श्रीगणेश
जरा कुछ कह लूँ !
किसी पुस्तक के प्रारम्भ में लेखक द्वारा या फिर लेखक के शुभेच्छुओं, प्रियजनों आदि द्वारा कुछ कहने-कहवाने
की पुरानी परम्परा सी रही है । कभी-कभी तो वही मंगलाचरण बन कर भी रह जाता है । भूमिका,
प्राक्कथन, पुरोवाक, विषय-प्रवेश आदि सभी कुछ ऐसी ही चीजें हैं ।
हालाकि मैं कोई साहित्य-मर्मज्ञ नहीं हूँ । साहित्य से कोशों दूर का भी कोई
वास्ता नहीं है । ‘ पढ़े
फारसी, बेचे तेल ’ वाली
कहावत मुझ जैसे किसी को देखकर ही शायद बनी होगी, क्यों कि साहित्य पढ़ा ही नहीं,
फिर साहित्यकार यानी लेखक कैसे बन गया ? और शायद इसीलिए मुझे ऐसा लगता है
कि ये सब महज़ वैशाखियां ही हैं ।
दुःख होगा तो रुलाई आयेगी ही, आँसू
बहेंगे ही। खुशी होगी तो हँसी आयेगी ही । ठहाके भी लग सकते हैं । रोने-धोने, आँसू बहाने और ठहाके लगाने के
लिए एकेडेमिक होना जरुरी थोड़े जो है !
अरे भाई ! विषय है तुम्हारे पास तो प्रवेश कर जाओ सीधे । रोका-टोका किसने है ? हां, इतना भर वस जता दो कि लिख क्या रहे हो, ताकि पढ़ने वाले को सुविधा
हो — निर्णय लेने में कि तुम्हारी चीज (रचना) वह पढ़े या नहीं । वैसे भी खूब
लम्बी-चौड़ी हांक कर भी कुछ खास लाभ नहीं हासिल कर पाते लिखने वाले, क्यों कि
पढ़ने वाले की इच्छा पर अधिकार तो उसीका बनता है न ! बेचारा लेखक
आखिर कर ही क्या सकता है- कर्मण्येवाधिकारस्ते... लेखन-कर्म तक ही उसका अधिकार है
। आगे तो फिर प्रकाशकों और पाठकों से लेकर कबाड़ी और दीमकों तक का विस्तृत
अधिकार-क्षेत्र है । कहां-कहां भूमिका का ‘गत्ता’
काम आयेगा ?
पाये मजबूत होंगे - संतुलित होंगे, तो मेज हिलेगा ही नहीं ।
खैर, विषय ‘में’
प्रवेश कराये देता हूँ, वैसे ‘विषयी’ तो पूरी काय़नात है । काश ! विषय-विहीन होता, तो आज मुझे ‘अधूरे मिलन’ की चर्चा ही न करनी पड़ती । विषयासक्त मनुष्य
के नाना जंजालों का तानाबाना है आगे का विषय जो मैं आपसे साझा करने जा रहा हूँ ।
और तानाबाना तो उलझने-उलझाने के लिए ही होता है न ? मकड़ी जाले
बुनती है- छोटे-छोटे कीट-पतंगों को फंसाने के लिए, जो कि कालान्तर में उसका आहार
बनते हैं, किन्तु ध्यान
रहे जाल बुनने वाली मकड़ी अपने ही जाले में कदापि नहीं उलझती ; परन्तु इन्सान ख़ुद
के ही बुने जाले में निरंतर फंसता चला जाता है । और कमाल की बात
तो ये है कि उसे पता भी नहीं चलता,या पता चलता है जब,तबतक बहुत देर हो चुकी रहती
है।
कुछ ऐसी ही विवशताओं का तानाबाना है-
अधूरामिलन , जिसे बुन तो लिया था काफी पहले ही, यानी कि सत्तर के दशक में ही,
किन्तु प्रकाशन तक पहुंच न पाया । पर हां, दीमक से बचा रह गया । तभी तो आज किसी
प्रकार आप सुधी पाठकों तक पहुँचने जा रहा है । ‘अधूरीपतिया’ आप पढ़ चुके हैं । और उसके पहले ‘निरामय’
और ‘पुनर्भव’ भी देख चुके हैं । भाव और भाषा की दृष्टि से
इसे अधूरी पतिया के साथ ही रखना सम्भवतः आप भी चाहें । मेरे लिए तो किसी पर कुछ
टिप्पणी करना, चार बच्चों के बीच मां-बाप द्वारा झगड़ा लगा देने जैसी बात होगी ।
अतः कुछ न कहना ही बेहतर है । पर , आप निःसंकोच कुछ कहेंगे — ऐसी मेरी आशा है ।
इसी आशा के साथ , आपका स्नेही—
गीताजयन्ती, सम्बत् २०७३
कमलेश पुण्यार्क
मैनपुरा,चन्दा,कलेर,अरवल,बिहार
Mb. + 918986286163.
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