अधूरा मिलन भाग 3

गतांश से आगे...
(पेज 26 से 50तक)


उधर खरगोश तड़फड़ाया,इधर सुधीर उसी ओर दौड़ पड़ा । पल भर में ही शिकार को कब्ज़े में लिया, और भागे लिए चला आया, जहां पहले बैठा था।
‘ यात्रा तो अच्छी रही । खरगोश का शिकार शुभ यात्रा का सूचक है ।’ – मिथुन ने मुस्कुरा कर कहा।
‘खरगोश का दर्शन शुभ है यात्रा पर ज़नाब, शिकार नहीं । खैर जो भी हो निशाना अचूक है हमारे विनय बाबू का – मानना पड़ेगा। ’ –विनय के सामने लाकर खरगोश को रखते हुए सुधीर ने कहा । तड़पता शरीर अबतक बिलकुल ठंढा हो चुका था ।
‘और क्या विनय बाबू बाध मारेंगे  ! ’ – अनूप ने चुटकी ली - ‘निरीह जीवों पर ही अपनी दिलावरी दिखलाते हैं । ’
‘वाघ का शिकार क्या चार हाथों वाले करते हैं ? ’ – विनय ने थोड़ी रुखाई पूर्वक कहा।
‘पिछली दफ़ा जब आया था, तब भी विनय ने सिर्फ खरगोश ही मारे थे, मैं एक हिरण । ’ – अनूप ने अपनी पूर्व शिकार-यात्रा की याद दिलायी।
‘तुमने हिरण तो जरुर मारे, पर मेरे खरगोशों की संख्या कितनी थी सो याद है ? ’ – विनय ने कहा ।
‘ठीक कहा तुमने , दस-बारह गोलियां गंवा कर आठ खरगोश मारे तुमने, और मैंने दो गोलियों में एक हिरण । ’ – अनूप के कहने पर सुधीर ताली बजाकर हँस दिया- ‘ मजा आ गया, तुमलोगों के शिकारी हुनर और तज़ुर्बे पर । ’
विनय झल्ला सा गया- ‘क्यों सुधीर बाबू ! क्या अनूप ने सिखा रखा है तुम्हें कि जब-जब भी कुछ कहे, तुम तालियां बजा दिया करो जोर-जोर से हँसते हुए ? अरे, हँसने और तालियां बजाने का भी कोई तरीका होता है। तुम तो वैसी ही हरकत करते हो- जैसे नेताओं द्वारा सभा में बुलायी गयी भाड़े की भीड़ । ’
इन लोगों की बातों से जरा हट कर, मिथुन का ध्यान उत्तर तरफ पहाड़ी की ओर था । उसने देखा- पांच-छः हिरणों का एक झुण्ड धीरे-धीरे पागुर करते चला आ रहा है नदी की ओर ।
उसने इशारा किया, और इसके साथ ही सबका ध्यान उसी ओर जलगा । चार बड़ी हिरणें थी,साथ ही दो बच्चे।
इसी बीच दो खरगोश भी बगल की झाड़ी से कुलांचे मारते हुए गुजरे । इस बार सुधीर बच्चों जैसा मचल उठा अपना हाथ साफ करने को, मगर अनूप और विनय ने एक साथ मना किया- ‘ अभी थोड़ा सब्र करो, वरना सब गुड़ गोबर हो जायेगा ।’
अपने बन्दूक की नाल दक्खिन के बजाय उत्तर –पूरब की ओर घुमाते हुए सुधीर ने कहा - ‘तो उधर ही सही, आखिर यह संकल्पित निशाना वरबाद कैसे जायेगा । ’
‘बड़े आये हो त्रेता-द्वापर के तीरंदाज । ’ – कहते हुए विनय ने फिर रोका, अपना हाथ बढ़ाकर- ‘ पहले जरा उन्हें किनारे पहुँचकर पानी तो पी लेने दो,तब तक हमलोग इधर-उधर पोजीशन लेकर बैठ जायें । ’
विनय की ये राय सबको जँची । विनय ने कमर से पेटी निकाल गोली भरी खाली वैरल में । अनूप और मिथुन भी अपनी-अपनी बन्दूकें लोड करने लगे ।
जब सबकी बन्दूकें तैयार हो गयी गरजने को, तब वहां से उठकर धीरे-धीरे पांव दबाते हुए, क्यों कि दूरी ज्यादा नहीं थी बीस-पचीस गज से, और पानी के किनारे आवाज अधिक दूर तक साफ जाया करती है – इसका भी भय था । अतः पेड़ों और झुरमुटों में दुबक कर निशाना लेने लगे । छिपने का पोजीशन सबका इस तरह था कि एक दूसरे को भली-भांति देख सकें।
इशारा सबका पहले से ही कहा-बदा था— ज्यों ही हिरणें पानी पीकर सिर उठा पीथे मुड़ना चाहें एक साथ चारो अपने-अपने शिकार पर निशाना दाग दें । यदि जरा भी आगे-पीछे की चूक हुयी कि सब मटियामेट ।
थोड़ी देर तक सभी धड़कते-उतावले दिलों  से दम साधे,चुप निशाना साधे रहे ।
ओह! क्या ही सुन्दर मनभावन दृश्य है— कलाकार के सधे हुए हाथों की सधी हुयी कृति - छौने और बड़े नर और मादा हिरणें...प्यास से व्याकुल पानी की आश में नदी तीर पर आयी हैं । ना मालूम नीर की आश में तीर से मुलाकात फिर हो ना हो ! विधाता की कलाकृति- उसी की एक और कलाकृति के वर्वर शिकंज़ों में दब कर शायद कराह उठे या कराह भी न पाये, एक चोट में दम तोड़ दे ।
दोनों मृगछौने कुछ पहले ही पानी पी चुके- वेचारों का पेट ही कितना बड़ा होता है ! फलतः वहीं किछार पर दोनों अगली टागें मोड़कर भीगे मोटे वालू पर बैठ गए । सुधीर कुछ ज्यादा ही उतावला हो रहा था । जी में आया – क्यों न इन दोनों का काम तमाम कर दूं । मगर कुछ सोच कर थिर रहा । तभी पास ही दूसरे गाछ की ओट में निशाना साधे अनूप ने अपने पांव से कुछ इशारा किया- सभी तैयार हो जाओ ।
और अगले ही क्षण एक साथ- क्षणांश के अन्तराल पर, धांय-धांय-धांय-धाय...चार गोलियां सनसनाती हुयी, चार समान स्रोतों से
निकली और दनदनाती हुयी अपने-अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चली ।
            गोली की आवाज से घबराकर छोटे छौनों को शायद कुछ न सूझा और घबराकर दोनों पानी में कूद पड़े । मिथुन ललच उठा उन्हें जिन्दा ही पकड़ने को । उधर उसका निशाना ऐसा लगा कि हिरण ठीक से तड़प भी न सका । वहीं ढेर हो गया किनारे पर ही। विनय का शिकार दो-चार पग के बाद गिरा थोड़ा छटपटाया और दम तोड़ दिया। किन्तु अनूप जिस अपने निशाने पर ज्यादा घमंड था,निशाना चूक कर जा लगा था नदी के उस पार मोटे दरख़्त के तने में। फलतः उसका लक्ष्य सहीं दूर जाकर अपनी जान बचाने  की ताक में था। साथ ही सुधीर का उतावलापन भी उसे सही लक्ष्य तक पहुँचने न दिया। उसकी गोली अपने शिकार के बायीं टांग में घुटने से ऊपर लगी,जिस कारण वह एक ओर भाग चला लड़खड़ाते – टांग घसीसटते।
            अनूप को अपनी तेज दौड़ पर भी कोई कम भरोसा न था,अतः निशाना चूकने के कारण शर्मिंदा होकर,पर कुछ जोश में आकर उसी ओर दौड़ पड़ा,  अभी बताता हूँ ...’ – कहता हुआ, जिधर उसका शिकार अपनी छोटी सी जान की रक्षा हेतु भागा जा रहा था।
सुधीर ने सोचा- जब अनूप अपने शिकार को दबोचने का हौसला रखता है,फिर मैं क्योंकर पीछे रहूँ ! अतः वह भी अपनी बन्दूक उठा,दौड़ पड़ा।
 ‘देख लिए न निशानेवाजों की कलावाजी ! ’ – मुस्कुराता हुआ विनय मिथुन की ओर देखकर बोला- ‘हमदोनों का शिकार तो चारो खाने चित पड़ा है। क्यों न उठा लाऊँ। ’
            ‘हां,चला जाय। ’ – उठ खड़ा होता हुआ मिथुन बोला ,जिसकी निगाह अभी भी कुछ दूर बहते चले जा रहे मृगछौने पर टिकी थी - ‘मैं को सोच रहा था उन निरीह बच्चों को भी पकड़ लूं। घर लेकर पहुँचता तो पिताजी बहुत प्रसन्न होते उसे देखकर,क्यों कि उन्हें ये सब पालना बड़ा अच्छा लगता है। कोठी के आहाते में उन्होंने छोटा सा एक चिड़ियाघर बना रखा है। उनका वश चले तो खूंखार बाघ,सिंह,चीते को भी लाकर कैद कर दें अपने पिंजरे में। ’
            ‘वैठो मिथुन भाई ! मैं अकेले ही दोनों शिकार उठा लाता हूँ। ’ – अपनी कसरती वलिष्ठ बांहें निहारता विनय बोला- ‘इन दो छोटे-छोटे हिरणों का वजन ही कितना होगा!
            ‘ठीक है। जाओ फिर तुम्हीं ले आओ। तबतक मैं इधर ही कुछ टोह लेता हूँ नीचे कछार पर उतर कर । ’ – कहा मिथुन ने और अपनी बन्दूक सम्हालता,एक ओर चल दिया दक्खिन की ओर।
            ‘ठीक है जाओ,किन्तु ज्यादा दूर न जाना अनजान जंगल में। ’ – कहता हुआ विनय अपने शिकार की ओर बढ़ चला।
            उधर अनूप और सुधीर अपने-अपने शिकार का पीछा करते दो भिन्न दिशाओं में भागे चले जा रहे थे। अनूप का असली शिकार तो कहीं और निकल चुका था,किन्तु संयोग से भगवान ने उसकी इज़्जत रखने को और हिम्मत की परीक्षा लेने को एक दूसरे मृग को इसी ओर भेज दिया था,जो बेचारा पानी की तलाश में नदी की ओर जा रहा था।
            अपने स्थान से चल कर विनय नदी किनारे पहुँचा,जहां पांच-छः गज की दूरी पर दोनों शिकार दम तोड़े लुढ़के पड़े थे। समीप जा,गौर किया दोनों को,फिर यूँ ही पड़ा छोड़, थोड़ा आगे बढ़ गया। बहते मृगछौने अब आँखों से ओझल हो चुके थे। जल्दी में वारिश न हुयी रहने के कारण नदी का पानी विलकुल स्वच्छ था। विनय को प्यास लग रही थी। अतः किनारे पहुँच ,झुककर पानी पीने लगा। पल भर के लिए हृदय में कोमल सत्वभाव आये—इसी तरह तो झुक कर पानी पी रही थी कुछ पल  पूर्व ये हिरणें भी। मानव के भीतर बैठा दानव अपने स्वार्थ में क्या से क्या कर बैठता है। बनाने वाले को क्या इस पर जरा भी तरस नहीं आती होगी !
            और इस चिन्तन के सात्विक झोंके के साथ ही भीतर बैठा दानव खाँव-खाँव कर उठा- बेवकूफों जैसी बातें करते हो- ‘ जीवो जीवस्य भोजनम्  ’ का आखिर क्या अर्थ होता है...विज्ञान के एक पागल से विद्यार्थी ने क्या यह सिद्ध नहीं कर दिखाया है कि पेड़े-पौधे , लता-गुल्में, सारी की सारी वनस्पतियां भी जानदार हैं,फिर हरे-भरे पौधों को क्यों काटते हो...विज्ञान ने तो बहुत दूर की कौड़ी लाया  – अपने पांव तले ही देखो न,बनाने वाले ने दुधारु पशुओं के थनों में दूध क्या तुम्हारे लिए बनाये हैं या उनके अपने बच्चों के लिए- कभी सोचा है इस पर ! शायद ध्यान भी न गया हो ऐसी फिज़ूल की बात पर...।
कुछ ऐसी ही तर्क-वितर्कों का दौर चलता रहा कुछ देर तक विनय के मन-मस्तिष्क में ,और पानी पीने के बाद भी किनारे पर झुका, निर्मल जल में अठखेलियां करती मछलियों को देखता रहा। बीच-बीच में पीछे नज़रें घुमाकर साथियों की भी टोह लेलेता। किन्तु अभी तक कोई अपने पूर्व स्थान पर पहुँचा नहीं था। फलतः इधर मानवी और दानवी शक्तियां जूझती रही आपस में ,विनय बैठा सोचता रहा। देखता रहा जल में तैरती मछलियों का खेल और दिमाग में तैरते विचारों का झगड़ा।
            किन्तु अन्ततोगत्वा मानवी शक्ति पर दानवी शक्ति ही हावी रहती है- यह प्रायः सनातन नियम है। यहां भी कुछ वैसा ही हुआ। क्षण भर के लिए विचार आया कि आज से बिलकुल संकल्प लेकर शिकार करना छोड़  दे,क्यों यह ब्राह्मण-कर्म नहीं है कदापि,परन्तु बादलों के बीच विजली की कौंध सी यह सुविचार की चमक शीघ्र ही विलीन हो गयी और फिर पूर्वत अन्धकार ही व्याप्त रहा। पिता द्वारा सुनायी गयी एक राजा की कहानी याद आ गयी—
            जंगल में शिकार केलिए भटकता एक राजा संयोग से एक साधु की कुटिया में जा पहुँचा। उसके मन में विचार आया कि शिकार करना उचित है या अनुचित- इसके बारे में माहात्माजी से राय लूँ। किन्तु वहां पहुँच कर उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा- महात्मा जी व्याघ्रचर्म पर लगौंटा बांधे भस्मीभूत शरीर बैठे हुए थे, और सामने पूजन-सामग्री के वजाय दो-तीन दोने और एक वोतल रखा हुआ था। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दोने में मांस और वोतल में मदिरा थी।
आश्चर्य पूर्वक राजा ने पूछा - ‘महात्माजी आप मांस खाते हैं?
‘जी हां महाराज। ’ – साधु ने बेझिझक वोला - ‘खाता हूँ, पर हमेशा नहीं। जब कभी मदिरा मिल जाय,क्यों कि इसके वगैर मांस में मजा नहीं आता। ’
राजा का आश्चर्य बढ़ा-  ‘मदिरा और मांस ! ओह ! यह तो बड़ा अनर्थ है।  ’
‘ अनर्थ की इसमें क्या बात है राजन ! मदिरा रोज थोड़े जो मिल पाता है । वो तो कभी कभार जब सुकुमार सुन्दरियों का सानिध्य संयोग हो जाता है,तभी ...। ’
राजा की आँखें फैलती चली गयी- ‘ऐं...ऽ ऐं...ऽ...क्या आप वेश्याओं का भी भोग करते हैं...राम राम छीःछीः...ये तो घोर अनर्थ है। ’
राजा की बात पर साधु मुस्कुराया - ‘मैं कहां कह रहा हूँ महाराज कि ये सब रोज-रोज होता है। आपने तो राजनगर में कड़ा पहरा विठा रखा है,मौका ही कहां मिल पाता है। वो तो कहिए जब कभी मौका मिल गया, संयोग से जंगल से गुजरते किसी मुसाफिर को लूट-पाट कर कुछ छीना-झपटी में प्राप्त हुआ...। ’
साधु की बात पर राजा की बोलती बन्द हो गयी। चुपचाप भारी कदमों से वापस लौट पड़े, और साधु की मनःस्थिति पर विचार करने लगे।
राजा और साधु की कहानी याद आकर विनय को पल भर के लिए गुदगुदा गया। भला विनय इन गूढ़ रहस्यों को क्या समझ पाता। उसके लिए तो कहानी वस कहानी भर है। पिता की वो पंक्तियां भी यायद स्मरण नहीं- ‘ भिक्षो मांस निसेवनं प्रकुरुते, किं तो न मद्यं विना...। ’
जैकेट की भीतरी जेब से पौआ निकाला छोटी गर्दन वाली, नाटी चपटी और कार्क खोल एक बार माथे से लगा,जोर से बोला- ‘जय भोले ! दया रखना । ’ और अगले क्षण वोतली मुंह से लगा,एक ही सांस में गटागट पीकर,खाली कर दिया।
वोतली एक ओर फेंक, नफ़रत भरी निगाहों से देखा उसे छपाक की आवाज के साथ पानी में गिरते हुए और बोल उठा अपने आप में   – ‘हुँ ऽ ह ! जितना नियम सब ब्राह्मणों के लिए ही...।’
विनय की खुमारी जब भंग हुयी,तब ध्यान आया कि बहुत देर हो गयी यहां बैठे-बैठे। अतः किनारे से उठकर शिकार के पास आया। पहले बारी-बारी से दोनों शिकारों को उठा कर बोझ का अन्दाज़ा लगाया- अलग-अलग तो नहीं,पर एक साथ दोनों को उठाकर, पहाड़ी पर चढ़ना जरा मुश्किल हो सकता है- सोचता हुआ,सिर्फ एक शिकार को ही उठा कर ऊपर चढ़ने लगा।
दूरी तो अधिक थी नहीं। शीघ्र ही ऊपर आ पहुँचा। खरगोश का मृत शरीर यथास्थान पड़ा हुआ था। वहीं पर हिरण की लाश को भी रख,पुनः नीचे आया। दूसरी लाश उठा धीरे-धीरे ऊपर पहुँचा। कंधे से शिकार को ऊतारा, और वहीं हरी घास पर पसर गया।
कलाई पर बँधी घड़ी देखी- दो बज रहे थे। यानी तीनों साथियों को गये दो घंटे से भी ज्यादा हो गए- सोचकर थोड़ी घबराहट हुयी। फिर यह सोच कर आश्वस्त हो गया कि अनूप तो अनजान नहीं है। सुधीर भी उसके साथ ही होगा।
मगर मिथुन- वह तो अकेला है,तिस पर भी बिलकुल अनजान। गया भी वह दूसरी ओर है। ऐसा न कि कहीं रास्ता भटक जाये घने जंगल में।
कुछ देर तक विचार सोच तक ही सीमित रहे,किन्तु शीघ्र ही चिन्ता में बदल गए। घबराकर उठा। नीचे,पहाड़ी से ऊतर कर नदी के कछार तक आया। जूते, रेत पर अपना निशान छोड़ गए थे। उसी का सूत्र पकड़े आगे बढ़ा दक्षिण की ओर । गिरे हुए दरख़्त तक लागातार निशान मिलते गए,फिर अचानक गुम। समझ न आया – यहां से वह किस ओर गया होगा। पीछे लौटने के चिह्न भी नजर न आरहे थे। अतः घबरा कर,वहीं खड़ा,चिल्लाने लगा जोर-जोर से-  ‘ मिथन...ऽ...ओमिथुन....।’
‘क्या बात है विनय? ’ – ऊपर पहाड़ी पर से अनूप की आवाज आयी। पीछे मुड़ कर देखा तो अनूप और सुधीर को खड़े पाया।
‘ मिथुन को ढूढ़ रहा हूँ।’ – विनय ने कहा,जिसे सुन अनूप मुस्कुराते हुए बोला- ‘मिथुन कोई बउआ है छोटा सा,जो इतना परेशान हो रहे हो उसके लिए? निकल गया होगा किसी शिकार के पीछे। ’
‘नहीं,ऐसी बात नहीं लगती। पहले यहां आकर तो देखो...। ’ – विनय ने आशंका जताते हुए कहा।
विनय के कहने पर अनूप और सुधार दोनों वहां आये,जहाँ किनारे पर वह खड़ा था। विनय के कहने पर उन दोनों का भी ध्यान पद-चिह्नों पर गया। गौर करते हुए सुधीर ने कहा- ‘ सही में यहाँ तक आकर अचानक गायब गया है पैरों का निशान।’
अनूप ने बुद्धिमानी जताते हुए कहा- ‘ पैरों का निशान गायब हो गया है या कि तुमदोनों का दिमाग गायब हो गया है । क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तने के सहारे नदी के उस पार चला गया हो।’
अनूप की बात पर दोनों थोड़े चौंके। अपना सिर ठोकते हुए विनय न कहा - ‘अरे हां यार,मेरी भी बुद्धि कभी-कभी कहां गुम हो जाती है। इतनी सामान्य सी बात पर ध्यान ही नहीं गया । ’
सुधीर ने कहा- ‘तो फिर देर किस बात की । चला जाये,उस पार जाकर भी देख लिया जाय। ’
तीनों नदी पार हुए, उसी तने पर सम्हल-सम्हल कर । उस पार भी जूते के निशान देख, आश्वस्त हुए। निशान का सूत्र पकड़े आगे बढ़ने लगे। झरने से कुछ पहले ही, चुंकि कंकड़ीली जमीन शुरु हो गयी,इस कारण निशान अचानक फिर गुम हो गये। फिर तीनों झरने तक आये।
‘अब क्या किया जाये? ’ – तीनों के मन में सवाल उठा एकसाथ। किन्तु  उत्तर किसी के पास न था।
‘ वहां तक निशान मिले हैं,इसका मतलब है कि झरने तक तो जरुर आया होगा मिथुन ।’ – कहा अनूप ने।
‘ हां,सो तो ठीक है। किन्तु क्या अनुमान लगाया जाये कि झरने में उतरा या कि...?’ – विनय ने चिन्ता जतायी- ‘प्यास लगी होगी। झरने की ओर बढ़ा होगा...। ’
‘पांव भी फिसल सकता है,और दिमाग भी। ’ – अनूप बोला।
‘ क्या मतलब? तुम हमेशा ऐसी ही बातें क्यो किया करते हो?’ – झल्लाते हुए सुधीर ने कहा।
 ‘मतलब यह कि है भी तो वह जरा भाउक किस्म का। यादों की खिड़की खुली होगी,और खींच ले गयी होगी गमों की पुरानी गली में...कहीं उधर ही रास्ता न भटक गया हो । ’ – अनूप ने अपने होंठ काटते हुए जरा गम्भीर भाव से कहा।
‘यह भी सम्भव है। ’ – सुधीर ने कहा -  ‘सच कहो तो जख़्म अभी बिलकुल ही ताजे हैं , सिर्फ उन पर मरहम लग गया है- कुछ महीनों के समय का। ’
‘गमों में भी क्या कहीं ऐसे पागल हुआ जाता है ! गुजरा हुआ समय तो वापस आने से रहा । अतीत तो खोया ही, किन्तु क्या वर्तमान और भविष्य को भी खो दिया जाय ? इसे तो सम्हालने का प्रयास इनसान को करना ही चाहिए। ’ – अनूप ने उपदेशात्मक लहज़े में कहा।
‘किन्तु हमलोगों को ऐसी अशुभ आशंका क्यों हो रही है ! हमें तो लगता है कि मिथुन कहीं इधर-उधर भटक गया है। ’ – विनय ने कहा।
‘तो फिर इस शंका का भी समाधान कर ही लिया जाना चाहिए। किन्तु इतने बड़े जंगल में आखिर कहां तक ढूढ़ा जा सकता है? ’ – अनूप ने पुनः समस्या रखी।
‘ जंगल में नहीं ढूढ़ सकते तो क्या इस झरने में ढूढ़ लेंगे हमलोग ? इतनी तेज धार है,देखने से ही भय लग रहा है। ’ – सुधीर ने कहा।
‘ये सब सोचना फिज़ूल है। ’ – विनय ने जोर देकर कहा - ‘इतने थोड़े समय में दस-बीस कोस तो गया नहीं होगा। ज्यादा से ज्यादा इन्हीं एक-दो पहाड़ियों तक जा सकता है। क्यों न हमलोग कुछ आगे बढ़ कर तलाश करें। ’
विनय की राय सबको जंची। घड़ी देखते हुए अनूप ने कहा -  ‘अभी तो मात्र ढाई बज रहे हैं। समय काफी है हमलोगों के पास। ’
‘ चला जाय, फिर देर किस बात की।’ – सुधीर ने कहा,और इसके साथ ही तीनों बढ़ चले,ऊपर की पहाड़ी की ओर। थोड़ी-थोड़ी देर पर आवाज लगा लिया करते , किन्तु पहाड़ियों से टकरा-टकराकर अपनी ही आवाज सिर्फ सुनाई पड़ती,क्यों कि उसका जवाब देने वाला वहां कोई और मौज़ूद नहीं था।
रास्ते में इधर-उधर की बातें होती रही-  मिथुन के विषय में, तो उसके परिवार के विषय में...उसके अतीत के विषय में...।
‘तुमलोग अपना शिकार कहां रख आये हो? ’ – पूछा विनय ने,जिस पर होठों ही होठों में अनूप मुस्कुराया।
‘हमलोग अपना शिकार उधर ही जंगल में छोड़ आये हैं। कुछ दिन बाद ,खा-पीकर थोड़ा और तन्दुरुस्त हो जायेगा तो आकर ले जायेंगे। ’ – हँसते हुए सुधीर ने कहा।
‘मतलब? ’ – विनय कुछ समझा नहीं।
‘मतलब क्या पूछते हो हर बात में बेवकूफों की तरह। शिकार मिला ही कहां हमलोगों को। कई शिकार सामने से गुजरे। कई गोलियां बरबाद हुयी,मगरमिला हिरण के बदले दो खरगोश,जिन्हें लेजाकर वहीं रख छोड़ा हूँ,जहां तुम बाकी के शिकार रखे हो।  ’ – अनूप ने स्पष्ट किया।
बात फिर मिथुन पर आ गयी। विनय ने पूछा- ‘ आंखिर मिथुन की मायूशी का कारण क्या है?
‘पूरी बात तो कह नहीं सकता, कारण भी कई हैं। पारिवारिक परेशानी तो बहुत दिनों से चली ही आरही है। इधर कुछ प्यार-व्यार का चक्कर भी पड़ गया है।’ – अनूप ने बात टालने के ढंग से कही।
बातें होती रही। खोज जारी रहा। छोटी-बड़ी कई पहाड़ियों पर घूम-घूम कर, आवाज लगाकर,हर रोड़े पत्थरों से,लता-गुल्मों से,झाड़-झंखाड़ों से मिथुन की ख़ैरियत पूछी गयी,जैसे वनवासी राम ने रावण-हरित सीता की सुधी ली थी, किन्तु सब बेकार साबित हुआ। यहां तक कि तीनों थककर चूर हो गये बिलकुल। अनूप का खिलबट्टी कब का खाली हो चुका था। सुधीर का सिगरेट केस भी। विनय तो अपनी जेब पहले ही हल्की कर चुका था।
‘एक-दो पहाड़ियां और देख ली जायें,क्यों कि दिन घंटे भर से ज्यादा अब रह नहीं गया है। ’ – अनूप ने कहा - ‘अन्धेरा होने पर तो और भी असम्भव है। ना हो तो कल कुछ और लोगों को लेकर दूर-दराज़ तक तलाश करेंगे। माझी को भी लेते आया जाय,ताकि झरने से सक मिटा लें। क्यों कि मेरा तो दिल यही कहता है कि उस झरने में ही...। ’
‘ किन्तु झरने की बात मेरे गले नहीं उतर रही है।’ – सुधीर कह ही रहा था कि तभी अनूप उसका कंधा पकड़कर,कुछ इशारा किया एक ओर अंगुली दिखाते हुए- ‘वो देखो...। ’
विनय और सुधीर ने भी देखा,और दोनों के मुंह से एक साथ घबराहट भरे बोल फूट पड़े- ‘अरे वाप रे ! कितना बड़ा शेर सोया हुआ है।  ’
‘नहीं, सोया नहीं,बल्कि मरा हुआ जान पड़ता है। ’ – कहता हुआ अनूप दो कदम आगे बढ़ गया शेर की ओर,जब कि सुधीर और विनय एक झाड़ी के ओट में जा छिपे।
जरा आगे बढ़कर अनूप भी ठमक गया। उसके मन में विचार आया- कहीं सही में सोया ही हो। फिर गौर करके देखा- शेर घायल था। खून की एक लकीर जांघों के पास से नीचे तक चली आयी थी। गर्दन कुछ ऐंठा हुआ सा था। उसने सोचा- इस तरह तो नहीं होना चाहिए सोये हुए में। और इस सोच से साहस बढ़ी। अनूप थोड़ा और आगे बढ़ा शेर की ओर,और पीछे झांक ललकारते हुए अन्दाज़ में बोला- ‘ आगे बढ़ो यार । मरे हुए शेर से इतना डर रहे हो,फिर तो कर लिए शिकार । ’ – अनूप के कहने पर दोनों आगे बढ़े।
समीप आने पर स्थिति स्पष्ट हुयी- शेर सच में मरा हुआ ही था,जिसके शरीर पर दो जख़्म नजर आये। एक जांघ में और दूसरा गर्दन में । बाहर निकले खून के थक्के गवाही दे रहे थे कि घटना बहुत देर पहले की नहीं है। इतना ही नहीं, पथरीली जमीन होते हुए भी वहां गौर करने पर उछल-कूद के भी सबूत मिल रहे थे।  साक्ष्य और सबूत के सहारे तो बहुत सी उलझी गुत्थियां खुलने लगती हैं। अनूप ने अपना खोजी दिमाग लगाया - ‘कुछ समझ में आरही बात?
‘मैं तो सोचने को वाध्य हो रहा हूँ कि मिथुन यहां तक जरुर आया । यह शिकार उसी का होना चाहिए। ’ – विनय ने कहा।
‘तुम कहते हो तो मान लिया जा सकता है कि वह यहां तक आया,किन्तु आया तो अब गया कहां ? ’ – कहते हुए अनूप एकाएक चौंक उठा- ‘अरे ये देखो- लहू का थक्का,और कपड़े का टुकड़ा भी। ’ – कपड़ा चुकि हरे रंग का था,इस कारण अधिक ध्यान आकर्षित किया सबका।
तीनों झुक कर उसे देखने लगे। विनय ने एक सूखे पत्ते के सहारे उसे उलट-पलट करते हुए बोला - ‘यह टुकड़ा निश्चित ही मिथुन के कुर्ते का ही है। तय है कि वह यहां आया और घायल हुआ। ’
‘किन्तु घायल होकर गया तो कहां गया ...? ’ – अनूप ने सवाल उठाया।
‘ ये सब देख-सुन कर मेरा जी बहुत ही घबरा रहा है। यह निश्चित है कि शिकार और शिकार दोनों आमने-सामने हो गये हैं। गोली लगी तो जरुर,किन्तु शेर मरा नहीं, बल्कि घायल होकर और भी बौखला गया। फिर मिथुन पर झपट्टा मारा,और इस प्रकार मिथुन उसके पेट...! ’ – कहते हुए सुधीर के चेहरे का रंगत उतर गया था। आँखें छलछला आयी थी,जिसे देख विनय और अनूप की आँखें भी नम हो आयी।
आँखें पोछता अनूप जरा आगे बढ़ा,जहां थोड़ी ढलान थी। दो-तीन कदम के बाद ही चौंक पड़ा,और झपट कर आगे बढ़ा। सुधीर और विनय भी साथ दिए।
चौंकने की वजह एक बन्दूक थी। सुधीर ने उसे उठाया,और इसके साथ ही फिर एक दफा चौंक गये सभी। बन्दूक मिथुन की ही थी,जो ढलान पर लुढ़क कर,इधर झाड़ी के पास आ पड़ी थी। इसे पहचानने में किसी को शंका न रही।
सुधीर फफक कर रो पड़ा।  ‘अब तो रहा सहा संदेह भी निर्मूल हो गया । हाय मिथुन ! कैसी अशुभ घड़ी में हम सब निकले थे घर से ’ – कहता हुआ अनूप भी सिसक उठा, और विनय भी। बन्दूक सुधीर के हाथ में थी। उसे ही सीने से लगाकर,विलखने लगा, मानों मिथुन की लाश से लिपटा हो।
                                      $$$$$$$$$$$$$$$
इधर मिथुन अपने स्थान से चलकर छोटी पहाड़ी से नीचे उतर,नदी तट पर आया। कुछ देर वहीं खड़े रहकर उधर-उधर नज़रें घुमा, प्राकृतिक सुषमाका रसपान करता रहा। दक्षिण की ओर नज़र डालने पर उसने देखा- एक बड़ा सा दरख़्त ठीक नदी की धार पर गिरा पड़ा है,जिसकी लम्बी फैली शाखायें इस पार से उस पार तक फैल कर पुल का काम कर रहाथा। पानी की धारा उसके तने पर से होकर भी गुज़र रही थी।
मिथुन के जी में आया- क्यों न इसके सहारे उस पार जाकर,उपर की सुषमा का भी आनन्द लिया जाय।
कोई सौ गज के बाद ही वह पुलनुमा जगह थी। मिथुन लम्बे-लम्बे डग भरता नदी के किनारे-किनारे चलते हुए उस स्थान पर पहुँचा। उसने देखा, कोई वित्ते भर ऊपर से धारा बह रही है- पेड़ के तने पर गुज़रते हुए। पांव में घुटने तक ड्यूक शू होने  के कारण पानी में कपड़े भींगने का भी भय नहीं था। सम्हल-सम्हल कर तने पर पांव बढ़ाता आसानी से उस पार पहुँच गया।
उस स्थान से भी कुछ दक्खिन-पूरब हट कर नदी सीधे पूरब की ओर मुड़ गयी थी । दूर से ही वहां का दृश्य देखकर मिथुन स्वयं को रोक न सका। प्रकृति की निर्मल गोद में जा बैठने को जी मचल उठा मानों कोई नन्हा बालक दूर खड़ी माँ के पास जाने को उतावला हो रहा हो।
आकर्षण का मुख्य कारण था वह झरना जिसका मन्द झर-झर स्वर यहाँ खड़े रहने पर भी मिथुन के कानों में पड़ रहा था। ऊँची पहाड़ी  से गिरने के कारण यहाँ से भी वह दृश्य सहज ही दिखायी पड़ रहा था।
एक बार पीछे मुड़ कर,फिर गौर से आगे देखकर गन्तव्य स्थान की दूरी का अन्दाजा लगाया, जो तकरीबन  आध फ़र्लांग से अधिक न थी । पीछे मुड़ने पर विनय को नदी किनारे बैठा पाया, और लपक कर आगे बढ़ चला।
झरने के पास पहुँचकर मिथुन कुछ पल के लिए ठगा सा रह गया। झरने की ऊँचाई तो अधिक नहीं थी । यही कोई पचीस-तीस फुट के लगभग रही होगी, किन्तु दोनों ओर से आकर उसके तल की पहाड़ियां आपस में मिलकर एक विचित्र ही शक्ल बना रही थी। लगता था मुंह बाये गद्दावर सिंह दहाड़ रहा है,जिसकी घर गर्जना चारों ओर गूंज रही है। और अधिक क्रोधित होकर गरजने के चलते उसके खुले मुंह से भारी मात्रा में लार टपक रही हो। पहाड़ी पर लम्बे-लम्बे खड़े पेड़ ऐसे लग रहे थे मानों गरजने के कारण उसके होठों पर उगी लम्बी मूंछें तन कर ऊपर खड़ी हैं।
सूरज अपनी चढ़ाई पूरी कर,अब नीचे उतरने का प्रयास कर रहा था,फलतः किरणें थोड़ी तिरछी होकर पड़ रही थी झरने पर,जिससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जल-प्रवाह नहीं बल्कि चांदी के चूर उड़ रहे हों चारो ओर।  इधर नीचे जब जल अपने तल की खोज में भटक रहा था, उस स्थान पर काफी फेनिल स्थिति थी। लगता था- किसी ने डिटर्जेंट की बड़ी सी बट्टी घोल दी हो अपने प्रोडक्ट के विज्ञापन के लिए।
मिथुन ने किनारे पर खड़े होकर झुककर, उस झागदार बुदबुदों में झांककर कुछ देखने का प्रपयास किया, किन्तु अपना ही एक चेहरा अनेक होकर नज़र आया।
कुछ देर तक मन्त्र-मुग्ध सा देखता रहा बुदबुदों में बनते-बिगड़ते अपने चेहरे को,जिनमें अपने अतीत की झांकियां नजर आरही थी, तो सुदूर कहीं क्षितिज पर टिमटिमाते भविष्य का क्षुद्र तारा भी।
काफी देर तक यूँ ही झुका, निहारता रहा । फिर खड़ा होकर,अगल-बगल फैली प्रकृति सी सब्ज़ साड़ी को देखने लगा,जिस पर गुलबूटों का मोहक कढ़ाई किया गया था। तभी एकाएक सूखे पत्तों की चरमराहट की आवाज कानों में पड़ी। चट चौकन्ना होकर,ऊपर सिर उठाया। उसने देखा- हिरणों का एक जोड़ा आस-पास की स्थिति से बेफिक्र चला जा रहा था।
मिथुन का शिकारी मन तुरत ही मचल उठा। जोड़े बहुत हृष्ट-पुष्ट थे,जिनका पेट हरी-हरी कोमल घास खाकर काफी उभर आया था।
तपाक से पट्टी में से गोली निकाल,बन्दूक की खाली नाल को भरा और पांव दबाता लपक पड़ा उस ओर।
जोड़ा कुछ आगे बढ़,एक झाड़ी से आड़ हो गया था। शीघ्र ही पीछा करता शिकारी अपनी बन्दूक सम्हालता उसके सिर पर आ धमका।
मानव शायद ही कभी इतना चौकन्ना रहा करता हो,जितना कि ये बन्य प्राणी। अतिशय सावधानी के बावजूद मिथुन के पांवों से दब कर कुछ पत्ते चरमराये और उधर शिकार चौकन्ना हो,कुलांचे भरने लगा। उनके भागने का रुख पहचान,रास्ता तिरछा काट कर,पल भर में ही शिकार के बराबर पहुँच,एक बड़ी सी घनी झाड़ी के पास घात लगाकर,दुबक गया मिथुन। जोड़े ने कुछ आहट न पा,चैन की सांस ली। चाल धीमी पड़ गयी। पीछे मुड़ कर किसी को पीछा करता न पा और भी आश्वस्त हो गया जोड़ा ।
इधर शिकारी घात लगाये बैठा था । थोड़ा और पास आये कि घोड़ा दबा दे ।
शिकार के पीछे शिकारी। मगर इसके पीछे भी तो कुछ है,जिससे मिथुन सर्वथा अनजान था। अचानक रंग में भंग हुआ- तेज दहाड़ के साथ बेजान पत्ते भी भय से कांप उठे,और अगले ही क्षण एक गद्दावर शेर उछल कर मिथुन के सामने आ धमका।
पल भर के लिए तो रगों में दौड़ता गाढ़ा लाल लहु भी मानों पानी हो गया। शरीर के सारे रोमकूप सलाखों सी तन कर खड़े हो गये। पीछे और वगल में ध्यान गया,तब रहे सहे होश भी हवा हो गये। यह झाड़ी,जहां मिथुन खड़ा है,पहाड़ की अन्तिम चोटी पर है, यानी दोनों बगल लम्बी ढलान,और फिर गहरी खाई। जिसे भांपते ही कलेजा मानों उछल कर मुंह को आ गया।
मरता क्या न करता। क्षण भर में ही जोश जगा। धड़कते कलेजे को थाम, ट्रैगर दबा दिया। शेर मात्र पांच फीट की दूरी पर था। अगले पंजों पर जोर लेकर उछला ही चाहता था कि धांय की ध्वनि के साथ सनसनाती हुयी गोली निकली मिथुन के बन्दूक से। मगर अफसोस, शेर ने उछाल मार दिया था। परिणाम ये हुआ कि गोली उसके दोनों पैरों के बीच से होकर निकल गयी। सामने गरजती मौत ने नयी सूझ पैदा की। शेर उछला तो जरुर,मगर शीघ्र ही पीछे हटने के बजाय उसने शेर की दिशा में ही छलांग लगा दी। नतीजा ये हुआ कि शेर उससे भी पांच फीट हट कर गिरा,और मौका पा इसका ट्रैगर दुबारा दब गया। इस बार का वार खाली नहीं गया,मगर लगा शेर के पिछले नितम्ब में, और घायल शेर और भी बौखलाहट के साथ उछल कर झपाटा मारा,जैसे हृंसक बाज निरीह कुकरी चिड़ियां पर झपटती है। मिथुन की पहले वाली चालाकी इस बार कारगर न हुयी,साथ ही पैंतरा बदल,बंचने के प्रयास में बन्दूक भी हाथ से जा गिरी। हालाकि इतना भी वक्त न था कि उसमें गोलियां भर सके। किन्तु साहस छोड़ता क्यों कर ! कमर में लोडेड पिस्तौल तो था ही। अतः झट निकाला और निशाना साधना चाहा,मगर इसके साथ ही शेर उछल कर आ चुका था सिर पर। समय पर बुद्धि ने साथ दिया। तपाक से बैठ गया,बैठ क्या गया,यूं कहें कि शेर के बोझ से दब गया, किन्तु संयोग- शेर का भी निशाना चूक गया। बायें पंजे का वार इसके वायें कंधे पर हुआ और ढेर सारा मांस नुच कर नीचे लटक आया। इसी बीच एक और मौका मिल गया। शिकार एकदम करीब था,सो चूकने का सवाल ही कहां था। सवाल था सिर्फ साहस का। हां,पिस्तौल फिर गरजा तो जरुर,मगर निशाना कहां बैठा- देख न पाया।
अगले ही क्षण उसे अपने चारो तरफ घोर अन्धेरा महसूस हुआ,और लुढ़क पड़ा। लुढ़का,सो लुढ़कता ही रहा। बीच में सम्हले भी तो कैसे ! न होश,न समतल जमीन। चोटी से सरके ढोंके की तरह लुढ़कता चल दिया नीचे खाई की ओर....।
                        ************
जंगली बूटी उखाड़ती लड़की के कान, कुत्ते की तरह खड़े हो गये, शेर की गर्जना सुनकर। आवाज पास ही पहाड़ी के ऊपर से आयी थी। अभी वह सोच ही रही थी कि तभी गोली चलने की आवाज मिली,और साथ ही ऐसा प्रतीत हुआ मानों कुछ गिरा हो।
इधर-उधर नज़रें घुमा कर देखी, किन्तु कुछ नज़र न आया । परन्तु इतना अनुमान अवश्य हुआ कि शेर को शिकारी से पाला पड़ा है। फिर सोचने लगी- आज इस जंगल में शेर कहां से आ धमका...! और जरा घबरा गयी।
उखाड़ी गयी बूटी को सहेज कर गांठ लगायी,और कमर में बंधे दुपट्टे में खोंस कर, एक पेड़ पर चट-पट चढ़ गयी।
ऊपर चढ़ने पर स्थिति स्पष्ट हुयी। उसने देखा- एक युवक को जिस पर शेर झपट्टा मारने को तैयार है। अपने पंजों से भरपूर वार कर चुका है युवक के कंधे पर । युवक निहत्था हो चुका है,कारण कि उसकी बन्दूक उसे नज़र न आयी ।
किन्तु नहीं, उसने तुरत देखा- युवक की कमर में एक रेशमी डोरी है,और उससे बन्धी पिस्तौल उसके हाथ में आ चुका है।
एकाएक दूसरी आवाज गूंज उठी वन-प्रान्तर में और शेर के गर्दन को भेदती चली गयी । शेर को पहले भी शायद एक गोली लग चुकी थी। शेर बहुत बौखलाया हुआ है। पंजे उठाकर,शिकारी पर फिरवार करना चाह रहा है, किन्तु दूसरी गोली ने लगभग उसका काम तमाम कर दिया है। उधर शेर छटपटा रहा है,और पास ही पड़ा युवक भी।
युवक को शायद गश आगया है। क्यों कि यदि वह होशोहवाश में रहता तो शेर के इतने करीब पड़ा न रहता। खतरे  दोनों तरह से हैं- एक तो शेर के समीप और दूसरे पहाड़ी की ढलान पर जरा भी सरका कि युवक का काम तमाम ।
लड़की अभी सोच ही रही थी कि शेर एक दफा जोरों से छटपटाया और उसकी तड़प इतनी भयानक थी कि पास ही लढ़के पड़े युवक को उसके पंजे का जोरदार झटका लगा, और अगले ही पल  वह वोरियों की तरह लुढ़क पड़ा।
पेड़ पर चढ़ी लड़की के मुंह से चीख निकल गयी-  ‘हाय दैया ! ये तो मर जायेगा। अब मैं क्या करूं ! कैसे इसे बचाऊँ !
वह जल्दी-जल्दी नीचे उतरने लगी,किन्तु उसके उतरते-उतरते भर में ही युवक काफी नीचे तक जा लुढ़का।
दौड़कर,पास जाकर उसने उसे सम्हाला। युवक काफी घायल हो चुका था, कुछ तो शेर के चपेट में पड़कर,कुछ रोड़े-पत्थरों से टकरा-टकरा कर।
लड़की पल  भर के लिए घबरा गयी। उसे समझ न  आया- ऐसे में क्या करे,क्या  न करे। किन्तु शीघ्र ही ध्यान आया- इस तरह तो उसका काफी खून निकल जायेगा। पहले इसका उपाय करना चाहिए।
जंगल की बेटी का दिमाग तुरत काम किया। युवक को ठीक से लिटा कर,इधर-उधर घासों में कुछ ढूढ़ने लगी।
पतली-पतली पत्तियों वाली एक घास कोई मुट्ठी भर उखाड़ लायी। साफ पत्थर पर रख,एक छोटे से टुकड़े से कूंट-कांट कर लुग्दी सी बनायी,और तब युवक के पास आकर कंधे पर के सबसे बड़े जख़्म पर लुग्दी को रख,अपना टुपट्टा खोल,ऊपर से लपेट दी। छोटे जख़्मों पर बूटी का सिर्फ रस टपका दी, कारण कि बांधने के लिए और कुछ साधन भी तो न था।
युवक का कर्ता बिलकुल फट कर चिथड़ा हो चुका था- एक बांह  तो नदारथ थी। पीठ और पेट का भाग शेष बचा था । कमर में रेशमी डोरी में बंधा पिस्तौल भी लटक रहा था। चमड़े की पट्टी,जिसमें गोलियां थी,वह भी बँधा था।कमर से नीचे कम मोहरी का हरे रंग का पायजामा था,जो जहाँ-तहाँ कांटों में उलझकर फट चुका था।
जख़्मों का इलाज़ करने के बाद युवक का हाथ पकड़ नब्ज़ टटोलने लगी। तभी पत्तों की खड़खड़ाहट  सुन चौंक उठी। पीथे मुड़ कर देखी तो तीन आदमी तले आ रहे थे तेजी से कदम बढ़ाते हुए।
‘अरे तू यहां है! ’ – एक आदमी ने पूछा। साथ ही तीनों चौंक पड़े- ‘ अरे ये कौन है?
‘ कोई शिकारी लगता है काकू । शेर से लड़ा है। उधर जाकर देखो न ऊपर में शेर गोलियां खाकर चित पड़ा है।’ – हाथ का इशारा पहाड़ी की ओर बताते हुए बोली।
लड़की की बात सुन तीनों का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। एक ने कहा- ‘कुछ देर पहले मेरे कानों में भी शेर की आवाज मिली थी,जिसे सुनकर घबरा गया। आज फिर इस जंगल में शेर न जाने कहां से आ टपका। पता नहीं तुम किधर निकल गयी हो- यही सोच कर कई बार पुकारा भी,मगर तुम कुछ जवाब न दी। ’
 ‘ शेर की आवाज सुन मैं डर के मारे एक पेड़ पर चढ़ गयी थी।’ – इतना कह कर लड़की पूरी घटना क्रम सुना गयी।
सुनकर सभी उस घायल पड़े शिकारी युवक की प्रशंसा करने लगे। काकू कहे जाने वाले व्यक्ति ने लड़की की हिम्मत को भी दाद दी- ‘वाह! तुमने तो बहुत साहस किया। कोई और होती तो मर ही जाती शेर की दहाड़ सुन कर। ’
‘ मुझसे जो बना सो मैंने किया,अब तुमलोग को करना है काकू । इस वेचारे को उठाकर घर ले चलो। वरना दवा-दारू के बिना ये दम तोड़ देगा। ’ – लड़की ने कहा ।
  ‘सो तो है। जो भी करना है,जल्दी करना चाहिए। किन्तु दिक्कत ये है कि इसे ले कैसे चला जाये? ’ – एक ने कहा।
‘ ये कोई बड़ी दिक्कत वाली बात नहीं है। तुम्हारे पास तो कुल्हाड़ी है ही वीतन भाई! जल्दी से जाकर आठ-दस लकड़ियां थोड़ी लम्बी-पतली काट कर ले आओ। फिर मैं बताती हूँ कि कैसे इसे ले चला जायेगा।’ – लड़की के कहने पर वीतन कुल्हाड़ी लेकर पास के ही पेड़ पर चढ़ गया। जल्दी-जल्दी कुछ डालियां काट गिराया। काकू उसे उठा चले,जिस पर लड़की ने पुनः कहा- ‘तुम भी लगो न रेहुड़ा भाई,काम जल्दी हो जायेगा । ’
लकड़ियां काटकर,जंगली लताओं और कुछ छालों के सहयोग से बांध-बूंध कर टिकटी बनायी गयी। काकू ने अपना अंगरखा,और वीतन ने अपना गमछा उस पर डाल दिया। फिर घायल शिकारी युवक को बड़े आराम से लिटाया गया। आगे सिर की ओर काकू और रेहुड़ा लगे,पीछे लड़की का साथ दिया वीतन ने,क्यों कि वो जरा नाटे कद का था, और चल पड़े चारो जन टिकटी उठाये अपने गांव की ओर,जो यहां से उत्तर-पूरब में करीब दो मील पर था।
रास्ते में कई पहाड़िया चढ़नी-उतरनी पड़ी। कई नाले पार करने पड़े। अन्त में संध्या होने से जरा पहले ये सभी गांव पहुँचे।
गांव के बाहर ही उस लड़की का छोटा सा कच्चा मकान था। वहीं कंधे से टिकटी उतार कर रखी गयी।
दरवाजे पर कई लोगों की गलबल आवाज सुन एक वुढ़िया बाहर आयी लाठी टेकती,हांफती,डगमगाती हुयी-   ‘ क्या बात हे रे मन्दा ! ई कोन है टिकठी पर सुइतल ?
‘एक शिकारी है दादी । शेर से लड़कर आया है। ’ – लड़की ने कहा,जिसे अभी-अभी बुढ़िया ने मन्दा कह कर पुकारा था। मन्दा आगे बढ़कर दादी के समीप गयी,और उसकी ख़ैरियत पूछी- ‘ तुम्हारी तबियत अब कैसी है अम्मा?
‘ अभी तो वैसी ही है। बूटी मिली कि नहीं ? ’ – बुढ़िया के पूछने पर मन्दा ने अपनी कमर में बंधी बूटी निकाल कर दिखाते हुए बोली- ‘ये ले,तुम्हारी बूटी तो मिली ही, और साथ में ये बूटा भी मिल गया वहीं पर। ’ – अंगुली का इशारा शिकारी युवक की ओर था,जिसे सुन काकू वगैरह वहां खड़े मुस्कुराने लगे।
‘ठीक है,ठीक है। बूटी-बूटा दोनों लायी है। अच्छा किया है तूने। ला इधर दे मेरी बूटी,और उस बूटा को उठाकर भीतर ले आ,आराम से सुला दे उधर खाट पर। ’
बुढ़िया के कहने पर टिकठी उठाये भीतर ले आये वरामदे में दो जन मिलकर,और आहिस्ते से गोद में उठाकर पास पड़ी खाट पर सुला दिये वेहोश घायल युवक को।
‘आप लोग यहीं रहो। मैं अभी जाकर वैदाकाकू को बुला लाती हूँ। ’ – कहती मन्दा आंचल सम्भालती बाहर दौड़ी गांव की ओर ।
                    **********************
‘आह...ऽ...ऽ...! ’ – दर्द भरी कराह के साथ धीमी-कांपती आवाज निकली- ‘पा...ऽ नी...ऽ...। ’ – एक नवजवान लड़की जो विस्तर के पास खड़ी,ताड़ के पंखे से हवा कर रही थी ताकि मक्खियां न तंग करें घायल युवक को,दर्दभरी याचना से मानों मोम सी पिघल उठी,साथ ही उसके सूखे होठों पर मुस्कान आने को मचल उठी,मगर न जाने क्यों आ न सकी।
जल्दी से नीचे झुक छोटी सी कटोरी में रखा पानी उठायी,और पास ही ताक पर रखे अल्युमीनियम के चम्मच से पानी पिलाने लगी- एक...दो...तीन...चार चम्मच- पिलाती गयी,पिलाती गयी। आँखें बन्द थी युवक की,पर होठ फड़क-फड़क कर और पानी की जरुरत जता रहे थे। यहां तक की कटोरी खाली हो गयी। रुखे होठ पूरे तौर पर गीले हो गये। होठों का फड़कना भी थम गया।
मन भर गया । अब पानी नहीं चाहिए इसे । ’ – वह सोच ही रही थी कि दर्दभरी आह फिर निकली पहले की तरह ही। होठ फड़के और आँखें खुल गयी,किन्तु बेचारी पलकें दर्द के भारी बोझ को सह न सकी और क्षण भर में ही कैमरे की शटर की तरह उठ कर गिर गयी।
शटर गिर गया, मगर उठा तो था न एक बार । ऐसे में स्वाभाविक है कि पट पर सामने की स्थिति का बिम्ब भी अवश्य बन गया। शटर उठकर गिरे,और चित्र न बने- ये तो नामुमकिन सा है।
चित्र बना- एक मासूम परिचिता का। और जब चित्र बन ही गया तब शटर की मर्यादा को कौन माने ! पपोटे ने पलकों के दर्द पर शायद जरा भी ध्यान न दिया या कि कोई लाचारी आ गयी कुछ ऐसी ही कि...
पलकें खुल गयी। मगर पहले की तरह नहीं जो तुरत बन्द हो जाये। वरन पहले से भी ज्यादा। खुली तो फिर फैलती चली गयी सृष्टि के वितान की तरह- आगे कुछ क्षण तक, मानों कोई अजूबा स्वप्न देखा हो अभी-अभी क्षण भर में ही।
और फिर बाहों में बिजली सी गति आयी । दोनों हाथ एक साथ उठना चाहे, किन्तु उठा सिर्फ दाहिना हाथ ही,क्यों कि दर्द की अधिकता से दूसरा हाथ काम न कर पा रहा था। उठे हुए हाथ ने अज़ीब सी फुर्ति दिखनायी। पानी पिलाने को झुकी लड़की कुछ सोच-समझ भी न पायी कि घायल युवक के विलिष्ठ बाहों के गिरफ्त में जकड़ गयी।
हड़बड़ाकर,कटोरी और चम्मच वहीं विस्तर पर तकिए के पास रख, बांह के शिकंजे से मुक्ति होना चाह ही रही थी कि प्यासे-तड़पते  होठों के गिरफ्त में सुकुमार कोमल पतले होंठ भी आ गये, और फिर दनादन पागलों की तरह चुम्बनों की बौछार—अधर,कपोल,ग्रीवा,ललाट सबको भिंगोता चला गया...।
‘आह...ऽ...ऽ...इरीना ! तुम कहां छिप गयी थी? ’ – दर्द भरे बोल निकले। पीठ पर बांह का गिरफ्त और जकड़ गया। लड़की के पूरे बदन पर एकसाथ अनेक चीटिंयाँ रेंगती सी मालूम पड़ी। हालांकि इसमें प्यार का नामोनिशान न था। था तो सिर्फ भय और आश्चर्य की अनुभूति का मिलाजुला प्रभाव।
पकड़ कुछ देर तक यूं ही बनी रही,फिर एकाएक ढीली पड़ गयी। बड़ी-बड़ी भूरी आँखों को पलकों ने फिर से दबा कर बन्द कर दिया,मानों शोर मचाते बच्चे के मुंह पर अचारक उसकी माँ आपनी हथेली रख दी हो। घायल शायद फिर बेहोश हो गया था।
लड़की की जान में जान आयी। अपने दोनों कोमल हाथों से जोर लगा कर,गर्दन में लिपटी बलिष्ट भुजा को जोंक की तरह नोच कर जल्दी से अलग कर दी,और तपाक से उठ कर खड़ी हो गयी सावधानी से।
इस बीच लड़की पूरी तरह हांफ रही थी। फेफड़ों के तेजी से सिकुड़ने और फैलने के कारण कंचुकी में मजबूती से बंधा होने के बावजूद सुपुष्ठ उरोज बड़ी तेज गति से ऊपर-नीचे उठ-गिर रहे थे।
गर्दन घुमा कर खुले दरवाजे की ओर क्षण भर देखी, और बाहर की आहट का अन्दाजा लगायी। बाहर नीरव शान्ति की चादर पसरी पड़ी थी। सूरज थक कर जोने की तैयारी कर रहा था। फलतः आसमान के आंगन से किरणों का कनात समेटने लगा था।
‘ भगवान को शुक्रिया,दादी अभी तक नहीं आयी,बरना अनर्थ ही हो जाता ।’ – लड़की मन ही मन बुदबुदायी,और विस्तर के पायताने पड़ी मोटी काली चादर उठा कर उठाकर घायल युवक को ठीक से ढक दी। कमरे में हल्का अन्धेरा हो जाने के कारण मक्खियां अब बिलकुल नहीं लग रही थी,सो पंखा झलने का ज़हमत भी अब नहीं था। पंखा वहीं विस्तर पर ही पड़ा छोड़ दी।
लकड़ी के चार मोटे-मोटे खम्भों पर टिका,वांस की चंचरियों से घेरकर बनाया गया झंझरदार बंद वरामदा, जिसमें बीचोबीच एक छोटा सा रास्ता बाहर निकलने के लिए भी बना था,जिसे बन्द करने के लिए भी लकड़ी के किवाड़ की जगह वांस की ही मजबूत चंचरी बनी थी। दरवाजा खुला था। इस कमरे के अलावा,जिसमें से हांफती हुयी लड़की बाहर निकली थी,एक और कमरा इससे सटा हुआ ही था,जिसका दरवाजा भी इसी वरामदे में खुलता था। वह कमरा भी खाली ही था। भीतर झांक कर देखने के बाद उसने सन्तोष की सांस  ली। दादी सच में अभी नहीं आयी थी।
वरामदे के बाहर दरवाजे से थोड़ा हट कर कटे हुए मोटे पेड़ की जड़ पड़ी हुयी थी। पड़ी हुयी क्या थी,दरअसल हाथ भर ऊपर से ही तने को काट लिया गया था,जो वहीं एक ओर गिरा पड़ा था,जमीन से नाता तोड़े वगैर, अभी तक ज्यों का त्यों। शायद उसे अभी आशा बनी हुयी है- फिर से ऊपर उठने की,किन्तु फिलहाल तो उसे कुर्सी का ही काम करना पड़ रहा है,भले ही उसकी देह को काट-चीर कर बाद में कुर्सियां बनायी जायें या कि फाड़-फूड़कर चूल्हे में झोंक दिया जाय।
बाहर आकर लड़की बैठ गयी उसी जड़ पर ही। शाम की ताजी ठंढी हवा गोरे मुखड़े पर लटक आयी काली घुंघराली लटों से अठखेलियां करने लगी। पतली-पतली, लम्बी-लम्बी उंगलियों से उलझे लटों को समेटना चाही ताकि शोख हवा को छेड़खानी करने का मौका न मिले, किन्तु सुन्दर लड़की अकेली बैठी हो, और कोई उससे छेड़छाड़ न करे- ये तो नामुमकिन सा है। हवा भी मानी नहीं। बारम्बार की कोशिश के बाद,अन्त में लड़की को  ही हार माननी पड़ी- छेड़ ले जितना जी चाहे...। प्रायः लड़कियां शुरु में तो बहुत विरोध जताती हैं,पर बाद में बड़ी आसानी से रास्ते पर आभी जाती हैं,या कहें समर्पण कर देती हैं। प्रकृति ने स्त्रियों को ये गुण सहज ही अनुदान में दिया है,जबकि पुरुष को इस अद्भुत गुण को संघर्ष करके भी हासिल नहीं हो पाता। वस्तुतः समर्पण- पूर्ण मिलन का सर्वाधिक आवश्यक और अनिवार्य शर्त जो है। लड़की ने भी वही किया,जो उसे करना चाहिए था।
ताजी हवा मन को बहुत शान्ति प्रदान की। ललाट पर छलक आयी पसीने की छोटी-छोटी मोतियों सी वूंदें अब गायब हो चुकी थी। दिल की बेरोख धड़कने भी संतुलित हो आयी थी, किन्तु दिमाग में मची हलचल अभीतक पूरी तरह शान्त न हो पायी थी। उसे समझ न आ रहा था- आखिर क्या सोच कर,क्या समझकर,किस अधिकार से,किस हिम्मत से उसने लिपटा लिया अपनी भुजलता में...चूम लिया गालों को...जूठा कर दिया कुंआरे होठों को...क्या अकेली पाकर...अबला जानकर...या...या आखिर क्या समझा अस्पताल की सेविका या कोठे की तवायफ़ !
सीना फिर धौंकनी सा धड़कने लगा । गोरे-गोरे गाल पके सेव की तरह लाल हो उठी। पतले-पतले गुलाबी होठ क्रोध से काले पड़ने लगे । बड़ी-बड़ी नीली-नीली झील सी गहरी आँखें बरसाती नदी सी उमड़ पड़ी। सीधे बसरे की खाड़ी से तत्काल निकले मोती के पुष्ट, चमकते दानों की तरह बड़ी-बड़ी गोल-गोल आँसू की बूंदें नीली झील से निकल कर सुर्ख कपोलों पर लुढ़क आयीं। तप्त आँसू की उष्मा को कोमल सुचिक्कन कपोल सह न पाये। कहीं उन पर फफोले न बन जायें- आँसुओं को भी रहम आया और छलककर ग्रीवा को भिंगोते हुए कंचुकी में घुसने का धृष्ट प्रयास करने लगे, किसी नापाक की मोटी भोंड़ी अंगुलियों की तरह ।
नारित्व का यह अपमान ! कौमार्य से ऐसा खिड़वाड़ ! निःस्वार्थ सेवा का यह परिणाम !
लड़की रोती रही,अकेली बैठी,बहुत देर तक। दिल जल रहा था। छोटे से दिमाग में बड़ा सा भूचाल आ गया था।
तड़क-मलक-गरज के बाद बादल छंट जाते हैं- हवा के झोंकों से। धरती का सीना ठंढा हो जाता है। रो-कलप कर लड़की भी शान्त हो गयी। क्रोध काफ़ूर हो गया। और जब क्रोध और दुःख नहीं रहे,तब बुद्धि काम करने लगी। वैसे भी इन दोनों की मौज़ूदगी में बड़ा मुश्किल होता है खुद को सम्हालना,कुछ सही निर्णय लेना,समझना।
‘ उसने तो इरीना कहा था। मगर मैं इरीना तो हूं नहीं ।’ – अपने आप में बुदबुदायी- ‘इसका मतलब है- वह मुझे इरीना समझ रहा है। उसकी यह समझ ने ही मुझे चूमने को विवश किया होगा। मतलब साफ है- मैं धोखे का शिकार हुयी । धोखे ने मुझे जूठा कर दिया। ’ – अपने आप मे ही कुछ तसल्ली हुयी यह सोच कर- ‘ धोखे की बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए। - सोचकर मन को थोड़ी शान्ति मिली ।
तभी ध्यान आया,बाहर चारों ओर तेजी से दौड़ते चले आरहे अन्धेरे का। बाहर जब इतना अन्धेरा हो चुका है,तब भीतर तो और भी होगा।
फुर्ती से उठकर भीतर कमरे में आयी। विस्तर के दांयी ओर दीवार में बने ताक पर से टटोल कर माचिस की डिबिया और लालटेन उठा लायी। नीचे बैठकर जलाने लगी।
लालटेन जलाकर,ऊपर छप्पर से बँधी एक डोरी में,बंधे लकड़ी के छोटे टुकड़े के सहारे उसे लटका दी। रौशनी पूरे कमरे के अलावा बाहर आधे वरामदे तक फैल गयी। उसका ध्यान बार बार बाहरी दरवाजे की ओर चला जा रहा था,क्योंकि बूढ़ी दादी अभी तक न जाने कहां थी। लौट कर आयी नहीं थी। मन ही मन झुंझला रही थी- ‘ कल तक बुढ़िया बुखार खेला रही थी,आज चल दी पत्ता तोड़ने...।’
डोरी से लटकते लालटेन का उजाला शिकारी युवक के तमाम वदन पर विखरा हुआ था। पूरा वदन काली चादर से ढका हुआ था। शरीर बुखार से तप रहा था। दोनों समय काकूवैद ,जो गांव ही नहीं ,इस पूरे इलाके के नामी वैद्य माने जाते हैं,आकर युवक को देख जाते थे। दवा-दारू उन्हीं की देख-रेख में चल रही है। उन्होंने न बतलाया था कि बुखार का मुख्य कारण चोट ही है,साथ ही यह भी कहा था कि वोतल वाली दवा एक-एक पहर पर दो-दो चम्मच देती रहना। बुखार जल्दी ही उतर जायेगा,और रोगी होश में भी आ जायेगा। बीच-बीच में सुसुम पानी भी देते रहने की हिदायत की थी काकू ने।  सो वह समय पर करती आ रही थी।
शाम बीत गयी। रात भी दौड़ी चली आ रही है। किन्तु बुखार जरा भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है। दादी भी अभीतक लौटकर आयी नहीं। बाहर जाये तो किस पर छोड़कर- लड़की सोच रही थी- ‘ ओह ! जरा सा होश में आया भी तो मदहोश की तरह...क्या...क्या कर दिया...पता नहीं अब कब होश में आयेगा...होश में आये तो पता नहीं क्या तमाशा कर बैठे...। ’
सोच रही थी,तभी अचानक ध्यान गया युवक की ओर— गोल-मटोल,भोला-भाला, गोरा मुखड़ा लालटेन की रौशनी में चाँद के टुकड़े सा चमकता मालूम पड़ा। छोटे-छोटे सघन घुंघराले केश,लम्बी सुतरी नाक,बड़ी-बड़ी आँखें- जिस समय जरा सी खुली थी,कितनी सुन्दर लग रही थी भूरी-भूरी आँखें...सब कुछ तो ठीक है...मगर ...मगर..मुझे चूम क्यों लिया...ओफ! इरीना...पता नहीं कौन है इसकी कहां की है...मगर मुझे इरीना कह कर चूमने का साहस कैसे कर लिया...!
युवक का मुखड़ा निहारते-निहारते लड़की के वदन में अजीब सी झुरझुरी सी महसूस होने लगी। वदन सिहर उठा एक बार। चौखट का टेका लगाये,आँखें पल भर के लिए मुंद-सी गयीं। लगा कंधे पर किसी की वाहें हैं,होठों पर होंठ..।
लड़की कांप उठी अपने आप में ही- यह क्या हो गया मुझे,ऐसा क्यों लगने लगा! किन्तु ऐसा क्यों हो रहा है- समझने का समय न मिला,क्योंकि युवक के मुंह से पहले की भांति ही दर्द भरी आह फिर निकली। आँखें तो बन्द ही रही पर होंठ चटपटा रहे थे। शायद पानी चाहिए—ऐसा ही लगा उस लड़की को।
फुर्ती से नीचे झुक कोने में रखी वोतल उठाकर,दो चम्मच दवा मुंह में डाल दी। आँखें खुलने पर फिर कहीं कुछ हरकत न कर बैठे- सोचकर पहले से ही सावधान थी। हालांकि आँखें खुली नहीं। दो चम्मच के बाद पानी की आवश्यकता भी शायद महसूसस न हुयी,क्यों कि होंठों का फड़कना शान्त हो गया ।
दवा की वोतल कोने में रख,युवक के चेहरे पर गौर की। वह पहले की तरह ही खामोश पड़ा था। बाहर वरामदे में धव्व की आवाज सुन जरा चौंकी। दादी के पहुँचने का संकेत था यह। हमेशा का यही ढंग था—केन्द और साखु के पत्तों का बंडल सिर पर से धब्ब से नीचे पटकने के बाद पहला शब्द मुंह से निकलता- ‘कहां हे रे मंदा!
आज भी वैसा ही हुआ। मगर मन्दा के पुकार के साथ बिना जवाब पाये ही बुढ़िया भीतर आगयी, ‘कैसी तबियत है मंदा! ये अभी तक होश में नहीं आया?
क्षण भर के लिए मंदा मौन पत्थर की मूर्त सी खड़ी रह गयी। क्या कहे,क्या न कहे! होश में आया तो क्या कहा...क्या किया—इसका जवाब क्या दिया जा सकता है दादी को ! इससे अच्छा है साफ झूठ बोल देना—लड़की चुपी साधे खड़ी रही।
‘ क्यों सुना नहीं तुमने,बाबू होश में आया था बीच में या कि...’ – बुढ़िया ने युवक को माथे पर हाथ रखते हुए,फिर सवाल किया,और सिर हिलाते हुए खुद से बुदबुदायी- ‘ बुखार अभी भी बहुत तेज है।’ – जिसे सुन हकलाती हुयी मंदा बोली- ‘शाम में दो बार इसके मुंह से आह निकली थी। शायद दर्द के कारण। होठ चटपटा रहे थे। मैंने दवा पिला दी। ’
‘आँखें नहीं खुली? ’ – बुढ़िया के प्रश्न पर मंदा फिर हकलाने लगी, ‘ न... ऽ...नहीं...ऽदा...दी...ऽ...आँख कहां खुली। पता नहीं भीतर में कहां क्या तकलीफ है। आज दूसरा दिन भी गुजर गया।’
‘अभी तक तुमने आग भी नहीं जलायी। खाना कब बनायेगी ?  ’ – कहती बुढ़िया बाहर वरामदे में आगयी।
‘तुम इतनी देर कर दी आने में,इसी चिन्ता में अबतक बाहर ही बैठी रह गयी,तुम्हारी राह तकते। सोच रही थी एक दफा बैद काकू के पास जाने को,किन्तु इसे अकेला छोड़कर जाती भी तो कैसे । ’
‘ जंगल से तो बहुत पहले ही आ गयी थी। उधर काकू के दरवाजे पर ही बैठ गयी। वहां बैठे और लोगन भी पहले से ही शिकारी बाबू की बात कर रहे थे।’
‘क्या कह रहे थे लोग? ’ – मन्दा ने उत्सुकता पूर्वक पूछा।
‘ज्यादातर बातें तो बाबू की वीरता की ही हो रही थी,तो कोई उसकी सुन्दरता की भी बात कर रहे थे,तो कोई हँसी मजाक कर रहे थे कि बुढ़िया के घर कोई न कोई कारण से ऐसे ही अनजान मेहमान आ टपकते हैं। कहीं यह भी इसी का होकर न रह जाये।’ – फिर बुढ़िया ने ऊपर दोनों हाथ उठा कर बोली— ‘भगवान ने इसे भेज ही दिया तो क्या बुरा किया मंदा ! आज भगवान की ऐसी ही दया से तो मेरा घर आबाद है,वरना इस झोपड़ी में भूत रोते होते। मुझ अन्धे की लाठी कौन बनता रे मंदा तू ही बता न,क्या गांव वाले मेरा भार उठा लेते? आज तू न होती तो न जाने मेरी क्या हालत होती...। ’ – कहती बुढ़िया किसी भवनात्मक बहाव में बहने लगी थी। उसे आज से २२-२३ वरस पहले की बात याद आने लगी,जब इसकी जवान इकलौती बहु बच्चा जनते मर गयी थी,और उसकी लाश पर पछाड़ खाता वेटा भी लगता था रोते-रोते दम तोड़ देगा।
कहने–समझाने तो गांव के बहुत लोग आये,साथ में रोये-कलपे भी,मगर पीठ पीछे सबके होठों पर मुस्कुराहट ही थी- ऐसे भी कोई पछाड़ खाकर रोया करता है बीबी की लाश पर...मरद जात एक मरी,दूसर करी। क्यो रोना रो रहा है तिरिया जैसा...आजकल  तो तिरिया भी ऐसे नहीं रोती। साल भीतर ही दूसरा घर देख लेती है...।
वरामदे में मौन बैठी बुढ़िया की आँखों से टप-टप आँसु बहने लगे थे।
‘कहने वालों को कहने दो दादी अम्मा। ’ – पास आ,दादी का मुखड़ा सहलाती हुयी मन्दा ने कहा- ‘ इसमें भी क्या शक है कि शिकारी बाबू बीर नहीं है । मैंने पेड़ पर बैठे-बैठे इसकी पूरी लड़ाई देखी है। क्या ही जीवट आदमी है। दूसरा होता तो शेर की दहाड़ से धोती गन्दा कर देता। और जब एक इनसान घायल होगया,तो एक इनसान के नाते हमारा फ़र्ज नहीं बनता कि सकी सेवा करूँ !  आखिर आदमी की सेवा आदमी नहीं तो और कौन करेगा ?
‘हां रे मंदा! ये तो करना ही चाहिए। सेवा का फल बड़ा मीठा होता है रे विटिया । मैंने खुद चखा है सेवा का मेवा। अब यह यहीं रह जाये या जो करे...पहले ठीक तो हो। ’
बुढ़िया की बात को बीच में टोकती हुयी मन्दा ने कहा— ‘यहीं क्यों रह जायेगा दादी ! क्या इसका अपना घर-वार नहीं होगा । जरा होश में आने तो दो,फिर देखना खुद ही हल्ला मचायेगा घर जाने को।’
‘विपना कह रहा था कि बुढ़िया का घर नहीं,अनाथाश्रम है। ’ – मुंह विचका कर बुढ़िया कहने लगी- ‘हुं ऽ ह अनाथाश्रम है...हे दैव! इसी तरह एक-एक करके मेरे लिए वेटा-वेटी,नाती-पोता सब भेज देना...। ’ – जरा ठहर कर बुढ़िया फिर बोली - ‘जरा उधर कोने में से मेरी लाठी तो दे मंदा। अभी जाकर काकूवैद को लिवा लाउँ। ’
मंदा उठकर लाठी ले आयी। दादी को पकड़ाती हुयी बोली— ‘ जल्दी ही आ जाना दादी। देर ना करना। अकेले में जी बड़ा घबराने लगता है।’
‘जल्दी ही आजाऊँगी। तू तब तक खाना बना ले। किवाड़ बन्द कर लेना,कोई कुत्ता-बिल्ली ना घुस जाये। ’- कहती बुढ़िया ठक ठक लाठी टेकती बाहर निकल गयी।
दादी के जाने के बाद मंदा एक बार उस कमरे में फिर गयी,जहां शिकारी बाबू सोया हुआ था। गौर से उसके चेहरे को देखी। सिर छूकर बुखार का अन्दाजा लगायी। फिर मन ही मन भुनभुनाती हुयी दूसरे कमरे की ओर चल दी-  ‘ ओह ! कैसा लगता है- राजकुमार जैसा। पता नहीं कौन ऐसी भाग्यवान होगी...।’ – फिर खुद ही ध्यान आया- ‘होगी क्या,वो तो हो ही गयी आखिर इरीना वही तो होगी...। मगर उसने ऐसा क्यों कहा- इरीना तुम कहां छिपी थी?...क्या इसकी इरीना कहीं छिप गयी है...? ’ – बहुत देर तक कुछ ऐसे ही सवाल-जवाब अपने आप से करनी रही मंदा।
काफी देर बाद उठी। दीया जलायी कमरे में जाकर,और फिर चूल्हे में आग। पतीली में पानी चढ़ाकर,चावल बीनने बैठ गयी। और इसके साथ अजीबोगरीब विचार आकर बैठने लगे दिमाग में- ‘मुझे इरीना कहने का क्या मतलब...क्यो कहा इरीना...क्या सोच कर...मैं उसकी इरीना हूँ...या उसकी इरीना भी मेरी जैसी ही है...ओह! इरीना के धोखे में मुझ जूठा कर दिया...मेरे होठ...। ’- दुपट्टे से अपने होठों को पोंछने लगी,मानों अभी भी युवक के मधुर चुम्बनों के चिह्न वहां विद्यमान हों। यूं जी न भरा तो खड़ी होकर, दीया उठा,ऊँची कर,दीवार में चिपकाये आइने में अपना मुखड़ा निहारने लगी । आइने के सामने खड़े होते ही कुछ अजीब सा लगा,और खुद-ब-खुद शरमाने लगी। गाल कुछ कुछ लाल होने लगे। टुपट्टा लेकर फिर एक बार अच्छी तरह होठों को पोंछी, फिर पूरे चेहरे को, फिर गर्दन के खुले भाग को,ललाट को...उन-उन सारे जगहों को,जहां-जहां युवक के होठ लगे थे। और तभी महसूस हुआ मानों गर्दन में कुछ लिपटा हुआ सा है। वदन झनझना उठा। बार-बार दर्पण में अपना चेहरा देखने लगी।
पतीली में चढ़ा पानी खौलने लगा था। जल्दी-जल्दी बीन-फटक कर चावल धोयी, और खौलते पानी में छोड़ दी। चावल पाकर पानी का खौलना बन्द हो गया,मगर इतनी बार दर्पण में खुद को निहार-निहार कर चेहरा पोंछने के बावजूद, दिमाग में खौलते विचार अभी तक मन्द न पड़ पाये।
ज्यों ही खंचिया में पड़ी सब्जी निकाल कर काटने बैठी,त्यों ही बगल कमरे से आवाज आयी-  ‘ आह ...ऽ...ऽ ! ’ – और चट छूरी,सब्जी पटक दौड़ पड़ी उस ओर।
कमरे में पहुँच कर देखी- युवक के होंठ सूख रहे हैं। झट कटोरी में पानी और चम्मच लेकर,धीरे-धीरे मुंह में देने लगी। युवक की आँखें बन्द थी,युवती निश्चिन्त होकर पानी डाले जा रही थी चम्मच भर-भर कर ।
पांच-छः चम्मच के बाद एकाएक युवक की आँखें खुल गयी और पानी पिलाने को ऊपर झुकी मन्दा ने देखा- उसकी आँखों में अजीब सी आशा-ज्योति दमक रही है। अभी वह कुछ सोच भी न पायी कि युवक की दायीं वांह हरकत में आयी और लिपट पड़ी मन्दा के सुराहीदार गर्दन से, ‘ कहां चली गयी थी ईरीना? ’ – और फिर वही पागलपन- चटाचट चुम्बनों की वौछार से भिंगो दिया मन्दा का मुख कमल। मन्दा के हांथ कांप गये। कटोरी का पानी छलक कर विस्तर पर आ गिरा और कटोरी झनझनाकर नीचे फर्श पर ।
वदन कांपते रहा था थरथर,पत्ते की तरह। बन्धन को छुड़ाना चाही। मगर छुड़ा न सकी। युवक ने दर्द भरे स्वर में कहा,  ‘ नाराज हो क्या ईरीना ? इन बाहों को क्यों झटक रही हो ? ओह! कितनी प्यासी है ये बाहें ,कितने प्यासे हैं ये होंठ,कितना तड़पा है ये दिल तुम क्या जानो ईरीना ! आ जाओ, समा जाओ...धड़कते दिल के दर्द को समझो ईरीना। ’ – युवक की आँखें फिर बन्द हो गयी थी,पर बोल फूट ही रहे थे। मन्दा का सीना जोरों से धड़कने लगा था और धड़कनों की गति तब तक बढ़ती रही जब तक बन्धन ढीला न हुआ। और बन्धन तब ही ढ़ीला पड़ा,जब युवक की झपकी पलकें बिलकुल ही बन्द हो गयी। बोहोशी फिर छा गयी।
पिंजरे का द्वार अचानक खुल जाने पर पंछी पंख फड़फड़ाकर जिस कदर उड़ने में जल्दीबाजी करता है,कुछ इसी तरह हड़बड़ाकर मन्दा उसकी चौड़ी सपाट छाती से अलग हुयी। उसका वदन अभी भी थरथर कांप रहा था। पूरे वदन में पसीने तड़तड़ा आए थे,मानों अभी-अभी अंगीठी के पास से उठी हो। सीना लुहार की भाती की भांति ऊपर-नीचे हो रहा था।
युवक की उघरी चादर को भी ठीक करने की परवाह किये वगैर, कमरे से बाहर निकल आयी वरामदे में। दोनों हाथों को अपनी छाती पर रखे,यो हांफ रही थी अब भी,मानों मीलो दौड़लगा कर आयी हो।
इसी हाल में अभी कुछ देर और खड़ी रहती,किन्तु ध्यान आया कि अन्दर चूल्हे पर पतीली चढ़ा आयी है। लपक कर चौके में आयी। चावल लगभग पक कर तैयार हो चुका था साथ ही चूल्हे की आँच भी ठंढ़ी हो गयी थी। मगर मन्दा के दिल की आंच अभी पूरी तरह ठंढ़ी भी न हो पायी थी कि अभी-अभी दूसरी आहुति पड़ गयी- आलिंगन की आवृति होकर।
दो लकड़ियां जल्दी से चूल्हे में डाल आंच ठीक की। पतीली में पानी बढ़या। चावल जरा और उबलने को छोड़,सब्जी काटने बैठी,तभी दादी की आवाज सुनायी पड़ी, ‘ किवाड़ खोल रे मन्दा। ’ – उठकर,भिड़कायी किवाड़ खोल दी। दादी से साथ वैदाकाकू भीतर आये।
वैदकाकू ने युवक की नब्ज़ टटोल माथे पर हाथ फोरा,फिर विश्वास पूर्वक कहा, ‘ घबराने की बात अब बिलकुल नहीं है। सुबह तक सब ठीक हो जायेगा। ’
कह कर काकू चले गए। बुढ़िया वहीं बैठी रही युवक के पास। किवाड़ भिड़का कर मन्दा अपने काम में जुट गयी। चावल तैयार हो चुका था। सब्जी भी जब तैयार होगयी,तब दादी को आवाज लगायी। दुबारे हमले के बाद,उस कमरे में जाने को मन नहीं कर रहा था, वह भी जब कि दादी मौजूद है। क्या पता फिर कुछ कर बैठे । उस उजड्ड का क्या ठिकाना, कब होश में आ जाय, और क्या कर बैठे—ऐसा ही सोचा था उसने।
‘ तू खा ले रे मन्दा । फिर यहां आकर बैठना,तब मैं भी खा लूंगी। ’ – दादी के कहने पर मन्दा ने कहा, ‘ खाना निकाल दी हूँ दादी। तुम ही पहले खालो,मुझे अभी खाने की इच्छा नहीं। जरा देर से खाऊंगी।’
‘ ठीक है,फिर आकर बैठ यहीं। इसे अकेला छोड़ना ठीक नहीं। ’ – बुढ़िया ने मन्दा से कहा - ‘ काकूवैद कह रहे थे- इस तरह तेज बुखार में रोगी कभी-कभी अजीबोगरीब हरकतें करने लग जाता है। उठ कर बैठ जाता है। बड़बड़ाने भी लगता है। कपड़े नोचने लगता है।
  और किसी को पास पाकर उसका वदन भी...। ’ – युवक के कमरे में जाती हुयी मन्दा बुदबुदायी।

‘ तू बैठ इसके पास ही विस्तर पर,और कटोरी में पानी लेकर,सिर पर पट्टियां देती रह। बीच में वोतल वाली दवा भी पिला देना दो चम्मच। बुखार जल्दी ही ठीक हो जायेगा। ’ – कहती बुढ़िया चौके में चली गयी।
क्रमशः...

Comments