोत्रिय कहलाता है। (ध्यातव्य है कि आजकल श्रोत्रिय एक जाति/प्रकार बोधक शब्द बन कर रह गया है)

४.अनुचान- उक्त श्रोत्रिय के लक्षणयुक्त ब्राह्मण कल्प और षडङ्गों का तत्त्वज्ञ होकर,अपने ही अनुकूल शुद्ध,पापरहित विद्वान,श्रोत्रिय विप्र निर्मित करने की योग्यता रखता हो उसे अनुचान(श्रोत्रिय से किंचित श्रेष्ठ )कहा गया है।

५.भ्रूण- जो अनुचान के समस्त गुणों से युक्त ब्राह्मण यज्ञ और स्वाध्याय में ही सदा रमा रहता है,यज्ञशिष्टान्न भोजी होता है, और सभी इन्द्रियों को अपने अधीन रखता है,विद्वान लोग उसे भ्रूण ब्राह्मण कहते हैं।

६.ऋषिकल्प- जो सम्पूर्ण वैदिक-लौकिक विषयों का ज्ञानार्जन करके,मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए सदा आश्रम में निवास करता है,उसे ऋषिकल्प कहा गया है।

७.ऋषि- जो पहले ऊर्ध्वरेता (नैष्टिक ब्रह्मचारी) के रुप में जीवन व्यतीत करता है,उसे किसी विषय का संदेह नहीं रहता,तथा जो शाप और अनुग्रह में पूर्ण समर्थ और सत्यनिष्ठ रहता है, उसे ऋषि कहा जाता है।

८.मुनि- निवृत्ति मार्ग में स्थित सम्पूर्ण तत्त्वों का ज्ञाता,काम क्रोधादि से रहित, ध्याननिष्ठ,निष्क्रिय,जितेन्द्रिय, तथा मिट्टी और सोने में समानता रखता हो,ऐसे ब्राह्मण को मुनि कहा गया है।


इस प्रकार ज्ञान,कर्म और स्वभावानुसार ब्राह्मणों के आठ प्रकार कहे गए।

क्रमशः..

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