अधूरामिलन भाग 6

गतांश से आगे...
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नीता के आँखों में भी प्रेम के आंसू छलक आए। आशा की रश्मि फूट पड़ी। प्यार से बांध ली सामने खड़े मिथुन को अपनी बाहों में,और चूम ली उसके माथे को। पल भर के लिए शायद वही सबकुछ भूल गयी। और पूछ बैठी- ‘ कहो क्या कहना चाहते हो?’- मुस्कुरा कर नीता ने पूछा,और कंधा पकड़ कर मिथुन को कुर्सी पर बिठा दी,खुद विस्तर पर आ बैठी।
पूर्ववत हाथ जोड़े हुए मिथुन ने कहा- ‘ माँ वचन निर्वाह की भीख मांग रही है, और वेटा मात्र थोड़े समय की। वस यही चाहता हूँ कि कुछ दिनों के लिए यह कार्यक्रम आगे बढ़ा दो।’
‘ सो क्यों?’ – नीता को अचानक धक्का सा लगा,मानों प्याला होठों से लगते-लगते छलक गया कहीं बाहर ही,और सारा मधुरस चू कर बिखर गया नीचे। किन्तु थोड़ा हिम्मत बांध कर बोली- ‘ आँखिर कितना समय चाहते हो?
‘ बस कुछ माह,ज्यादा नहीं। ’ – मिथुन ने कहा- ‘ वैसे तो अपने विचार से समय-सीमा कुछ वर्षों की है,किन्तु जब प्यारी माँ के आग्रह और वचन का सवाल हो तो वर्ष को महीनों में समेट देना उचित है।’
‘ मगर इस कुछ महीने की समय-सीमा भी मेरे और वनर्जी साहब के लिए युगों के समान है,बिलकुल असहनीय जैसी। मैं तुम्हें उनकी हालत बता ही चुकी हूँ। क्या पता बेचारे की आँखें कब मुंद जायें,और कन्यादान के सौभाग्य से वंचित,तड़पती,अतृप्त आत्मा को शरीर छोड़ने को विवश होना पड़े। विधि के विधान को कोई नहीं जानता। इसी बात का डर है। इसी बात की अधीरता है। ’ – नीता बच्चों सी अधीर होकर बोली।
‘ सही में इधर मेरे पास समय बिलकुल नहीं है माँ,अन्यथा तुम्हारी बात टालता नहीं मैं ।’ – मिथुन ने गिड़गिड़ाते हुए अपनी असमर्थता व्यक्त की।
‘ तुम्हारा समय कितना लगना है,बरबाद होना है? सारी तैयारी तो मुझे करनी है। तुम क्या दो-चार दिनों का भी समय नहीं निकाल सकते अपनी माँ के लिए?’ – नीता ने मुस्कान का पासा फिर एक बार फेंका, मिथुन को मात करने के लिए। उसे विश्वास हो आया कि बात जब यहां तक आ बनी है, फिर जरा सी जोर लगाने पर बिलकुल बन ही जायेगी।
‘ दरअसल तुम्हें एक और खुशखबरी देना मैं भूल ही गया था माँ। बात ये है कि मैं विश्वविद्यालय की ओर से विदेश-यात्रा पर निकल रहा हूँ। आशा है इसी महीने के अन्दर कभी भी सूचना आ सकती है। ऐसी स्थिति में शादी का प्रोग्राम रखना कैसे सम्भव हो सकता है?
‘ कितने दिनों में लौटोगे उधर से? ’ – आतुरता में नीता ने पूछा।
‘ यही कोई तीन-चार महीनों का कार्यक्रम है। वैसे हो सकता है अधिक भी लग जाये।’ – मिथुन ने अपरा प्रग्राम बताया।
‘ प्रोग्राम को थोड़ा आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है क्या?’ – नीता की अगली जिज्ञासा हुयी।
‘ उम्मीद जरा भी नहीं है।’ – मिथुन नकारात्मक सिर हिलाते हुए बोला।
‘ कहो तो मैं तुम्हारे कुलपति महोदय से बात करुं।’ – नीता ने आग्रह पूर्वक कहा-  ‘ तुम भी उन्हें अपने स्तर से स्थिति समझा दो। किसी तरह बात बन जाय तो एक बहुत बड़ा कल्याण का काम हो जाय। बेचारे बनर्जी साहब को देखती हूँ तो बड़ी दया आती है। कैसा सुन्दर शरीर था,और कैसा हो गया चन्द दिनों में ही।’
‘ मैं तो बहुत दिनों से उन्हें देखा भी नहीं हूँ माँ। खैर,विचार किया जायेगा। कल इस सम्बन्ध में गुरुदेव से भी राय ले लूंगा।’ – मिथुन ने कहा।
इतने के बावजूद नीता को पूरी तसल्ली न हुयी। इस कारण तरह-तरह की बातें बना कर मिथुन का दिल जीतने का प्रयास करती रही। बातों का मुख्य विषय स्मिता का बखान ही रहा। बीच-बीच में इधर-उधर की बातें भी होती रही।
नारी भी विचित्र हुआ करती है। सच में कहा गया है कि स्त्री के चरित्र का अन्दाजा लगाना उसके बनाने वाले को भी नहीं लग सकता- त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं दैवो न जानापि कुतो मनुष्यः । बेचारा पुरुष किस खेत की मूली है,वह भी मिथुन जैसा भोला-भाला...।
मन की वास्तविक भावनाओं को छिपा कर चेहरे पर हँसी और रुलाई का नाटकीय भाव प्रकट करने में नारी जितनी निपुण होती है,पुरुष उसकी क्या बराबरी कर सकता है कभी! नारी के हँसी ने,उसके आँसू ने,कटाक्ष ने पुरुष को हरबार कठपुतला सा नचाया है,और मदारी के हाथ में हिलती रस्सी के साथ बन्दर की तरह पुरुष समुदाय नाचा किया है आजतक,और नाचता भी रहेगा शायद।
नीता को कुछ चैन की नींद आयी,और मिथुन सारी रात बेचैनी में करवटें बदलता रहा।
दूसरे दिन विश्वविद्यालय पहुँचने पर एक नया गुर खिला। चपरासी ने आकर कहा कि सर आपका एक ट्रंककॉल आया है।
‘ कहां का?’ –मिथुन चौंक कर पूछा,और कुलपति के दफ़्तर की ओर चल पड़ा।
ट्रंककॉल लखनऊ से किसी महिला ने किया था। पूछने पर अपना परिचय देना उसे मंजूर न हुआ। उसने सिर्फ अपनी बात ध्यान से सुनने का आग्रह किया- ‘ ...लोग जानते हैं कि नीता जी लखनऊ गयी हुयी हैं,मगर मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि वे कलकत्ता में है, और आपसे मिलने गयी हैं।’
‘ हां,सो तो ठीक है,मगर...।’ – मिथुन ने हामी भरी।
‘ मगर-वगर कुछ नहीं। कहिए तो ये भी बतला दूँ कि वे गयी हैं आपके पास स्मिता बनर्जी से शादी का प्रस्ताव लेकर। कहिये आपने रिश्ता मंजूर किया या नहीं?’ – महिला की सूचना और प्रश्न मिथुन के लिए अप्रत्याशित था।
‘ मगर आप को इसमें रुचि का कारण क्या मैं जान सकता हूँ?’ – मिथुन ने पूछा।
‘ रुचि वस इसी कारण है कि चट मंगनी पट शादी के वजाय,चट शादी पट बच्चा कहना अब ज्यादा अच्छा लगेगा।’
‘ क्या मतलब ?
‘ मतलब यह कि स्मिताजी गर्भवती हैं।’
‘ गर्भवती है?’ – मिथुन मानों आसमान से सीधे खाई में जा गिरा।
‘ जी हाँ। गर्भवती है और मजेदार बात ये है कि होने वाले बच्चे का बाप कौन है निश्चित तौर पर कहा नहीं जा सकता।’
‘ आंखिर किसी से प्रेम-व्रेम होगा...।’
‘ जी,सो तो कइयों से है। कॉलगर्ल के बच्चे का बाप किसे साबित कीजियेगा जनाब?
‘ ये बात माँ जानती है?
‘ बिलकुल जानती है।’
‘ फिर जानबूझ कर...।’
‘ हाँ,बिलकुल जानबूझ कर।योजनाबद्ध । चूंकि स्मिता को उसके होनेवाले बच्चे का बाप चाहिए,और इसके लिए आपसे बढ़िया बेवकूफ और कहां मिल सकता है दुनिया में।’
‘ किन्तु इसमें मां की रुचि का कारण?
‘ कारण बहुत बड़ा है। रहस्यमय फिल्मी कहानी का अन्त तो फिल्म देखने के बाद ही जानना अच्छा होता है न। समय पर आप स्वयं जान जायेंगे।’
‘ कुछ तो कहिए,क्या...।’ – मिथुन कुछ कहना ही चाह रहा था कि उधर से फोन काट दिया गया। पल भर के लिए मिथुन का सिर चकरा गया। सम्भल कर बैठ न जाता वहीं कुर्सी पर,तो फर्शपर चारों खाने चित्त हो जाता। माँ का नाटकीय व्यवहार,कल शाम का अजीबोगरीब पत्र,अतीत के दृश्य,तेजी से चक्कर काट गये उसके दिमाग में। उधर पास बैठे कुलपति महोदय का ध्यान फोन पर ही टिका था। उन्हें यह समझते देर न लगी कि बात कुछ गम्भीर है। मिथुन के चेहरे से उसकी परेशानी साफ झलक रही थी।
‘ क्या बात है किसका फोन था?’ – कुलपति महोदय ने स्नेह से पूछा- ‘ लगता है तुम बहुत घबरा गये हो।’ – और टेबल पर रखी घंटी दबा दिए,जिसे सुनते ही बाहर बैठा प्यून पर्दा उठा भीतर आया। उसे पानी लाने का आदेश देकर,मिथुन के चेहरे पर गौर करने लगे,जहां अनेकानेक भाव-चित्र बन-बिगड़ रहे थे,बहुत तेजी से।
‘ जी सर। बात ही कुछ ऐसी थी।’ – मिथुन हकलाते हुए बोला- ‘ फोन करने वाली महिला अपना परिचय नहीं दी। सिर्फ पहेलियां बुझाती रही।’
‘ क्या कहा उसने,जो तुम इतने चिन्तित हो गये...क्या कुछ गड़बड़ मामला है...?
चपरासी तब तक पानी लाकर मेज पर रख गया। पानी पीने के बाद, किंचित शान्त होकर, मिथुन कहने लगा। कुलपति महोदय के साथ मिथुन का बिलकुल पारिवारिक सम्बन्ध जैसा व्यवहार था। बच्चे की तरह वे मानते थे इसे। वह भी प्राचीन गुरुओं की तरह पूरा सम्मान देता था। इनसे किसी तरह की बात छिपाना अपराध समझता था। अतः पूरी बात खुल कर बता दी मिथुन ने- माँ का अचानक आना,अभी फोन की बातें,और सबके बाद जेब से निकाल कर वह लिफाफा भी उनके हाथ में दे दिया,जो कल शाम में मिला था।
गुरुदेव ने पत्र पढ़ा। मिथुन की बातें भी ध्यान से सुनी। वे भी चक्कर में पड़ गये। कुछ देर तक मौन, विचार वीथियों में भटकते रहे। हथेली पर गाल टिकाये सोचते रहे। फिर बोले- ‘ तुम्हें इस मामले में पूरी होशियारी से काम लेना चाहिए। सौतेली माँ ने बहुत बड़ा षड़यन्त्र रच रखा है तुम्हारे विरुद्ध।’
‘ जी सर। मुझे भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगने लगा है। ’ –चिन्तित मिथुन ने कहा। उसकी निगाहें अभी भी बार-बार टेबल पर रखे काले संयंत्र पर चली जा रही थी,मानों उसे देख कर भय लग रहा हो- कहीं घंटी फिर न बच उठे- टेलीट्रंक की।
‘ पत्र पढ़ने से और फोन की बात से यह साफ ज़ाहिर है कि दोनों एक ही व्यक्ति द्वारा दी गयी सूचनायें हैं। भले ही उसने अपना परिचय न दिया हो। हो सकता है,उसके सामने भी कुछ मजबूरी हो। किन्तु इसमें यह सन्देह नहीं कि वह तुम्हारा शुभचिन्तक ही है, धोखेबाज नहीं।’ – सिर हिलाते हुए कुलपति ने कहा।
‘ लग तो मुझे भी ऐसा ही रहा है,किन्तु मेरा कौन ऐसा शुभचिन्तक है,जो मेरे पारिवारिक स्थिति से इतना वाकिफ़ है?’ – कहते हुए मिथुन का ध्यान हर सम्भावित व्यक्तियों पर घूमने लगा,किन्तु कुछ निश्चित न कर सका। थोड़ी देर के लिए अपने बचपन के साथी अनूप पर ध्यान गया,किन्तु वह तो आजकल अमेरिका में है। अभी लौटा भी नहीं होगा,और फिर ये आवाज तो किसी महिला की थी।
‘ खैर इसकी चिन्ता छोड़ो,समय पर हो सकता है खुद-ब-खुद पता चल जाये। ’ – कहा कुलपति ने- ‘ फिलहाल तो तुम्हें इस जाल से बाहर निकलने का उपाय सोचना चाहिए।’
हालाकि वे पूर्ण सहानुभूति और स्नेह पूर्वक मिथुन की भलाई की बात सोच रहे थे, किन्तु उनका ये सोचना बिलकुल निस्वार्थ नहीं था। आखिर वे कब चाहते कि इतना होनहार लड़का किसी और जामाता बने।
‘ जैसा कहिए मैं करने-मानने को तैयार हूँ ।’ – मिथुन ने दयनीयता पूर्वक कहा।
‘ पहली बात तो ये कि तुम माँ को कायदे से समझा दो। यदि किसी भी हाल में न माने तो अन्ततः सारी सच्चाई उगल भी दे सकते हो। हालाकि इससे भविष्य के लिए भारी खतरा हो सकता है।’ – कहते हुए कुलपति ने सामने दीवार पर टंगे कैलेन्डर की ओर देखा, फिर बोले- ‘ और दूसरी बात यह कि मैं आज ही पासपोर्ट कार्यालय से तुम्हारे विषय में जानकारी ले रहा हूँ। जितनी जल्दी हो सके,तुम देश की सीमा से बाहर निकल जाओ। मामला स्वयं में सलट जायेगा कुछ दिनों में,क्यों कि यदि वह लड़की गर्भवती है,तो उसके परिवार वाले ज्यादा दिन इन्तजार करने से रहे...।’
इसी प्रकार की अन्य बातें घंटो होती रही। कुलपति महोदय साहस दिलाने का प्रयास करते रहे,क्यों कि मिथुन भीतर से इतना घबरा गया था कि घर जाकर माँ का सामना करने की साहस भी जुटा न पा रहा था।
काफी देर बाद मिथुन कुलपति महोदय के कार्यालय से बाहर निकलकर,अपने डेरे की ओर प्रस्थान किया।
नीता बाहर लॉन में ही टहल रही थी। मिथुन के पहुँचते ही मुस्कुराती हुयी बोली-  ‘ आज बहुत जल्दी आ गये वेटे!
‘ हाँ मां । ’ – मिथुन ने भी मुस्कुराने का प्रयास किया, किन्तु दिल के जलन से
मुस्कान तो राख बन चुकी थी।
            ‘ बात हुयी कुलपतिजी से? ’ – पुनः पूछा नीता ने,और मिथुन के साथ ही भीतर कमरे में आगयी,क्यों कि वह सीधे अपने कमरे में चला आया था।
            ‘ बात तो हुयी,किन्तु राय मिली तुम्हारे पक्ष में नहीं,बल्कि मेरे पक्ष में।’ – मिथुन ने कुर्सी पर बैठ,जुराब़े उतारते हुए कहा।
 ‘ उस खूसट बुड्ढे का भी दिमाग खराब है! उसकी बेटी नहीं है क्या? ’ – नीता उबल पड़ी अचानक। क्रोध में अचानक स्नेह का मुखौटा सरक कर गिर गया,और असली रुप बाहर आने लगा।
‘ बेटी है। सुन्दर शरीर की तो नहीं,किन्तु सुन्दर चरित्र की जरुर है। और अपने भी वे मजबूत दिल वाले हैं,दिल के मरीज़ नहीं। ’ – न चाहते हुए भी मिथुन के मुंह से कठोर शब्द निकल ही गये।
‘ मतलब? ’ – नीता आँखें तरेर कर पूछी- ‘ तुम्हारे कहने का मतलब है कि सुन्दर लड़कियां चरित्रहीन होती हैं?
‘ मैंने ऐसा कब कहा ।’ – मिथुन ने बात सम्हालनी चाही - ‘ मैंने तो गुरुदेव की लड़की के विषय में कहा कि वह सिर्फ चरित्र की सुन्दर है। ’
किन्तु मिथुन की बात नीता को लग गयी थी। उसे सन्देह हो गया कि किसी ने कान भरा है इसका। फिर स्वयं में ही कांप उठीकहीं कोई गुमनाम पत्र इसके पास भी न आ गया हो...।
जरा कुछ सोच कर नीता ने फिर सवाल किया- ‘ यानी कि तुम बिलकुल तय कर चुके हो कि अभी शादी नहीं करोग?
‘ कुछ ऐसा ही समझो।’ – मिथुन ने क्रोध को होठों में दबाते हुए कहा- ‘ शादी-व्याह के चक्कर में पड़ कर मैं अपना कैरियर नहीं बिगाड़ सकता।’
इस बार नीता आपे से बाहर हो आयी- ‘ बड़े बने हो कैरियर वाले,देख लूंगी क्या बनोगे सो।’
‘ जो बनना था सो बन गया माँ। अब तो सिर्फ इसके नींव को ही और मजबूत करना है।’ – क्रोध घुटक कर मिथुन ने कहा ।
‘ मैं जानती थी,कुत्ते की दुम को तेल मालिश करके सीधा नहीं किया जा सकता...।’ – नीता क्रोध में काफी देर तक पागलों सी बड़बड़ाती रही और अपने बिखरे सामानों को अटैची में सहेजती भी रही। मिथुन चुपचाप कुर्सी पर गूंगे-बहरे सा बैठ रहा। नीता की किसी भी बात पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना उसे स्वयं का अपमान जैसा लगा।
नीता के सामान तो बहुत थोड़े थे,किन्तु दिमाग में कूड़ों का अम्बार भरा था,जिन्हें निकाल कर मिथुन के सामने फेंकने में काफी समय लग गया। मन पूरी भड़ास निकालने बाद अटैची उठाती नीता ने कहा- ‘ ठीक है,जाती हूँ अब।’
‘ मैं कब कहूंगा कि चली जाओ।’ – नीता को बाहर निकलने को तत्पर देख मिथुन ने कहा।
‘ तो क्या करुँ यहां बैठ कर पकौड़े तलूं?’ – दांत पीसती नीता ने कहा- ‘ जिस उद्देश्य से आयी थी यहां,वह हो न सका। सौतेला सौतेला ही रहेगा। सुदीप को इतनी हिम्मत हो सकती है कभी ! जब भीख न मिली,तो दान की क्या आश लगाऊँ।’ – कहती नीता चौखट लांघ चुकी थी। मिथुन भी लपक कर पीछे हो लिया।
  ‘ कम से कम आशीष तो लेने दो माँ।’ – हाथ बढ़ा कर नीता के पांव छूने का प्रयास किया।
किन्तु दांत पीसती,पांव झटकती नीता आगे बढ़ गयी यह कहते हुए- ‘ खबरदार ! मुझे माँ कर चिढ़ाने की बदतमीजी न करो।’ – और सरपट आगे निकल गयी लॉन पार कर, सड़क पर , किसी सवारी की भी प्रतीक्षा किये बिना ।

नीता लौट गयी अपनी दुनिया में,जहां उसका प्याला लाडला सुदीप था। जहां उसका मनस्वी पति देवेश था। जहां उसकी सिरचढ़ी बेटी दीपा थी। जहां सेक्रेटरी से बहु बनने की प्रतीक्षा में स्मिता थी। और भी बहुत कुछ था।
किन्तु दूसरी ओर मिथुन तो निहायत अकेला है। अकेला ही रहा गया। परन्तु क्या सच में अकेला रहेगा!
नहीं। क्यों कि उसके साथ पिता देवेश बाबू का अतिशय स्नेह है। कुलपति महोदय की कृपा है। प्रोफेसर गुहा का आशीर्वाद है। और भी बहुत कुछ है।
और ये सारे- स्नेह,कृपा,आशीष- मिलकर उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रकाश-स्तम्भ बन गए।
मिथुन की गर्दन झुक आयी है- इसका दो वजह है- एक तो कृतज्ञता और नम्रता अपने समुदाय के प्रति और दूसरा कारण है शरीर से भी ज्यादा बोझ लद गया है सके गले में पड़ी फूलों की मालाओं का...।
इन पुष्पहारों के साथ न जाने कितनों का प्रेम,स्नेह,आशीष,तड़प,कशक,आशा, निराशा, न जाने क्या-क्या जुड़ा है- कहा नहीं जा सकता। ये सबके सब आये हैं मिथुन को विदाई देने कलकत्ते के दमदम हवाई अड्डे पर। मिथुन यहाँ से आज बम्बई के लिए रवाना हो रहा है। और फिर वहाँ से जलयान द्वारा न जाने कहाँ-कहाँ का सैर करेगा अपने ऐतिहासिक शोध क्रम में।
ये यात्रा हवाई मार्ग से भी हो सकती थी,किन्तु उसमें वो मजा नहीं,और न मिथुन के असली उद्देश्य की ही पूर्ती हो पाती। मिथुन मानता है कि हवाई-यात्रा तो एक तरह से पलायनवादियों की,जल्दीवाजियों की यात्रा है। ये भी कोई यात्रा हुयी- हवाईजहाज में बैठे और चिड़ियों सी फुर्र...उड़ चले आकाश में।
किन्तु अभी तो मिथुन को भी पलायन ही करना है। जल्दी से जल्दी कलकत्ता से दूर चले जाना है। क्या पता कोई और नयी व्यूह-रचना में कुटिल शकुनि और मतिभ्रष्ट द्रोण जुटे हुए हों। मातृत्व का नया रुप लेकर पूतना कहीं फिर न आ धमके कन्हैया को बलि का बकरा बनाने। यही कारण है कि जल्दी से जल्दी वह कलकत्ता छोड़ देना चाहता है।
पुष्पहारों से दबी-झुकी गर्दन थोड़ी और झुकी,और मिथुन लपक कर कुलपति महोदय का पैर छू लिया,फिर बगल में खड़े गुहा साहब के भी ।
   ‘ यात्रा मंगलमय हो। ’ – एक साथ गुरुदेव और प्रोफेसर गुहा के कंठोद्गार  निकले,और अपनी पीठ पर दो मृदु-स्नेहिल हाथों का स्पर्श पा निहाल हो गया मिथुन।
कुछ सह शिक्षक आगे बढ़कर हाथ मिलाने लगे। दो-चार बचे-खुचे पुष्पहार पुनः गले में आ पड़े। और सबसे बिदा लेकर मिथुन चल पड़ा पोर्ट क्मपाउण्ड के भीतर,जहां उसका विमान खड़ा उड़ने की तैयारी में था।
थोड़ी ही देर बाद वातावरण गूंज उठा विमान की कर्कश ध्वनि से। विशालकाय पक्षी दो-चार कदम अपने पंजो पर उचक-उचक कर,फुदकता है,और फिर डैने पसार ऊपर आकाश में उड़ जाता है,कुछ वैसे ही मिथुन का विमान भी क्षण भर रन-वे पर दौड़ लगाने के बाद नीले आकाश को छूने लगा,और नीचे खड़े लोगों की नजरों से ओझल हो गया।
विमान उड़ता रहा,और उससे भी कहीं तेजी से उड़ता रहा मिथुन का मन। वैसे भी मन की गति तो अपार है। कोई विमान क्या उसका प्रतियोगी होगा। मिथुन को एक ओर तो इस बात की खुशी हो रही थी कि चिर प्रतीक्षित उसका सपना पूरे होने जा रहा था,और दूसरी ओर थोड़ा दुःख भी हो रहा है – कम से कम पिताजी मिल लेना चाहिए था। इसी बहाने दीपा से भी भेट हो जाती।
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सूर्योदय हुआ वंगाल की खाड़ी में,और सूर्यास्त होने जा रहा है अरबसागर में। अगला सूर्योदय अपने मुल्क की सरहद से काफी दूर किन्हीं और जगहों में होगी।
कलकत्ता से चलने के बाद उसी शाम मिथुन बम्बई भी छोड़ रहा है। बम्बई ही क्यों अपना देश ही छोड़े जा रहा है।
यू.के.सी.सर्विसेज का विशालकाय जहाज सागर की छाती को चीरता धीरे-धीरे बम्बई का समुद्री तट छोड़ रहा है। उसके कल-पुर्जों के घरघराहट के साथ ही समुद्रीतट गन्दला होता जा रहा है। जहाज डगमग कर रहा है,मानों उसे जूड़ीताप हो आया हो या फिर उसने शराब पी रखी हो। सच में जब तट गन्दला हो जाता है,तब मंझधार ही एकमात्र सहारा होता है। मिथुन का निर्मल जीवन क्षण भर के आलोड़न से काफी गन्दला हो चला था। अब उस आलोड़ित जीवन से पलायन कर वह  भागा जा रहा है विदेश। अपनी मातृभूमि को छोड़कर, किसी और की भूमि में। इस उम्मीद में कि वहां जाकर कुछ खुशियाँ कुछ शान्ति चैन शायद बटोर सके।
बन्दरगाह  पर खड़े युवक-युवती,बच्चे-बूढ़े सभी कोई हाथ हिलाकर कोई हरे-लाल-पीले-नीले विभिन्न रंगों के रुमाल हिलाकर अपने-अपने आत्मीयों को विदा दे रहे है। कोई रुमाल को हवा में हिलाने के वजाय अपनी आँखों से बहते अश्रुधार को ही पोंछने में लगे हैं। कुछ ऐसे भी हैं,जिन्हें यह औरतानीपन अच्छा नहीं लग रहा है। किन्तु अपने दिल में उमड़ते स्नेह को समेट पाने में असमर्थ हो रहे हैं,फलतः जाते जहाज की ओर देखना भी उन्हें कष्टकर लग रहा है। इस कारण उसे ओर पीठ किए शून्य में निहारे जा रहे हैं।
तट काफी पीछे छूट चुका है। एक ओर ऊँची-ऊँची बम्बइया अट्टालिकायें अब घरौंदों सी नजर आ रही है,तो दूसरी ओर सागर की नीलिमा अंगड़ाई ले रही है। ऊपर नीला स्वच्छ आकाश छतरी की तरह फैला है। लगता है दुनिया में यदि कोई रंग है तो सिर्फ नीला ही नीला। जहां तक आँखें देख सकती हैं,बस नीला ही नीला। सब कुछ तो है ,किन्तु विचारे मिथुन को विदाई देकर आँसू पोंछने,रुमाल हिलाने या फिर मुंह फेर लेने वाला भी यहाँ कोई नहीं। पलभर के लिए लगा कि फफक कर रो पड़ेगा। माँ तो वचपन में ही छूट तुकी थी,आज मातृत्त्व भी का दूसरा आधार—मातृभूमि भी छूट गयी।
ऐसे समय में ढाढ़स बंधाने वाला भी कोई नहीं। अपनी मातृभूमि का सूरज, जिसे आज  कलकत्ते में देखा था,वह भी बेचारा अपनी अन्तिम लाल किरणों को समेट कर समुद्र में जल समाधि ले चुका । उसके ठीक पीठ पर चमकता शुक्रतारा अपनी रौशनी से मिथुन की आँखों को तृप्त करने का प्रयास कर रहा है। मगर उसमें दम ही कितना है सान्त्वना देने का !
पता नहीं क्यों आज वह अपने को अकेला महसूस कर रहा है। उसीके तरह ही जहाज के अन्दर बहुत से लोग अकेले होंगे। बहुतों को विदा करने कोई नहीं होगा। क्या वे सबके सब इसके समान ही गुमसुम-उदास होंगे?
दिन का नामोंनिशान भी मिट चुका है। चारों ओर रजनी की चादर फैल चुकी है। आसपास तारों से भर आया है। लगता है रजनी की साड़ी पर गोटे का काम किया गया है। चांद अभी नजर नहीं आ रहा है। सागर की छाती पर दूर-दूर तक सिर्फ अन्धकार ही अन्धकार फैला है। जहाज के भीतर की बत्तियों से आने वाली रौशनी कुछ दूर तक अन्धकार के सम्राज्य में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के विरोधियों(विपक्षियों)की तरह अपना अस्तित्व साबित करने में बेचैन है। मगर उसकी हल्की रौशनी सागर की नीलिमा में उलझ-उलझ कर रहा जा रही है।
केबिनों के बगल में बने डेक पर सजी कुर्सियों में एक पर मिथुन अकेला बैठा है। दूर-दूर तक कुर्सियां खाली पड़ी हैं। अधिकांश लोग बिलकुल ऊपरी छत पर जाकर खुली हवा का आनन्द लूट रहे हैं,या फिर भीतर उससे भी ज्यादा आनन्ददायक जगह है—जहाजी-वार । ज्यादातर लोग इस समय वहीं हैं। वोतलों और गॉबलेटों की खनखनाहट के साथ पश्चिमी धुन भी आकर मिथुन को पल भर के लिए हिला-डुला देता है,किन्तु फिर वह अपने आप में घुटता महसूस करने लगता है।
डेक पर भी हवा अच्छी आ रही है। काम चलाउ रौशनी भी मौजूद है।
एकाएक उसका ध्यान भंग हुआ। लगा मानों कान के पास ही जलतरंग बज उठा हो। निगाहें ऊपर उठाया तो सामने एक लड़की खड़ी नजर आयी । गोरी-गोरी , पतली सुडौल हथेलियों को जोड़कर विनम्र सलज्ज और सुशील भाव से विशुद्ध भारतीय अन्दाज़ में उसने नमस्ते कहा था,जिसका जवाब देने के वज़ाय मिथुन निगाहें ऊपर उठाकर घूरने लगा था। वह देख रहा था- नीले रंग की बंगलौरी साड़ी में लिपटी संगमरमर की एक जानदार मूर्ति खड़ी है। पैरों में कोल्हापुरी चप्पलें हैं। हाथों में शंख की एक-एक चूड़ियाँ । हॉर्सटेल हेयर चौड़े ग्रीप से दबा है ,जो पछुआ वयार में उड़ कर रजनीगंधा-स्प्रे की खुशबू बिखेर रहा है। तेज गंध मिथुन के नथुनों में जबरन घुसने लगा तो लगा कि मदहोश हो जायेगा। नीली-नीली गहरी आँखों में तिब्बत का जादू था,जो बरबरता पूर्वक खींचता जा रहा था मिथुन को अपनी ओर। पल भर के लिए वह घबरा सा गया। भीतर ही भीतर भुनभुनाया—दुनिया में क्या से क्या है...।
‘ आपने मेरे नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया।’ – जलतरंग फिर बजा।
‘ जी !’ – एकाएक मिथुन घबरा सा गया। हकलाहट भरे बोल फूटे - ‘ सॉरी! ’ –और औपचारिकता में दोनों हाथ जुड़ गए। ‘नमस्ते ’ कहा तो उसने अवश्य ,किन्तु आवाज उसके होठों से बाहर निकली नहीं ठीक से।
‘ मेरे यहाँ बैठने से आपको कोई परेशानी तो नहीं होगी?’ – लड़की ने नम्रता पूर्वक पूछा। मिथुन अब भी उसे एकटक घूरे जा रहा था- बिलकुल बुत्त बना। ऐसा लगता था मानों लड़की नामक जन्तु से जीवन में पहली बार साक्षात्कार हुआ हो। या फिर ऐसी लड़की को पहली बार देख रहा हो।
बात कुछ ऐसी ही थी। उसका रुप,उसका पहरावा,उसका हाव-भाव,शालीनता, सब में एक मोहक आकर्षण प्रतीत हुआ मिथुन को। सबसे अधिक आश्चर्य उसे लगा उसके इस विशुद्ध भारतीय लिवास पर, और उससे भी अधिक आकर्षण था उसके हिन्दी के विशुद्ध  और सुन्दर उच्चारण में,जितना शायद भारतीय  में भी न हो। पहरावा भले ही भारतीय था,किन्तु इसमें कोई सन्देह न था कि लड़की यूरोपियन थी। यूरोप में कहां की रहने वाली हो सकती है,इसका सही अन्दाजा वह न लगा सका।
‘ ओह ! परेशानी की क्या बात हो सकती है। ’ – इस बार मिथुन की आवाज खुल कर निकली- ‘ बैठिए इत्मिनान से बैठिए।’ – एक ओर इशारा करते हुए कहा।
मिथुन का इशारा पा युवती मधुर स्वर में धन्यवाद कहती हुयी बगल की कुर्सी पर डेक के रेलिंग पकड़े बैठ गयी। उसके कंधे से लटकता खादी का लम्बा झोला कुर्सी से नीचे आकर, फर्श को लगभग चूमने का प्रयास कर रहा था।
‘ मुझे ईरीना कहते हैं। रसन हूँ। लेनिनग्राद में रहती हूँ।’ – बड़ी आत्मीयता से उसने परिचय दिया।
‘ सोवियत देश की?’ – मिथुन को शायद आश्चर्य हुआ,साथ ही अतिशय प्रसन्नता भी,जिसे दबा न सका प्रकट हो ही गयी- ‘ ओह! बड़ी खुशी हुयी आपसे मिल कर। आप उस देश की रहने वाली हैं,जिससे मेरे मातृभूमि का प्रगाढ़ प्रेम और मैत्री है...।’
‘ अनुग्रिहित हुयी।’ – ईरीना चहकी तो ऐसा प्रतीत हुआ मानों फूलों की सुन्दर डाल पर बुलबुल चहकी हो- ‘ मुझे भी भारत और भारतवासियों से बहुत स्नेह है। क्या मैं आपका शुभ नाम जान सकती हूँ ?
 ‘ मुझे लोग मिथुन कहते हैं। पूरा नाम मिथुन दे है।’
‘ मिथुन दे।’ – ईरीना होठों में बुदबुदायी,मानों स्मरण-संचिका में दर्ज करना चाहती हो। फिर प्रकट रुप से बोली- ‘ इसका मतलब कि भारत के उस शस्य श्यामला बंग भूमि  से आप सम्बन्ध रखते हैं जहां के गुरुदेव रविन्द्रनाथ थे।’
‘ जी हां। ’ – मिथुन ने धीरे से सिर हिलाया- ‘ मेरे ही प्रान्त को यह गौरव प्राप्त है।’
‘ ओह! आत्मविभोर हो उठती हूँ जब कभी रविबाबू की गीतांजली पढ़ती हूँ।’ – ईरीना सच में आत्मविभोर हो गयी। मुस्कुराती हुयी बोली- ‘ खासकर गीतांजली पढ़ने के लिए ही मैंने बांगला सीखा।’
‘ अच्छा तो आप बांगला भी जानती हैं।’ – मिथुन को यह जानकर अतिशय प्रसन्नता हुयी। मन ही मन सोंचने लगा- विदेशियों में कितना अनुराग होता है भारतीयता के प्रति। एक पुस्तक पढ़ने के लिए एक भाषा सीख ली, और एक हम हैं कि कूप-मंडूक बने अपने आप में ही मशगूल रहते हैं।
‘ सिर्फ बंगला ही नहीं,मैं तो वाराणसी में चार वर्षों तक रह कर,विधिवत संस्कृत भी पढ़ी हूँ।’ – ईरीना मुस्कुरा कर बोली- ‘ संस्कृत में ही तो भारतीय संस्कृति का गहन रहस्य छिपा है। मैं समझती हूँ- जिसने संस्कृत नहीं सीखा उसने कुछ नहीं सीखा,कुछ नहीं जाना।’
इरीना के मुंह से भारतीयता और भारतीय संस्कृति का रक्षक-बोधक संस्कृत की बड़ाई एक विदेशी से सुन कर हर्ष-गदगद हो उठा।
‘ सच में आपको भारतीयता में काफी अभिरुचि है।’ – मिथुन मुस्कुरा कर ईरीना को देखा,जो भारतीय परिधान में किसी अप्सरा सी मोहक लग रही थी। कुछ देर गौर से निहार कर बोला- ‘ भारतीय पोशाक बड़ी अच्छी लग रही है। आप एक गैर भारतीय होकर भी साड़ी पहनी हैं और हमारे भारतीयों को साड़ी-धोती हथकड़ी-बेड़ी की तरह लगती है। वर्तमान भारत को देखकर मुझे तो लगता है कि हम पश्चिम की ओर खिंचे चले जा रहे हैं,और पश्चिम लपकता चला आ रहा है पूरब की ओर।’
‘ किन्तु आप तो वैसा नहीं लग रहे है।’ – मिथुन को आपादमस्तक निहारती हुयी ईरीना बड़ी शोखपूर्ण अदा से बोली- ‘ ये पायजामा-कुर्ता,ऊपर से जवाहर कोट। वस कसर है तो एक गांधी टोपी की।’ – कहती ईरीना खिलखिला उठी। मिथुन ने भी उसकी खिलखिलाहट में साथ दिया।
कुछ देर तक यूँ ही हँसती-मुस्कुराती रही। मिथुन उसकी हास्य-झंकृति में खो सा गया। अचानक जरा गम्भीर होकर ईरीना ने कहा- ‘ मेरी हँसी का बुरा मत मानियेगा।’
‘ बुरा क्यों मानने लगा ।’ – मिथुन मुस्कुराकर कहा- ‘ मैं तो बराबर इसी पोशाक में रहना पसन्द करता हूँ।’
‘ सच में मुझे भारतीय पहरावा बहुत बढ़िया लगता है। और सबसे मुख्य बात तो ये है कि आपके इस पोशाक ने ही मुझे बाध्य किया आपका परिचय जानने के लिए। किन्तु अभी तक आपने अपना पूरा परिचय तो दिया नहीं।’ – ईरीना ने कहा।
‘ क्यों नाम-धाम तो बतला ही दिया।’ – मिथुन ईरीना की शरबती आँखों में झांकते हुए बोला- ‘ हां,काम बतलाना बाकी रह गया है,उसे अब बताये देता हूँ।’
‘ जी हां। मेरे पूछने का यही मतलब था।’ – ईरीना ने सिर हिलाया।
मिथुन ने जब यह जानकारी दी कि वह कलकत्ता विश्वविद्यालय में एन्सीएन्ट हिस्ट्री का लेक्चरर है, तो ईरीना को इतनी प्रसन्नता हुयी कि वह स्वयं को रोक न सकी और समाने बैठे मिथुन का हाथ पकड़ कर चूम ली प्यार से। मिथुन आवाक रह गया उसके इस हरकत पर। हालाकि ईरीना के लिए ये तो आम बात थी।
चूमने को तो ईरीना उसका हाथ चूम ली,किन्तु तुरत उसे अपनी यह हरकत अनुचित लगी,क्यों कि भारतीय शिष्टाचारों से वह पूरी तरह अवगत थी। बात बात में जान-अनजान का हठात चुम्बन भारतीयों को कतई अच्छा नहीं लगता। जब कि सॉरी और थैंक यू का तकियाकलाम अंग्रेजियत की दुम की तरह चिपक सा गया है आधुनिक भारतीयों में। बाप वेटे को थैंक यू कहने में जरा भी नहीं हिचकता और न वेटा ही बाप को।
मिथुन की मीठी मुस्कान ने क्षण भर में ही ईरीना का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। वह पूछ रहा था- ‘ और आप?
‘ जी,मैं शोध-छात्रा हूँ। भारतीय संस्कृति का पश्चिम पर प्रभाव मेरे शोध का विषय है।’ – ईरीना ने बतलाया,जिसे सुन मिथुन खिलखिला उठा।
‘ यह भी कैसा संयोग है।’ – मिथन ने हाथ हिला कर कहा- ‘ आप भारतीय संस्कृति का पश्चिम पर प्रभाव आंकने भारत आयीं,और मैं पश्चिम में भारतीय संस्कृति की निशानी ढूढ़ने जा रहा हूँ। क्यों कि मेरे शोध का विषय भी कुछ ऐसा ही है। ’
इसके साथ ही दोनों ठहाका लगाकर हँस पड़े। इनकी हँसी की आवाज डेक पर बैठे कई लोगों को चौंका दिया। खासकर सूटेड-बूटेड भारतीयों को तो तीर सा बेध गया,जो पश्चिमी सभ्यता के मुताबिक जोर से यानी कि खुल कर हँसना भी गुनाह समझते हैं।
जहां ये दोनों बैठे थे,ठीक उसके सामने ही वीयरवार की खिड़की पड़ती थी। मिथुन ने रंगीन किन्तु पारदर्शी शीशे के भीतर निगाहें दौड़ायी,जहाँ ज़ाम का दौर जोरों पर था,कुछ जोड़े थिरक भी रहे थे। पहले की तुलना में भीड़ अधिक आ जुटी थी। मिथुन ने गोर किया,वार में भारतीयों की संख्या ही अधिक थी। पल भर के लिए उसका मन भिन्ना उठा- ओफ! क्या होता जा रहा है हमारी सभ्यता को...पश्चिम की नाली में बहते जा रहे हैं, जब कि वो हमारे बैठक की स्वच्छता को आभ्यन्तर अंगीकार करने को ललक रहा है।
‘ क्या देख रहे हैं?’ – मिथुन को वार की ओर देखते हुये पाकर ईरीना बोली - ‘ अन्दर चला जाय क्या?
‘ माफी चाहता हूँ। मुझे उसमें कोई अभिरुचि नहीं है।’ – मिथुन ने कहा,जिसकी नजरें अभी भी उसी ओर फिसल रही थी।
‘ खुशी हुयी जान कर।’ – ईरीना गम्भीरता से बोली- ‘ कम से कम एक युवक तो इस विचार धारा वाला मिला।’
फिर मिथुन का हाथ पकड़ती हुयी उठ खड़ी हुयी- ‘ आइये,फिर कुछ ठंढ़ा या गरम ही लिया जाए।’
ईरीना के कहने पर मिथुन भी उठ खड़ा हुआ। डेक के बांयी ओर पहुँचकर जब कॉफी-कैन्ट की ओर मुड़ना चाहा, तो ईरीना ने उसके हाथ को हल्के से दबा दिया- ‘ उधर जाने की आवश्यकता नहीं है।’
‘ क्यों ? तब किधर ?
 ‘ जहाजी कॉफी कल से तो लेना ही है। आज आपको मैं अपनी ओर से कॉफी पिलाउँगी।’ – कहती ईरीना मिथुन का हाथ खींच दूसरी ओर मुड़ चली,उस गलियारे जैसे भाग में,जहां दोनों ओर छोटी-छोटी केबिनें बनी हुयी थी।
कुछ कदम चलने के बाद, एक केबिन के सामने पहुँचकर, ईरीना ठहर गयी। मिथुन ने नजरें ऊपर उठायी। देखा- केबिन का नम्बर ३१३ है। शटरनुमा गेट सरकाती ईरीना ने पूछा- ‘ और आपका केबिन?
‘ बस इसके तीन केबिन बाद यानी ३१७ न.’ – आगे की ओर इशारा करते हुए मिथुन ने कहा।
दोनों भीतर आए। एक अधेड़ उम्र महिला वहां बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी। इन दोनों के भीतर आते ही पत्रिका एक ओर रख,दीरे से मुस्कुरायी। ईरीना ने रुसी भाषा में कुछ कहा,जिसे मिथुन समझ न सका,किन्तु उस महिला ने दोनों हाथ जोड़ दिए। मिथुन भी दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिनन्दन किया।
 ‘ बैठिये जी।’ – अपने वर्थ पर बैठती हुयी ईरीना ने जानकारी दी- ‘ लेनिनग्राद की ही रहने वाली है। संयोग से हम दोनों को एक ही केबिन मिल गया।’
वर्थ के बगल में दो-तीन कुर्सियां पड़ी हुयी थी। उन्हीं में एक पर मिथुन बैठ गया। ईरीना केबिन की दीवार में बने छोटे-छोटे रैकों पर से पत्थर की दो प्यालियाँ उठायी,फिर मिथुन की ओर देखती हुयी पूछी- ‘ आप क्या लेना पसन्द करेंगे ठंढा या गरम ?
‘ क्या दोनों तरह की कॉफियां रखी हैं?’ – मिथुन मुस्कुराया,और साथ ही ईरीना विहंस उठी। दूसरी महिला फिर पत्रिका के पन्नों में उलझ चुकी थी।
‘ नहीं-नहीं। ऐसी बात नहीं है। गरम तो सिर्फ कॉफी है। ठंढा चाहिए तो लस्सी पिला सकती हूँ।’ – ईरीना ने कहा।
‘ लगता है पूरा रेस्टुरेंट ही साथ लेकर चल दी हैं आप।’ – कहा मिथुन ने ईरीना की ओर देखते हुए,जो रेक पर रखे थर्मसफ्लास्क उठा रही थी। पीछे मुड़ी ईरीना की पीठ बिलकुल साफ और सपाट दीख रही थी। आंचल सरक जाने के कारण बड़े गले वाले ब्लाउज से झांक सी रही थी उसकी मांसल पीठ,जिस पर मन्दिर के कंगूरे सा धरा सुघड़  सुराहीदार गर्दन और भी आकर्षक लग रहा था,भले ही अभी उसका पृष्ठभाग ही क्यों न सामने हो। नीले ब्लाउज से झांकती गोरी चिकनी पीठ ऐसी लग रही थी मानों नीले आसमान में अचानक चांद का पृष्ठ भाग दीख गया हो,जो अब तक अछूता,अनचीन्हा सा रहा है किसी मानव के लिए।
मिथुन की निगाह चिपक सी गयी। गौर से देखा ऊपर से नीचे तक उस रुसी लड़की को,किन्तु आपने आप में ही बुरा लगा—क्यों देखता है,एक लड़की को किस अधिकार से! आज तक तो इस तरह देखने की आदत न थी,आज क्या हो गया तुझे!
            सामने पलट कर,प्यालियों में लस्सी ढालती ईरीना ने बतलाया, ‘ ये आधे दर्जन पत्थर की प्यालियां मैंने वनारस में खरीदी है। मेरे डैडी को बड़ी अच्छी लगती है ये वनारसी प्यालियां। किसी भी चीफ गेस्ट के लिए ही इन प्यालियों का उपयोग करना पसन्द करते हैं वे।’
            ‘ यानी कि मुझे भी आप चीफ गेस्ट ही समझ रही हैं क्या?’ – मुस्कुराते हुए मिथन ने हाथ आगे बढ़ाकर,ईरीना के हाथों से प्याला थाम लिया। इस क्रम क्षण भर के लिए कोमल अंगुलियों का स्पर्श पाकर मिथुन न जाने क्यों रोमांचित हो उठा। उसे अपने आप पर ही आश्चर्य होने लगा – आंखिर क्यों ऐसा हो रहा है !  अभी कुछ देर पहले ईरीना ने जब एकाएक उसका हाथ चूम लिया था, उस समय तो सिर्फ आश्चर्य ही लगा था उसकी हरकत पर,किन्तु यह सोच कर कि पश्चिमी लोगों के लिए यह आम बात है,विशेष ध्यान न दिया। परन्तु बारबार का यह स्पर्श बड़ा ही सुखद लगने लगा था,बिलकुल अनजाना सा सुखद,जिसकी अनुभूति अब से पहले तो कभी न हयी थी ,किसी मौके पर,क्यों कि ऐसा भी तो नहीं कि आज जीवन में पहली बार किसी नारी शरीर का स्पर्श हुआ हो। न जाने कितनी बार,कितनी लड़कियों का स्पर्श हुआ है,विविध स्थितियों में- क्लास में,यात्रा में ट्राम-वस में...परन्तु आज का ये दो स्पर्श उन सभी स्पर्शों से बाकई बिलकुल अलग तरह का लगा।
मिथुन के हाथ में प्याला पकड़ाने के बाद,अपनी मातृभाषा में ही कुछ कहा ईरीना ने,और दूसरा प्याला लिए सामने बैठी पत्रिका के पन्नों में मसगूल महिला की ओर बढ़ा दी। फिर मिथुन की ओर मुखातिब हुयी।
‘ आप मेरे लिए किसी चीफ गेस्ट से कम हैं क्या!
ठंढी-मीठी चुस्की के साथ बातें होने लगी। ईरीना के पूछने पर मिथुन अपनी यात्रा का उद्देश्य स्पष्ट किया,जिसे जान कर ईरीना बहुत प्रसन्न हुयी।
‘ सही में यह यात्रा बड़ी सुखमय होगी।’
‘ सो कैसे?’ – पूछा मिथुन ने।
‘ मैं भी बहुत दिनों से सोच रही थी काहिरा घूमने को। अब मौका अच्छा आया है। वहां तो डैडी अपने ही काम से मुझे फुरसत नहीं देते।’
‘ क्या करते हैं आपके डैडी?
‘ पुरातत्त्व विशेषज्ञ डॉ.क्लॉर्क का नाम तो आपने आवश्य सुना होगा?’ – ईरीना ने पूछा।
‘ सुनना क्या है,मैंने उनकी कई किताबें पढ़ी हैं। ऐन्सीयेंट हिस्ट्री के उन जानमाने विद्वान को कौन नहीं जानता होगा,खास कर जिसे इतिहास में अभिरुचि हो,और मैं तो खास इसका विद्यार्थी ही हूं।’ – मिथुन ने कहा- ‘ मेरा विचार है कि लन्दन पहुँच कर उनसे अवश्य मुलाकात करुंगा,और अपने शोधकार्य में उनसे सहयोग भी लेना चाहूंगा।’
‘ जरुर सहयोग लीजिये। मेरे डैडी बहुत मदद करेंगे आपको। किसी स्टूडेंट को हर सम्भव सहयोग देना वे अपना कर्तव्य समझते हैं।’ – कहा ईरीना ने,तो मिथुन चौंक पड़ा— ‘ डॉ.क्लॉर्क आपके डैडी हैं?’ – आश्चर्य से मिथुन के माथे पर थोड़ा बल पड़ा—  ‘ मगर वे तो व्रितानी हैं!
‘ मैं क्या कसी ब्रिटिश की बेटी नहीं हो सकती?’ – ईरीना हँसती हुयी बोली—    ‘ मम्मी रसन हैं,डैडी बिटिश।’
मिथुन को आश्चर्य भरी प्रसन्नता हुयी— ‘ वाह! क्या कहने हैं- जिन खोजा तिन पाइयां...।’ – अपने कोट के जेब से एक पत्र निकाल कर ईरीना के हाथों में देते हुए बोला— ‘ यदि आप डॉ.क्लॉर्क की बेटी हैं,तब तो ये पत्र भी देखने का अधिकार हो सकता है आपको।’
हाथ बढ़ाकर ईरीना ने मिथुन के हाथ से पत्र ले लिया,जो कलकत्ता यूनिवर्सिटी के वाइसचान्सलर द्वारा डॉ.क्लॉर्क के नाम लिखा गया था।
पत्र पढ़कर ईरीना हर्ष गदगद हो गयी- ‘ कैसा अद्भुत संयोग है- यात्रा के प्रारम्भ में ही आप जैसा होनहार, कुसाग्र बुद्धि, सुन्दर , भाउक सहयात्री मिल गया! ’ – पत्र वापस मिथुन की ओर बढ़ाते हुए ईरीना बोली- ‘ अब कहिये आप मेरे चीफ गेस्ट हुए या नहीं?
अब तो ईरीना और भी खुल गयी मिथुन के सामने। बातें जम कर होने लगी। पूर्ण परिचय पाते ही मिथुन का भी झिझक समाप्त हो गया।
ईरीना अपनी भारत यात्रा का सम्पूर्ण विवरण सुना गयी। उसकी बातों से मिथुन को अपने ज्ञान के बौनेपन का अहसास हुआ, साथ ही ईरीना की बुद्धि कुशलता का।
ईरीना ने अटैची से एलबम निकालकर, उन सारे ऐतिहासिक स्थानों का चित्र दिखलाया जो यात्रा के क्रम में खींचा था उसने। एक बड़े से बैग में बहुत सारी मूर्तियां भी थी। इसी क्रम में लाल कपड़े में बंधी एक मोटी सी हस्तलिखित पुस्तक दिखलाते हुए ईरीना ने कहा- ‘ इसे वनारस के एक पंडा से खरीदी हूँ दो पॉन्ड में।’
मिथुन अपने हाथ में लेकर उलट-पुलट कर उस पुस्तक को देखा। पुस्तक अथर्ववेद की थी,कोई दोसौ साल पुरानी। पुस्तक को देख कर मिथुन को बड़ा अफसोस हुआ,किन्तु इस हार्दिक पीड़ा को भीतर ही भीतर दब कर रह गया।
‘ ऐसी बहुत सी पुस्तकें पंडा के उस बच्चे ने पंसारी की दुकान पर बेंच दी थी मिट्टी के भाव।’ – ईरीना कह रही थी- ‘ उस दिन लस्सी बनाने के लिए चीनी खरीद रही थी। एक पुरानी पुस्तक के जीर्ण पन्नों में लपेटकर देने लगा। मेरी निगाह उस पर पड़ी। मांग कर बाकी के पन्नों को देखने लगी,किन्तु बेकार थे सब। उसने ही उस पंडा के पूत से भेंट कराया। कोई पचास-साठ किताबें मुझे काम की लगी। सबको मैंने सौ पौंड में खरीद लिया। वे सभी लगेजरुम में पड़ी हुयी हैं। दिखलाऊँगी उसे भी।’
ईरीना की बात सुन मिथुन को रोना आ गया। अपनी संस्कृति के धरोहरों की यह दुर्गति- इसीलिए तो भारत डूबता जा रहा है,पश्चिमी उतराते जा रहे हैं।
‘ बुरा न मानों तो कहूँ। ’ – कुछ संकोच पूर्वक ईरीना बोली- ‘ आपके देश में पुस्तकों की कदर नहीं है। वेद,पुराण और भागवत के पन्नों में मूमफली बिकते है। मुझे तो जब मौका लगता है ऐसी पुस्तकें खरीद लेती हूँ। पिछले चार वर्षों में करीब हजारों कितावों का मैंने उद्धार किया पंसारियों और फेरीवालो के हाथ से।’
मिथुन मारे शर्म के फर्श में धंसता हुआ सा महसूस किया खुद को। हालाकि उसकी भी यही आदत है,पुरानी पुस्तकें बटोरना। किन्तु इस तरह वो कितनी पुस्तकों की जान बंचा सकता है। वह सोचने लगा- भारतीय धर्म और दर्शन के गहन अध्ययन के लिए विदेशी बगुलों सी ध्यान मग्न हैं,और हम अपने ज्ञान की गंगा को बैतरणी सी भी वदतर बनाते जा रहे हैं...।
मिथुन और ईरीना की रोचक वार्ता अभी और चलती, किन्तु घंटी घनघना उठी। यह संकेत भोजन के लिए था। नास्ते और भोजन के समय इसी तरह घंटी बजने की परिपाटी है जहाज में ।
घंटी सुनने के साथ ही तेजी से केबिन और डेक खाली होने लगा। सभी साथ चल पड़े थे भोजन-कक्ष की ओर।
ईरीना और मिथुन भी उठे। साथ ही वह महिला भी उठ खड़ी हुयी,जो ईरीना की सहयात्री थी।
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लहरों पर लहराता हुआ जहाज भागता रहा अपनी मंजिल की ओर। जहाज को बम्बई छोड़ने के बाद दूसरी शाम है। अगला पड़ाव करांची पड़ने वाला है।
जहाजी सफ़र की शुरुआत में मिथुन को जो अकेलापन महसूस हुआ था वह अब बिलकुल समाप्त हो गया है। सफ़र के दौरान कोई समान्य सा भी साथी मिल जाता है,तब सफ़र की बोरियत दूर हो जाती है। सो तो मिथुन को ईरीना जैसी खूबसूरत तारिका का साथ मिल गया है। दोनों का रास्ता लगभग मिलता-जुलता है। मंजिल में भी काफी कुछ समानता है।
सारा दिन ईरीना से गपशप करते गुज़र गया। इस बीच ईरीना के विषय में बहुत कुछ जानने का मौका मिला मिथुन को। ईरीना भी काफी कुछ जान पायी मिथुन के बारे में। किन्तु मिथुन बाहरी विषयों- खासकर पढ़ाई-लिखाई से सम्बन्धित  बातें ही करता रहा, जब कि ईरीना अपने पारिवारिक विषयों पर भी खुल कर बातें की।
मिथुन को मालूम चला – ईरीना की मां ज्यादातर लेनीनग्राद में ही रहा करती है। वहीं एक छोटे से स्कूल में अध्यापन कार्य करती है। परिवार अति सीमित है। ईरीना के अलावे मात्र एक भाई है,जो ईरीना से चार-साढ़ेचार वर्ष छोटा है। अभी वह लेनीनग्राद में ही माँ के साथ रहकर पढ़ाई कर रहा है।
ईरीना ज्यादातर अपने डैडी के साथ ही रहती है। डैडी के कामों में हाथ बटाने में उसे बहुत अच्छा लगता है। ईरीना कहती है- डैडी तो दिन-रात किताबों में आँखें गड़ाये रहते हैं। उनके अध्ययन  और खोज का मसाला तो मैं ही जुटाती हूँ। इधर पांच वर्षों से वे लागातार लन्दन में ही रह रहे हैं। बीच-बीच में कुछ दिनों के लिए किसी खण्डहर के दर्शन के लिए निकल पड़ते हैं।
साथ ले जा रहे मूर्तियों के बारे में मिथुन ने पूछा था- ‘ इन ढेर सारी मूर्तियों  का क्या करोगी? ’ जिस पर ईरीना सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी। मिथुन का यह सवाल उसे बिलकुल बचकाना सा लगा था। ‘ ऐसी-ऐसी बहुत सी मूर्तियों का संग्रह है मेरे पास। डैडी ने घर में  एक छोटा सा निजी संग्रहालय ही बना रखा है।’ – ईरीना ने बतलाया था मिथुन को। ईरीना की हर बातों में मिथुन को एक अजीब सा आनन्द मिलने लगा था। जब से उससे परिचय हुआ है- मात्र रात के कुछ घंटे ही अपने छोटे से केबिन में गुज़ार पाया है। दुर्भाग्य वश इसके केबिन में सहयात्री एक नेताजी मिल गये थे,जिनका बदन छिल गया होगा जीवन भर खुरदरे खादी पहनते-पहनते,किन्तु विदेश यात्रा पर लकदक सूट-बूट पहन कर निकले थे। मगर सूट का सलीका नहीं सीख पाये थे। वैसे भी सूट तो बाजार में मिल जाने की चीज है, पर सलीका कहां बिकता है भला ! काफी देर तक चाटते रहे मिथुन को। अन्त में उनसे क्षमा मांग कर सोने का अभिनय करना पड़ा,जो काफी देर तक चलता रहा।
सुबह नहा-धोकर तैयार होते-होते नास्ते का समय हो गया, और घंटी की आवाज खींच ले गयी उधर।
कांच लगे खिड़िकयों से सटी एक मेज के पास ईरीना पहले ही बैठी थी। मिथुन ने ज्यूं ही प्रवेश किया,दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते कहा उसने और पास आने का संकेत दी।
नास्ते के समय मिथुन ने रात की अपनी दुर्दशा सुनायी तो ईरीना हँसते-हँसते लोट-पोट होगयी।
‘ मुझे भी नेताओं से सख्त नफ़रत है।’ – धीरे से फुसफुसायी- ‘ खैर,सन्तोष है कि इनका साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा। ’
‘ सो कैसे?’ – मिथुन चौंक कर पूछा।
‘ उन्हें अदन तक ही जाना है न?
‘ जाना तो अदन तक ही है,किन्तु अदन क्या यहीं है। अभी तो हम करांची भी नहीं पहुँचे हैं।’ – मिथुन ने कहा।
नास्ते के बाद दोनों सैर को निकल गये थे। सात छतों वाले जहाज के चप्पे-चप्पे छान मारे दोनों। नृत्यशाला.थियेटर,स्नानागार,व्यायामशाला,खेल-कूद,क्लब,भोजनालय, पुस्तकालय,कुत्तों के घर,यात्रियों के लिए असंख्य केबिनें- इन सबको घूमते-घूमते मिथुन के मुंह से अचानक निकल पड़ा- ‘ वाप रे ! ये जहाज है या छोटा-मोटा शहर!
ईरीना ने उसे बतलाया- ‘ इससे भी बड़े-बड़े जहाज अब बनने लगे है। लाखों टन वजन उठाकर सागर की छाती पर रौंदते फिरने वाले जजहाजों का नज़ारा सच में देखने लायक है। उनमें काम करते हजारों कर्मचारी,भोजन पकाते सौंकड़ों लोग...। ’
‘ करांची घूमने का विचार है या नहीं?’ – मिथुन बीच में टोका।
‘ मैं तो कई बार घूम चुकी हूँ। आप चाहें तो घूम लें।’
‘ अकेले ही? ’ – एकाएक मिथुन के मुंह से निकल पड़ा।
‘ नहीं-नहीं। मैं भी आपका साथ दूंगी। क्या समझते हैं- अपने चीफगेस्ट को अकेले घूमने को छोड़ दूंगी कहीं किसी की नज़र लग जाय तो?’ – ईरीना बड़ी शोखी से बोली।
बातें करते दोनों तब तक जहाज पर यूंही घूमते रहे जब तक खाने की घंटी न बज गयी। घंटी सुन दोनों बढ़ चले भोजनालय की और।
सुबह नास्ते के समय जहाँ ये दोनों बैठे थे,वहां नेताजी पहले ही विराज गए थे। मिथुन ने इशारे से ईरीना को बतलाया। किन्तु ईरीना कुछ कहती-सुनती, कि इसके पहले ही नेताजी ही नेताजी आवाज लगा चुके थे- ‘ आइये मिस्टर मिथुन।’
औपचारिकता वश,इच्छा के विपरीत,जाना पड़ा उनके बुलावे पर। साथ में ईरीना भी आगे बढ़ी।
‘ नमस्ते नेताजी।’ – बड़े सलीके से हाथ जोड़ कर ईरीना ने उन्हें प्रणाम किया,तो नेताजी के कलेजे पर मानों सांप लोट गया । कनखियों से उसकी ओर देखते हुए,मिथुन से इशारों में ही जानना चाहा,जिसे समझने में ईरीना को जरा भी देर न लगी। मिथुन के कुछ कहने से पहले ही चहक उठी- ‘ मैं इनकी छात्रा हूँ मिस ईरीना।’
और आगे बढ़कर,उनके सामने वाली खाली कुर्सी पर बैठ गयी। बगल की कुर्सी पर मिथुन को भी बैठने का इशारा की।
‘ वाह मिस्टर मिथुन ! यात्रा में भी एक छात्रा मिल गयी? मगर मुझे तो...।’ – नेताजी इससे आगे कह न पाये,क्यों कि वेटर मेनू लिए आ पहुँचा । मेनू चट-पट हाथ में लेकर, नेताजी ने अपने पसन्द का ऑर्डर दिया- मटन,एगकरी,चपाती।
‘ आप क्या लेना पसन्द करेंगे?’ – ईरीना ने पूछा अवश्य, किन्तु जवाब का इन्तज़ार किए वगैर मेनू टिक कर वापस लौटा दी। मिथुन कुछ कह न सका।
थोड़ी देर में उधर से दो थालियों में विशुद्ध भारतीय भोजन आकर मेज पर इनके सामने रखा गया,तो मिथुन मुस्कुरा कर ईरीना की ओर देखने लगा।
‘ क्यों चुनाव मैंने कुछ गलत कर लिया क्या?’- होठों में मुस्कान छिपाने का असफल प्रयास करती ईरीना ने पूछा।
 ‘ मैं भी वे ही सारी चीजें फरमाता जो आप चुन चुकी हैं। ’ – कहा मिथुन ने तो ईरीना हँस पड़ी।
चपाती चबाते नेताजी ने कहा- ‘ आप दोनों का दिल भी मिलता है। आप जो सोचने वाले थे,देवीजी ने पहले ही सोच लिया। किन्तु छात्रा को आप कहना भारतीय शिष्टाचार के विपरीत है न !
‘ मैं देवीजी नहीं,ईरीना हूँ मिस्टर नेताजी।’ – ईरीना ने मसखरापन करते हुए कहा- ‘ हां,ये आपने ठीक कहा,मुझे भी इनकी बात खटक रही थी कल रात से ही,इन्हें मुझको आप नहीं कहना चाहिए।’
‘ मगर मुझे कुछ संदेह लगता है। ’ – कहते हुए नेताजी का कांटा चपाती में उलझ गया था,और उसे इस तरह पटक रहे थे निकालने के लिए ,जिस तरह वंशी में फंसी मछली को निकालने के मछुआरा पटकता है।
‘ किस बात का? ’ – थाली और कांटे के टक्कर की ट्यूनिंग पर आती हँसी को दबाते हुए ईरीना ने पूछा।
‘ आप दोनों लगभग हमउम्र लग रहे हैं। फिर गुरु-शिष्या का सम्बन्ध...।’
‘ ठीक ही कह रहे हैं नेता जी। सच पूछिये तो अभी तक ये निर्णय ही नहीं हो पाया है कि कौन किसका गुरु है। मेरी नज़र में ईरीनाजी ज्यादा काबिव हैं,और ये उल्टे मुझे ही गुरु कहती हैं ।’ – मिथुन ने स्पष्टी दिया।
‘ तो ऐसा कीजिये न कि आप दोनों एक दूसरे के गुरु और एक दूसरे के चेला बन जाइये। ’ – निर्णायक रास्ता सुझाते हुए नेता जी हँसने लगे- ठेंठ भारतीय हँसी,जो किसी निपट देहाती की पहचान होती है। शहर वाले तो हँसी को भी सभ्यता का लिबाश पहनाना नहीं भूलते। उनकी हँसी में ईरीना और मिथुन ने भी थोड़ा साथ दिया। जब कि उनके ठहाके पूरे हॉल में गूंज चुके थे,जिस पर तकरीबन सभी लोगों का ध्यान खिंच आया था। नेताजी को जब अपने अंग्रेजी पोशाक का खयाल आया तो स्वयं में ही शरमा कर सिमटने  लगे। बात बदलते हुए धीरे से बंगला में बोले- ‘ चिड़ियां बड़ी अच्छी है मिथुन जी। उड़ने मत देना।’
नेताजी की टिप्पणी पर मिथुन तो चुप रहा,किन्तु ईरीना मुस्कुरा कर बोली – ‘ यदि चिड़िया आपके घोसले में पर मारने लगे तब?
ईरीना के मुंह से विशुद्ध बंगला सुन कर नेताजी के होश उड़ गए। वो तो सोचे हुए थे कि ये विदेशिनी ज्यादा से ज्यादा हिन्दी सीख पायी होगी। किन्तु उसके मुंह से मधुर बंगीय रागिनी सुन,लगा कि अपनी कुर्सी में ही धंस जायेंग। बेचारे शर्म से पानी-पानी हो गये। किसी तरह जल्दी-जल्दी चपाती चबायें,और चट वास बेसिन की ओर बढ़ गए,बिना कुछ बोले।
ईरीना और मिथुन भोजनालय से निकल कर ऊपर छत पर आ गये,जहां हवा का झोंका काफी तेज था। वक्त दोपहर बाद का है, किन्तु मौसम बड़ा सुहावना है। आकाश बादलों से ढका जा रहा है। नीले गहरे समुद्र में भी बादल के टुकड़े दौड़ लगाते नज़र  आरहे हैं। मिथुन को ये हवा बड़ी असह्य लग रही है, किन्तु ईरीना आनन्दमग्न है।
नेताजी की टिप्पणी ने या फिर हवा के झकोरों ने इनके आपसी सम्बोधनों की गुरुता को बहा कर दूर पटक दिया था। कुछ देर पहले के आप अब तुम में तबदील हो चुका था। और फिर शाम तक,यहां तक कि कुछ रात गए तक दोनों ऊपर बैठे गप्पें ही मारते रह गए। समय सुनहरे पंख लगाकर किस ओर उड़ता गया- पता ही न चला दोनों को।
अन्धेरा अधिक घिर आने पर दोनों नीचे उतर आए। केबिन के बगल में पतले लम्बे डेक पर जहाँ कुर्सियों की कतार थी दोनों बैठे रहे। उस समय तो नेताजी की टिप्पणी सुनने में कुछ खरी लगी थी मिथुन को, किन्तु अब धीरे-धीरे उसमें चिकनाई का आभास मिलने लगा था। लड़कियों सदा दूर भागने वाले मिथुन को ,खास इस यात्रा में लड़की के बिना एक पल भी बिताना युगों जैसा भारी पड़ने लगा था इन थोड़े ही घंटों में। पहली रात तो बिलकुल समान्य सी गुजरी थी, किन्तु अगली रातें बेचैनी में।
कलकता से चलने के बाद तीसरा सूरज मिथुन ने करांची में देखा- अपनी मातृभूमि का एक छिटका हुआ टुकड़ा- जिसे अब पड़ोसी देश पाकिस्तान का प्रसिद्ध बन्दरगाह के रुप में दुनिया मानने-जानने लगी है।
यहां दो-तीन घंटे तक दोनों ने शहर घूमने में गुज़ारा। सदर बाजार से आगे बढ़ मुहम्मद अली रोड पर आए। दो-तीन मील के बाद समाधियों का सिलसिला शुरु हुआ। काय़दे आज़म जिन्ना साहब,और वज़ीरे आज़म लियाकत अली खाँ की समाधियां देखने का मिथुन को बहुत शौक था। जिन्ना साहब की समाधि तो खूबसूरत संगमरमर की थी, किन्तु वज़ीर साहब सिर्फ कपड़े में लिपटे ताबूत में पड़े थे,जिसे देख कर मिथुन को बड़ा आश्चर्य हुआ। स्वर्गीय नेताओं के प्रति ऐसी मर्मान्तक आस्था देख ईरीना भी प्रभावित हुए बिना न रहा सकी।
करांची का दौरा खत्म हुआ। वापस जब जहाजी बसेरे में दोनों पहुँचे तो जनसंख्या में काफी परिवर्तन महसूस हुआ । अधिकांश खाली केबिनें अब भर चुकी थी।
कोई छः घंटों के विश्राम के बाद जहाज फिर चल पड़ा अपने अगले पड़ाव की ओर।
            जहाज बढ़ता रहा। भारत भूमि दूर होता रहा। मिथुन और ईरीना समीप होते रहे। किसी अज्ञात चुम्बकीय शक्ति ने दो ध्रुवों को अपनी ओर खींचता रहा। सप्ताह भर के इस सफ़र ने समय के छोटे-छोटे बेमानी टुकड़ों को जोड़कर प्यार,ममता,स्नेह और आकर्षण की एक ऊँची मीनार खड़ी कर दी,जिसकी जड़ गहरी और गहरी होते जा रही थी।
अदन पहुँचते-पहुँचते तो नज़ारा ही बदल गया। हाथ चूम कर झिझक पड़ने वाली ईरीना अब होठ चूम कर भी खुद को अतृप्त ही महसूस कर रही थी। जहाज के यात्रियों में चर्चा चलन लगी थी- इस जोड़ी की। न जाने किस शुभ घड़ी में नेताजी ने टिप्पणी की कि सच में चिड़िया फंस ही गयी।
किन्तु चिड़िया फंसी पिंजरे में या कि पिंजरे को ही फंसा ली अपने रंगीन मोहक पंखों में- यह तो बेचारा मिथुन ही बतला सकता है,या कहें उसे भी ठीक से पता नहीं हो।
सच पूछा जाय तो मिथुन की ओर से कोई खास पहल नहीं किया गया था। वह तो ईरीना के सम्पर्क में आकर पुरातत्व-शास्त्र के दुर्लभ अनुभव संग्रह करने में लगा था, किन्तु किताब के पन्नों में आने वाले प्रेम-पत्रों की तरह पुरातत्व के अनुभवों के साथ-साथ प्रेम-शास्त्र का वास्तविक तत्त्व भी समझाना वह न भूली थी।
जहाज अदन पहुँच गया। बम्बई और करांची की तरह तट से सटने का सौभाग्य यहाँ जहाज को नहीं मिला। खाड़ी से होकर जहाज ज्यूं-ज्यूं दोनों ओर की पहाड़ियों का सहारा लिए आगे सरकता रहा दृश्य मोहक और मोहक होता गया।
ईरीना और मिथुन दूसरी मंजिल की छत पर खड़े दूर से ही नज़ारा देखते रहे।
‘ नेताजी को तो यहीं उतरना है न?’ – ईरीना ने किसी गम्भीर अर्थ की ओर इशारा किया- ‘ चलें,उन्हें बधाई और विदाई दे आवें।’
विदाई तो विदाई,किन्तु बधाई का अर्थ मिथुन को गुदगुदा गया।
‘ नेता लोग बड़े दूरदर्शी हुआ करते हैं।’ – धीरे से बुदबुदाया मिथुन,और ईरीना का हाथ पकड़ नीचे उतरने लगा,नेता जी को विदाई देने।
जेटी पर काफी भीड़ थी। स्थिति देख मिथुन ने कहा- ‘ बाप रे! इतनी भीड़ और धक्कम-धुक्की तो फिल्म बदलने पर थर्डक्लास के काउन्टर पर भी नहीं होती।’
‘ भीड़ देखकर नेताजी कहीं भाषण न देने लग जायें।’ – ईरीना ने चुटकी ली। नेताजी भी मुस्कुरा उठे। पान के अभ्यस्त काली बतीसी चमक उठी।
‘ चलते हैं अब। ’ – मुस्कुरा कर कहा उन्होंने और हाथ बढ़ा दिया ईरीना की ओर। किन्तु ईरीना हाथ मिलाने के वजाय अपने दोनों हाथ जोड़ दिए- ‘ नमस्ते नेताजी।’
मिथुन ने भी नमस्ते किया,जिसके जवाब में नेताजी ने पुनः बतीसी चमकायी- ‘ ईश्वर करे ये जोड़ी अटूट और अमर रहे। ’
‘ आपके मुंह में घी-शक्कर।’ – हँस कर कहा मिथुन ने।
‘ प्रोफेसर साहब! सिर्फ घी-शक्कर कहने से काम नहीं चलेगा। मिठाई भी खिलानी पड़ेगी।’ – जाते-जाते नेताजी ने प्रस्ताव रखा।
ईरीना भी कब चूकने वाली थी। तपाक से बोली- ‘ इसकी चिन्ता न करें नेताजी। आपका दिया हुआ विजीटिंग कार्ड हमलोगों के पास सुरक्षित है। मिठाई भेज दी जायेगी समय पर, या फिर आपका नाम लेकर हमलोग खुद ही खा लेंगे। आखिर नेताजी लोग आम लोगों के प्रतिनिधि ही तो होते हैं।’
‘ ठीक ही कह रही हो। हमेशा तो ये लोग जनता के बदले खाते ही रहते हैं,कभी-कभी तो जनता को भी नसीब हो इनके बदले खाने का।’ – मिथुन ने हँस कर कहा।
‘ संयोग हुआ तो फिर मिलेंगे कभी। ’ – डेक की सीढ़ियां उतरते नेताजी ने हाथ हिलाया,जिसके जवाब में मिथुन और ईरीना भी हाथ हिलाये। ईरीना की सहयात्री महिला भी पास में ही खड़ी ,भीड़ के रेलम-ठेल का मजा ले रही थी। अपनी भाषा में ईरीना से बोली- ‘ तुम्हें यहां घूमने का विचार नहीं क्या?
‘ विचार तो था,किन्तु कौन जाय इस ज़हमत में ज़ूझने।’ – ईरीना का विचार जान,उस महिला ने भी घूमने का विचार छोड़ दिया।
‘ करांची तो थोड़ा बहुत घूम ही लिए हमलोग। अदन के बदले जी भर कर काहिरा घूम लिया जायेगा। काहिरा मेरे लिए सर्वाधिक आवश्यक भी है।’ – कहा मिथुन ने ईरीना की ओर देख कर।

‘ वैसे तो मेरा घूमा हुआ है,किन्तु ये सब ऐसी जगह है कि बीसियों बार घूमने पर भी नया ही लगता है।’ – ईरीना बोली।
क्रमशः...

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