गतांश से आगे....
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‘ तुम इतना
मानवतावादी कब से हो गये?’
‘ आपने
हमें हमेशा इनसानियत सिखाया है,उसी का असर है,या फिर ये भी कह सकती हैं कि प्यार
में गिरा – उसका हर्ज़ाना भरने की कोशिश कर रहा हूँ।’ – सुदीप ने एक बार गौर किया
मां के चेहरे पर,जहां तरह-तरह के भाव-विम्ब बन-बिगड़ रहे थे। फिर बोला- ‘ मैं
समझता हूँ कि इस विषय पर और ज्यादा कुछ जानना-समझना अब शेष नहीं रह गया है।’
‘ जानना तो
लगभग पूरा हो गया,पर कहना अभी शेष है।’ – नीता ने तपाक से कहा।
‘ तो वो भी
कह ही डालो। देर किस बात की?’ – पीछे पलटता हुआ सुदीप,पुनः
मुखातिव हुआ।
‘ फिलहाल
सिर्फ इतना ही कहूंगी कि तुझे एक दो दिन की मोहलत देती हूँ। इस विषय पर फिर से
सोचो-विचारो। कारण कि तुम इसे जितना आसान समझते हो, बात उतनी सहज है नहीं। ’ –
इतना कह कर नीता आँखें मूंद कर पड़ रही। सुदीप मुंह लटकाये कमरे से बाहर निकल गया।
सुदीप चला
गया। नीता सोचती रही। यहां तक कि अन्धेरे ने पूरे कमरे को अपने आगोश में ले लिया।
नीता को इतनी सुध भी न रही कि उठकर कमरे की बत्ती तो जला ले।
तभी अचानक
तिपाई पर रखी टेलीफोन की घंटी घनघना उठी,और कहीं दूर अन्धकार में रास्ता टटोलता
नीता का मन खिंचा चला आया अपने वीरान कमरे में।
हड़बड़ा कर
उठी। बत्ती जलायी,और फोन के चोंगे को उठाकर कान से लगायी। आवाज अपरिचित थी,जो किसी
औरत की थी।
‘ हेलो
नीता जी~!’ – उधर से आवाज आयी।
‘ कहिए आप
कौन हैं और कहां से बोल रही हैं?’ – नीता ने सवाल किया। उसे
संदेह हुआ कि कुछ देर पहले जिस औरत ने फोन किया था,इसबार भी वही होगी, किन्तु आवाज
में किंचित अन्तर महसूस की।
‘ मैं कौन
हूँ,और कहां से बोल रही हूँ- इसे जानने के वजाय आपके लिए ये जानना बेहतर होगा कि
मैं क्या बोल रही हूँ।’ – उधर से आवाज आयी।
‘ मैं वैसी
औरत से बात करना भी पसन्द नहीं करती,जो अपना परिचय छिपाती हो।’ – क्रोध में नीता
ने कहा,और चोंगा फटक दी क्रेडल पर ।
अभी वह
पलंग पर बैठना ही चाहती थी कि फोन फिर घनघनाया। कुछ देर यूं ही घंटी बजती रही।
कुछ सोच कर
नीता फिर से रीसीवर उठायी। उसके हेलो की प्रतीक्षा के वगैर ही
उधर से आवाज आयी - ‘ फोन मत
काटियेगा नीता जी। मैं आपके भले की ही बात कर रही हूँ। ’
‘ और यदि
मुझे भले की जरुरत न हो तो?’
‘ जरुरत तो है ही,ये मैं अच्छी तरह
जानती हूँ कि अभी आप बिलकुल अलग-थलग यानी अकेली पड़ गयी हैं। गम्भीर निर्णय के लिए
कोई मददगार नहीं है। वैसे आपकी सहायता करने में मैं भी असमर्थ हूँ,किन्तु सही बात
की जानकारी तो दे ही सकती हूँ,ताकि आपको खुद व खुद सोच-विचार करके,निर्णय लेने में
कुछ सुविधा हो।’ – फोन करने वाली अपरिचिता ने कहा।
‘ मगर ये
कैसे मान लूँ कि तुम्हारी बातं सही ही हैं,क्या इसका कोई प्रमाण है तुम्हारे पास?’ – नीता ने सवाल किया।
‘ सत्य को
किसी प्रमाण की वैसाखी की आवश्यकता नहीं होती नीता जी। सबूत और गवाह को अपनी दो
आँखें बता कर न्याय खुद को कितना ठगता है,आप वाकिफ होंगी इससे। अतः प्रमाण की बात
न पूछें,काम की बात सुने,जो मैं सुनाना चाहती हूँ। फिर अपने कोमल दिल पर हथेली रख
कर,खुद विचार करें कि बात में दम है या कि...।’
‘ खैर,जो
भी हो,कह,जो कहना चाहती हो। सुन लूं तुम्हारी बकबक,फिर सोचूंगी इत्मिनान से,अन्यथा
तुम बारबार फोन करके मुझे परेशान करती रहोगी।’ – नीता ने कहा।
‘ मुझे
ज्यादा बकबक करने की आदत नहीं है,और न इतना फालतू वक्त है मेरे पास। कहना सिर्फ
इतना ही है कि अभी-अभी जो कुछ आपको बतलाया गया वह सब कपोल कल्पना है।’
‘ मतलब? ’ –नीता आश्चर्यपूर्वक पूछी।
‘ मतलब यह
कि मिस स्मिता कभी किसी फिल्म निदेशक के पास नहीं गयी,न किसी के हबश का शिकार
हुयी,और न इसने कभी आत्महत्या की ही कोशिश की। हाँ,अब यदि उसके विषय में जल्दी से
जल्दी कोई सही निर्णय न लिया गया, तो फिर विकट स्थिति में वो आत्महत्या के लिए
विवश हो सकती है।’
‘ ऐसी
स्थिति में मैं क्या कर सकती हूँ?’ – नीता आश्चर्य चकित हो गयी इस
सूचना से। उसे इस बात पर हैरानी हो रही थी कि इन सब बातों की सही जानकारी रखने
वाली ये औरत कौन हो सकती है,और उसकी
जानकारी का स्रोत क्या है। पल भर के लिए उसके दिमाग में नौकरानी पर संदेह
आया,किन्तु जितनी देर सुदीप से उसकी बातें होती रही,उस बीच कोई था भी नहीं घर में।
‘ कर क्या
सकती हैं आप,ये तो मैं नहीं कह सकती ,मगर यह कह सकती हूँ कि कुछ न करने पर क्या हो
सकता है,क्यों कि आप स्मिता के पापा को अच्छी तरह जानती हैं। ’ – अपरिचिता ने कहा।
इस पर नीता कुछ और पूछना,जानना चाहती थी,किन्तु तब तक फोन काट दिया गया।
नीता का
सिर झनझना उठा। कोई रास्ता न सूझ रहा था। ‘आंखिर इस रहस्यमय युवती के बारे में कैसे जाना
जाय,कहीं सारी खुराफात की जड़ यही तो नहीं है...?’-
सोचती हुयी नीता के दिमाग में एक विचार कौंधा। उसने लपक कर फोन फिर
से उठाया, और कोई नम्बर डायल किया।
‘ हेलो! मैं 5310987 से बोल रही हूँ। मुझे कुछ इन्क्वायरी चाहिए।’ –नीता ने कहा।
‘ कहिये।’
– उधर से आवाज आयी।
‘ मैं ये
जानना चाहती हूँ कि आज दोपहर बाद से मेरे इस नम्बर पर किन-किन नम्बरों से कॉल आये
हैं। ’
कुछ देर
प्रतीक्षा के बाद उधर से आवाज आयी- ‘ सौरी मैडम ! दोपहर बाद
आपके नम्बर पर सिर्फ दो कॉल आये हैं,और दोनों इसी शहर के पब्लिक बूथ से किये गये
हैं। हां, दोनों बूथ भी शहर के अलग-अलग मुहल्ले के हैं।’
नीता का
तीर निशाने पर लगता प्रतीत होकर भी चूक गया। निराश होकर बैठ गयी। सोचने लगी- फोन
पब्लिक बूथ से किया गया है- इसका दो ही कारण हो सकता है- एक तो फोन करने वाली अपनी
पहचान छिपाने के लिए ऐसा कर रही है,यानी कि शातिर दिमाग वाली है, और दूसरी बात ये
कि उसके घर में फोन हो ही नहीं। किन्तु बूथ अलग-अलग मुहल्ले के...यानी पहली बात
में ही वजन अधिक है।
इस बात के
दो तीन दिन यूं ही गुजर गये। इस बीच नीता अपने लाडले से कुछ पूछना-जानना उचित न
समझी। स्वयं ही इधर-उधर दिमाग दौड़ाती रही। रहस्य से पर्दा हटाने का प्रयास करती
रही। एक बार तो जी में आया कि सीधे स्मिता से ही बात की
जानकारी करे, किन्तु कुछ सोच कर
साहस न जुटा पायी।
चौथे दिन
मौका पाकर नीता ने सुदीप से पूछा - ‘ कुछ जवाब नहीं दिया तूने।’
‘ जवाब कुछ
नया हो तब न दूँ। अपना निर्णय और विचार तो मैं उसी दिन सुना चुका हूँ। तुमने नाहक
मेरी प्रतीक्षा में तीन दिन और बरबाद किए।’ – सुदीप का कोरा जवाब सुन नीता क्रोध
से कांप उठी।
‘ क्या
तुम्हें बनर्जी साहब की ताकत का अन्दाजा नहीं है बिलकुल?’
‘ ताकत
जानने न जानने का क्या सवाल है, क्या चाहती हो तुम कि उनकी बन्दरघुड़की में
आकर,उनकी पतिता का मैं उद्धार कर दूँ ?’ – सुदीप ने
झल्लाकर कहा।
‘ उस दिन
सुबह-सुबह आकर धमकी दे गये थे। आज भी उनका फोन आया था।’
‘ तो क्या
जवाब दिया तूने?’
‘ यही कि
सुदीप से बात करके,कहती हूँ।’
‘ तो फिर
से कहे देता हूँ,कान खोल कर सुन ले मेरी माँ! यह कदापि नहीं होने
को है। मैं उनकी फूटी ढोल को अपने गले में लटका नहीं सकता। चाहे इसके लिए जो भी हो
जाये।’ – सुदीप ने आवेश में कहा।
कमरे के
वातावरण में जारी हॉटटॉक की भीषण गर्मी को कॉलिंगबेल ने पल भर के लिए कम कर दिया।
सुदीप क्रोध में आग-बबूला होकर,बाहर चहलकदमी करने लगा। वेल की आवाज पर भी उसने
ध्यान न दिया। नीता स्वयं उठ कर दरवाजे तक गयी।
रजिस्ट्री
चिट्ठी लिए डाकिया खड़ा था। हस्ताक्षर कर,नीता ने लिफाफा,जो काफी लम्बा और वजनदार
था,हाथों में लिया। पाने वाले की जगह तो नीता का नाम था,किन्तु भेजने वाले की जानकारी
अस्पष्ट थी- ‘आपका एक शुभचिन्तक। ’
नीता का
माथा ठनका। हड़बड़ाकर लिफाफा खोली,और वहीं वरामदे में खड़ी-खड़ी ही देखने लगी।
लिफाफे के अन्दर भी एक और लिफाफा था,और साथ ही टाइप किया हुआ एक लम्बा सा खत।
नमस्ते की
औपचारिकता के बाद लिखा था - ‘ हालांकि
सच्चाई स्वयं सिद्ध है, किन्तु आज के जमाने में सत्य को सत्य साबित करने के लिए भी
कुछ प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ता है। आप भी सत्य को बिना प्रमाण के स्वीकारना पसन्द
नहीं करती ,अतः आपकी सेवा में कुछ प्रमाण प्रस्तुत करने की गुस्ताख़ी किया जा रहा
है। सच्चाई तो ये है कि मिस्टर सुदीप मिस स्मिता बनर्जी से पिछले वर्ष से ही
परिचित है। आपको शायद ध्यान न हो, स्मिता सुदीप की क्लासफेलो भी रह चुकी है,अतः
असली परिचय तो और भी पुराना है,किन्तु विशेष परिचय तब हुआ जब इस शहर में शानदार
होटल रॉक्सी का शुभारम्भ हुआ। जब से यह होटल चालू हुआ,उसके बार में हमेशा आना-जाना
होने लगा सुदीप बाबू का। आपको यह जान कर शायद हैरानी हो और गुस्सा भी कि आपके
मैनेजर मिस्टर खन्ना भी इस स्मिताकांट में बराबर के हिस्सेदार हैं...।
‘ बार और कैबरे के साथी कमरे के भी साथी हैं।
अकसरहां रॉक्सी में कमरा बुक होका है,और मालिक-मैनेजर की रातें रंगीन होती हैं।
इधर कुछ वर्षों से आपकी फैक्ट्री की हालत डांवाडोल है। क्या यह भी कहना जरुरी है
कि ये सब दौलत कहां जारही है? पिछले साल इन दोनों साहबानों का
ध्यान स्मिता पर गया। उन्हें मालूम था कि स्मिता थोड़े रंगीन मिज़ाज़ की लड़की है।
जल्दी ही खुल भी जाती है। सो वह,बात की बात में इनलोगों की बातों में आगयी। स्मिता
रंगीन मिजाजी और शोख भले ही हो,पर इनके पूर्व वह किसी पुरुण के सम्पर्क में नहीं
आयी थी- यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है। शुरु में होटल रॉक्सी के नाम पर
वह आतंकित हुयी,किन्तु इन लोगों के झांसे में आगयी। धीरे-धीरे लत और हरकत बदलते
गये।
’स्मिता को किसी नौकरी की तलाश भी न थी,और न उसके
पिता ने ही कुछ कहा था। इन दोनों की कलाबाजी ने ही उसे आपकी फैक्ट्री में घसीट
लाया। क्यों कि दोनों ही स्मिता के दीवाने हो रहे थे। हालाकि ये भी सही है कि
सुदीप स्मिता से बे-इन्तहा मुहब्बत करता है। उसका बस चलता तो अब तक शादी भी कर
चुका होता,किन्तु खन्ना रोड़ा है इस रास्ते का। वह कब चाहेगा कि साझेदारी व्यवसाय
एकल हो जाय!
‘सतर्कता तो खूब बरती जाती रही,किन्तु ऊपर वाला
तो और भी सतर्क होता है न। पानी में टट्टी करोगे तो कभी न कभी ऊपर छहलाना ही है।
आँखिर वह फंस गयी फंदे में। अब तो ये लोग ही उसे ब्लैकमेल करने के चक्कर में हैं।
गर्भवती होने की आशंका से स्मिता घबरा गयी। तत्काल उसने दोनों को जानकारी
दी,किन्तु ये आपसे में ही उलझने लगे- एक दूसरे को लापरवाह साबित करके। नतीजा हुआ
कि समय बढ़ता गया,और एक दिन स्मिता की माँ के कान खड़े हो गये। और बात उसके पापा
तक पहुँची। इधर कारखाने के कर्मचारियों में तो कानाफूसी चलती ही रहती है। पोल-खोल
में मिसेज माथुर की भी
अच्छी भागीदारी है....। ’
पत्र
पढ़ती नीता दांत पीस रही थी। उसका माथा झनझना रहा था। पूरे वदन में मानों हजारों
विच्छु डंक मार रहे थे। माथे पर हथौड़े का वार किया जा रहा था। ललाट पर पसीने की
बूंदे छलछला रही थी। सीना धौंकनी सा उठ-बैठ रहा था। हिम्मत जुटा कर पत्र पढ़े जा
रही थी।
आगे लिखा
था — ‘ ये हुयी एक सच्ची कहानी,और यदि इसकी सत्यता पर यकीन न हो तो साथ वाला दूसरा
लिफाफा भी खोल ही लें,शायद कुछ और प्रमाण मिल जाये।’
नीता विवश
हो गयी- दूसरे लिफाफे को खोलने हेतु। इस
लिए नहीं कि उसे और प्रमाण ढूढ़ने थे,बल्कि इसलिए कि वह अपनी उत्सुकता को रोक न पा
रही थी।
लिफाफा
खुला। पोस्टकार्ड साइज के करीब 15-20 कैमरा फोटो थे अलग-अलग पोज़ों में । नीता उन
चित्रों को देखने लगी। ज्यादातर बेड-रुम-सीन थे कुछ सुदीप के साथ कुछ खन्ना के
साथ,कुछ में पशुओं सी स्थिति- सुदीप और खन्ना एक साथ। कुछ फोटो किसी झरने और
जंगलों के दृष्य भी दिखा रहे थे,जहां तीनों का साथ था।
चित्रों को
देखती नीता सिर पकड़ कर वहीं बैठ गयी क्षण भर के लिए। सिर चकराने लगा। यदि न
सम्हलती तो धड़ाम से चित्त हो जाती।
जरा संयत
होकर,पत्र और फोटो को लिफाफे में पूर्ववत रख,कवर को गौर से देखने लगी। मुहर दो पड़े
हुए थे,किन्तु इसी शहर के दो डाकघरों के।
‘ इसका
मतलब है कि पत्र भेजने वाला इसी शहर का है,और इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि काफी
सूझबूझ वाला है ।’ – नीता सोचने लगी थी। पल भर के लिए मिसेज माथुर पर भी ध्यान
गया,क्यों कि पत्र में उसकी भी चर्चा है। पत्र फिर से खोल,उस अंश को दोबारा पढ़ने
लगी। तब लगा कि यह पत्र मिसेज माथुर का कतयी नहीं हो सकता ,क्यों कि उसकी साहस और
बुद्धि से वाकिफ थी नीता। सूचनायें वो चाव लेकर इकट्ठी कर सकती हैं,किन्तु आगे का
काम...वह ऐसा करने की हिम्मत नहीं रखती। तो क्या इसका ये मतलब निकाला जाये कि
ब्लैकमेलरों में वो भी सरीक है,या कि उसके द्वारा जुटाये गये सबूतों को किसी और ने
हवा दे दी— लिफाफा हाथ में लिए नीता सोचती रही काफी देर तक। अचानक सुदीप की आवाज ने नीता को चौंकाया- ‘
क्या बात है माँ !
किसकी चिट्ठी है?’
‘ कोई
मामूली चिट्ठी नहीं,बल्कि मेरे होनहार लाडले के चरित्र का एलबम है।’ – क्रोध में
थरथराती नीता, लिफाफा सुदीप के मुंह पर दे
मारी। ऊपर से छूट कर,खुला लिफाफा नीचे गिर पड़ा। भीतर पड़े फोटो और पत्र फर्श पर
विखर कर सुदीप को मानों मुंह चिढ़ाने लगे,जिन पर निगाह पड़ते ही सुदीप का चेहरा
वर्फ सा सफेद हो गया। रगों में दौड़ता लहु लगा कि एकाएक जम गया हो। फटी-फटी सी
पथरायी आँखें उन्हें देख-देखकर आश्चर्य और भय से लग रहा था कि बाहर निकल कर भाग
जायेंगी। वगल में आराम कुर्सी पर बैठी नीता के होंठ फड़क रहे थे क्रोधावेश में।
आँखें लाल-लाल हो रही थी - अंगारे की तरह, जिन्हें बुझाने में उससे बहते आँसू की
लड़ियां भी नाकाफी थी।
कुछ देर तक
यही स्थिति रही माँ-बेटे की। फिर सम्हल कर बैठते हुए नीता ने विखरे चित्रों पर
इशारा करते हुए कहा, ‘क्या इन सबूतों के बाद भी तुम कह सकते हो कि अफवाहें
बेबुनियाद हैं? ’
सुदीप को
क्षणभर तक कुछ सूझ न पाया कि माँ के इस सवाल का क्या जवाब दे। जी में आया ,इसके
बावजूद बहानेवाजी की संकीर्ण गली से निकल भागा जाए,किन्तु उन विखरे चित्रों की
घूरती आँखों ने उसे इस काबिल न रहने दिया।
अपराधी जब
चारों ओर से घिर जाता है, तब हथियार डाल देता है। सुदीप ने भी इसी में अपनी
ख़ैरियत सोची। कुछ देर पहले तक आगबबूला हो,चहलकदमी करता सुदीप एकाएक सजल आँखों से
माँ के चरणों में सिर टेक दिया। विलख-विलख कर बच्चों की तरह रोने लगा।
पूत कपूत भले हो जाये,माता न कुमाता हो सकती—किसी
कहने वाले ने ठीक ही कहा है। बड़े अनुभव वाली बात है। ज्यूंही बिलखता सुदीप नीता
के पैरों पर गिरा,त्यों ही नीता का सारा गुस्सा कपूर के धुंएं सा उड़ गया, मानों
भड़कते शोलों पर ओलों की बर्षा हो गयी हो अचानक।
दोनों
बाहों को पकड़कर,पैरों पर झुके सुदीप को ऊपर उठाती नीता के आँखों में प्रेम के
आँसू छलक आए,जिसमें क्रोध के शेष धब्बों को भी धो-पोंछ कर बहा दिया। सच में माँ का
दिल भी अजीब होता है। किसी अद्भुत तत्त्व से बना हुआ होता है शायद। खून करके,खून
से सने हाथ को भी ममतामूर्ति माँ के आँचल में पोंछ कर निर्दोष साबित हो सकता है।
आँखें
पोछता सुदीप बगल की खाली तिपाई पर बैठते हुए बोला- ‘ मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी
माँ ! इसके लिए अब पश्चाताप भी हो रहा है। सच पूछो तो खन्ना के बहकावे में आकर
मैंने अपना भी सर्वनाश कर लिया।’
खन्ना की
बात आने पर अचानक नीता का क्रोध फिर भड़क उठा- ‘ दुष्ट नालायक
खन्ना की यह मज़ाल, उसे तो मैं
चीटियों की तरह चुटकी में मसल सकती हूँ। मेरी ही दौलत से खिड़वाड़ कर रहा है,मेरे
ही टुकड़ों पर पलने वाला हरामी...।’
माँ का
क्रोध सच में खन्ना को कुछ तबाही में न डाल दे,यह सोच कर सुदीप नम्रता पूर्वक बोला-
‘नहीं माँ नहीं, अभी इसके बारे में कुछ मत सोचो। पहले बनर्जी के मामले को
सलटाओ,फिर खन्ना मियां को तो मैं खुद छठ्ठी का दूध याद करा दूँगा। मुझे खुद ही
उसपर बहुत क्रोध है। ’
‘ ठीक
है,तुम्हारी बात मान लेती हूँ।’ – संयत होकर नीता ने कहा- ‘ किन्तु बनर्जी को क्या
जवाब दे सकती हूँ- ये तो सोचने वाली बात है। ’
इस सवाल पर
सुदीप चुप्पी साधे रहा । नीता भी कुछ देर विचार मग्न ही रही। कुछ बाद बोली- ‘पहले
तो मैं सोची थी कि स्मिता एक अच्छी लड़की है। जवानी के फिसलन पर इतना ध्यान नहीं
देना चाहिए। तुम उससे मुहब्बत करते ही हो। चुपचाप शादी कर दी जायेगी। सारा टंटा
अपने आप मिट जायेगा। सबसे बड़ा लाभ तो ये होगा कि इसी बहाने बनर्जी साहब अपने समधी
हो जायेंगे,और अपनी प्रतिष्ठा भी बढ़ जाती। किन्तु यहां तो मामला ही कुछ और है।
स्मिता जैसी कॉलगर्ल को बहु बनाना अपनी सात पीढ़ियों को रसातल में ढकेलने जैसा है।
जब एक के रहते दूसरे से सम्बन्ध रखती है,फिर तीसरे-चौथे में क्या सन्देह! ’
‘ किन्तु
माँ ! ’ – सुदीप को किसी भारी चिन्ता ने त्रस्त कर दिया- ‘सब कुछ तो ठीक है।
स्मिता चरित्र की गिरी हुयी है लड़की है। ऐसी बाजारु लड़की को पत्नी बनाकर घर लाना
बड़ी मूर्खता होगी, किन्तु इसका परिणाम भी तो कम भयंकर नहीं...। ’
‘ आंखिर
क्या रास्ता हो सकता है ऐसी स्थिति में ? एक ओर गहरी खाई
है,दूजे ओर मुंह फाड़े शेर ! दहाड़ मार रहा है।’ - कहती नीता फिर गमगीन हो गयी।
लम्बी
चुप्पी के बाद सुदीप का धीमा स्वर नीता के विचारों की लम्बी दौड़ को अचानक रोका
हाथ के इशारे से- ‘ पहले तो मैंने सोचा था कि एबॉर्सन कराने के बाद कुछ दे-दा कर
स्मिता का मुंह बन्द कर दूंगा,आंखिर चांदी की जूती किसे नहीं भाती,सब सर झुका कर
स्वीकार कर ही लेते हैं। किन्तु अब बात बनर्जी साहब के कानों तक पहुँच चुकी है,
अतः कोई न कोई रास्ता तो ढूढ़ना ही पड़ेगा। भले ही थोड़ी हानि क्यों न उठानी पड़े।
सब खोने से कहीं अच्छा है कुछ कर सन्तोष करना।’
‘ बात
बनर्जी साहब तक ही सीमित रहती तब न, यहां तो लगता है जंगल की
आग की तरह चहुं ओर फैल चुकी है।’ –
चिन्तातुर नीता तलहथी पर गाल टिकाये सोचने लगी।
‘ गुड
आइडिया गुड आइडिया....।’ – एकाएक सुदीप उछल सा पड़ा।
‘ क्या बात
है?
कुछ उपाय सूझ पड़ा क्या?’ – चौंक कर नीता ने
पूछा।
‘ हां
माँ,एक बहुत ही अच्छा रास्ता सूझ पड़ा।’ – मुस्कुराता हुआ सुदीप अपनी दो अंगुलियों
को ऊपर उठाते हुए कहा- ‘ एक तीर दो शिकार...।’ – अभी वह आगे कुछ कहना ही चाहा कि
तभी बाउण्ड्री का गेट खड़खड़ाया,और माँ-वेटे का ध्यान चित्रों की ओर खिंच गया,जो
अभी तक वैसे ही विखरा पड़ा था।
जल्दी-जल्दी
सुदीप उन चित्रों को समटा,और पत्र के साथ लिफाफे में डाल,अपनी जांघ के नीचे दबा
लिया।
इधर दोनों
सम्हले,और उधर उछलती-मचलती-बलखाती दीपा नें वरामदे में प्रवेश किया।
आते ही
सवाल किया उसने- ‘ कुछ उदास चिन्तित सी लग रही हो माँ! क्या बात है?’ – दीपा का ध्यान मां-वेटे के चेहरों
पर बारीबारी से विजली सी गति कर रहा था।
मुंह
मिचकाते हुये ,व्यंग्यात्मक ढंग से नीता ने कहा- ‘ क्या बात है आज माँ की बड़ी
फिकर आगयी? मां की उदासी तुम्हें कैसे दीख गयी?’
‘ क्या
इतना भी नहीं पूछ सकती?’ – पास आ गले से लिपटती हुयी दीपा ने कहा- ‘ ओ मेरी अच्छी मां,तू कितनी
प्यारी लगती है। सुदीप भैया के हिस्से के प्यार में से थोड़ा मुझे भी दे दोगी तो
गरीब थोड़े जो हो जाओगी।’
‘ तुम्हें
कब से माँ के प्यार की जरुरत महसूस होने लगी? तुम तो अपने आप में
ही मस्त रहती हो। घर में कहां क्या हो रहा है इसकी तुझे चिन्ता-फिकर ही कहां है।’
– गले से लिपटी दीपा को हटाती हुयी नीता ने कहा।
‘ तुझे तो
पता होना चाहिए माँ कि आजकल मैं परीक्षा की तैयारी में कितना व्यस्त रह रही हूँ।’
– दीपा ने भोलेपन से कहा।
‘ परीक्षा...कौन
सी...अभी...?’ – नीता जरा चौंकी।
‘ हां
मां,फस्टइयर में भी अब टेस्ट होना जरुरी हो गया है।’ – मां का गला छोड़, कलाई पर
बन्धी घड़ी देख,खड़ी होती हुयी दीपा बोली - ‘ चलती हूँ । ट्यूशन का समय हो गया है।
’ – और वरामदे में बायीं ओर बने जीने पर फुदकती हुयी ऊपर चली गयी।
दीपा का
रीडिंगरुम ऊपर ही है,माँ के वेडरुम के ठीक ऊपर। उसका अधिकांश समय ऊपर एकान्त में
ही कटता है। नीचे सिर्फ खाना भर से मतलब रहता है। वो भी प्रायः नौकरानी ऊपर ही
पहुँचा जाया करती है।
ऊपर आ,पर्श
खोल चाभी का गुच्छा निकाल अपना कमरा खोली,और अन्दर आ,छिटकिनी चढ़ा,पलंग पर धब्ब से
बैठ गयी। हाथ में पकड़े बैग और नोटबुक को टेबल पर रखने के बाद नीचे झुकी, जहाँ
कोने में फर्श पर एक टेपरेकॉर्डर पहले से ही रखा हुआ था।
इजेक्ट पुश
कर कैसेट निकाली,और आलमारी खोल कर,उसे एक डब्बे में सुरक्षित रख दी। डब्बे से
दूसरा कैसेट निकाल कर रेकॉर्डर में लगा कर ऑन कर दी। फिर लॉकर खोल कर एक फाइल
निकाली,जिसे उलट-पुलट करने के बाद,एक कागज निकाल,उसमें कुछ लिखी,और फाइल बन्द
करके,पुनः ज्यों का त्यों लॉकर के हवाले कर दी।
कुछ देर
आंखें बन्द किये पड़ी रही टांगें पसार कर। कुछ सोच-विचार के बाद उठकर आलमारी में
रखा कैसेटों वाला डब्बा लेकर पलंग पर बैठ गयी। उलट-पुलट कर कई कैसेटों को देखने के
बाद,अभी-अभी जो कैसेट उसमें रखी थी,उसे निकाल कर पलंग पर तकिये के नीचे रखे छोटे
से वाक्मैन में लगाकर प्ले कर दी।
स्पीकर से
सिर्फ घर्रघर्र...की आवाज आती रही। बीच में फोन की घंटी की लम्बी घनघनाहट भी थी।
बाकी का कैसेट लगभग प्लेन था।
दीपा के
होठों पर एक रहस्यमय मुस्कान आकर,अचानक गुम हो गयी। कैसेट पूर्ववत रख,बैग,नोटबुक
और चाभी उठा,कमरे से बाहर निकल आयी। कुंडी में ताला डाली,और जीना उतरने लगी।
नीचे आ
वरामदे से ही आवाज दी। नीता अकेली ही कमरे में गुमसुम बैठी थी। दीपा की आहट पर
भुनभुनायी- ‘ वस चल दी,पता नहीं कितने बजे ट्यूशन होता है।’
उसकी
भुनभुनाहट को भी दीपा सुन चुकी थी। अतः जबाव देना भी जरुरी लगा- ‘कुछ लेट हो गयी
माँ । छः बजे ही मैथ सर बुलाते हैं रोज,सवा छः हो गये यहीं मुझे। ’ – कहती दीपा
बाहर निकल गयी। नीता की अगली भुनभुनाहट उसके कानों तक पहुँच न पायी- ‘ लड़की जात
और इतनी स्वतन्त्रता
!’ – होठ काटती नीता बुदबुदायी,और पलट कर खुली किवाड़ की ओर देखने
लगी,जहां क्षणभर पहले दीपा खड़ी थी। फिर उठकर दूसरे कमरे में चली गयी।
करीब घंटे
भर बाद उस कमरे से बाहर आयी नीता। उसके कपड़े बदले हुए थे,और हाथ में एक अटैची
थी,जिसे लिए अपने बेडरुम में आ गयी। ड्रेसिंग टेबल के सामने टूल पर बैठ विभिन्न कोणों से आइने में अपना
चेहरा निहारती रही, फिर स्वयं में आश्वस्त हो, आवाज लगायी- ‘ शोफर ! ’
‘ जी मेम
सा’ब !’ – परदा सरका,एक सांवला सा मुछैल अन्दर झांका।
‘ गाड़ी
तैयार है?
’
‘ जी मेम
सा’ब !’
‘ सामान ले
जाओ।’ – अटैची की ओर इशारा करते हुए नीता ने कहा और उठ खड़ी हुयी।
रात
साढ़ेनौ बजे दीपा जब बापस आयी तो नौकरानी
वरामदे में ही इन्जार करती मिली।
‘ बहुत देर
कर दी बेबी। ’
‘ तुम
हमारी टाइमकीपर हो क्या?
सिर्फ अपने काम से काम रखा करो। ’ – कहती दीपा आँखें तरेर कर
नौकरानी की ओर देखी,और लपक कर जीने पर फुदकती ऊपर चली गयी अपने कमरे की ओर।
‘ खाना ले
आऊं बेबी या कि पहले चाय पीयेगीं?’ – सिपटी हुयी नौकरानी ने पूछा।
‘ माँ न खाना खा लिया क्या?’
‘ जी,वो तो
आठ बजे ही खाना-वाना खाकर,कहीं निकली हैं।’ – नौकरानी ने कहा।
‘ कहाँ?’ – दीपा के पांव अचानक रुक गये आधे रास्ते में ही।
‘ शायद
लखनऊ गयी हैं। कारखाने के कुछ काम से। ’ – कहा नौकरानी ने,तो दीपा भुनभुनाती हुयी
ऊपर बढ़ गयी। नौकरानी वहीं खड़ी रही।
ऊपर पहुँच
कर दीना ने आवाज लगायी- ‘ पहले एक गिलास पानी दे जाओ,फिर चाय बनाना। खाना घंटे भर
बाद खाऊंगी।’
थोड़ी देर
बाद नौकरानी पानी ले कर ऊपर आयी। गिलास लेते हुए दीपा ने पूछा- ‘ कुछ कहा नहीं माँ
ने? ’
‘ जी, कहा
तो कुछ नहीं। और ना हमने पूछा ही।’
‘ समझ नहीं
आता ये सब क्या करते हैं। फैक्ट्री का सारा काम तो भैया देखता है, फिर माँ के जाने
का क्या मतलब !
’ – दीपा अपने आप में बुदबुदायी,और पानी पी,गिलास नौकरानी को लेते
हुए बोली- ‘और हां,घंटे भर बाद खाना पापा के कमरे में लगाना। यहां लाने की जरुरत
नहीं। ’
‘ जी बेबी।
चाय चढ़ा आयी हूँ। अभी लिये आती हूँ।’
‘ उसे तू
पी लेना।’ – तुनक कर दीपा बोली, और भड़ाक से दरवाजा बन्द कर ली। कमरे में एक बल्ब
जल रहा था,जो प्रायः दिन में भी जलता ही रहता था। उसे बुझाकर ट्यूब ऑन कर दी। कमरा
दूधिया रौशनी से रौशन हो गया।
कोने में
झुककर रेकॉर्डर से कैसेट निकाली,जिसे जाते वक्त लगा गयी थी। पलंग पर आ,ऊपर रखे
रेकॉडर में लगाकर प्ले कर दी।
रेकॉर्डर
चलता रहा,आँखें बन्द किये चुप पड़ी दीपा सुनती रही। चेहरे पर तरह-तरह के भाव उभरते
और विलीन होते रहे,और दीपा की अन्तर्भवों का चित्र प्रस्तुत करते रहे।
घंटे भर
बाद दीपा देवेश के कमरे में पहुँची। नौकरानी खाना लगा गयी। पिता-पुत्री साथ बैठ कर
खाना खाये,फिर विभिन्न विषयों पर बातें होने लगी,जो रात लगभग दो वजे तक चलती रही।
‘ अब सोना
चाहिए। रात काफी बीत चुकी है।’ – देवेश ने कहा।
‘ कभी-कभी
तो इतना खुल कर बातें करने का मौका मिल पाता है पापा। ’ – मुस्कुराकर दीपा ने
कहा,और शुभरात्रि कहती हुयी कमरे से बाहर निकल गयी।
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एन्सीयेन्ट
हिस्ट्री का लेक्चरर मिथुन विश्वविद्यालय में कार्यभार करने के बाद थोड़े ही दिनों
में सबके आँखों का तारा बन गया। विद्यार्थी तो विद्यार्थी,शिक्षक समुदाय भी उसकी
प्रतिभा से काफी प्रभावित हो गये। जिधर देखो बस एक ही चर्चा- मिथुन दे बहुत ही
अच्छा पढ़ाते है...ऐसा प्रोफेसर तो अब तक मिला ही नहीं यूनीवर्सीटी में...विषय-वस्तु
का अजीब ज्ञान है...लगता ही नहीं कि नया लेक्चरर है...पुराने प्रोफेसरों को भी मात
करता है...बड़ा ही होनहार है...सुन्दर-सुशील भी...जमाने की हवा जरा छूई भी नहीं है
इसे...शराब-सिगरेट तो दूर,पान तक भी नहीं खाता...रास्ते में ऐसे चलता है मानों कोई
चीज ढूढ़ रहा हो...अरे खोयेगा क्या...अपने आप में मस्त रहने वाला है...।
कॉलेज की
लड़कियां मिथुन के आगे-पीछे तिललियों सी मड़राती रहती- कॉलेज के दिनों में भी,और
अब तो कुछ दूसरे ही रुप में,किन्तु मिथुन एक अजीब तत्त्व का बना इनसान है। वस अपने
काम से काम- क्लास में जाना,पढ़ना-पढ़ना। जरा भी खाली वक्त मिलता लाइब्रेरी में जा
बैठता। कुछ शोख लड़कियां इसे लाइब्रेरी सर कहा करती। खास कर वे जो इसके विद्यार्थी
जीवन में इससे जूनियर थी,और अब इसकी स्टूडेन्ट बन गयी हैं। वे ही ज्यादा सिरचढ़ी
लगती हैं। किन्तु मिथुन किसी को जरा भी लिफ्ट नहीं देता। वह जानता है कि लड़कियों के चक्कर में पड़ा तो
फिर अपने लक्ष्य पर पहुंचना असम्भव हो जायेगा।
‘ अभी
शादी-वादी का विचार नहीं है मिथुन?’ – एक दिन
विभागाध्यक्ष ने पूछ लिया।
‘ सौरी सर! अभी तो इसकी कल्पना से भी डर लगता है।’ – मिथुन मुस्कुराया।
‘ वोपदेवजी
से शादी की क्या बात पूछते हैं सर। इन्हें तो लड़कियों को देखकर डर लगता है। ’ –
एक मुंहलगा स्टाफ बोल पड़ा,जिसे सुन पूरा स्टाफ रुम ठहाकों से गूंज उठा।
ऐसा ही
सवाल एक दिन खास कुलपति महोदय ने भी कर दिया था। दरअसल उनकी लड़की जो फोर्थ इयर
में थी,कई बार अपनी भाभी से मिथुन का गुणगान कर चुकी थी। बात भाभी से भैया और फिर
पिता तक पहुँची। पिता की निगाहें तो पहले से ही इस ओर लगी थी। मिथुन को अपने
विश्वविद्यालय में नियुक्त करने के पीछे यह भी एक खास कारण था। किन्तु इस बात से अनजान
मिथुन उन्हें भी सीधा सा जवाब दे दिया।
‘ पी.एच.डी. के बाद ही विवाह-बन्धन में बंधना
उचित लगता है गुरदेव। ’ – नम्रता पूर्वक कहा मिथुन ने तो क्षणभर के लिए कुलपति
महोदय को बुरा अवश्य लगा, किन्तु समझदार आदमी स्वार्थपूर्ण निजी बातों को उतना
अहमियत नहीं देते।
झट
उन्होंने कहा- ‘ यह तो अति उत्तम विचार है। लक्ष्य ऊँचा रहेगा,और उसके लिए त्याग
और परिश्रम किया जायेगा तभी सफलता शीघ्र मिल सकती है।’
‘
सिनॉप्सिस तो मिल ही चुका है। और जहां तक बन पा रहा है,मिहनत तो कर ही रहा हूँ
सर।’ – कुलपति महोदय की ओर देखते हुए मिथुन ने कहा।
‘ मैंने भी
प्रोफेसर गुहा को कह दिया है। तुम पर विशेष ध्यान रखेंगे। हमारे विश्वविद्यालय को
तुम्हारे जैसे होनहार युवक पर फख़्र है।’
‘ प्रोफेसर
गुहा तो जी जान से मुझे सहयोग कर रहे हैं।’ – मिथुन ने कुलपति महोदय की आँखों में
झांकने का प्रयास किया,जहां छिपी कोई आशा-ज्योति चमक रही थी।
‘ कुछ और
सहयोग की आवश्यकता हो तो कहना। जरा भी संकोच न करना।’
‘ सर ! कुछ सामग्री विदेशों से जुटाने की जरुरत है। उसके लिए एक बार कुछ प्राचीन
सांस्कृतिक स्थलों का भ्रमण करना भी जरुरी लग रहा है। साथ ही बाहर निकलने पर कुछ
दुर्लभ पुस्तकें भी उपलब्ध हो सकेंगी।’
‘ अरे! इसके लिए तुम्हें चिन्ता करने की जरुरत नहीं। ’ – कुलपति महोदय
मुस्कुराये- ‘ मैं तो स्वयं इसके लिए
प्रयास में हूँ। बिना तुम्हें जानकारी दिये ही,मैंने इसके लिए विभाग में अनुमोदन
कर दिया हूँ। आशा है बहुत जल्दी ही सारी व्यवस्था हो जायेगी। और तुम मनचाही
विदेश-यात्रा कर सकोगे।’
मिथुन के
होठों पर थिरक आयी मुस्कान उसके चेहरे को एकाएक प्रदीप्त कर गया। झट से नीचे झुक
गुरुदेव का चरण-स्पर्श करने लगा- ‘ आपकी बहुत बड़ी कृपा है सर।’
लपक कर
दोनों हाथों से गुरुदेव ने ऊपर उठाया मिथुन को- ‘कृपा मैं क्या कर सकता हूँ मिथुन।
मैं तो वही कर रहा हूँ,जो एक कुलपति को करना चाहिए अपना कर्तव्य समझकर । असली कृपा
तो तुम्हारे ऊपर माँ सरस्वती की है। कामदेव तो पहले ही तुम पर मोहित हैं- अपना
स्वरुप देकर। ’
उसदिन के
बाद से मिथुन अपने परिश्रम की गति और तेज कर दिया था। ‘सादा जीवन,उच्च विचार ’ को स्वीकार
ही नहीं, अंगीकार करने वाला मिथुन दोनों शाम भोजन भी अपने हाथों से ही बनाया करता।
होस्टल के मेस में सारी सुविधायें
थी,किन्तु उसका सिद्धान्त था कि जहां तक हो सके अपना काम खुद करना चाहिए। भोजन
जैसा महत्त्वपूर्ण काम तो अवश्य ही। क्यों कि दूसरे के हाथ का बना खाना खाने से
बनाने वाले के संस्कारिक गुण-अवगुण भी संक्रमित हो जाया करते हैं- भोजन करने वाले
में,जिसे आजकल के लोग बिलकुल विसार बैठे हैं- ऐसा उसके पिता हमेशा कहा करते थे।
किन्तु जब
से गुरुदेव ने विदेश-यात्रा की सूचना दी,तब से रात का खाना बनाना भी बन्द कर
दिया,ताकि घंटे-दो घंटे और मिल सके पढ़ाई के लिए। रात में प्रायः दूध और सूखे फल
मेवे आदि से काम चला लिया करता।
इन्हीं
दिनों की बात है,एक दिन क्लास लेकर अभी ज्यों ही बाहर आया,चपरासी ने सूचना दी कि
आपकी माता जी आयी हुयी हैं।
मिथुन चौंक
उठा। उसे इतना आश्चर्य हुआ जितना कि तलहथी पर बाल उग आने पर भी नहीं होता।
‘ कहाँ है? ’
‘ जी बडे
सा’ब के
चेम्बर में। ’ – प्यून ने कहा तो,लम्बे डग भरता विभिन्न आशंकाओं से घिरा उसके
पीछे-पीछे चल दिया।
चेम्बर में
बैठी प्रतीक्षारत नीता का मन भी विभिन्न आशंकाओं से घिरा, आशा – निराशा की पेगें
ले रही थी। पास पहुँच कर मिथुन ने जब माँ के पांव छूए,तो एकाएक ऊपर आसमान से मानों
नीचे धरातल पर आयी नीता,जिसके मानसी झूले का दोलन एकाएक थम गया।
‘ कहो कैसी
हो माँ?
आज अचानक इधर कैसे आने का कष्ट की?’
‘ बेटे से
मिलने आना क्या कष्ट करना कहा जायेगा? ’ – मुस्कुरा कर
नीता ने कहा,और अपना प्यार भरा हाथ मिथुन के सिर पर रख दी। स्नेह पूर्ण स्पर्श पा
मिथुन अप्रत्याशित आनन्द-विभोर हो उठा। इतनी उम्र हो गयी,जब कि आज पहली बार मिथुन
ने माँ का ऐसा स्पर्श अनुभव किया। अब से पहले न जाने मिथुन ने सैकड़ों बार मां के
पैर छुए होंगे,किन्तु आशीर्वाद के बदले,घृणा,उपेक्षा,अपमान,नफरत,तिरस्कार ही मिलता
आया था। आज नीता द्वारा जरा से सिर-स्पर्श ने मिथुन को काफी पीछे खींच ले गया-
उसके बिलकुल बालपन में— अपनी मां का जब भी पैर छूता,माँ लपक कर गोद में उठा लिया
करती थी,और चूम लेती थी होठों को। आज इस बड़ी उम्र में गोद में तो नहीं समा सकता,
किन्तु वही आनन्द नीता द्वारा किये गये सिर के छुअन में पाकर झूम सा उठा।
‘ बहुत देर
तक प्रतीक्षा करनी पड़ी न माँ? ’ – मुस्कुरा कर मिथुन ने पूछा।
‘ कोई खास
नहीं,यही कोई बीस मिनट । किन्तु क्या हुआ । कौशल्या तो चौदह वर्ष प्रतीक्षा की थी
वेटे के लिए। ’ – कहती नीता के होठों पर एक अजीब सी मुस्कान की हल्की रेखा कौंध
गयी,जिसकी गहराई में वेचारा भोला-भाला मिथुन पहुँच नहीं पाया।
‘ चलो डेरे
में ही चला जाय। ’ – कहा मिथुन ने और नीता की अटैची उठा लिया।
‘ क्यों अब
क्लास नहीं है क्या?
’ – उठ खड़ी होती हुयी,नीता ने पूछा।
‘ नहीं माँ,और
क्लास नहीं लेना है आज ।’ – मिथुन कहता हुआ चेम्बर से बाहर निकल पड़ा। नीता भी साथ
हो ली।
महाविद्यालय
के कम्पाउण्ड में ही मिथुन का क्वाटर था। हालाकि अभी पिछले कई स्टाफों को अभी तक
क्वाटर नहीं मिल पाया है। किन्तु गुरुदेव की असीम अनुकम्पा ने नये नियुक्त मिथुन
को यह सुविधा भी दिला दिया है।
रास्ते में
इधर-उधर की औपचारिक बातें होती रही। पिता,भाई और बहन दीपा के बारे में मिथुन ने
क्षेमकुशल पूछा,कारखाने की स्थिति जानी,और फिर आसपड़ोस की भी।
संक्षेप
में नीता सबकुछ बताती रही। इसी क्रम में उसने बतलाया - ‘ पुरानी सेक्रेटरी मिसेज
माथुर को होटाकर स्मिता बनर्जी को रख लिया गया है। ’
‘ कौन
स्मिता ?
’ – मिथुन ने पूछा।
‘ अरे! स्मिता को नहीं जानते? ’ – आश्चर्य से नीता ने
पूछा,और फिर बहुत कुछ गुणगान कर गयी स्मिता के बारे में। स्मिता के बखान में उसने
इतना अधिक अलंकार लगाया कि वेदव्यास और वाल्मीकि भी पीछे छूट गये।
मिथुन को
कोई खास दिलचश्पी इन बातों में न थी,किन्तु हूं-हां करते हुए माँ की बातें सुनता
रहा।
दोनों
माँ-बेटा डेरा पहुँचे। मिथुन का डेरा बहुत ही सामान्य ढंग का था। मात्र अत्यावश्यक
सामानों से सजा। डेरे की सर्वाधिक सज्जा - किताबें थी। कुल मिला कर देखा जाये तो
मिथुन का जीवन एक कर्त्तव्य निष्ठ तपस्वी की तरह था।
इस अद्भुद
तपोभूमि में लगता था मानों महारानी कैकेयी आयी हों रघुपति राम से मिलने। किन्तु यह
भी एक विचित्र संयोग है कि कैकेयी अकेली आयी हैं। साथ में न मन्थरा है,न गुरु
वशिष्ठ और न नगरवासी ही।
चाय-नास्ते
की खातिरदारी के बाद मिथुन ने कहा- ‘ अब तुम आराम करो माँ, रास्ते की थकी होगी।’
‘ तुम कहीं
जा रहे हो क्या?
’ – बड़े प्यार से नीता ने कहा-
‘ ओह मिथुन ! तू कितनी मेहनत करता है रे। तुम्हारा
डेरा-डंडा देख कर तो रुलाई आ रही है। घर में ढेरों नौकर-दाई भरे हैं और यहां तू
अपना खाना खुद बनाता है।’
‘ करना ही
क्या है माँ, पढ़ना-पढ़ाना,खाना-सोना बस यही तो काम है। ’ – मुस्कुराकर मिथुन ने
कहा- ‘कॉलेज से आया,अब जरा लाइब्रेरी जा रहा हूँ। ’
‘ कब तक
लौटोगे उधर से?’ – नीता ने इतने लाढ़ से पूछा मानों गोद का बच्चा ज्यादा देर तक विलग न
रह जाय,और इधर दूध से भरी छातियों में दर्द न होने लग जाय ।
‘ जल्दी ही
लौट आऊँगा माँ करीब दो घंटे में । ’ –
मिथुन ने कहा - ‘ वैसे लौटता तो था देर रात तक,जब तक कि लाइब्रेरी बन्द न हो जाय।
किन्तु आज ऐसा न करुंगा। आप जो आयी हैं।’
मिथुन चला
गया। नीता इधर-उधर घूमकर उसके डेरे का मुआयना करती रही। कमरे में रखे हर सामान को
उलट-पुलट कर गयी। इसमें करीब घंटे भर गुजर गये। फिर एक पत्रिका लेकर पलटने लगी। मन
लग नहीं रहा था। मिथुन पर अपना मोहिनी मन्त्र प्रयोग करना चाह रही थी, किन्तु बात
कहाँ से आरम्भ करे,यही सोच रही थी। हालाकि इसकी भूमिका वह पहले ही बना चुकी थी।
उधर
लाइब्रेरी से लौटते समय चपरासी ने मिथुन को एक लिफाफा दिया, ‘ सर आपके जाने के वाद
दोपहर के डाक से यह पत्र आया है। वैसे इसे डेरा पहुँचा देता,किन्तु सोचा शाम में
इधर आते ही है। उसी समय दे दूंगा। ’
पत्र लेते
हुए मिथुन ने कहा- ‘ कोई बात नहीं। दो-चार घंटे के आगे-पीछे से क्या फर्क पड़ता है।
’
पत्र लेकर
मिथुन ने गौर से देखा- पत्र पिता का नहीं था। पत्र भेजने वाले तो केवल पिता ही
होते हैं,और कहीं से पत्र आने का सवाल ही नहीं होता। हाँ,कभी कभार दीपा पत्र भेज
कर मिथुन को याद कर लिया करती है। तीन दिनों पहले उसका एक पत्र आया था,जिसमें अपने
मानसिक तनाओं का उसने खुलकर ज़िक्र किया था। पर खास कारण कुछ ज़ाहिर किया नहीं था।
स्पष्ट न रहने के कारण,मिथुन कुछ कयास भी न लगा पाया था। हाँ,अन्त में दीपा ने यह
भी लिखा था कि एक बार मुलाकाल करना आवश्यक सा लग रहा है। हर बात पत्र के माध्यम से
नहीं जनायी जा सकती, किन्तु कब कैसे भेंट करे- समझ नहीं पाती।
लिफाफे को
उलट-पुलट कर देखा एक बार फिर से। भेजने वाले का पता नदारथ था। पाने वाले पता भी
हाष का लिखा न होकर,टाइप किया हुआ था।
चपरासी
पत्र देकर सलामी दाग,आगे बढ़ गया। मिथुन वहीं आगे बढ़कर,लाइब्रेरी –बिल्डिंग के
समाने लॉन में स्टोन-चीप्स की बनी कुर्सी पर बैठ गया,जहाँ एक लैम्पपोस्ट का दुधिया
प्रकास फैला हुआ था।
उत्सुकतावश
झट लिफाफा खोल डाला। भीतर का पत्र भी टाइप किया हुआ ही था। पत्र के प्रारम्भ में
कोई सम्बोधन या औपचारिकता भी न थी,और न अन्त में ही कुछ। पत्र हठात शुरु था,और वह
ऐसे मानों किसी लम्बी कहानी के बीच का कुछ खास अंश निकाला गया हो।
मिथुन की
उत्सुकता और बढ़ी। सरसरी निगाह से पत्र पढ़ने लगा,किन्तु दो-चार पंक्तियों के बाद
ही महसूस हुआ कि इसे गौर से पढ़ना उचित है।
पत्र में
लिखा था— ‘ कीचड़ में
ढेला फेंकने पर सिर्फ फेंकने वाले पर ही नहीं,बल्कि अगल-बगल खड़े लोगों पर छींटा
पड़ता है। कभी-सकभी तो ऐसा भी होता है कि फेंकने वाला बच जाता है,और बाकी को ही
शिकार बनाना पड़ता है गंदगी का। मनस्वी को भी चाहिए कि कभी-कभी आसपास झांक-ताक कर
लिया करे। देवेश परिवार का सूरज बहुत जल्दी ही अस्त होने वाला है। कभी-कभी बीच
आकाश में भी ग्रहण लग जाता है। सूरज को राहु ग्रस लेता है। बदली तो और भी आसानी से
ढक लिया करती है। आप तटस्थ हैं। किनारा पकड़े पडें हैं। किन्तु क्या छींटे से भी
बच जायेंगे?
नाली की गन्दगी को हाथों में लगा कर घर आने पर घर भी गंदा हो जाता
है। उटपटांग लग रही होंगी ये सब बातें,मगर सच्चाई है जिसे जान लेना जरुरी है...
‘ वेश्याओं से भी बदतर लड़की देवेश परिवार की बहु
बन सकती है। फैक्ट्री में नयी सेक्रेटरी बहील हुयी है,जो बड़ी खूबसूरत है।
पढ़ी-लिखी हुशियार भी है,जो कि फंसना कम,फंसाना ज्यादा जानती है...
‘ बिन व्याही माँ की सन्तान का बाप कौन होगा?...एक कॉलगर्ल यदि वह बहुत पैसे
वाली हो,खूबसूरत हो,पढ़ी-लिखी हो,जवान तो हो ही— इन सब खूबियों वाली को अपने घर की
बहु बनाना कैसा रहेगा?...
‘जनाना तो बहुत कुछ जरुरी है,मगर एक ही साथ
नहीं,क्यों कि भावुक लोगों को टुकड़े-टुकड़े में जनाना अच्छा होता है। समय पर और
स्थिति अनुकूल होने पर और कुछ जनाया –बतलाया जा सकता है। क्या एक समझदार आदमी के
लिए इतना ही काफी नहीं है?
यदि पर्याप्त नहीं है इतनी जानकारी,तो उत्सुकता-जिज्ञासा पर थोड़ा
काबू रखना होगा,और समय का इन्जार करना बेहतर होगा...।’
कुछ ऐसी ही
उटपटांग बे सिर-पैर की बातें भरी पड़ी थी उस चिट्ठी में। लगता था बड़ी कहानी के
अलग-अलग अंशों को काट-काट कर यहाँ सजाया गया हो।
लॉन में
बैठा मिथुन काफी देर तक सोचता रहा। कई बार पत्र के इन कुछ खास अंशों को पढ़ गया ,
किन्तु बात स्पष्ट हो न सकी,और न अनुमान ही लगाया जा सका कि पत्र भेजने वाला कौन
है,क्या सम्बन्ध है उसे इन बातों से या मिथुन से।
कुछ अंशों
ने मिथुन का ध्यान अधिक आकर्षित किया- देवेश परिवार का सूरज जल्दी ही अस्त होने
वाला है...वेश्याओं से भी बदतर लड़की घर की बहु बन रही है...।
मिथुन
सोचने लगा— आज बातचित के क्रम में माँ ने स्मिता बनर्जी के सेक्रेटरी बनने की बात
कही थी। उसकी खूबसूरती का वखान करने में माँ कवियों को भी मात दे दी थी।
और इस तरह
सोचते-सोचते एकाएक उसके दिमाग में जवान – उच्छृंखल सुदीप का चेहरा उभर आया,और पल
भर के लिए घबरा उठा—कहीं सुदीप ने ही तो कुछ नाज़ायज सम्बन्ध किसी से स्थापित नहीं
कर लिया...आंखिर घर में बहु बन कर आने वाली कोई लड़की सुदीप या मिथुन की पत्नी हो
तो होगी।
सोचा तो
बहुत कुछ उसने, किन्तु कोई सही रास्ता या बज़ह सूझ न पाया। एक बार जी में आया कि डेरा
चल कर माँ से सीधे पूछ-पाछ करुं, किन्तु तुरत ही विचार बदल गए- ‘ माँ भी क्या कभी
सुदीप की बुराई की चर्चा बतिया सकती है ! ’ फिर दीपा का
ध्यान आया,वह कुछ जरुर कह–बता सकती है। किन्तु छोटी बहन से उसके बड़े भाई के
नाज़ायज़ प्रेम सम्बन्धों के विषय में पूछना-जानना कहां तक बुद्धिमानी होगी...।
इसी
उधेड़बुन में पत्र समेट नोटबुक में डाला,और तेज कदमों से डेरे की ओर चल पड़ा।
रास्ते में ही तय कर लिया इस पत्र की जानकारी मां को भी देना उचित नहीं ।
डेरा
पहुँचने पर माँ बाहर लॉन में ही टहलती नज़र आयी।
‘ बहुत देर
लगा दिए वेटे!
हर रोज इसी वक्त आया करते हो?’
‘ वैसे तो
और भी देर हो जाती है। आपके चलते आज जल्दी ही आ गया। ’ – कहते हुये मिथुन आगे
बढ़ा। नीता भी साथ हो ली।
कमरे में
पहुँचकर मिथुन ने देखा कि माँ खाना बना चुकी है। सोने के कमरे में ही मेज पर खाना
ढका पड़ा है। उसने प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए कहा- ‘ वाह माँ, देखो तो तुम्हारे
आने से कितना आराम हुआ- बना-बनाया घर का खाना मिला,वो भी माँ के हाथों का।’
‘ मैं
कितना आराम दे सकती हूँ तुम्हें,और कब तक? ’ – नीता को बात
शुरु करने का सूत्र मिला।
‘ तू नहीं
तो और कौन दे सकता है?’ – कपड़े बदल,हाथ-मुंह धोकर खाने के मेज पर आ बैठा। नीता खाना निकालने
लगी। खाना एक ही थाली में निकालता देख मिथुन ने टोका — ‘ क्यों एक ही जगह क्यों
निकाल रही हो?’
‘ तू खा ले
, मैं जरा ठहर कर खाऊँगी। अभी-अभी मैंने चाय पी है। ’ – आज नीता के हर लफ्ज़ में
प्यार टपक रहा था। माँ का स्नेहिल व्यवहार मिथुन के किसी पुराने जख़्म पर मरहम सा
स्नेह-लेप कर रहा था। मन ही मन प्रसन्न होकर सोच रहा था—काश! मां का दिल हमेशा के लिए ऐसा ही मधुर हो जाता,फिर तो उसकी खोयी माँ मिल
जाती। आज तक कितना तड़पा है माँ की ममता और प्यार के लिए। दुनिया में सब कुछ
सुख-सुविधा प्राप्त हो जाय,किन्तु मां के मधुर प्यार की शीतल छांव सा कुछ भी
सुखदायी नहीं हो सकता।
‘
नहीं-नहीं,ये कैसे होगा। ’ – पास पड़ी दूसरी थाली सरकाते हुए मिथुन ने आग्रह
पूर्वक कहा— ‘ कितने दिन बाद यह अवसर मिला है,और मैं अकेला खाऊँ माँ के हाथ का बना
खाना ?
माँ के साथ खाने में और भी स्वादिष्ट लगेगा।’
मिथुन की
जिद्द मानकर नीता थाली खींच उसमें भी खाना निकालने लगी। पल भर के लिए मिथुन के
प्रति कई तरह के भाव बने-बिगड़े। वह सोचने लगी— सच में आज तक इतने प्रेम से
सुदीप,जो अपने कोख का है,कभी भी जिद्द नहीं किया। सुदीप का सम्बन्ध मात्र
औपचारिकता तक ही सीमित है। कभी उसमें सच्चे प्यार की मिठास का आभास नहीं मिला। और
ऐसा सोचते हुए,पल भर के लिए नीता का शरीर रोमांचित हो उठा,जिसमें मधुर प्यार के साथ
कशिश भी थी।
और अगले ही
क्षण रोमांच कहीं गायब हो गया। वदन में कंपकपी सी हो आयी। अपने आप पर खेद होने
लगा। गुज़रे अतीत के व्यवहारों के साथ-साथ आनेवाले भविष्य की परछाइयां भी पल भर
में उसके मानस के पर्दे पर दौड़ लगा गयी
भोजन शुरु
हुआ। आज बहुत दिनों बाद, या यूं कहें कि पहली बार आकाश ने धरती को छुआ और अबतक
वादलों से ढका क्षितिज की मनोरम छटा नज़र आयी।
मिथुन
चटकारें लेकर खाता रहा। बीच-बीच में भोजन सामग्रियों का गुणगान करता रहा। नीता मौन
होकर मिथुन की बातें सुनती रही और खाना खाती रही।
हालाकि
उसके मौन में भी रहस्य छिपा था। वह मौन इस कारण नहीं थी कि अपने द्वारा ही बनाये
गए भोजन का गुणगान हो रहा है,बल्कि मौन होकर यह सोचने में मसगूल थी कि कब मौका लगे
और अपने आने का मकसद ज़ाहिर करे।
भोजन
समाप्त हुआ। सोने की तैयारी होने लगी। चौकी चुंकि एक ही थी,इस कारण कुछ देर तक तू
और मैं का झमेला चला। पुत्र-स्नेह में नीता नीचे फ़र्श पर विस्तर लगाना चाहती थी,
और मातृ-भक्ति में मिथुन स्वयं नीचे सोकर,पूजनीया माता को ऊँचा आसन देना चाहता था।
अन्त में मिथुन विजयी रहा।
‘ तुम
ऊपर आराम से सोवो माँ। वैसे भी मैं रात में ज्यादा सोता नहीं हूँ। डेढ़-दो बजे तक
तो कुर्सी-मेज से ही चिपका रहता हूँ।’
बात मान कर
नीता ऊपर सोने को राज़ी हो गयी। वैसे भी मन ही मन सोच रही थी – नीचे फ़र्श पर सोना
पड़ा तो सुबह तक ज़नाज़ा न निकल जाय। आखिर देवेश बाबू की राजरानी नीता को कभी
फ़र्श पर दरी विछाकर सोने का मौका ही कहाँ मिला है।
नीता
विस्तर पर गयी और मिथुन कुर्सी सम्हाला। मोटी-मोटी किताबों के पन्नों में पतली
बुद्धि और तेज दिमाग को उलझाने का प्रयास करने लगा; किन्तु हर बार आँखों के सामने शाम में मिला
पत्र आ जाता और उसके बारे में ही सोचने लग जाता। एकबार तो माँ की निगाह बचाकर उस
पत्र को फिर से पढ़ डाला।
नीता भी
विस्तर पर पड़ गयी थी अवश्य, किन्तु एक ओर कमरे में तेज रौशनी होने के कारण और
दूसरी ओर ज़ेहन में तेजी से चक्कर काट रहे विचारों के कारण शान्ति से सो न पा रही
थी।
अन्त में
जब रहा न गया,तब चर्चा छेड़ ही डाली - ‘ मिथुन वेटे! सोचती हूँ
कल सुबह की गाड़ी से वापस लौट जाऊँ।’
‘ क्यों इतनी जल्दबाज़ी क्या है?’ – मिथुन ने संक्षिप्त सा सवाल किया।
‘ दस तरह
के काम सामने रहते हैं। घर से उब कर बाहर निकलती हूँ,मगर बाहर निकलने पर लगता है
जल्दी घर लौट चलूँ।’
‘ अभी तो
तुमसे ठीक से बात भी नहीं कर पाया हूँ माँ । दिन में इधर-उधर ही गुजर जाता है,रात
में न पढ़ाई करुं तो काम ही न चले। रहो एक-दो दिन,फिर चली जाना।’ –मिथुन ने प्यार
भरे शब्दों में आग्रह किया।
‘ सही में अभी बातें तो कुछ हो ही नहीं पायी
हैं। सुबह जाना भी जरुरी ही लग रहा है। अतः चाहती हूँ कि अभी ही कुछ बातें हो
जाय,क्यों कि अभी तक मैं तुमसे अपने आने का मकसद भी तो बता नहीं पायी हूँ।’ – नीता
ने सिलसिला शुरु करने की भूमिका बनायी,और उठ कर विस्तर पर बैठ गयी।
‘ आने का
मकसद? मैं समझा नहीं।’ – मिथुन आश्चर्य व्यक्त किया।
‘ हां वेटे
! कई तरह की बातें दिमाग में चक्कर काटती रहती हैं। इधर कुछ ज्यादा ही
चिंतित रहने लगी हूँ,कारण जान ही रहे हो कि तुम्हारे पिताजी प्रायः बीमार रह रहे
हैं। डॉक्टरों की राय भी अजीबोगरीब मिलती है। कोई स्पष्ट कारण पता नहीं चलता। पता
नहीं इन्हें क्या हो गया है। स्वास्थ्य बहुत तेजी से गिर रहा है।’
‘ पिताजी की बीमारी कोई ऐसी चिंता वाली बात तो
मुझे नहीं लगती। कई बार मैंने उन्हें कहा, पत्र लिख कर आग्रह किया कि यही आकर कुछ
दिन रहें। यहाँ अच्छे-अच्छे डॉक्टर हैं। इलाज बढ़िया हो सकेगा। हमें लगता है कि
किसी बात की गहरी चिंता उन्हें खाये जा रही है,जो खुल कर प्रकट नहीं कर पा रहे
हैं।’ – मिथुन बातचीत में भाग लेने लगा,और अपनी किताबें बन्द कर दी। कुर्सी घुमा
कर माँ की ओर रुख कर बैठ गया।
‘ बात तो
बिलकुल ठीक ही कह रहे हो। बढ़िया से इलाज होना जरुरी है। अभी उम्र ही क्या है।
पचास-पचपन कोई उम्र होती है,पर कहते हैं- कोई फायदा नहीं गोइठा में घी सुखाने से।
बुढ़ापे का भी कोई इलाज़ है। अब मेरी इलाज़ ऊपर वाले के घर में ही होगी।’ – नीता
चिंतित-उदास सा मुंह बना कर बोली,मानों सद्यः वैधव्य से भयभीत हो रही हो - ‘ सच पूछो तो मेरी दवा-दारु से उन्हें सख़्त
नफ़रत है। जब कहो,बस एक ही जवाब- छोड़ो मेरी चिंता,ऊपर वाले के हाथ में...।’
‘ यह तो
अच्छी बात नहीं है माँ। अभी उनपर बहुत सी जिम्मेवारी है। सुदीप अपना काम देख रहा
है। मैं भी एडजस्ट हो ही गया लगभग, किन्तु दीपा ? एक लड़की के
पिता होने के नाते उनकी सबसे बड़ी जिम्मेवारी है। हालाकि जिम्मेवारी हो या न
हो,कौन चाहेगा कि सिर से पिता का साया हटे !’
‘ दीपा की शादी
की अभी क्या हड़बड़ी है,वह तो अभी पढ़ ही रही है। कम से कम बी.ए. तो पूरी कर ले।
वैसे भी उसका विचार एम.ए. करने के बाद ही शादी-विवाह के चक्कर में फंसने का है।
तुम तो जानते ही हो कि आजकल लड़कियों का दिमाग कितना चढ़ा रहता है। कहती है- भैया
की तरह मैं भी प्रोफेसर बनूंगी। चूल्हें-चौकी,घर-गृहस्थी का जंजाल मुझे नहीं
सम्हालना है,और ना ये वनियागिरी ही ।’
‘
पढ़े-लिखे अभी। इसमें कौन रोक रहा है। जमाने के मुताबिक लड़कियों का सिर्फ साक्षर
होना कोई अर्थ नहीं रखता। अच्छी योग्यता और विद्वता का अपना अलग महत्त्व है। कौन
कहें कि किसी चीज की कमी है घर में। जितना वो पढ़ना चाहती है,पढ़े,आगे बढ़े। मेरी
तो यही कामना है। फिर भी समय पर शादी-सम्बन्ध हो जाना भी जरुरी लगता है। ये
पश्चिमी दुनिया वाली बीमारी नहीं कि पैंतीस-चालीस साल के बाद नींद खुले कि व्याह-शादी
करनी है। ’ – मिथुन ने अपनी राय दी।
‘ मगर मेरा
विचार है कि यह सब काम क्रम से ही हो तो ज्यादा अच्छा है।’
‘ क्रम से? ’ – मिथुन आँखें सिकोड़कर,माँ की ओर देखा।
‘ हाँ
वेटे,क्रम से ही। तुम सबसे बड़े हो। पहले तुम्हारी शादी होनी चाहिए,फिर सुदीप की और
तब दीपा की।’ – नीता ने बात स्पष्ट की।
‘ मगर मैं
तो अभी साल-दो साल बाद ही शादी करना चाहूंगा,जब तक कि मेरा पी.एच.डी.कम्प्लीट नहीं
हो जाता। ’ – मिथुन ने पता ही काट दिया।
‘ एम.ए. कर
चुके। नौकरी भी अच्छी-खासी मिल गयी। फिर अपना हाथ जलाने का क्या तुक?’
‘ कौन कहें
कि आजकल की बीबियां आकर खाना ही बना देती हैं,उन्हें तो खुद ही रसोईया चाहिए,दाई
चाहिए...पता नहीं क्या-क्या फरमाइशें होती हैं। वह तो पहले वाला जमाना था जो पत्नी
के लिए पति परमेश्वर हुआ करता था। पति ही सेवा और बच्चा जनने और पालने की मशीन- तक
ही स्त्री-धर्म था। घर की चौखट लांघना अपराध ही नहीं अधर्म समझा जाता...।’ – मिथुन
अभी आगे कुछ और कह ही रहा था कि नीता बीच में बोल उठी— ‘ इतिहास के प्रोफेसर हो तो
पत्नी भी ऐतिहासिक ही चाहिए न!’
माँ की बात
पर मिथुन हँसते हुए बोला— ‘ ऐतिहासिक हो या भौगोलिक,या कि विज्ञानी। पहली बात तो
ये है कि पत्नी पत्नी होनी चाहिए। पतनी नहीं। कुशल गृहणी हो,और सबसे बड़ी बात ये
कि घर-परिवार के मनोभावों को समझने वाली हो। पारिवारिक जीवन और रिस्ते-नाते का कदर
करने वाली हो। हमारा हिन्दू धर्म कोई तीन तलाक वाला खिलौना थोडे जो है। सप्तपदी के
बचनों का सही मूल्याकन हो। ऐसा नहीं कि पति-पत्नी ही हमेशा छत्तीश के तीन-छः बने
रहें। युगानुसार स्त्री स्वातन्त्र्य बहुत ही जरुरी है,किन्तु स्त्री–धर्म को
बिलकुल तिलांजलि नहीं दिया जाना चाहिए। और इसका सबसे कारण है पश्चिमी
सोच-विचार,रहन-सहन। लड़कियां बिलकुल पक-पका कर मैके से आती हैं,और पके घड़े पर
किसी तरह का नया निशान डालना उनका अंगछेद कर जाता है। वो जरा भी समझौता और परिवर्तन
बरदाश्त नहीं कर पाती। हालाकि पुरुष मानसिकता भी कोई कम घटिया नहीं है,वो तो और भी
अहंकार का साक्षात पुतला है। अपनी हेठी में अकड़ा पुरुष,कहां झुकना चाहता है जरा
भी,भले ही टूट जाये,बिखर जाय,बरबाद हो जाय। जिसका नतीजा सामने है- संयुक्त
परिवार-व्यवस्था बिलकुल नष्ट हो चुकी है। और एकल परिवार भी विखंडित होता जा रहा
है। शादी की वर्षगांठ आने से पहले ही तलाक की अर्ज़ी पड़ जा रही है...।’ – मिथुन
का प्रवचन अभी और चलता,किन्तु नीता ने फिर टोका।
‘ बात
बिलकुल सही कह रहे हो मिथुन वेटे। यही सब सोच कर मैंने कुछ रास्ता निकाला है।
जानती हूँ,देखती हूँ आजकल की लड़कियों की स्थिति,और टूटते-विखरते परिवार। जो लड़की
पति की ही ठीक से देखभाल नहीं कर सकती,वो सास-ससुर की क्या करेगी।’ – नीता ने कहा।
‘ तो फिर
क्या रास्ता सूझा है तुम्हें मां? ’
‘
आरजू-मिन्नत करके स्मिता बनर्जी अपने फैक्ट्री में आ गयी है। पहले भी उसके पापा
चर्चा किये थे। बेचारी बड़ी सुशील लड़की है। आजकल की लड़कियों वाले सारे गुण,और आधुनिकता
का दोष जरा भी नहीं। एक दम पुराने खयालों
वाली है। सच पूछो तो ऐसी लड़की मिलना एकदम दुर्लभ सा है आजकल। एकदम लक्ष्मी है
लक्ष्मी। सरस्वती भी उसपर मेहरवान हैं। ’ – नीता ने स्मिता के गुणों का पिटारा
खोलते हुए कहा- ‘ बेचारी बराबर मुझसे मिलने आया करती है। इतने बड़े घर की बेटी
है,पढ़ी-लिखी है,फिर भी घमंड नाम की चीज जरा भी नहीं छू पाया है इसे। आते के साथ
ही लगती है अपने हाथ से घर में झाड़ू लगाने,तो कभी मेरा पैर दबाने। उस दिन जरा सी
सिरदर्द की बात सुनी सुदीप से तो चट चली आयी,और खूब सेवा की मेरी।’
‘ होती हैं
मां,कौन कहें कि दुनिया खाली है लक्ष्मियों से ।’ – मिथुन ने सिर हिलाते हुए कहा।
‘ मैं तो
अपना भाग्य सराहती- स्मिता यदि मेरे घर की बहु बन जाती। पहले बनर्जी साहब कहते थे
तो मैं हँसी में टाल जाती थी। किन्त इधर
देखती हूँ वो भी बहुत बीमार रह रहे हैं। हाल ही में दिल का दौरा पड़ा था। सुनते
हैं ये दूसरा दौरा है। ऐसे मरीजों का क्या भरोसा- कब क्या हो जाय। इधर तुम्हारे
पिताजी की स्थिति भी नाज़ुक ही चल रही है। बनर्जी बाबू की एकमात्र सन्तान है
स्मिता। चाहते हैं,जल्दी से किसी योग्य का हाथ धरा कर चैन से गंगालाभ करें। कितनी
बार आग्रह कर चुके बेचारे मुझसे। परसों ही आये थे। मेरे पैरों पर गिर कर
रोने-गिड़गिड़ाने लगे। दया आ गयी मुझे भी। पैर छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
लाचार होकर उन्हें वचन देदी मैं।’
‘ वचन दे
दी?’ – मिथुन चौंका।
‘ हां वेटे! तुम्हारे साथ स्मिता की शादी करने का वचन मैं दे चुकी हूँ। अब आयी हूँ
बेटे के पास आँचल पसारने कि वह मेरे वचन का मान रखे। वचन-निर्वाह की भिक्षा मांगने
आयी हूँ मिथुन वेटे,वचन निर्वाह की। मुझे पूरा भरोसा है कि तुम इसे ठुकराओगे नहीं।
’ – कहती हुयी नीता बड़े नाटकीय ढंग से आँखों में आँसू भरकर,आँचल फैलाये विस्तर से
उतर कर मिथुन के पास आ खड़ी हुयी।
मिथुन आवाक
रह गया माँ को देख कर । उसे स्वप्न जैसा सबकुछ लग रहा था। लगता था सौतिया डांह से
जलने वाली नीता मर चुकी है,और किसी दिव्य मातृमूर्ति ने उसका स्थान ले लिया है।
उसके शरीर में कोई पुण्यात्मा आ बसी है।
मिथुन सोच
न पा रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या कहें,कैसे समझाये अपनी माँ को। फिर भी प्रयास
करने लगा— ‘ मगर यह अच्छा नहीं हुआ माँ। मुझसे पूछे वगैर तुमने बनर्जी साहब को वचन
दे दिया। ’
‘ क्या
करती वेटा! उन्होंने गी मजबूर कर दिया,सोच विचार कर तुमसे राय लेने का समय भी न
दिया। और सबसे बड़ी है कि वचन मैं जल्दवाजी में भले दे दी हूँ, किन्तु एक अच्छे
काम के लिए और सही पात्र के लिए दी हूँ। अतः इसमें कोई मीन-मेष न निकालो। इसी
महीने शादी हो जाती तो बड़ा अच्छा होता। ’ – नीता अपने स्वार्थ का तीर बल पूर्वक
मिथुन पर चला दी।
‘ क्या
कहती हो माँ, इस तरह जल्दवाजी में कहीं शादी-व्याह का निर्णय लिया जाता है? छोटे से छोटे सौदे के लिए आदमी सोच-विचार करता है,मोल-जोल करता है,अपनी
बुद्धि की कसौटी पर परखता है,और यह तो जीवन भर का सौदा है,और तूने इतनी जल्दीवाजी
में फैसला कर लिया? ’
‘ सौदा
बिलकुल खरे सोने का है एकदम चौबीस कैरेट। जरा भी खाद-गाद नहीं,कोई बट्टा नहीं।
एकदम ट्रंच। तुम्हारे साथ यदि स्मिता का सम्बन्ध हो जाये फिर सोने में सुगन्ध आ
जाय। तुम भी अपना भाग्य सराहोगे मिथुन वेटे । स्मिता को पाकर तुम्हारा जीवन धन्य
हो जायेगा...। ’ – कहती नीता मिथुन के माथे पर प्यार से हाथ फेरने लगी।
माँ की
ममता का प्यासा मिथुन आज इस शीतल मधुर प्यार की निर्झरणी में आपादमस्तक डूब जाना
चाहता था। पिछली सारी बातें उसके दिमाग से निकल चुकी थी। यहाँ तक कि शाम में पाये
उस लिफाफे की बातें भी। मां के प्रति सम्मान और स्नेह का दरिया उमड़ आया था। दोनों
आँखों से प्यार का सोता फूट चला और झट उठ कर खड़ा हो गया।
‘ अकिंचन
के सामने आँचल पसार कर लज्जित न करो माँ। मैं पूरी तरह तुम्हारी बातों पर अमल
करुंगा। तुमने वचन जब दे ही दिया है,तो उसका पालन भी मेरे द्वारा होना आवश्यक हो
गया है। किन्तु एक आग्रह है,एक विनती है हमारी। आशा है दयामयी माँ मेरी बात पर
अवश्य ध्यान देगी।’ – कहता हुआ मिथुन नीता के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया,मानों
साक्षात देवी-प्रतिमा के समक्ष उपस्थित हो।
क्रमशः...
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