गतांश से आगे...
मगमहिमा और मेरी व्यथा - तीसरा भाग
(३)
देवर्षि नारद का प्रथम प्रश्न और सुतनु ब्राह्मण वटुक द्वारा तदुत्तर
–
प्रश्नः- १.मातृकां
को विजानाति,कतिधा कीदृशाक्षरम् – मातृकाविद्या का
ज्ञाता कोई है , अक्षर कितने हैं
और उनका वैज्ञानिक स्वरुप क्या है ?
उत्तर- ऊँकारः प्रथमस्तस्य चतुर्दश स्वरास्तथा। वर्णाश्चैव
त्रयस्त्रिंशदनुस्वारस्तथैव च ।। विसर्जनीयश्च
परो जिह्वा मूलीय एव च । उपध्मानीय एवापि द्विपञ्चाशदमीस्मृताः ।। अकारः कथितो ब्रह्मा उकारो विष्णुरुच्यते ।
मकारश्च स्मृतो रुद्रस्त्रयश्चैते गुणाः स्मृताः ।। अर्द्धमात्रा च या मूर्ध्निं
परमः स सदाशिवः।। (प्रथम मातृकावर्ण
ऊँकार है, जो अ-उ-म का संघटन है। अ- ब्रह्मा, उ-विष्णु, म-रुद्र- त्रिगुणमय स्वरुप
हैं। अनुस्वार स्वरुप अर्द्धमात्रा ही सदाशिव हैं।) अकार से औकार तक चौदह स्वर,ककारादि
तैंतीस व्यंजन,अनुस्वार,विसर्ग,जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय—ये कुल मिलाकर बावन
मातृतावर्ण हैं। अकार से औकार पर्यन्त चौदह स्वर ही चौदह मनु हैं। इनके प्रसिद्ध
नाम हैं— स्वायम्भुव,स्वारोचिष,औत्तम,रैवत,तामस,चाक्षुष,
वैवश्वत,सावर्णि,ब्रह्मसावर्णि,रुद्रसावर्णि,दक्षसावर्णि,धर्मसावर्णि,रौच्य तथा
भौत्य । श्वेत,पाण्डु,लोहित,ताम्र, पीत,कपिल, कृष्ण,श्याम,धूम्र,अतिपिंगल,अल्पपिंगल,त्रिरंग,बहुरंग
एवं कवर—ये क्रमशः उक्त चौदह मनुओं के रंग हैं। क से ठ पर्यन्त बारह व्यंजन मूलतः द्वादशादित्य
हैं। इन बारहों के क्रमशः प्रसिद्ध नाम हैं —
धाता,मित्र,अर्यमा,शक्र, वरुण,अंशु,भग, विवस्वान्, पूषा, सविता,त्वष्टा और विष्णु। ड
से ब पर्यन्त ग्यारह रुद्र हैं। ये हैं क्रमशः- कपाली,पिंगल,भीम, विरुपाक्ष,विलोहित,
अजक, शासन, शास्ता,शम्भु,चण्ड और भव। भ से ष पर्यन्त आठ वसु हैं। यथा- ध्रुव,घोर, सोम,आप, नल,अनिल,प्रत्यूष
तथा प्रभास। स और ह ये दोनों अश्विनीकुमार हैं। इस प्रकार ये तैंतीस देवता हुए।
प्रकारन्तर में ये ही तैंतीस कोटि कहे गए। ध्यातव्य है कि यहां ‘कोटि’
शब्द प्रकार बोधक है,न कि संख्या बोधक। अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय—ये
चार अक्षर ही क्रमशः जरायुज, अण्डज,पिण्डज और उद्भिज नामक चार प्रकार के जीव हैं
सृष्टि में। अनुस्वारो विसर्गश्च जिह्वामूलीय एव च। उपध्मानीय इत्येते जरायुजास्तथाऽण्डजाः
। स्वेदजाश्चोद्भिञ्जाश्चापि पितर्जीवाः प्रकीर्तिताः ।। (स्क.पु.कुमारिकाखंड
३-२५४)
आगे, विप्र कुमार सुतनु ने
देवर्षि नारद को बतलाया कि जो पुरुष उक्त देवों का आश्रयी होकर निज कर्मानुष्ठान
में सतत तत्पर रहते हैं वे ही अर्द्धमात्रा स्वरुप सदाशिव को लब्ध होते हैं।
ध्यातव्य है कि आमतौर पर लोग शिव, शंकर, रुद्र, सदाशिव आदि को एक ही मान लेते हैं,जब
कि इनमें पर्याप्त अन्तर है। अतः यात्रापथान्तर भी स्वाभाविक है। अस्तु।
(नोटः-उक्त मातृका विषय साधनाविधि
सहित मैंने अपने तान्त्रिक उपन्यास— ‘बाबाउपद्रवीनाथ का
चिट्ठा’
में और भी विस्तार से वर्णित किया है। जिज्ञासु बन्धु इस लिंक पर जाकर देख सकते
हैं— punyarkkriti.simplesite.com के
उपन्यास सेक्शन में,तथा punyarkkriti.blogspot.com . यानी इसी ब्लॉग के विगत पोस्ट में देख सकते हैं।)
क्रमशः...
Comments
Post a Comment