गतांश से आगे... पांचवां भाग
(इस प्रसंग का अन्तिम भाग)
(इस प्रसंग का अन्तिम भाग)
प्रश्न ७.
युगानां च चतुर्णां वा को मूल दिवसान् वदेत्
- चारो युगों के प्रथम दिन कौन-कौन हैं ?
उत्तर- कार्तिक
मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि सतयुग की आदि तिथि है। वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया
तिथि त्रेतायुग की आदि है। माघ कृष्ण पक्ष की अमावश्या द्वापर युग की आदि तिथि है।
एवं भाद्र कृष्ण त्रयोदशी कलयुग की आदि तिथि है। इन सभी तिथियों में
दान,धर्म,कर्मादि अति शुभद कहे गए हैं। (नोट- किंचत मतभेद भी है उक्त
तिथियों में। फिर भी अधिक मान्य उक्त तिथियां ही हैं।)
प्रश्न ८.
चतुर्दशमनूनां वा मूलवारं च वेत्ति कः -- चौदह मन्वन्तरों की आद्य तिथि क्या
है ?
उत्तर- अब
मन्वन्तर की आदि तिथियों की चर्चा करते हैं - ये हैं क्रमशः आश्विन शुक्ल
नवमी,कार्तिक द्वादशी, चैत्र और भाद्र तृतीया, फाल्गुन अमावश्या, पौष एकादशी, आषाढ़
दशमी, माध सप्तमी, श्रावण कृष्णाष्टमी, आषाढ़ पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, फाल्गुन
चैत्र और ज्येष्ठ पूर्णिमा। ये सब भी दानादि कर्मों के लिए उत्तम कहे गए हैं।
प्रश्न ९.
कस्मिश्चैव दिने प्राप पूर्वं वा भास्करो रथम् --
सर्व प्रथम सूर्यनारायण किस दिन रथारुढ़ हुए
?
उत्तर- माध
शुक्ल सप्तमी को रथ सप्तमी के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः सूर्यनारायण के
रथारुढ़ होने का प्रथम और ‘प्रशम’
दिवस यही है। मगविप्रों के लिए इससे उत्तम और कौन सा दिन हो सकता है
! सूर्य-साधना के लिए यह सर्वोत्तम दिन है।
प्रश्न १०.
उद्वेजयति भूतानि कृष्णाहिरिव वेत्ति कः -
काले सर्प की भांति नित्यप्रति संसार को उद्विग्न कौन करता है
?
उत्तर- जो
प्रतिदिन याचना करता है,वह पापात्मा सदा सबके लिए उद्वेगकारी है। यह कह कर याचना(भीख
मांगना) को अति निकृष्ट कर्म कहा गया है। वैसे भी मांगने वाले का हाथ सदा नीचे ही
रहता है। आत्महीनता की भावना से भी ग्रसित रहता है।
प्रश्न ११.
को वास्मिन् घोर संसारे दक्षदक्षतमो भवेत् -- सुदक्ष कौन है
?
उत्तर- इस
लोक में किस कर्म से मुझे सिद्धि प्राप्त हो सकती है और मृत्योपरान्त यहां से मुझे
कहां यानी किस लोक में जाना है - इस बात का भलीभांति विचार करके,जो पुरुष भावी
क्लेश के निराकरण का सदा प्रयत्न करते रहता है, विद्वानों ने उसे ही सुदक्ष कहा
है।
प्रश्न १२.पन्थानावपि द्वौ कश्चिद्वेत्ति वक्ति च ब्राह्मणः -- दोनों मार्गों को कौन जानता और बतलाता है?
उत्तर- वेदान्तवादियों
ने दो मार्ग कहे हैं—अर्चि और धूम्र। इसे ही देवयान और पितृयान भी कहा गया है। श्रेयस
और प्रेयस भी यही है। इन दोनों से भिन्न(विपरीत)जो अशास्त्रीय मार्ग है उसे पाखण्ड
कहते हैं। वस्तुतः दो ही मुख्य मार्ग हैं। अर्चीमार्गी पुरुष मोक्ष का पूर्ण
अधिकारी है और धूम्रमार्गी जीव स्वर्गादि पुण्यफल भोग कर पुनः वापस आता है इसी
संसार में। उपनिषदों ने श्रेय और प्रेय नामक दो ही मार्ग सुझाये हैं। श्रेयमार्ग
का पथिक ही अर्चिमार्ग का अनुसरण करते हुए मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत
प्रेयमार्ग का अनुयायी निरन्तर जन्म-मृत्यु-चक्र में आवागमन करते हुए व्यतीत करते
हैं। श्रेयमार्गी सीधे सूर्य की ओर प्रस्थान करते हैं। उनका उत्तरोत्तर विकास होते
रहता है। जबकि प्रेयमार्गी सदा इन्द्रिय-सुख-लिप्त-मोहित अनन्तकाल व्यतीत करता है
संसार सागर में । वस्तुतः ये दक्षिणायन या धूम्रमार्ग ही है,जो अन्धकार का प्रतीक
है।
इस सम्बन्ध में महर्षि पिप्लाद
के वचन हैं—
अघोत्तरतेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मानमन्विष्या- दित्यमभिजयन्ते
। एतद्वै प्राणानामायतनमेतदमृतमभयमेतत्परायणमेतस्मान्न पुनरावर्तन्त ।। (प्रश्नोपनिषद्
१-१०) जिन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विश्वास पूर्वक तप, ब्रह्मचर्यादि से
जीवन को संयमित रखते हुए सदा सूर्य रुपी परमेश्वर में लगा दिया है, वे मनुष्य
उत्तरीमार्ग (उत्तरायण) से लोकान्तर प्रस्थान करते हैं। गीता में गोविन्द
ने कहा है - यं प्राप्यं न विवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। इसे दूसरे शब्दों
में कह सकते हैं - निष्काम कर्मी और सकाम कर्मी। निष्कामी मुक्त होजाता है, और
सकामी सदा बन्धन में रहता है, भले ही वह ब्रह्मा का दिन क्यों न हो। एक न एक दिन अन्त तो होगा ही न ! अस्तु।
इस प्रकार देवर्षि नारद को
अपने सारे प्रश्नों का समुचित उत्तर प्राप्त हुआ विप्र कुमार सुतनु द्वारा। कलाप
ग्राम के अन्यान्य ब्राह्मणों का दर्शन करके नारदजी स्वयं को धन्य समझने लगे और
श्रीमन्नारायण का गायन करते हुए प्रस्थान किए। एवमस्तु।
अब इस कठिन कसौटी पर परखने पर
सोचने-विचारने को विवश हो जाता हूँ कि हमसब
कहां हैं !
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