गतांश से आगे...
(पिछले पोस्ट में आप उपन्यास की भूमिका देख पाये हैं। अब प्रस्तुत है उपन्यास। प्रत्येक भाग में करीब 25 पेज पोस्ट करने का प्रयास करुंगा।)
अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ऐतिहासिक
जनपद गया और उससे पूरब-दक्षिण हजारीबाग और इन दोनों जनपदों के एक बड़े से भूभाग को
घेरे-दखलाए सघन हरीतिमा का विस्तृत प्रांगण— दनुआँ-भलुआ का रोमांचक जंगल ।
इन पावन
वनस्थलियों की रक्षा के लिए किए गये सरकारी प्रयास सराहनीय है- प्राइवेट ठेकेदारों
से छीन कर,वन-रक्षण-दायित्व सरकारी वन-विभाग के हाथों सौंप दिया गया । गैंडों सा
तोंद फुलाये ठेकेदार और उसके चमचे-बेलचे गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते रह गए, परन्तु
सरकार अपनी आदतन कान में सुगन्धित तेल डालकर, ऊपर से रुई का फाहा डालकर, निश्चिन्त
हो चुप रही, और वनों का राष्ट्रीयकरण हो गया ।
अब देश
समृद्ध होगा। जनता खुशहाल होगी...। खुशहाल तो हो ही गयी। पहले जलाती थी ठीकरे के
भाव में मुलायम सागवान और कठोर सखुआ, कराशन की बल्लियां- बेदर्दी से चीर-फाड़ कर, और अब जलाने को मिलती
है झुरियां-पत्तियां, कभी कुछ तने भी,
क्यों कि गोले तो गोल हो गए ; क्यों कि उनके मोल हो गए। क्या इस पर भी सन्देह
रह गया कि हम समृद्ध नहीं हुए ?
किन्तु ये
सब करने-कराने का परिणाम क्या निकला ? कितना निकला ? वनों को राष्ट्रीय संरक्षण देकर कितना-क्या हासिल कर लिया हमने ? कितनी हो पायी सुरक्षा बीते दिनों में ? कागज नहीं,
जमीन पर की बात पूछ रहा हूँ !
जंगल अब भी
दनादन कट रहे हैं—उसी रफ्तार से या कहें उससे भी ज्यादा तेजी से। फ़र्क इतना ही
आया है कि पहले कटते थे – ठेकेदारों के मन से, कुछ जनजातियों की इच्छा और सुविधा
से , कुछ खुलेआम बेरोक-टोक ; परन्तु
अब कटते हैं- बन-रक्षकों और बाबुओं की मिलीभगत से। जंगल तो जंगल, आप अपने बगीचे का
पेड़ काट कर चौखट-किवाड़ बनाना चाहते हैं, तो उसके लिए भी बाबुओं को पूजा-दक्षिणा
चढ़ानी होगी- शायद ऐसा ही कुछ नया संशोधन हो गया है संविधान में, और नहीं हुआ
होगा, तो निकट भविष्य में हो जायेगा महाप्रभुओं की कृपा से । इसके लिए भ्रष्ट नेता
और अफसर कोई एक्साइज ड्यूटी देकर, इम्पोर्ट करने की ज़हमत थोड़े जो उठानी है।
खैर, पर्यावरण और नैतिकता पर कोई ‘डिवेट’
नहीं हो रहा है यहां कि इसकी विशेष बाल-खाल-खींच-तान करुँ। इसके लिए तो संसद भवन
है ही, और बाकी कसर पूरा करने के लिए
ख़बरिया चैनल ।
जो भी हो,
सच्चाई ये है कि अब न तो जंगलों की वैसी भयानकता है और न शिकारियों को चुनौती देने
वाले हृंसक वन्य जन्तुओं के खौफनाक दहाड़-चिग्धाड़ ही। किन्तु फिर भी पुराना
निमंत्रण पत्र लिए खड़े करासन-सखुए के ठूंठ और कुछ झाड़ियाँ अभी भी नवसिखुये
शिकारियों के मुंह में मृग-मांस के शोरबे टपकाना नहीं भूलते।
अच्छा ही
हुआ, पहले की तरह दिलावर, ज़ांबाज़ शिकारी नहीं हैं, तो दूसरी ओर शेर-चीतों की
भयानकता भी तो नहीं है। सिंह तो अब इने-गिने रह गए हैं। लगता है अगली की अगली पीढ़ी को एलबम दिखाकर
बताना पड़ेगा कि डायनाशोर जैसा ही भयानक एक जन्तु हुआ करता था जंगलों में, जिसे
सिंह कहते थे...। खैर, सरकार बहादुर की कृपा बनी रहे- मेरी तो यही गुज़ारिश है।
सरकार तो
जंगल काटने पर रोक लगा दी है, किन्तु क्या रुक गया कटाव ? फिर शिकार करना क्यों रुके ? नियम-कानून अपनी जगह पर
। आँखिर काले कोट-सफेद टाई वाले किस दिन
काम आयेंगे? जेब में माल चाहिए, कानूनी फ़तह तो देशद्रोहियों
और आतंकवादियों को भी दिला देते हैं ये भले मानस, और ‘बे-चारा’
कानून आँखों पर काली पट्टी बांधे, न्याय-तुला की डंडी थामे किंकर्त्तव्यविमूढ़
कठपुतली बना रह जाता है।
खैर, फिर
मैं जरा बहक गया । कहने ये जा रहा था कि उस दिन कुछ ऐसा ही सोचा होगा नवजवानों की उस
मस्त टोली ने, और ‘अहिंसा
परमो धर्मः’ की
वेदवाणी को धत्ता बताकर, चल दिया था बुद्ध की नगरी बोधगया को पीछे छोड़कर, जरा
पूरब की ओर दनुआँ-भलुआ की चौड़ी छाती पर मूंग दलने।
डोभी से
आगे बढ़ते ही, जी.टी.रोड का प्रशस्त क्षेत्र शुरु हो जाता है, जिस पर ‘विलीज
फोरविल ड्राईव’ जीप सरसराती हुयी भागी जा रही है । मौसम बड़ा ही सुहावना है।
मई-जून की झुलसा देने वाली भीषण गर्मी अब पीछे छूट गयी है । जुलाई के पहले सप्ताह
में ही काफी वर्षा हो चुकी है । प्यास से व्याकुल धरती का कलेजा शीतल हो चुका है।
चारो ओर हरियाली की चादर पसरी पड़ी है। लगता है दुनिया में कोई रंग यदि बचा रह गया
तो सिर्फ हरा...सिर्फ हरियाली।
ओपेन जीप
के ड्राईविंग सीट पर बैठे युवक के होंठ सहसा थिरक उठे — हरा रंग है हरी हमारी धरती
की अँगड़ाई... और दाहिना हाथ हवा में लहराते हुए लगभग चीख उठता है — कहता है यह
चक्र हमारा कदम न कभी रुकेगा...ऊँचा सदा रहेगा, ऊँचा सदा रहेगा, ऊँचा सदा रहेगा...।
‘अरे ज़नाब
! ऊँचा नहीं, नीचा । टॉप से रेभर्स में आइये। देखते नहीं, आगे पेड़ गिरा है
बीच रास्ते पर।’ – बगल की सीट पर बैठे
युवक ने कहा तो पांव एकाएक सक्रिय हो गए – क्लच और व्रेक पैडल पर। सडेन ब्रेक लेने
के कारण गाड़ी थोड़ी दूर घिसटने के बाद चरमरा कर रुक गयी।
मनहर
वातावरण की सुन्दरता कहीं आँखों में जलन पैदा न कर दे, इस भय से पीछे बैठा ऊँघता
हुआ नौकर आँखें मलता हुआ बोला — ‘अ ऽ
ऽ य ! क्या हुआ मालिक
! बाध..किधर ?’
‘अऽबेऽ हरामखोर, बाध नहीं बकरी’—कहा एक ने, और इसके साथ ही सभी गाड़ी से नीचे
उतरते हुए ठहाका लगाकर, हँस पड़े।
नौकर की
नींद शायद अभी भी पूरी तरह खुल न पायी थी । बकरी की बात सुन कर उसे कुछ ढाढ़स हुआ,
और पैर पसार कर फिर ऊँघने लगा।
‘तुम यहीं गाड़ी में बैठे रहो । हमलोग जरा पीछे
हट कर रास्ता तलाश करते हैं।’ –कह
कर चारो आगे बढ़ चले।
कोई दो सौ
गज के करीब पीछे जाने पर, समाने से आती हुयी प्राइवेट वस नजर आयी । बीच सड़क पर
इनलोगों को खड़ा देख, वस बिना हाथ दिए ही स्वतः ठहर गयी ।
‘आगे रास्ता बन्द है। बीच सड़क पर मोटा सा पेड़
गिरा पड़ा है। वस आगे जायेगी कैसे’ —
एक युवक के कहने पर, ड्राइवर मुस्कराते हुए बोला — ‘ ये पेड़ तो पिछले चार-पांच दिनों से गिरा पड़ा
है, वन विभाग को लगता है अभी खबर नहीं लगी है, या कृपा कर छोड़ दिया हो नागरिकों
के ईंधन के लिए।’
‘फिर?’ —चारो एक साथ चौंकते हुए बोल उठे ।
‘फिर क्या, आपलोग शायद उधर से ही आ रहे हैं ।
देखा नहीं दायीं ओर से एक लीक लगी हुयी है । सभी गाड़ियां उधर से आ-जा रही हैं।’ – आगे दायीं ओर हाथ का इशारा करते हुए वस-ड्राइवर
ने कहा, और आहिस्ते से गाड़ी आगे बढ़ा दी।
उसके कहने
पर ये लोग भी वापस मुड़े । कुछ दूर चलने पर सही में लीक नजर आयी । हिचकोले खाती वस
उधर ही जा रही थी।
वापस आ
पहले की तरह ही अपनी सीट पर बैठ गए चारो । नौकर पूरी तरह नींद में था। घरघराहट के
साथ जीप का ईंजन स्टार्ट हुआ, तब चौंक कर उसकी नींद खुली । गाड़ी पीछे मुड़ती देख,
बोल पड़ा — ‘क्यों मालिक
!
वापस घर चल रहे हैं? क्या शिकार...?’
‘हां बे कामचोर, वापस ही चल रहे हैं। तू सो
चुपचाप आराम से।’ – कहा एक
युवक ने।
‘कहा था कि नहा-धो कर यात्रा पर निकला कर, किन्तु
लगता है ये यूं ही चल दिया।’ – मुस्कुराते हुए दूसरे युवक ने कहा ।
‘तुम्हारे नाना के नौकर सबके सब ऐसे ही
हरामखोर,कामचोर हैं। रात में इतनी हिदायत किया था – जल्दी आ जाने को । पर नालायक
ड्राईवर आया नहीं समय पर ।’ –
सड़क से जीप नीचे उतारते हुए कहा एक ने।
‘क्यों आता बेचारा तकलीफ करने । उसे क्या मालूम
नहीं था कि हमारे मिथुन मोसाय अच्छी ड्राइविंग कर लेते हैं।’
‘छोड़े यार अनूप ! अच्छा
ड्राईवर हम क्या होंगे । थोड़ा बहुत ड्राइविंग करते भी थे, सो भी छोड़े हुए कितने महीने
हो गये ।’ – मायूसी
पूर्वक कहा मिथुन ने ।
‘क्यों नहीं कहते कि शिकार भी...’ — अनूप ने कहा बगल की सीट पर बैठे सुधीर की पीठ
पर हाथ फेरते हुए।
‘यह भी क्या झूठ है ?’
– उसी मायूशियत भरे अन्दाज में मिथुन ने कहा – ‘ शिकार किए तीन-चार वर्ष हो गए । आज भी तुमलोग इतना न उकसाते तो शायद ही निकल
पाता। ’
‘शिकार तो तुम हमेशा करते रहे हो यार ! कभी गुलेल से, कभी गोली-बन्दूक से तो कभी नज़रों से ।’ - सुधीर ने कहा सबसे किनारे बैठे तगड़े से युवक
से — ‘ क्यों
विनय क्या मैं गलत कह रहा हूँ ?’
‘तुम और गलत... ’-- अनूप कह ही रहा था कि बात पूरी होने से पहले
ही काटते हुए मिथुन बोल उठा — ‘छोड़ो
भी यार । ’
‘ घाव
न कुरेदो । पुरानी बातें याद दिलाकर, दिल दुखाना कोई बुद्धिमानी नहीं।’— सहानुभूति जताते हुए विनय ने कहा ।
लम्बा
चक्कर काट कर जीप पुनः काली सड़क पर दौड़ने लगी। कच्ची लीक पर बारबार हिचकोले खाने
के कारण नौकर की नींद खुल चुकी थी । खुलती तो शायद तब भी नहीं, किन्तु तीन बार
सामने सीट पर जा टकराया । अन्तिम बार तो सड़क पर चढ़ती जीप एक छोटे से गड्ढे को
पार करने लगी, उस वक्त तो बेचारा बुरी तरह टकरा गया सामने की सीट पर रखे भारी-भरकम
टिफिनबॉक्स से और उसके हैंडिल के गम्भीर चुम्बन से ललाट पर टमाटर उभर आया । मन ही
मन भुनभुनाकर रह गया — ‘स्टेयरिंग
पर बैठे कि ड्राईवर बन गए...एक अपना रहमान
भाई है कि कैसेहूँ रास्ते पर गाड़ी दौड़ा दे जरा भी डोलडाल के...।’
‘क्या सोच रहा है बे भोलू के बच्चे ! अब भी नींद खुली या कि...’ –खिलबट्टी
से पान निकाल, मुंह में दबाते हुए कहा अनूप ने ।
‘जी मालिक, रात में जी सो नहीं पाया जी ठीक से।
जी साले हरामखोर मच्छर जी जरा भी सोने नहीं देते जी मालिक ।’— गले में लिपटे गमछे की छोर से सिर का गुम्बड़
सहलाते हुए बेचारा नौकर भोलू बोला, जिसकी बात पर सभी ठठा कर हँस पड़े। ‘जी मालिक जी ’ के तकियाकलाम ने सबको गुदगुदा दिया । काफी देर
तक सब हँसते रहे । देहात से नया-नया अभी आया भोलू मुंह बनाये चुप उपलोगों की ओर
देखता भुनभुनाता रहा — बड़े लोग है...बाप से भी बड़ी उमर वाले के साथ चुहलबाजी
करते, जरा भी शरम नहीं आती । गरीब के जान की कोई मोल ही नहीं ...हमें चोट लगी है,
और इन्हें ठट्ठा सूझ रहा है।
अनूप को
पान खाते देख, सुधीर को सिगरेट की तलब हो आयी। जैकेट की ज़ेब से सिगरेट केश और
लाइटर निकाल कर, पहले मिथुन की ओर बढ़ाया, फिर उसके बगल में बैठे विनय की ओर ।
‘ तुम जानते हो कि मैं सिगरेट नहीं पीता, फिर भी जानबूझ
कर...।’— जरा
खीझते हुए कहा विनय ने, जिसे सुनकर सुधीर
और मिथुन दोनों मुस्कुरा दिये।
‘क्या करोगे यार, आज इसी से काम चलालो । तुम्हारे
पीने की चीज तो मैं लाना ही भूल गया ।’ —
मुस्कुराते हुए अनूप ने गहरी चुटकी ली। क्यों
कि उसने कल शाम को ही विनय को जी.बी.रोड के सलूजा बार में घुसते हुए देख लिया था,
और तभी मिथुन और सुधीर को इशारा किया था — ‘ देखो हमारे विनय बाबू का शुलभ
शौचालय... ।’ आज भी सुधीर की ओर देखकर अनूप ने आँख मारी, और कल की हरकत याद कर
तीनों खिलखिलाकर हँस पड़े। बेचारा विनय झेंपते हुए सिर नीचा कर लिया।
सिगरेट
जला, गहरा कश खींच विनय की ओर जानबूझ कर धूआं फेंकते हुए सुधीर बोला — ‘ अरे यार
तुम्हारे गया में तो सही में मच्छर बहुत हैं। रात में मैं भी ठीक से सो नहीं पाया
। ’
‘मसहरी
में सोने की तुम्हारी आदत ही नहीं है। कहते हो कालकोठरी है। ’ — मुस्कुराते हुए अनूप बोला — ‘ नानाजी कई बार कहे हमें, तुम्हें भीतर आकर
मसहरी में सोने को कहने के लिए, किन्तु मैं तो तुम्हारी आदत से वाकिफ़ हूँ। ’
इनलोगों की
बातों में हिस्सा लेता पीछे बैठा भोलू बोला — ‘ जी मालिक जी ! मोर बबुआ कहत रहे जी गयाजी में तीन चीज खूब हे ऽ...एक तो जी मच्छर,दोसरे
मुनगा और तीसरे में जी मोख़तार । ’
भोलू की
बात पर सभी फिर हँसने लगे। इस बार की हँसी में विनय ने भी साथ दिया,किन्तु जरा
बेमन से । तभी भोलू की बात का नकल बनाते हुए अनूप ने कहा — ‘ जी भोलू जी बिलकुल
सही कहत हो जी...। ’ और विनय की ओर अंगुली का इशारा करते हुए , सुधीर से बोला —‘ एक
बात जानते हो सुधीर ? ’
‘ क्या ? ’ - लम्बी कश खींच,
चिमनी सा धुआँ फेंकते हुए सुधीर ने पूछा ।
‘ हमारे विनय बाबू के गया की कुछ और भी
विशेषतायें हैं । ’ — अनूप की टोनबाजी सुन विनय मन ही मन खीझ उठा । समझ गया कि अब
ये लोग चाटना शुरु कर दिए हैं। बनावटी मुस्कान से भीतर की खीझ को ढकने का प्रयास
करते हुए बोला — ‘ गया क्या सिर्फ मेरा ही घर है, तुम अपने अनोखे ननिहाल की क्यों
नहीं कहते? ’
‘अरे यार, मेरा ननिहाल हो कि तेरा ददिहाल बात
मैं हकीकत की करता हूँ। ’ — अनूप ने हँस
कर कहा और मुंह में बची पान की सिट्ठी जरा झुक कर बाहर फेंकने लगा।
टेढ़ी-मेढ़ी
ऊँची-नीची सड़क पर गाड़ी सरपट भागी जा रही थी, और साथ ही भागा जा रहा था जांबाज़ों
का उत्साहित मन। गमों के गट्ठर पर से
मासूमियत की चादर थोड़ी सरकी थी, और दिलावर दोस्तों की टोली, खासकर लगौंटिया यार
अनूप अपने ननिहाल के सफ़र के बहाने इतनी दूर खींच लाया पुराने प्यारे दोस्त मिथुन
को । कल सुबह ही दून-एक्सप्रेस से तीन जवानों की यह टोली बिष्णु नगरी गया पहुँची
थी । सारा दिन रास्ते की थकान मिटाने और ननिहाल परिवार के मेहमानवाजी में गुज़र
गया । शाम को अचानक वचपन का साथी विनय मिल गया । उसे लिए राजेन्द्रचौक की ओर गया
शहर की रंगीन शाम का लुफ्त़ लेने चल पड़े सभी । मिलते ही विनय ने पहला सवाल यही
किया था — ‘ तब, शिकार का प्रोग्राम बनेगा न ? ’
अनूप जब भी
ननिहाल आता, विनय के साथ शिकार का प्रोग्राम जरुर बन जाता। विनय उसका पुराना
शागिर्द है। सिर्फ शिकार का ही नहीं...बहुत कुछ का। बाहर से बिलकुल भोला-भाला
दीखने वाला विनय वास्तव में भीतर से बहुत ही रंगीन मिज़ाज का है। उसका अब तक का
ज्यादातर वक्त करीब गया में ही गुज़रा है। पिताश्री बड़े नामी शिकारी थे, साथ ही
अखाड़े की धूल भी खूब मला है उन्होंने। एक समय था, जब पंचायती अखाड़ा अपने पूरे
यौवन पर था, और साथ यौवन में थे उसके पिता मोहन पाण्डेय जी। दूर-दूर से मुछैल
पहलवान आते थे । मुठभेड़ें होती थी, और पंचायती अखाड़े की धूल चाट कर, मुंह लटकाये
वापस जाते थे।
पिता की
मर्दानगी का थोड़ा छींटा इकलौते वेटे विनय पर भी अवश्य पड़ा है। किन्तु पिंडदानियों
की महानगरी गया की पंडयी ने जो अकूत दौलत संजो दिया है खानदानी तिजोरी में, उसका
परिणाम कुछ विपरीत ही हुआ है । विपरीत होने में आश्चर्य ही क्यों ! सम्पदा- वो भी विना परिश्रम के पायी गयी सम्पदा का परिणाम तो प्रायः ऐसा
ही हुआ करता है । लक्ष्मी आती हैं, किन्तु पद्मासना नहीं, उलूक वाहिनी। हालाकि दुर्भाग्य
है समझ का- जो इन दो लक्ष्मी स्वरुपों का भेद या कहें रहस्य समझ नहीं पाता इन्सान।
खींच-तीर
कर किसी तरह हाई स्कूल की चौखट पार की विनय ने, और फिर पंचायती अखाड़े या विष्णुपद की तुलना में ‘सराय रोड’
को ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण जाना ,क्यों कि यहां जीवन्त चेतना का संचार महासंचार
सदा होता प्रतीत होता था उसे।
उसी विनय
के कहने पर ही अनूप का शिकारी मन भी पैंतरा भांजने लगा । मिथुन तो पुराना शिकारी
ठहरा, भले ही इधर कुछ विषम परिस्थियों में
उलझकर अपना सबकुछ खोता चला गया है। रहा सुधीर । किन्तु उसका क्या , जिधर
अनूप और मिथुन हों, उधर ही उसका होना भी अपरिहार्य है।
सिगरेट का
जला टुकड़ा बाहर फेंकते हुए सुधीर ने कहा — ‘ हाँ, तो क्या कहा आपने श्रीमान ! विनय बाबू की गया की कुछ और भी विशेषतायें हैं? ’
‘हां यार, वही तो कह रहा था। ’ — वनावटी रुप से
रोनी सी सूरत बना, विनय की ओर देख मुस्कुराते हुए अनूप ने कहा — ‘ गया की तीन खूबियां और हैं— नम्बर वन - रीवर
विदाउट वाटर, नम्बर टू - माउटेन विदाउट
ट्रीज, एण्ड नम्बर थ्री - मैन विदाउट माइंड ।’
‘ यैं ऽ ऽ...
ये क्या कहा तूने - मैन विदाउट ब्रेन...हा
ऽ हा ऽ हा ऽ हाऽ...सच में क्या गया वालों
को दिमाग नहीं होता ?
– हँसते हुए सुधीर ने पूछा तो मिथुन भी हँसे बिना न रह सका। अनूप तो
पहले से ही हँस रहा था। उधर विनय की सूरत देखने लायक थी।
‘ क्या फ़िजूल का चाटना शुरु कर दिए यार ! तुम्हारी यही हरकत मुझे जरा भी पसन्द नहीं ।’
विनय कहीं
ज्यादा बोर न हो जाय, सोंच कर मिथुन ने विनय की ओर देखते हुए, बात का रुख बदलना
चाहा — ‘ अभी हमलोग को और कितनी दूर चलना है विनय जी ? ’
कलाई पर
बंधी घड़ी देखते हुए विनय ने मिथुन के प्रश्न का उत्तर दिया — ‘ वस, अब ज्यादा
नहीं । दस-पन्द्रह मिनटों में हमलोग डाक बंगला पहुँच जायेंगे। ’
सच में थोड़ी
ही देर बाद डाकबंगला आ गया । बीच जंगल में
सड़क से जरा हट कर, घने पेड़ों के खुशनुमा झुरमुट में निहायत पत्थरों का बना एक
छोटा सा खूबसूरत बंगला नज़र आया ।
पांच-सात छोटी-छोटी कोठरियां और मेहराबदार वरामदा, और इन सबको घेरे कोई दो बीघे
जमीन में मानवीकृत फल-फूल के पेड़-पौधे, जिनकी सुरक्षा के लिए आदमकद चारदीवारी भी
दी हुयी थी, और फिर ऊँचे कटींले रिंगनुमा तारों का घेरा बनाकर और भी सुरक्षित कर
दिया गया था । बंगले की वनावट और व्यवस्था, निर्माता की सूझबूझ और शौकीन मिज़ाजी
का खुला सबूत पेश कर रही थी । पत्थर पर की गयी कलाकारी मागधी वास्तुकला के साथ-साथ
राजस्थानी कौशल की भी मूक गाथा गा रही थी । किसी जमाने में विनय के आखेट-प्रिय पूर्वज
ने ही इसे बनवाया था । तब आज का यह बियाबान जंगल काफी भयानक और सघन था । हर रविवार
या अन्य छुट्टियों के दिन उन महानुभाव के साथ तत्कालीन आला गोरंडों की टोली इक्के,
बग्गी और हाथियों पर सवार होकर यहां जुटते थे । ऊँचे मचान बाँधे जाते थे आसपास, शिकार
फांसने का चारा बंधता था । कितने मिमियाते बकरे और पाड़े जंगली दरिन्दों के ग्रास
बनते थे । सामर, हीरण और खरगोश के साथ-साथ कभी-कभी मोरों का शोरबा भी शिकारियों की थाल में सज जाता था, और फिर
अंग्रेजी बोतलें भी खूब खुला करती थी । गर्मियों में तो रातें भी रंगीन होती थी,
कभी कभार दिन भी...।
किन्तु
धीरे-धीरे यह सब कमने लगा, और फिर बिलकुल समाप्त सा हो गया । जंगलों का घनत्व घटने
लगा, जानवरों का खौफ़ भी। साहबी हुकूमत ख़त्म हुयी । आसपास के जमींदार नदारथ होने
लगे । इस बंगले पर भी सरकारी वन-विभाग का झंडा लहराते-लहराते बचा किसी तरह, पाण्डेय
पहलवान की अनूठी कलाबाजी से ।
उसी
खानदानी बंगले के आहाते में जीप खड़ी कर, चारो यार नीचे उतरे । सबको उतरता देख,
पीछे बैठा भोलू भी उतरा ।
‘ सामान नीचे उतार लूँ जी मालिक ! ’— पूछा, तो अनूप ने खिसियानी सूरत बना कर कहा — ‘ सामानों का क्या
दरकार है ? अभी तू
नीचे आ केवल । जरा देखूं तो तेरे माथे का टमाटर अभी पका या नहीं ।’
‘जी हुकूम मालिक ! ’— अनूप के
कहने पर भोलू जीप से नीचे उतर कर सामने आया । अनूप के बगल में बोनट का टेका लगाये
खड़े मिथुन का ध्यान भोलू के ललाट पर गया, जिसे देखकर थोड़ी हमदर्दी जगी — ‘ चऽ चऽ चऽ...चोट बड़ी जोर
की लगी थी न। सम्हल कर बैठना चाहिए था । ’
‘ सम्हल कर
बैठता तो ऊँघता कौन ? ’— अनूप ने उसकी ओर देखते हुए कहा — ‘ जरा उधर जाकर देख तो भोलू, थापा
किधर गया । बरामदे में भी कोई दीख नहीं रहा है । ’
‘ थापा तीन
महीने से छुट्टी पर है । आजकल उसकी जगह दूसरा आदमी यहां ड्यूटी पर है । पास के
गांव में ही उसका घर है । लगता है अभी तक आया नहीं । खाने-वाने गया होगा । ’ — विनय कह ही रहा था
कि बंगले के पिछवाड़े वाले छोटे गेट से एक काला-कलूटा अधेड़ आता हुआ नजर आया, जिसके
एक हाथ में मैला-कुचैला थैला था और दूसरे हाथ में पोरसे भर लम्बी लाठी ।
‘ रिपोर्ट बड़ा अप-टू-डेट रखते हो यार ! ’— अनूप ने आँखें मटका कर कहा विनय की ओर देखते हुए ।
आगन्तुक
प्रहरी ने पास आकर पहले विनय को सलामी
दागी, लगभग दंडवत अन्दाज में, और फिर उसी
भांति बारी-बारी से अन्य साहबानों को भी । उसकी भाव-भंगिमा में नम्रता और गुलामी
कम, चापलूसी अधिक महसूस किया मिथुन ने ।
‘ आजकल तुम्हीं हो थापा की जगह ड्यूटी पर? ’— जानना चाहा सुधीर ने, जिसके उत्तर में पुनः पहले की तरह ही झुककर
हांमी भरते हुए पूछा उसने — ‘ जी सा ’ ब । कहिये क्या हुकुम है ? ’
‘ हुकुम
यही है कि ठण्ढा पानी पिलाओ सबको, फिर हमलोग तरोताजा होकर, निकलें यहां से । ’—
सुधीर के बदले अनूप ने कहा ।
‘अ ऽ ऽ ऽ भी लाया सा’ब
।
’ – कहता हुआ सेवक लम्बे डग भरता, बरामदे से होता हुआ उसी ओर चल पड़ा, जिधर से आया
था।
इधर चारो
जन मैदान में फैली गुदगुदी घास पर पसर कर मोहक हरीतिमा का लुफ़्त लेने लगे । थोड़ा
दूर हट कर भोलू भी बैठ गया । जेब से मैले-कुचैले कपड़े की झोली निकाल, खैनी मलने
लगा ।
‘ बड़ी रमणीक जगह है ।’— दायां हाथ मोड़ कर,
सिर के नीचे तकिये सा रख,
लम्बायमान हुए सुधीर ने कहा ।
‘ मुझे पहले से पता होता तो विस्तर भी लेता आता
। दो-चार दिन यहीं बंगले में ठहर कर घूमघाम करता । ’ — मनोरम वातावरण से अभिभूत
मिथुन ने कहा ।
‘ तो कौन कहें कि यहां इन चीजों की कमी है ।
दो-चार दिन क्या, महीने दो महीने ठहर सकते हो । रासन,वासन,वरतन,विस्तर सब कुछ
भरपूर है यहां । ’ — अपनी व्यवस्था की डींग हांकी विनय ने ।
‘ हां, ठीक
ही कहते हो । पास के गांव में एक छोटा सा बाजार भी है, जहां जरुरत की लगभग सारी चीजें मिल जाया करती हैं। ’ – अनूप
ने कहा, जिसके जवाब में सुधीर बोला — ‘ किसी
प्रकार की दिक्कत होगी तो, आखिर विनय बाबू किस दिन काम आयेंगे ? ’
‘ मगर
हमारे विनय बाबू को एक और चीज भी तो चाहिए, उसकी पूर्ति कैसे होगी ? ’ – अपना दाहिना हाथ उठा, कलाई
पर बाएं हांथ से कुछ इशारा किया अनूप ने, और इसके साथ ही सुधीर ठठाकर हँस पड़ा ।
मिथुन भी हँसे बिना रह न सका । चुटकी लेते हुए बोला – ‘ अब इतना कुछ करेंगे विनयजी हमलोगों के लिए, तो
हमलोगों का भी कुछ फर्ज़ बनना है कि नहीं ? ’
‘ क्यों नहीं , हमलोग सब मिलकर क्या इनके लिए
इतना भी नहीं कर सकते । आसपास के गांव में क्या....।’ – कहा सुधीर ने और इसके साथ ही सभी ठहाका लगा
दिये, जिसके कारण विनय झेंप सा गया । अभी कुछ कहना ही चाहा था कि उधर बंगले के
पीछे से प्रहरी आता नजर आया, जिसके एक हाथ में काठ के स्टैंड पर कसा हुआ, बड़ा सा
सुराही था, और दूसरे हाथ में एक पैकेट । कांच का गिलास भी स्टैंड पर धरा हुआ था ।
समीप आ, विनय
के सामने सुराही रखकर, बड़े अदब से बोला — ‘ लीजिये सा’ब पानी
पीजिये, साथ ही विस्कुट भी लेता आया हूँ । और कुछ तो पास में मिला नहीं। ’
‘ अरे वाह ! इस घोर जंगल
में इतनी जल्दी ये सुराही और विस्कुट का इन्तजाम कहां से कर लाया तुम्हारा बहादुर ? ’ – अनूप ने पूछा, जिसके जवाब
में वहादुर कहा जाने वाला प्रहरी अचकचा कर बोल उठा— ‘ जी सा’ब
बहादुर तो वो थापा का नाम था, मेरा नाम कालू है, यहीं पास वाले गांव में रहता हूँ ।
मेरा ही एक विरादर उधर सड़क पर गुमटी लगाया है, जिसमें जरुरत का छोटा-मोटा सामान
मिल जाता है । आये दिन बाबू लोग शहर से इधर आते रहते हैं । कभी-कभी तो अच्छी कमाई
हो जाती है । ’
घास पर
पसरा हुआ विनय उठकर बैठ गया । कलुआ के हाथ से विस्कुट का पैकेट लेकर, मिथुन की ओर
बढ़ाते हुए बोला — ‘ लीजिये मिथुन मोसाय बिहारी जलपान कीजिए । यहां न तो संदेश(
बंगाल की प्रसिद्ध मिठाई) मिलता है, और न मूढ़ी-मुड़की । ’
मिथुन ने
विस्कुट लेते हुए , अनूप की ओर देखकर बोला – ‘ लगता है आसपास से काफी
सम्पर्क बना लिए हैं विनय बाबू । ’
‘ सम्पर्क क्या बनाना है, ये तो इनका घर-आंगन
है । ’ – अनूप ने सिर हिलाते हुए कहा,
क्यों कि वो कुछ-कुछ वाकिफ था इनके परिचय-सम्पर्क से ।
बात सच ही
है । बहादुर थापा के रहते भर में तो शायद ही घर-आँगन बन पाया हो, मगर इधर तीन माह
से, जब से यह काला-कलूटा कलुआ बहाल हुआ है उसकी जगह बंगले की हिफाज़त के लिए,
विनयबाबू का उल्लू कुछ ज्यादा ही सीधा होने लगा है । अब प्रायः हर इतवार की शाम
यहीं आ पहुँचते हैं, और फिर रात को रंगीन बनाने का काम कलुए के जिम्मे रहता है ।
आसपास से सुकुमार मनभावन तितलियां जुटाना उसके बांए हाथ का खेल है। सुबह, नहा-धोकर
लम्बा सा महाबीरी टीका लिलार पर लगा कर उधर विनय बाबू वापस होते, और इधर ‘नमरी’
के दो हिस्से होते—एक मसली कली के लिए और दूसरा कालू के लिए । इस प्रकार डेढ़-दो
सौ रुपये की ऊपरी कमाई महीने में आराम से कर लेता कलुआ । महीने का बेतन बड़े मालिक
से मिलता सो अलग ।
विस्कुट
खाकर सबने पानी पीया । कलुआ बड़े अदब के साथ सबको गिलास में ढाल-ढाल कर पानी
पिलाता रहा, मानों शीतल जल के बजाय सुरा ही हो सुराही में ।
‘ हुज़ूर के लिए और कुछ सेवा ? ’ – पीले-पीले दांत निपोरता हुआ
कलुआ, पानी पिलाते हुए पूछा । आज वो मन ही मन बड़ा खुश था— लगता है भगवान ने छप्पर
फाड़ कर देने को सोचा है आज । एक साथ चार-चार साहबान ... महीने भर की कमाई एक ही
दिन...।
किसी से
कुछ जवाब मिलता न देख, फिर बोला — ‘ कमरा खोल दूँ सा’ब , आराम करेंगे ? ’
‘ नहीं
नहीं । आराम करने की जरुरत नहीं है इस समय । अभी तो हमलोग दूसरे ही मूड में हैं । ’
– उठ खड़ा होते हुए अनूप ने कहा, और सुधीर की ओर देखते हुए आँख मटकाया, जिसका आशय
समझ सुधीर मुस्कुराने लगा । उधर विनय ने भी कुछ ऐसी ही इशारा बाजी की कलुआ की ओर
देख कर, जिसका अर्थ बाकी लोग समझ न सके, और प्रत्यक्ष रुप से नाखुशी की अन्दाज़
में बोला – ‘ देखते नहीं , आज यह पूरी फौज़ दनुआँ की छाती रौंदने आयी है । शाम में
शिकार कर वापस लौटने पर पूरी तरह आराम की बात सोची जायेगी। ’
‘ तो अब
चलना ही चाहिए यहां से । ’ – खड़े होते मिथुन ने कहा, जिसके साथ ही तपाक से सुधीर
भी उठ खड़ा हुआ, जो अब तक अनूप की ओर देखते हुए होठों के कम्पन के बजाय, आँखों-आँखों में ही कुछ
कहे जा रहा था ।
सबने अपने
कमर में बंधी गोलियों की पट्टी ठीक की, जो सोने-बैठने के क्रम में ढीली हो गयी थी
। फिर बढ़ चले पास खड़ी जीप की ओर अपना हथियार सम्भालने ।
‘ हमलोग
शिकार पर जा रहे हैं । गाड़ी यहीं रहेगी । ’ – विनय ने कहा, और जीप में पीछे रखी
हुयी अपनी बन्दूक उठा ली । उसके साथ ही अन्य साथियों ने भी ऐसा ही किया । मिथुन के
पास एक पिस्तौल भी थी , जिसे सुरक्षित तौर पर जवाहर कोट के भीतर छिपा रखा था । यह
लाइसेन्सी सिक्सअर वह हमेशा अपने साथ रखा करता है । उसके पिताजी कहा करते हैं – ‘ ये सुरक्षा के हथियार हमेशा अपने साथ रखने
चाहिए । पता नहीं कब कैसा वक्त़ आ पड़े । ’
पिता की इस सीख पर मिथुन हमेशा ध्यान रखता है ।
‘ तुम भी साथ चलोगे या यहीं ठहरने का इरादा है ? ’ – मिथुन ने भोलू से पूछा जो पास ही खड़े होकर खैनी मल रहा था । उसने
देखा था - बोधगया से चलने के बाद से ही उसका होठ खैनी से खाली नहीं रहा है जरा देर
के लिए भी । नींद की झपकी में भी कौए के ठोर की तरह उसका खैनी दबा होठ निकला ही रहा था, जिसे देख, उसे बड़ी
भिनभिनाहट हुयी थी, उसकी आदत पर । बिहारियों
की यह आम आदत इसे जरा भी नहीं भाती । बिहार का ‘सरैसा’
लगता है दुनिया का सबसे बड़ा तम्बाकू उत्पादक क्षेत्र है, और उसका बहुत बड़ा
हिस्सा अकेले बिहारी ही खाकर थूक देते हैं ।
खैनी की
थूक पर मिथुन को अकसरहां एक दृश्य याद आ जाती है, जब वह अपने पिता के एक मित्र के
यहां वैवाहिक समारोह में शामिल होने गया था पिता का प्रतिनित्व करने, क्यों कि तब
वे शारीरिक रुप से लाचार थे । फलतः उसे ही
जाना पड़ा था । बिहार के ग्रामीण परिवेश से उसे पहले कभी वास्ता भी न पड़ा था । वो
जमाना भी आज जैसा नहीं था कि निरे देहातों में भी टेन्ट-क्रॉकरी सुलभ हों । ठेठ
देहाती परिवेश – किसी खेत-खलिहान में
शामियाना गड़ जाता । पुआल बिछा दिया जाता । खूब हुआ तो ऊपर से मैली-कुचैली, फटी
दरी डाल दी जाती और उसी पर वाराती पसर जाते । हां, दुल्हे और समधी के लिए उसी
शामियाने में पूर्वाभिमुख, रंगीन चादर विछा दी जाती, और कहीं से मांग-चाह कर लाया
गया दो चिटचिटा मसनद भी धर दिया जाता । वारात में नब्बे प्रतिशत लोग खैनी-बीड़ी
वाले होते, कुछ हुक्के-चिल्लम वाले भी, जिनका ‘गूल’
बनता फटी दरी को नोच-नाच कर, और गांजे का गुब्बार
गांजा न पीने वाले के नथुने में भी पाकिस्तानी आततायियों की तरह घुसपैट कर जाता ।
उन बदतमीज़ चिलमवाजों को इसका जरा भी लिहाज़ नहीं कि सामूहिक स्थल पर वे क्या कर रहे हैं । रही
बात खैनीखोरों का, तो उन्हें तो खुली छूट मिली होती है— जहां सोते हैं, वहीं पुआल के ऊपर पीक मार देने की । एक सज्जन से पूछने पर
उसे पता चला था कि वे ऐसा सिर्फ यहीं नहीं कर रहे हैं । इन खैनीखोरों के घरों
में जाकर यदि
देखें तो वहां भी स्थिति ऐसी ही मिलेगी- उनके खाट-विस्तर के आसपास खैनी की
पीक सेरों में मिल जायेगी । दीवारों पर खैनी का डिजाइन्ड डिस्टेम्पर अपना अद्भुत
नज़ारा पेश़ करता दीखेगा । संयोग से आप यदि उस मंडली के नहीं हैं, तब तो कछुए की
तरह सिर्फ गर्दन ही नहीं, बल्कि पूरा शरीर ही सिकोड़ कर गुज़ारा करना पड़ेगा ।
पूरी
यात्रा क्रम में आज मिथुन को वो दृश्य कई बार भिनभिना गया था, भोलू के होठ देख-देख
कर ।
‘जी मालिक
जी, उधर जंगल में वाघ...। ’ – कहते हुए भोलू सच में कांप उठा, मानों सामने ही वाघ
खड़ा हो ।
‘हां बे
हरामखोर ! तुझे कहीं जाने की ज़रुरत नहीं। यहीं पसरे रह गाड़ी के पास ही । कहीं सच
में वाघ देख कर तुम्हारा कमजोर दिल धड़कना भूल बैठा तो फिर ऐसा भकुआ नौकर मैं कहां
से ढूढ़कर ला सकूंगा अपने नाना जी के लिए ! ’ – बनावटी क्रोध
पूर्वक अनूप ने कहा— ‘हां,
भूख लगे तो डब्बे में रखा खाना खा लेना । हमलोग तो वहीं डटकर खा लिए हैं इतना कि
शायद ही जरुरत पड़े फिर खाने की।’
‘ हां यार,
सही में बहुत खिला दी आज तुम्हारी मामी ने हम सबको ।’ – अपने पेट पर हाथ फिराता
मिथुन ने कहा ।
भोलू मन ही
मन खुश हो रहा था कि चलो पिंड छूटा । तलहथी पर मलता हुआ खैनी जोर की ताली बजा कर
ठोंका, और पास खड़े कलुआ की ओर बढ़ाया, ‘
खाते हो न कालू भाई
? ’
गिरगिट की
तरह गर्दन हिलाते हुए कलुआ, उसकी हथेली पर से चुटकी भर खैनी उठा कर, अपने लटकते
होठ को थोड़ा और नीचे खींचकर खैनी ठूंस लिया । जरा ठहर कर पऽचऽ से पीली सी थूक पास के एक पौधे पर फेंक, सिर
हिला,आँखें चढ़ा,होठ बनाकर बोला- ‘ तुम्हारे गया शहर में खैनी तो कमाल का मिलता है
भोलू भाई । मुंह में धरते ही मिजाज़ झनझना दिहिस । अइसा खैनी तो कभी नसीबे नहीं हुआ हमलोगन के यहां ।’ – फिर एक पीक मारी
दूसरे पौधे पर और कहने लगा — ‘ अब इन जंगलों में बाघ-सिंह कहां रहे भोलू भाई ! जो तुम इतना डर रहे हो । दो वरस पहले किसी चिड़ियाघर से भाग कर एक बाघ आ
गया था इधर ही, जिसे बड़ी मुश्किल से पकड़ कर फिर ठूंस दिया गया पिंजरे में ।
सप्ताह भर के अन्दर ही बीसियों लोग की जान ले चुका था । ’
कलुआ की
बात सुनकर भोलू फिर एक बार उठा — ‘कहीं फिर कोई पिंजरा भूल से खुला न रह गया
हो...। ’
‘हां-हां,
जरुर...छिप जा जल्दी से जाकर किसी चूहे-चींटी के बिल में...हरामखोर कहीं का । ’ –
क्रोध में अनूप ने कहा और जेब से पान का बीड़ा निकाल कर मुंह में धर लिया ।
विनय और
सुधीर खिलखिलाकर हँस पड़े । मिथुन ने कहा— ‘ हां भोलू तुम यहीं रहो इत्मिनान से । हमलोग
चलते हैं । डरने की कोई बात नहीं है । कलुआ तो तुम्हारे साथ रहेगा ही ।’
‘ चलते हैं
कालू । सामान पर ध्यान रखना । भोलुआ की तरह तुम भी उँघने न लगना । ’ – सुधीर ने
कहा और सिगरेट का पैकेट निकाल, एक अपने होठों से दाबा, और दूसरा मिथुन की ओर बढ़ा
दिया ।
अपनी आदत
के अनुसार कलुआ के खुशामदी हाथ जुड़ गये— ‘ जी हुजूर , ध्यान पूरा रहेगा । हिफ़ाजत
की चिंता आप जरा भी न करें। आप लोग
इत्मिनान से शिकार करने जायें । तब तक बाकी के इन्तज़ाम भी मैं किये रहूंगा । ’
मिथुन अपनी
जेब से लाइटर निकाल, सिगरेट जलाया, फिर सुधीर की ओर बढ़ाना चाहा, किन्तु तब तक वह अपने
ही लाइटर का इस्तेमाल कर चुका था ।
‘बुरा न
मानना विनय भाई , अब न पूछूंगा तुम्हें धूम्रपान के लिए । ’ – मुस्कुरा कर सुधीर
ने कहा— ‘ है भी यह ससुरा बड़ी बुरी चीज । डॉक्टरलोग कहा करते हैं कि एक सिगरेट से
आदमी की आयु 10मिनट पीछे सरक जाती है । वैसे शराब कोई बुरी चीज नहीं है । उससे तो
सिर्फ गुर्दे ही खराब होते हैं। ’
‘ और साले
गुर्दों का क्या , उनका तो री-प्लान्टिंग भी बड़ी आसानी से हो जाता है आजकल , वस
जेब में माल चाहिए । वैसे हमारे विनय भाई इन सब बुरी आदतों से बिलकुल दूर हैं । ’ — घनी मूंछों के बीच मुस्कान छिपाते हुए अनूप
ने कहा — ‘ वैसे सुलभ शौचालय की तलब भले
ही हो जाय इन्हें । इस पर तो किसी को रोक लगाना भी ज़ुर्म ही है ।’
अनूप के
तीखे व्यंग्य पर विनय तिलमिला सा गया । खीझते हुए बोला— ‘क्या बकते हो यार ? कल से कई बार सुन चुका तुम्हारा ये ज़ुमला- सुलभ शौचालय वाला । कल कुछ
ज्यादा खा लिया था । वैसे भी तुम जानते ही हो कि मेरा हाज़मा कितना कमजोर है । खैर
मनाओ कि नगरनिगम ने जगह-जगह सुलभ शौचालय बना रखा है, वरना...। ’
‘ वरना
बड़ी मुश्किल होती बगुला भगतों को...।’ – अनूप ने चुटकी ली ।
‘ किन्तु
इधर जंगल में तो ऐसा इन्तज़ाम तो है नहीं सुलभ शौचालय का ? ’ – लम्बा कश खींच, छल्लेदार धुंआ छोड़ते हुए कहा सुधीर ने ।
‘ अरे क्या
पूछना, यहां तो बहार ही बहार है । जहाँ
चाह वहां राह । जिधर चाहो काम बना लो । ’
– अनूप ने फिर गहरी चुटकी ली, जिसका अर्थ समझ सुधीर हँस पड़ा । उधर मिथुन की
अंगुलियों में फंसे सिगरेट में राख का लम्बा पुछल्ला सा बन आया था, क्यों कि इतने
समय में उसने एकबार भी कश नहीं लिया था, और न इन दोनों के ज़मलेवाजी में ही
दिलचश्पी ले रहा था । उसका भाउक मन कहीं और ही उड़ चला था । किन्तु चेहरे की
रेखाओं का उतार-चढ़ाव बतला रहा है कि उसका मन किसी रंगीन दुनिया में न जाकर, सूखी
नदी की रेत में जा उलझा है । सूनी-सूनी आँखे बिलकुल खुली होकर भी शायद ही सामने की
चीजों को देख पा रही हों ।
उसका ध्यान
तब भंग हुआ जब बिलकुल झल्लाकर विनय कुछ आगे बढ़ गया, और अनूप तथा सुधीर ताली बजा
कर हँस पड़े— ‘ अब न बनी बात ...।’
‘ चलो
अनूप, बहुत देर हो रही है।’ – सिगरेट एक ओर फेंक, अनूप का हाथ पकड़, मिथुन ने कहा
तो सुधीर भी मिथुन का दूसरा हाथ पकड़ कर लगभग खींचता हुआ सा, आगे बढ़ चला जिधर
विनय जा रहा था ।
‘रुको यार
, हमें नहीं चलना है क्या, आगे क्यों भागे जा रहे हो? ’ – मिथुन ने आवाज लगायी, तब विनय ठमक कर रुक गया।
पास
पहुँचकर,मिथुन का हाथ छोड़ विनय के पीठ पर मीठी थपकी लगाते हुए अनूप ने कहा - ‘चलो
यार विनय, तुम तो यार जरा सी बात में मुंह फुला लेते हो । ’
‘ इतना
किसी को बोर नहीं करना चाहिए कि...। विनय भाई इतने सीधे-साधे हैं ,और तुम हो कि
लड़कियों की तरह हमेशा इन्हें छेड़ते रहते हो ।’ – मिथुन का हाथ छोड़, विनय का हाथ
पकड़ कर आगे बढ़ चला सुधीर। अनूप और मिथुन भी साथ-साथ चलने लगे।
सफ़र के
लगभग सौ गज तक चुप्पी छायी रही। लम्बी चुप्पी से उब कर सुधीर ने पूछा— ‘इस तरह
हमलोगों को चलना कितनी दूर है? ’
‘इसके विशेषज्ञ तो हमारे विनय भाई हैं। ’ – अनूप
ने कहा- ‘वे ही बतलावें आजकल किस ओर शिकार अच्छा मिलेगा। ’
‘ क्यों
विनय किधर चला जायेगा?
’ – सुधीर ने विनय का पंजा दबाते हुए पूछा।
‘सो तो
चलही रहे हैं। अभी कोई एक फ़र्लांग सीधा दक्खिन की ओर चलेंगे । फिर उस पहाड़ी पर
चढ़कर टोह लेंगे । ’ – सामने पेड़ों की झुरमुट से झांकता छोटा सा पहाड़ नजर आरहा
था। उसी ओर हाथ का इशारा करते हुए विनय ने कहा— ‘अभी पिछले सप्ताह आया था तो बड़ा
ही सुन्दर दृश्य था उधर का। ’
‘हां, ठीक कहते हो, मुझे भी याद आरही है। ’ –
पान चबाता अनूप बोला— ‘उस बार भी हमलोग शायद जुलाई-अगस्त में ही इधर आये थे।
पहाड़ी के बाद जंगल काफी घना हो जाता है। झाड़ियां भी बहुत हैं। पहाड़ी से थोड़ी
दूर हट कर एक पहाड़ी नदी भी है,जिसमें सिर्फ बरसात में ही पानी रहता है। बहुत ऊँचाई से गिरने का कारण एक रमणीक झरना भी
बन गया है वहां। ’
‘ परन्तु इस
झरने का मज़ा तो सिर्फ वरसातों में ही रहता होगा ।’ – सुधीर ने कहा।
‘और नहीं
तो क्या । मैंने कहा न कि नदी वरसाती है,फिर झरने में क्या रेत झरेंगे गर्मियों
में?
तुम भी अजीब शहरी उल्लू हो। ’ – अनूप ने हँसते हुए कहा । हँसी में
बेसम्हाल होता पान का पीक उसके कपड़ों को सरोबोर कर गया,और दूसरों पर हँसने वाले
अनूप को हँसी का पात्र बना गया।
स्थिति को
सम्हालते हुए विनय ने कहा— ‘अरे यार नदी वरसाती है,तो स्वाभाविक है कि झरना भी
वरसाती ही होगा , किन्तु जोन्हा और हुण्डरु को भी मात देने की करामात है इसमें। ’
इसी तरह
गप्पें मारते ,हँसी-चुहल करते मदमस्तों की चतुरंगिनी टोली पहुंच गयी ऊपर पहाड़ी
पर।
वहां का
दृश्य सचमुच बड़ा ही मनोरम था। पहाड़ी कोई अधिक ऊँची नहीं थी,और न ज्यादा
लम्बी-चौड़ी । यही ढाई-तीन एकड़ जमीन घेरे, उलटी लुटिया सी छोटी-छोटी दो पहाड़ियां
थी,जिन पर गया की पहाड़ियों की विशेषता को चरितार्थ करता पेड़ों का विलकुल अभाव
था। इक्की-दुक्की कटीली झाड़ियां मात्र मौजूद थी। किसी विशालकाय राक्षसी के ऊतुंग
वक्षस्थल की तरह दोनों पहाड़ियां ऊपर को उठी थी, जिसके बीचोबीच एक पतली सी मगर
काफी तेज धार वाली नदी कलकल करती वह रही थी। थोड़ा आगे यानी उत्तर की ओर जाने पर नदी
का तल एकाएक परिवर्तित हो गया था । आगे गहरी खाई थी , और फिर सपाट सी जगह । खाई के
पास ऊपर जाकर दोनों पहाड़ियां आपस में कुछ
सट सी गयी थी,मगर इस प्रकार मानों नीचे से कोई टेका लगा दिया हो- छोटे-छोटे रोड़ों
का ; और इस
कारण पतली सी दरार बन गयी थी। इसी दरार से नदी की तेज धार होकर गुजरती और आगे की
गहरी खाई में पड़े चट्टानों पर गिरती तो पानी का फौब्बारा सा बन जाता । अगल-बगल
बहुत अधिक घने थे जंगल,जिनमें रास्ता ढूढ़ना अनजान व्यक्ति के लिए लगभग असम्भव था।
जंगल की
सघन हरीतिमा और छोटी-छोटी दो बिना गाछ-वृक्ष की पहाड़ियां और उनके बीच बहती पतली
धार, ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों गाढ़े हरे रंग की वस्त्रों में लिपटी कोई राक्षसी
अपना नग्न पथरीला वक्षस्थल उघार कर दिखा रही हो किसी कामातुर को रिझाने के लिए। एक
तो उसके ऊतुंग वक्ष की शोभा, और बीच से गुजरता चाँदी के चन्द्रहार सा पानी का
सोता,जो वक्ष से आगे बढ़कर,नाभी की गहराई तक जाकर, नीचे के प्रान्तरों में घुस कर
गुम हो गया था।
दूसरी ओर,यानी
दोनों छोटी पहाड़ियों से कुछ उत्तर की ओर जहां नदी अचानक भीतरी किसी खाई में जाकर
गुम हो जाती है, उसके आगे काफी लम्बी किन्तु कम ऊँची पहाड़ियां दो भागों में बंटकर
फैली है, जिसे देखकर ऐसा लगता है कि नग्न वक्ष-प्रदर्शन से संतुष्ट न होने के कारण
उस राक्षसी ने अपनी लम्बी-लम्बी,मोटी-मोटी,काली-काली जंघाओं को भी उघार रखा है, इस
आशा से कि अब तो कोई रसिक जरुर खिंचा आयेगा इस ओर।
सही में इस
मनभावन दृश्य ने काफी आकर्षित किया चारो शिकारी युवकों को । विनय तो बीसियों बार
इस दृश्य को देख चुका था, इस कारण कोई खासियत न थी उसके लिए । उसके मन के किसी
कोमल तन्तु को शायद ही छू पा रही हों ये
प्राकृतिक छटायें, किन्तु सुधीर,मिथुन और अनूप आवाक रह गए देख कर।
‘वेजान-वीरान पहाड़ियां भी इतनी मोहक लग सकती
हैं, मैं तो कभी सपने में भी सोचा नहीं था ।
’ – कहा मिथुन ने।
‘प्राकृतिक
सौन्दर्य का ये भी एक मिशाल है। ’ – सुधीर ने अपनी भावना व्यक्त की।
ऐसे अवसर
पर अल्हड़ अनूप भला कब चूकने वाला था । कुछ देर नज़रें झुकाकर इधर-उधर गौर से
देखा,मानों कुछ ढूढ़ रहा हो। फिर दोनों बाहें फैला कर गुनगुना उठा—
‘बिन बुलाये पास तेरे हम चले आये ।
प्यार
होठों में छिपाये हम चले आये।
देखकर ऊँचे
शिखर को मचल जाता मन हमारा ।
चूम लूं
प्यासे अधर को, या मसल दूं इस शिखर को ।
नग्न
जंघायें तुम्हारी रोकती हैं राह मेरी ।
वस्त्र यो
विखरा रखी हो, बढ़ रही है चाह मेरी ।
आह भरता है
ज़िगर, कश़मसाती कस्तियां,
डूब जायें
इस भंवर में, पार उतराना नहीं ।
डूबना ही
नियति मेरी, पार जाना हार है…।
अनूप की
तरंगित भावनाओं की भीनी फुहार में सभी एक बारगी सराबोर हो उठे।
‘ अरे वाह ! तुम तो कविता भी अच्छी कर लेते हो यार ! ’ – मिथुन
ने ताली बजाते हुए कहा।
‘ कवि नहीं
इन्हें आशुकवि कहो । दृश्य सामने आया, और होठ फड़क उठे । कविता-निर्झर्णी फूट
पड़ी।’ – सुधीर ने अनूप की पीठ पर थपकी देते हुए कहा।
‘भावनायें
भी कितनी रंगीन हैं- ओह, जी चाहता है कि चूम लूं या कि मसल दूं...और उससे भी आगे....भावनाओं
की डगमगाती कश्ती नीचे के भंवर में डुबो दूं...डुबोना ही नियति है...वाह क्या
दार्शनिक अंदाज है हमारे अनूप जी के । ’ – विनय जरा गहराई में उतर पड़ा।
‘ क्या यार
श्रृंगार को भी वीभत्स करने लगे...स्पॉन्ज रसगुल्ला काट कर खाओगे तो मजा किरकिरा
हो जायेगा । ’ – मुंह विचकाते हुए सुधीर ने कहा— ‘ इसे तो बस, मुंह में धरो, आँखें
बन्द करलो, और रस लेते-लेते महातृप्ति में खो जाओ । ’ – और फिर अपनी अंगुलियों को
आपस में मिलाकर,गर्दन थोड़ी झुकाते हुए इस मुद्रा में कहा मानों सही में उसके मुंह
में लखनउ स्वीट हाउस का रसगुल्ला आ टपका हो।
सभी एक
साथ, एक सघन पेड़ के नीचे आकर बैठ गये तफ़रीह के लिए । सुधीर ने सिगरेट केश और
लाइटर निकाला, अनूप अपना खिलबट्टी । पान और सिगरेट, सिगरेट और पान- लागातार दो-तीन
दौर चले । इस बीच सुधीर कुछ शेर सुनाया,अनूप कुछ कवितायें ।
विनय को उब
हो रही थी उनके शेर-व-शायरी पर, अतः खीझकर बोला- ‘ तो क्या शेरों का ही सिर्फ
शिकार करते रहोगे या कुछ और ? ’
‘ अरे
ज़नाब !
आप तबतक गीदड़ ही मारिये न ।’ – अनूप ने कहा। इसके साथ ही सभी ठठा
कर हँसने लगे । विनय झेंप सा गया।
‘क्यों
यहीं बैठे रहने का विचार है ? ’ – मिथुन ने अनूप की ओर देखते
हुए सवाल किया।
‘ नहीं यार बैठे क्यों रहना है ।
यहां क्या राजा शिवि का दरबार है, जो जलती अलाव में कबूतर ख़द-व-ख़ुद आकर गिरने
लगेंगे? ’ – कलाई पर बंधी घड़ी देखते हुए अनूप ने कहा— ‘साढ़े ग्यारह वज रहे हैं।
’
‘ सो तो मैं भी देख रहा हूँ । सूरज माथे पर आने
ही वाला है। ’ – कहा विनय ने।
‘मेरा
विचार है कि यहीं कहीं आड़ लेकर बैठ जाया जाए । ’ – अनूप ने अपनी राय दी।
‘यहां
बैठने से क्या होने को है? ’ – सुधीर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा।
‘सुबह से
चारे की तलाश में निकली हिरणें अब चरकर अघा गयी होंगी । दोपहर होने को है। जहां तक
मैं समझता हूँ इस नदी के अलावे नजदीक में पानी
का कोई और सोता नहीं ही है शायद । ’ – अनूप कह ही रहा था कि सुधीर बीच में ही टोक
बैठा— ‘ तो इससे क्या होने को है?’
अनूप के कथन का रहस्य समझते हुए विनय ने हामी
भरी- ‘विलकुल सही विचार है तुम्हारा । ’
‘ क्या?’ – मिथुन कुछ-कुछ
समझते हुए बोला- ‘प्यासी हिरणें पानी पीने आयेंगी,और फिर...। ’
‘और
बैठे-बैठे वगैर तलाश के ही शिकार हाथ लग जायेगा । ’ –बीच में ही विनय बोल उठा ।
‘ हां ठीक समझा
तुमने,मेरी भी यही राय है । चुपचाप यहीं बने रहें हमलोग ।’
बातें हो
ही रही थी कि थोड़ी दूर पर एक खरगोश हरी-हरी घांसों में छिपता,आगे नदी की ओर जाता
हुआ दिखाई दिया।
‘ठहरो अभी । ’ – अनूप कह ही रहा था कि तभी विनय
ने तपाक से अपना लोडेड हन्टर गन कंधे से उतारा और निशाना साध दिया ।
धां ऽ ऽ य ! की कर्कश ध्वनि
तरंगें हरी-हरि पत्तियों पर छिलकती चली गयी, और सनसनाती हुयी गोली ने घास में छिपे
खरगोश का काम तमाम कर दिया ।
क्रमशः....
Comments
Post a Comment