अधूरा मिलन(उपन्यास) भाग 1

 श्रीगणेश

जरा  कुछ कह लूँ !

            किसी  पुस्तक के प्रारम्भ में  लेखक द्वारा या फिर लेखक  के शुभेच्छुओं, प्रियजनों आदि द्वारा कुछ कहने-कहवाने की पुरानी परम्परा सी रही है । कभी-कभी तो वही मंगलाचरण बन कर भी रह जाता है । भूमिका, प्राक्कथन, पुरोवाक, विषय-प्रवेश आदि सभी कुछ ऐसी ही चीजें हैं ।
हालाकि मैं कोई साहित्य-मर्मज्ञ  नहीं हूँ । साहित्य से कोशों दूर का भी कोई वास्ता नहीं है । पढ़े फारसी, बेचे तेल वाली कहावत मुझ जैसे किसी को देखकर ही शायद बनी होगी, क्यों कि साहित्य पढ़ा ही नहीं, फिर साहित्यकार यानी  लेखक कैसे बन गया ? और शायद इसीलिए  मुझे ऐसा लगता है कि ये सब महज़ वैशाखियां  ही हैं ।
दुःख होगा तो रुलाई आयेगी ही, आँसू बहेंगे ही। खुशी होगी तो हँसी आयेगी ही । ठहाके भी लग सकते हैं  । रोने-धोने, आँसू बहाने और ठहाके लगाने के लिए  एकेडेमिक होना  जरुरी थोड़े जो है !   
अरे भाई ! विषय है तुम्हारे पास तो प्रवेश कर जाओ सीधे । रोका-टोका किसने है ? हां, इतना भर वस जता दो कि लिख क्या रहे हो, ताकि पढ़ने वाले को सुविधा हो — निर्णय लेने में कि तुम्हारी चीज (रचना) वह पढ़े या नहीं । वैसे भी खूब लम्बी-चौड़ी हांक कर भी कुछ खास लाभ नहीं हासिल कर पाते लिखने वाले, क्यों कि पढ़ने वाले की इच्छा पर अधिकार तो उसीका  बनता है न ! बेचारा लेखक आखिर कर ही क्या सकता है- कर्मण्येवाधिकारस्ते... लेखन-कर्म तक ही उसका अधिकार है । आगे तो फिर प्रकाशकों और पाठकों से लेकर कबाड़ी और दीमकों तक का विस्तृत अधिकार-क्षेत्र  है । कहां-कहां भूमिका का गत्ता काम आयेगा ? पाये मजबूत होंगे - संतुलित होंगे, तो मेज हिलेगा ही नहीं ।
खैर, विषय में प्रवेश कराये देता हूँ, वैसे विषयी तो पूरी काय़नात है । काश ! विषय-विहीन होता, तो आज मुझे अधूरे मिलन की चर्चा ही न करनी पड़ती । विषयासक्त मनुष्य के नाना जंजालों का तानाबाना है आगे का विषय जो मैं आपसे साझा करने जा रहा हूँ । और तानाबाना तो उलझने-उलझाने के लिए ही होता है न ? मकड़ी जाले बुनती है- छोटे-छोटे कीट-पतंगों को फंसाने के लिए, जो कि कालान्तर में उसका आहार बनते हैं, किन्तु ध्यान रहे जाल बुनने वाली मकड़ी अपने ही जाले में कदापि नहीं उलझती ; परन्तु इन्सान ख़ुद के  ही बुने जाले  में निरंतर फंसता चला जाता है । और कमाल की बात तो ये है कि उसे पता भी नहीं चलता,या पता चलता है जब,तबतक बहुत देर हो चुकी रहती है।
कुछ ऐसी ही विवशताओं का तानाबाना है- अधूरामिलन , जिसे बुन तो लिया था काफी पहले ही, यानी कि सत्तर के दशक में ही, किन्तु प्रकाशन तक पहुंच न पाया । पर हां, दीमक से बचा रह गया । तभी तो आज किसी प्रकार आप सुधी पाठकों तक पहुँचने जा रहा है । अधूरीपतिया आप पढ़ चुके हैं । और उसके पहले निरामय और पुनर्भव भी देख चुके हैं । भाव और भाषा की दृष्टि से इसे अधूरी पतिया के साथ ही रखना सम्भवतः आप भी चाहें । मेरे लिए तो किसी पर कुछ टिप्पणी करना, चार बच्चों के बीच मां-बाप द्वारा झगड़ा लगा देने जैसी बात होगी । अतः कुछ न कहना ही बेहतर है । पर , आप निःसंकोच कुछ कहेंगे — ऐसी मेरी आशा है ।
इसी आशा के साथ , आपका स्नेही—
गीताजयन्ती, सम्बत् २०७३                                        
कमलेश पुण्यार्क
मैनपुरा,चन्दा,कलेर,अरवल,बिहार  
                             kamleshpunyark@gmail.com
                                   Mb.  + 918986286163.

                                                

Comments