अधूरामिलन भाग 7

गतांश से आगे...
पृष्ठ 126 से 150 तक

वैसे अदन में जहाज का बजन घटा तो काफी था,किन्तु न घटने के बराबर ही रहा। कारण वहां काफी संख्या में अफ्रीकी और तुर्की लोग आ जुटे। व्यापारिक दृष्टि से इस बन्दरगाह का काफी महत्व है। प्रायः जहाज अपना ईंधन भी यहीं लेते हैं।
जीवन के लम्बे सफ़र में पड़ाव भी आवश्यक है। इस जहाजी सफ़र के भी इई पड़ाव हैं। हर पड़ाव का अपने आप में महत्त्वपूर्ण स्थान है। खास कर ईरीना और मिथुन के लिए तो अवश्य। हर गुज़रा क्षण इनके प्रेम की शिला को ठोंक-ठोंक कर मजबूत करता जा रहा था। हर पड़ाव मील के पत्थर की तरह प्रेम की प्रगाढ़ता बढ़ाते जा रहा था।
सब कुछ तो बढ़ रहा था,मगर एक चीज की कमी नजर आ रही थी- इन दोनों के आँखों की नींद। आठ,दस,बारह की रफ्तार से मुलाकात के घंटे अब अठारह हो गये बढ़कर, फिर भी कम ही प्रतीत हो रहे थे। भय है कि मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते कहीं शून्य की ओर न बढ़ने लगे।
अदन से चलने के चालीसवें घंटे पर जहाज में लगे स्पीकरों ने घोषणा की- अगला पड़ाव स्वेज है,जहां से प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल मिश्र जाने की सुविधा है। जो यात्री मिश्र भ्रमण के इच्छुक हों,वे कृपया पर्सर के पास वीस पौंड जमा करके,अपनी यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित करा ले सकते हैं।
सूचना पा ,मिथुन बहुत प्रसन्न हुआ। विश्वविख्यात मिश्र के पिरामिडों ओर स्फिंक्सों को देखने केलिए वचपन से ही उसका मन ललचता रहा है,जिसे पूरा होने का सौभाग्य आज मिल पा रहा है।
मिथुन सोच ही रहा था कि पर्सर के पास जाकर कार्यक्रम निर्धारित कराले, कि तभी ईरीना पहले ही चल पड़ी।
‘ तुम बैठो आराम से। इस काम को मैं ज्यादा आसानी से करा ले सकती हूँ।’
मिथुन कुछ कह न पाया। वह चली गयी। मिथुन अकेला हो गया कुछ देर के लिए और तब क्षण भर के लिए उसे लगा- कहीं वह अपने लक्ष्य से विचलित तो नहीं होता जा रहा है! कितना भरोसा था उसे अपने आप पर,खास कर लड़कियों के मामले में। किन्तु इस रसियन गुड़िया ने तो मानों उसकी बुद्धि के फर्श पर मक्खन लगा दिया हो,जहां पांव पड़े कि वस फिसल गए। गुरुदेव को पता लगेगा तो क्या सोंचेंगे...पिताजी क्या सोचेंगे...प्रोफेसर गुहा...अनूप...सुधीर...माँ..क्या कहेगी...सभी कहेंगे- मेम के हाथों बिक गया...देश आजाद हो गया,किन्तु गुलामी की छाप छूट नहीं रही है...सच में मर्द बड़े कमजोर दिल के होते हैं...सुन्दर दीखने वाली क्या हर चीज सुन्दर ही हुआ करती है...खीरा ऊपर से कितना चिकना-चुपड़ा दीखता है...मगर भीतर...फांकें तीन...कहीं इस सुन्दरता के पीछे भी कुछ फांकें न हों...किन्तु...?
मिथुन का हृदय प्यार का भूखा है। बचपन में माँ का प्यार नहीं मिला,और आजतक वह स्थान रिक्त ही पड़ा है, किन्तु क्या इससे उसकी खानापुरी हो सकती है? कदापि नहीं। वह माँ का प्यार है, और यह प्रेमिका का। कोई तुलना नहीं हो सकती दोनों में- मिथुन सोचने लगा। वस सोचता ही रहा— विगत सप्ताह भर में ही कहाँ से कहाँ पहुंच गया हूँ ढाई अक्षर के प्रेम का पाठ पढ़ाकर अब यह लड़की प्रेम का थिसिस पढ़ाने पर तुली है।
अचानक विचार बदल जाते हैं—नहीं,नहीं...अभी इसके बारे में कुछ भी अन्यथा नहीं सोचना चाहिए। यह डॉ.क्लार्क की बेटी है। उनसे अभी बहुत सहयोग लेना है...किन्तु इसका मतलब तो ये हुआ कि काम निकाल लो,फिर आस्तीन फाड़ कर निकल जाना...नहीं,नहीं यह सरासर अन्याय होगा...यदि ईरीना सच में चाहती होगी तो उसके साथ बेवफाई करना ठीक नहीं...किन्तु क्या भरोसा इस विदेशियों का...न जाने कितनी यात्रायें की होगी...सफर में कितने हमसफर मिले होंगे...यह तो मेरी भूल है...समझ का फेर है...खीरे की तीन फांकें...उसके अन्दर है या मेरे अन्दर...।
सोच-सोचकर मिथुन का सिर भन्ना उठा। कोई हल न निकला। किन्तु भीड़ से निकल कर ईरीना आगयी चहकते हुए- ‘ ये लो,हमलोंगों का टूर-प्रोग्राम सेटल हो गया।’ – कहती हुयी ईरीना हरे रंग के दो कार्ड मिथुन के सामने रख दी।
‘ दो ही है।’ – मिथुन सिर उठाकर ईरीना की ओर देखा,जिसके ललाट पर पसीने की छोटी-छोटी बूंदें तैर रही थी।
‘ और कितने? दो आदमी के लिए दो कार्ड। उन्हें तो जाना नहीं है। काहिरा तो उनका घर-आँगन है। ’ – ईरीना का इशारा अपने महिला सहयात्री की ओर था।
ईरीना के सामने आते ही कुछ देर पूर्व तक उठते विचार मिथुन के दिमाग में ही सूख गये,जैसे स्याही सोख से फर्श पर गिरी स्याही सोख ली जाती है। सामने खड़ी ईरीना को गौर से देखने लगा,मानों पहली बार देख रहा हो। और मुग्ध होता रहा उसके हाव-भाव पर।
‘ बड़े गौर से देख रहे हो,क्या बात है? आज मैं ज्यादा सुन्दर लग रही हूँ क्या?’ – ईरीना चहकी बुलबुल की तरह,और मिथुन का दिल मचल उठा। बात करने के उसके ये ही अन्दाज़ मिथुन को घायल किये जा रहे थे।
‘ सुन्दर को बारबार सुन्दर कह कर,सुन्दरता का अपमान है।’
‘ यानी कि बारबार सिर्फ देखा जाता है,पीया जाता है- आंखों ही आंखों में? वो क्या नाम था तुम्हारे एक भारतीय ऋषि का...अगस्त ऋषि,जो सुनते हैं पूरा का पूरा समुद्र ही पी गए थे,और हाँ तुम्हारे वो एक ऋषि तो गंगा को ही पी डाले थे,जिसे बाद में लोक-कल्याण के ख्याल से अपनी जानु फाड़ कर प्रवाहित किये,और गंगा का नया नामकरण हो गया जाह्नवी।’ – ईरीना ने बड़े शोख अन्दाज में कहा।
‘ इसी लिए तो देख रहा हूँ। किन्तु घबराना नहीं। मैं अगस्त ऋषि जैसा प्रतिभा-सम्पन्न नहीं हूँ।’ – नाटकीय  गम्भीरता ओढ़े मिथुन ने कहा- ‘ दरअसल ये लिबास उस दिन के साड़ी-ब्लाउज से भी अधिक आकर्षक लग रहा है।’
‘ हिन्दुस्तान में बुरी नजर से बचाने के लिए काजल का टीका लगाने की प्रथा है। इस तरह घूरोगे,तो कहीं मुझे भी टीका न लगाना पड़ जाय।’
‘ उसकी कोई आवश्यकता नहीं। वो तो तुम्हारे माथे पर पहले से ही लगा हुआ है।’- कहते हुए मिथुन ने ईरीना का सिर पकड़ कर डेकवोर्ड में  लगे आइने के सामने कर दिया।  
‘ अरे ये कैसे लगा गया? ’ –आइने में अपना चेहरा देख,ईरीना ने कहा,और पर्श से रुमाल निकालकर माथे पर लगा स्याही का दाग छुड़ाने लगी,जो पर्सर के पास हस्ताक्षर करते समय किसी तरह लगा गया था।
  ‘ हमलोग स्वेज कब पहुँच रहे हैं?’ – ग्रीनकार्ड ईरीना की ओर बढ़ाते हुए मिथुन ने पूछा।
‘ वस,अब जल्दी ही पहुँच जायेंगे। ज्यादा इन्तज़ार करने की जरुरत नहीं है।’ – मिथुन के हाथ से कार्ड लेकर पुनः पर्श के हवाले करती ईरीना ने पूछा- ‘ रास्ते में और क्या-क्या घूमने का विचार है?
‘ गाइड तो तुम हो ही। जहां-जहां जो भी देखने लायक हो,दिखाती चलना। मैं क्या कहूँ इस बारे में। मुझे पता ही कितना है।’
‘ बहुत खूब। बिना तनख्वाह के,फोकट में गाइड पा लिए। मैं नहीं मिलती तो?
‘ मिलती क्यों नहीं...तुम्हें तो मिलना ही था। रास्ते में न सही,लन्दन पहुँचने पर तो मिलना ही था। पहले मिल गयी,इसलिए एडवांस गाइड बना लिया। ’
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समय सरकता रहा तेजी से, और जहाजी यात्रा भी, साथ ही प्रेम-यात्रा भी उतनी ही तत्परता से आगे बढ़ती रही।
इस समय भी बाहरी डेक की कुर्सियों पर ही दोनों विराज रहे थे। इनका अधिकांश समय यहीं गुजरता था। यहाँ तक कि अगल-बगल केबिनों के लोग भी जान गए थे इनके प्रिय स्थान को। फलतः लोग सभ्यतावश या यूँही इस स्थान को छोड़कर ही बैठा करते थे। भोजनालय का मेज तो बिलकुल सुरक्षित जैसा ही था इनके लिए।
बातें करती ईरीना का ध्यान समुद्र की लहरों पर केन्द्रित था। कुछ वैसी ही लहरें उसके भीतर भी उठ रही थी। उठने को तो मिथुन के हृदय में जबरदस्त ज्वार-भाटे उठ रहे थे, किन्तु ऊपर से अपने को गम्भीर और तटस्थ दिखलाने की कोशिश करता रहता था हमेशा।
मिथुन का ध्यान दूर लहरों की ऊँचाई पर टिका था। अचानक ध्यान आया- ‘ यह लाल सागर है न?’ – अपने आप में बड़बड़ाया।
‘ क्यों ज्योग्राफी इतना कमजोर है क्या?’ – ईरीना चहकी।
‘ यदि मैं इसे नीला सागर कहूँ तो क्या हर्ज है?’ – मिथुन का ध्यान सागर की नीलिमा को निहारे जा रहा था।
‘ कह लो,जो इच्छा। मगर क्यों ? क्या इसलिए कि सागर का पानी बिलकुल नीला ही है और सागरों की तरह?
‘ मुझे नीला रंग बहुत ही प्यारा लगता है। यही कारण है कि उस दिन जब तुम नीली साड़ी पहने हुए थी तो तुम्हारी ये नीली-नीली आँखें और भी अधिक सुन्दर लग रही थी।’ – ईरीना की आँखों में झांकते हुए मिथुन ने कहा।
‘ किन्तु मुझे लाल रंग प्यारा लगता है।’ – ईरीना अपनी पसंद बतलायी।
‘ यह तो खतरे का रंग है।’ – मिथुन ने कहा- ‘ शायद ऐसा हो कि मेरी पसंद के कारण जल का रंग नीला हो,और तुम्हारी पसंद के कारण इसका नाम लाल सागर पड़ा हो। क्यों है न यही बात?
‘ तुम ज्योग्राफी लिखना , तो यही कारण बतलाना।’ – ईरीना ने कहा- ‘ मेरे ज्योग्राफी में तो लिखा है कि मूंगों की पहाड़ियों के कारण ही लाल सागर नाम पड़ा है, जो इसके गर्भ में काफी मात्रा में पायी जाती है। वह जगह यहां से काफी दूर है,अन्यथा हम उसे भी देख पाते। बड़ा ही सुहावना लगता है- लाल-लाल मूंगों का छोटा-छोटा पहाड़।’
लाल सागर अब पीछे छूटा चाहता है। कुछ समय बाद ही जहाज स्वेज के मुहाने में प्रवेश करेगा।
मिथुन ने ईरीना से पूछा- ‘ स्वेज की खुदाई के पहले तो बड़ी कठिनाई होती होगी?
‘ एक समय था जब जहाजों को पूरे अफ्रीका महादेश का चक्कर काट कर जिब्रालटर पहुँचना पड़ता था। किन्तु स्वेज ने इस विकट समस्या को हल कर दिया। एक ओर लाल सागर और दूसरी ओर भूमध्य सागर- इन दोनों के बीच सैकड़ो मील के भूभाग को काफी चौड़ा काट कर दोनों जल-भंडारों को एक कर दिया गया स्वेजनहर बनाकर।’ – ईरीना ने मिथुन को बतलाया।
‘ और इस प्रकार महीनों का रास्ता दिनों में तय होने लगा। ’ – मिथुन ने सिर हिलाकर कहा।
स्वेज—मिथुन का चिर प्रतीक्षित स्थल। मगर यह क्या—जहाज ने तट से बहुत पहले ही लंगर डाल दिया। चारो ओर जहां तक आँखें देख सकी सिर्फ जहाज ही जहाज नज़र आये। मानों जहाजों की किसी अजनवी दुनिया में चला आया हो। व्यापारी जहाज- कोई पूरे का पूरा कोयले से भरा,तो कोई कपास की गाठों से,किसी पर भारी मशीनें लदी हैं,तो किसी पर कपड़े...। यात्री जहाज भी काफी संख्या में हैं।
जहाज ने लंगर डाला और मिश्री जहाजी कर्मचारी मोटर-लांच में आ-आकर सीढ़ियों के सहारे जहाज पर चढ़ आये। पासपोर्ट की जांच बड़ी कड़ाई से की जाने लगी। किन्तु बाहर जाने के पहले यहां पासपोर्ट जमा करने का झमेला न था।
‘ वाप रे! लहरों की थपेड़ों पर ऊपर-नीचे होते मोटर-लांच पर पहुँचना तो बड़ा खतरनाक लग रहा है।’ – ईरीना का कंधा छूकर,उस ओर इशारा करते हुए मिथुन ने कहा- ‘ उतरा कैसे जायेगा- रस्सी-डंडे की बनी इन सरकसिया सीढ़ियों के सहारे?
‘ ठीक ही तो है। देखो,ये कर्मचारी कैसे उतर रहा है। समझो कि सरकस में भर्ती हो गये थोड़ी देर के लिए।’ – ईरीना ने मुस्कुरा कर कहा।
हिचकोले खाती मोटर-लांच पर उतरने की साहस ईरीना को भी नहीं हो रहा था। हिम्मत करके मिथुन ही पहले आगे बढ़ा,क्यों कि काहिरा घूमने का उतावलापन उसे ही ज्यादा था।
मिथुन की देखा-देखी ईरीना भी काफी सम्भल-सम्भल कर उतरने लगी। सभी डंडे तो उतर गयी,मगर जब एक रह गया बाकी,उसी समय लहरों के टक्कर से लांच एकाएक जोरों से ऊपर-नीचे हुआ। ईरीना का शरीर भय से कांप उठा। रस्सी हांथ से छूट गयी घबराहट में।
अभी वह गिर कर नीचे लांच की बीच खाई में टपक पड़ती कि झट नीचे खड़ा मिथुन विजली की सी तेजी दिखायी,और लपक कर दोनों हाथों में मोम की गुड़िया सी थाम लिया ईरीना को। जहाजी कर्मचारी और यात्रियों के मुंह खुले के खुले रह गए।
‘ ईश्वर को धन्यवाद करो,बहुत बड़े खतरे से बंच गयी।’ – कहा एक कर्मचारी ने और आगे बढ़ कर मिथुन की पीठ ठोंकने लगा।
मिथुन की गोद में गुड़िया सी चिपकी ईरीना की घबराहट अब शान्त हो चुकी थी। लांच पर सम्हल कर खड़ी होती हुयी हल्की मुस्कान के साथ धीरे से बोली जिसे बगल में खड़ा कर्मचारी सुन न सका- ‘ धन्यवाद उस निराकार ईश्वर को दूं ,या कि उसके साकार प्रतिनिधि को! ’- इशारा मिथुन की ओर था,जिसने मुस्कुरा कर कहा- ‘ थोड़ा-थोड़ा दोनों को। ’
थोड़ी देर में लांच किनारे आ लगा। घाट से बाहर टैक्सियां ,वसें,आदि खड़ी थी। जहाज से उतरे सैकड़ो लोग अपनी-अपनी व्यवस्था में लग गये। कुछ लोग रेल द्वारा भी
काहिरा के लिए प्रस्थान किए,अधिकांश टूरिस्ट बसों में जा बैठे। मिथुन और ईरीना ने कार का सफ़र ही पसन्द किया। कार का लीबियाई ड्राईवर अंग्रेजी में आसपास की चीजों के बारे में बतलाता जा रहा था।
            स्वेज एक छोटा शहर है,किन्तु बड़ा साफ-सुथरा। सड़क के दोनों ओर अंग्रेजी सिरीश के रंगीन फूलदार वृक्ष लगे हुए थे। स्वेज से कोई पौने दो सौ किलोमीटर का सफ़र तय कर काहिरा का प्रशस्त राजमार्ग शुरु होता है। उससे भी आगे नील नदी है। जिस तरह भारत में गंगा को पवित्र मानते हैं,और माता का सम्मान देते हैं,वैसे ही यहां के लिए फादर नाइल है यह—ड्राईवर ने बतलाया था पर्यटक युगल को।
 विश्व के प्राचीन सभ्यताओं का धरोहर—मिस्र सवारी के मामले में भी प्राचीनता को छोड़ा नहीं है। – कार से उतर कर ऊँट की सवारी शुरु करती ईरीना ने कहा। मिथुन के लिए भी रेगिस्तान के जहाज(ऊँट)की सवारी का पहला अवसर ही था।
‘ हालाकि हमारे यहां दुल्हनें डोली में बैठकर पहली बार ससुराल जाती हैं,किन्तु मेरे वस चले तो उन्हें ऊँट पर विठा कर ही ले जाऊँ।’ – ईरीना की ओर देखते हुए मिथुन ने चुटकी ली,जिसे सुन क्षण भर के लिए ईरीना लाल पड़ गयी।
‘ और जानते हो- मेरा वस चले तो हाथी की सूंड़ की तरह लम्बी घूंघट लटका लूँ।’
‘ मगर रस्सी वाली सीढ़ी की तरह गिर न पड़ना।’ –
‘ तो क्या हुआ, इसी बहाने तुम्हें गोद में उठाने का मौका तो मिल जायेगा।’ – कुछ ऐसी ही चुहलवाजियों के बीच ऊँट का सफ़र पूरा हुआ।
पिरामिडों,स्फिक्सों,प्राचीन खंडहरों आदि का चक्कर लगाते ईरीना बहुत थक चुकी थी। ‘ वो गॉड! अभी तो समाधियां और संग्रहालय घूमना-देखना बाकी है।’ – ईरीना बोली,जिस पर मिथुन ने अपने पुष्ट कंधों को छूते हुए कहा--‘ कहो तो कंधे पर बिठा लूँ।’
‘ ना बाबा ना! इस छोटे ऊँट पर नहीं बैठना मुझे।’ – ईरीना ने ठिठोली की।
समाधियां घूमते हुए मिथुन को आश्चर्य हुआ,वहां बनी बहुत सी समाधियां ऐसी थी जो व्यक्ति अभी जीवित थे। गाइड ने बतलाया- यहां का ऐसा भी रिवाज़ है।
संग्रहालय में बहुत सी चीजें सुरक्षित थी,जिसे मिस्री सभ्यता का एक छोटा-मोटा गढ़ कहा जाये तो कोई हर्ज नहीं।
पिरामिडों से निकाली गयी सुरक्षित शवों को दिखलाते हुए गाइड ने बतलाया- ‘ यहां लोगों का विश्वास था कि मरे हुए कभी-कभी जिंदा हो सकते हैं, और उस दिन सारी आवश्यक चीजों की जरुरत पड़ेगी। यह सोच कर पिरामिडों सभी सामान रख दिए जाते थे।’
इन लोगों ने देखा- सोने-चांदी की आलमारियों और सन्दूकों में वस्त्र,आभूषण आदि सजाकर रखे हुए थे। हर सामान अभी भी स्वच्छ और सुरक्षित था। गाइड के ये कहने पर कि ये सभी सामान दस-बीस हजार वर्ष पुराने हैं,ईरीना को बहुत ही आश्चर्य हुआ,साथ ही सोचने लगी - ‘ पता नहीं उन दिनों कौन का वैज्ञानिक नुस्खा उन्हें मालूम था,जिसके वदौलत ये सामान अभी भी सुरक्षित हैं। ’
‘ मुझे तो कोई खास चमत्कार नहीं लग रहा है इसमें।’ – मिथुन के कहने पर ईरीना चौंक कर प्रश्नात्मक दृष्टि मिथुन पर डालती हुयी बोली - ‘ सो क्यों?
‘ शवों को रखने की परिपाटी हमारे यहां तो नहीं है, किन्तु जरुरत पड़ने पर इई बार ऐसा हुआ है। पुराने जमाने में आयुर्वेद का रसशास्त्र इतना अधिक विकसित था,किन्तु अफसोस,अब सिर्फ उसकी याद भर रह गयी है। विदेशी आततायियों ने लूट-पाट मचाकर, आग लगाकर हमारा सब बरबाद कर दिया। न उनके काम का रहा,और न किसी और के।’
‘ अभी भी सरकार उचित रुप से कहां ध्यान दे रही है। तुम्हारे देश में अन्य चिकित्साशास्त्र को जितना सम्मान प्राप्त है,आयुर्वेद को शायद उसका सौंवां हिस्सा भी नहीं।’ – ईरीना की टिप्पणी पर मिथुन को बड़ा खेद हुआ,किन्तु बात बदल दी उसने- ‘ पोर्ट सईद भी घूमना है न?
‘ ना बाबा ना। अब हिम्मत नहीं रही। आज बहुत चक्करबाजी होगयी।’ – जरा ठहर कर ईरीना बोली- ‘ अरे हां,याद आयी एक बात।’ –
‘ क्या?
‘ डैडी को कैबेल देना चाहती हूँ।’
‘ तो दे दो। रोका किसने है।’
काहिरा का अच्छा खासा भ्रमण किया दोनों ने। इसी बीच मौका पाकर ईरीना कैबेल भेज कर अपने डैडी को सूचित कर दी कि जल्दी ही पहुँचने वाली है।
मिथुन की इच्छा अब क्षण भर के लिए भी ईरीना से अलग होने की न हो रही थी, किन्तु संकोच या औपचारिकता वश पूछ लिया- ‘ मैं तो सैमशन में ठहरने को सोचा हूँ। गुरुदेव ने कहा था कि वहीं सबसे अच्छा रहेगा। वहां से तुम्हारा आवास कितनी दूर है?
‘ वाह! सैमशन में क्यों? ’ – ईरीना चौंक कर बोली-  ‘ मेरे यहां ठहरने में क्या दिक्कत है?
‘ कोई दो-चार दिन की तो बात है नहीं। कई लाइब्रेरियों की खाक छाननी है।’
‘ दो-चार दिन नहीं,दो-चार महीने ही सही। कौन रोकता है रहने में? अभी मेरे डैडी से मुलाकात नहीं है न,इसीलिए ऐसा सोचते हो। उनका वस चले तो तुम्हें जाने ही न दें वापस। हिन्दुस्तानियों से उन्हें बहुत प्रेम है। कहते हैं- हिन्दुस्तानी साक्षात् देवता होता है। उसमें भी तुम रविबावू के प्यारे बंग प्रान्त के हो।’
‘ मगर मैं रविबाबू तो नहीं हूँ न ! ’- मिथुन बीच में ही बोल पड़ा,जिसके जवाब में अगले कुछ देर तक दोनों ओर से तर्क-वितर्क चलते रहे। और काफी ना-नुकुर के बाद ईरीना का प्यार भरा आग्रह स्वीकारना ही पड़ा मिथुन को। सच कहते हैं- बहुत बार ऐसा होता है जीवन में कि हार को जीत की तरह अंगिकार करना पड़ता है।
हालाकि मिथुन को जानकारी दिये वगैर ही ईरीना अपने डैडी को सूचित भी कर चुकी थी मौका पाकर कि इस बार वह सिर्फ भारतीय सम्यस्ता-संस्कृति के ऐतिहासिक धरोहर- मूर्तियां और पुस्तकें ही नहीं,बल्कि एक जीता-जागता युवक भी साथ लिए आ रही है,जिससे मिल कर डैडी को अतिशय प्रसन्नता होगी। दरअसल हिन्दुस्तानियों से सिर्फ पिता को ही नहीं, बेटी को भी उतना ही प्रेम है। अकसरहां कहती है अपने सर्किल में - ‘ प्रेम की असली परिभाषा और प्रयोग तो हिन्दुस्तानी ही जानते हैं। प्रेम न बारी उपजै,प्रेम न हाट बिकाय,राजा-परजा जो चहै,शीश देई ले जाए—ये उक्ति हिन्दुस्तानियों के लिए ही कही गयी हो सकती है। बाकी के लोग तो प्रेम के गहरे रहस्य को भला क्या जानने-समझने गए ! वो तो सिर्फ लव जानते हैं। जो देह से शुरु होकर,देह पर ही खतम हो जाने वाली अभिव्यक्ति है। हृदय के अन्तस्थल में घुस कर,आत्मिक गहराई तक जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता उस तथाकथित प्यार में।’
ईरीना के दिल के किसी गुप्त तहखाने में मिथुन के प्रति अटूट आस्था और प्रेम सुरक्षित हो चुका है। वह चाहती है- लन्दन पहुँच कर डैडी की हरी झंडी देखते ही,तपाक से तहखाने की ताली थमा दे मिथुन को।
प्यार भरा वापसी सफ़र फिर से शुरु हुआ कार द्वारा ही। किन्तु वापस स्वेज की ओर नहीं, बल्कि इस्मालिया होते हुए,पोर्टसइद की ओर।
‘इधर क्यों जा रहे हैं हमलोग?’- मिथुन के पूछने पर ईरीना ने कहा-  ‘ इसलिए कि हमलोगों का जहाज अब स्वेज में नहीं है।’
‘ तो क्या वाई कार ही लन्दन तक जाने का विचार है?’- मिथुन ने जानबूझ कर मजाक के अन्दाज में पूछा,जिसे सुन कर कार का ड्राइवर भी हँस पड़ा। उसे लगा कि बड़े बेवकूफ यात्री से पाला पड़ा है।
‘ आपलोगों के पहुंचने तक,आपका जहाज भी पोर्टसईद पहुँच चुका रहेगा। काहिरा की सैर के बाद,वापस स्वेज कोई क्यों जायेगा,जबकि पोर्टसईद नजदीक है।’- ड्राइवर ने हँसते हुए बतलाया।

संध्या की झुरमुट में जहाज पोर्टसईद से रवाना हुआ। किनारे पर ऊँचे-ऊँचे मकानों पर लगे होडिंग अब धुंधले पड़ने लगे थे,मगर विज्ञापनों वाला न्योनसाइन की रंगविरंगी रौशनी समुद्र के लहरों के साथ अठखेलियां कर रही थी।
मिथुन और ईरीना एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले, डेक की रेलिंग के पास खड़े होकर प्याभरी बातों में मशगूल हैं। मिथुन कुछ कड़े दिल का मर्द है। मन में उमड़ती उंगों को भीतर ही भीतर दबा रखने की उसमें साहसिक प्रवृत्ति सदा से रही है, किन्तु वेचारी ईरीना – वह तो पछुआ वयार में विचरने वाली रंगीन तितली ठहरी। अतः उसके लिए थोड़ा भारी पड़ रहा है यह दूरी। मात्र तीन केबिनों की दूरी उसे हजारों मील की दूरी सी महसूस हो रही है।
करांची,अदन,स्वेज,काहिरा,इस्माइलिया,पोर्टसइद सब तो घूम लिए। जो भी विशेष देखना-समझना था सब लगभग पूरा हो गया। अब जिब्राल्टर और लिस्बन के लिए उसे जरा भी अभीरुचि नहीं है। उसका वस चले तो क्षण भर में उड़ कर सीधे लन्दन पहुँच जाये। डैडी को अपने दिल का दर्द बतलाये,और जो दवा वह हिन्दुस्तान से ही साथ लेती आयी है,उसे यथावत व्यवहार करने का आदेश ले ले।
 ‘ अब बहुत उब होने लगी है जहाजी सफ़र से।’- लम्बी सांस छोड़ती ईरीना ने कहा।
‘ क्यों?’- अपने पंजों में ईरीना की कोमल हथेली को आहिस्ते से दबाते हुए मिथुन ने कहा- ‘ मुझे तो बड़ा अच्छा लग रहा है। काश ये सुहाना सफ़र कभी खत्म ही न होता।’
‘ सफ़र तो सुहाना जरुर है, किन्तु इससे भी मनभावन यदि मंजिल हो?’- ईरीना बोली।
‘ क्या मनभावन मंजिल होगा? ’- मिथुन मुंह बिचका कर बोला- ‘ वहां पहुँचते के साथ ही ये रंगीन चहल-पहल कहां रह जायेगी?
‘ सो क्यों? ’- ईरीना हाथ मटका कर बोली- ‘ अब क्या तुम्हें पेरिस की रंगीन शाम चाहिए,लंदन में क्या कम है रंगीनी?
‘ वहां पहुँचने पर फुरसत ही कहां मिलेगी। सारा दिन लाइब्रेरियों में सर खपाते बीत जायेगा।’- मिथुन ने कहा।
‘ किन-किन लाइब्रेरियों से कन्सल्ट करना है?
‘ सबसे बड़े लाइब्रेरी तो तुम्हारे डैडी ही हैं। मेरी मन्द बुद्धि के लिए महीने भर की खुराक तो वे ही हैं। इसे बाद बी.बी.सी. में पाहवा जी और भटनागरजी से मिल कर कुछ मैटर जुटाना है। श्रीमती रजनीकॉल,ममता गुप्ता आदि से भी काफी कुछ सीखना-जानना है। बहुत दिनों से लालसा रही है,उन कलाकारों से मिलने की। सुनते हैं कि ममताजी और निर्मलाजी अपने आप में एक छोटी-मोटी चलती-फिरती लाइब्रेरी हैं।’- मिथुन ने अपनी योजना पर प्रकाश डाला।
‘ और मैं क्या एक थीसिश के बराबर भी नहीं लगती तुम्हें? ’- ईरीना होठों ही होठों में मुस्कुरायी।
‘ वैसे हो तो तुम एक बहुत बड़ी लाईब्रेरी,मगर मैं तुम्हें एक बढ़िया रोमांटिक उपन्यास से ज्यादा नहीं समझता।’- मिथुन ने टिप्पणी की।
‘ यही क्या कम है। ’- ईरीना ने बड़ी अदा से हाथ घुमाकर हवा में एक वृत्त सा बनाया, ‘ सारी सृष्टि का मूल तो रोमांच ही है। इसे निकाल दो यदि तो फिर तुम्हारा इतिहास पढ़ने वाला भी कौन रहेगा ? और जब इति ही नहीं फिर अथ का क्या महत्त्व?
ईरीना के इस ज़ुमलेवाजी पर मिथुन कहकहा उठा। देर तक हँसता रहा। हँसी में ईरीना भी साथ दी।
‘ ठीक कहती हो। प्रेम और रोमांच ही संसार के उद्भव का मूल है। मगर सिर्फ जड़ के रहने से ही उसे वृक्ष की संज्ञा नहीं दी जा सकती। साथ में तना,टहनी और हरे-भरे पत्ते भी होने ही चाहिए।’- मिथुन ने कहा।
जहाज बढ़ता रहा अपनी मंजिल की ओर। ईरीना भी बढ़ती रही अपनी मंजिल की ओर। हालाकि उसकी वास्तविक मंजिल तो उसके साथ-साथ ही चल रही थी,फिर भी मंजिल पर अधिकार पूर्वक पहुँच बनाने की उत्कट लालसा बनी हुयी है।
जहाज इटली के इलाके में पहुँचा। मँटलेरिया पहाड़ी के करीब। यात्रियों में नया उत्साह जगने लगा। विदेशी इसलिए प्रसन्न होने लगे कि अब उनका प्यारा यूरोप आगया। भारतीय या अन्य गैर यूरोपीय इस लिए प्रसन्न हो रहे थे कि उनकी सुनहली मंजिल करीब आ रही है। ईरीना और मिथुन भी काफी प्रसन्न हैं।

जहाज का अगला पड़ाव जिब्राल्टर है। छोटे से खूबसूरत साफ-सुथरे जिब्राल्टर ने इस बड़े से जहाज को अपने पास नहीं आने दिया। किनारे से कोई आध मील दूर ही जहाज को लंगर डाल देना पड़ा,मानों स्वच्छता का प्रतीक जिब्राल्टर कह रहा हो—तुम्हारी आदत गन्दी है। समुद्र में तैरते तो हो,पर उसके स्वच्छ निर्मल नील जल को गन्दला कर देते हो। जो तुम्हारा आगार है,जिसके वदौलत तुम्हारी मर्यादा है,उसे ही परेशान करते हो- उसके सुन्दर पवित्र उमंगों की लहरों को अपने पैरों से रौंद डालते हो। ढेर सारा धुआं उगलकर वातावरण को भी गन्दा कर देते हो...मुझसे दूर रहो...पास न आओ।
जहाज ठहर गया। यात्रियों के स्वागत के लिए जिब्राल्टर ने छोटी-छोटी सुन्दर-सुन्दर स्टीमरों को भेजा।
जैसी खूबसूरत गोरी चमड़ी,चमकीले सुनहरे वालों वाले ज्यादातर यात्री,वैसे ही सुन्दर स्टीमर और वैसा ही मनभावन शहर- जिब्राल्टर। लगता था किसी ब्यूटी-कॉर्नर की मालकिन ने खुद अपने ही हाथों अपना श्रृंगार किया हो, इसलिए क्यों कि आज एक अनुपम जोड़ी का पदार्पण होने वाला है- ईरीना और मिथुन की जोड़ी का, जिसने प्यार करना इस जहाजी सफर में ही सीखा है। रास्ते ने उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचाने का बीड़ा भी उठाया है। इस अपरिमित प्यार के लिए यू.के.सी.सर्विसेज के इस जहाज को भी आत्मगौरव हो रहा है, जिसने अवसर दिया इन्हें मिलने का,समझने का,एक-दूजे के लिए कुछ होने-बनने का।
‘ क्या सोच रहे हो? चलो उतरो। ’- ईरीना ने प्यार से कहा- ‘ एलोमेरा का उद्यान नहीं देखना है क्या?
मिथुन कहीं खोया हुआ सा था,शायद कलकत्ते की किसी खुशनुमा पार्क में...डलहौजी स्क्वायर के पास। उस दिन अनीता गुहा,जो उसके गुरुदेव डॉ.गुहा की पुत्री है,बड़े प्यार से बोली थी- क्यों मिथुन तुम्हें इतनी नफ़रत क्यों है मुझसे...क्या मैं बदसूरत हूँ...गंवार हूँ...क्या हूँ...मैं तुम्हें दिल से चाहती हूँ मिथुन बिलकुल सच्चे दिल से...किन्तु आजतक कभी प्रकट होकर कहने का साहस न हुआ था...आज कह रही हूँ...वह भी अवसर देखकर...अब तुम एक स्टूडेन्ट नहीं,बल्कि प्रोफेसर बन गये है...क्या अब भी समझ नहीं हुआ है...। और मिथुन ने होठों पर बैठ आयी मधुमक्खी की तरह चुटकी बजा कर परे कर दिया था उसे,बिन छुये ही,ताकि कहीं डंग न मार जाये मधुमक्खी। उसने झड़पते हुए अन्दाज में कहा था— ‘ क्या बचपना कर रही हो अनीता! तुम मेरे गुरुदेव की बेटी हो। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? अपने साथ-साथ मुझे भी बदनामी की दलदल में क्यों घसीटने पर तुली हो? मेरे पास अभी वक्त नहीं है प्यार-व्यार करने का, और शायद मैं आजीवन कर भी न पाऊँ...।’
आज वह सोच रहा था—ईरीना भी तो वैसी ही है- एक निहायत खूबसूरत लड़की। उस वाप की बेटी है,जिसके पास मैं अपनी अज्ञानता की झोली लेकर,ज्ञान की भीख मांगने जा रहा हूँ...आज भी मैं वही साधारण सा लेक्चरर हूँ,वह भी गुरुदेव की कृपा से...गुरुदेव कुलपति महोदय भी मुझे लेकर बहुत से रंगीन-प्यारे सपने संजोये हैं...और मैं क्या करने जा रहा हूँ...अनीता की छाती पर मूंग दलने...गुरुदेव के सपनों की मोहक अट्टालिका में  आग लगाने...उस गुरुदेव की जिसने मुझे स्मिता जैसी कॉलगर्ल से बचाया...मेरे गर्क होते जीवन को उबारा...मेरे भविष्य को उज्ज्वल बनाने का संकल्प लिया...और मैं ! ऐसा अधम-पापी-नीच...ओफ क्या हो गया मुझे...मेरे संयम की बांध में दरार पड़ गयी और उन दरारों से वासना का गरम जल रिसने लगा है...नहीं-नहीं अब तो छेद हो गया है...मोटी धार बह रही है...और मैं बहा जा रहा हूँ...गहरे समुद्र की नीलिमा मुझे खाये जा रही है...।
सोचते हुए मिथुन को,जिब्राल्टर के ठंढे वातावरण में भी पसीना छूट आया था। रेल गाड़ियों की घड़घड़ाहट की तरह कानों में आवाज आ रही थी- न जाने दिल की किन चट्टानों से टकरा-टकरा कर।
अचानक ईरीना के कोमल स्पर्श ने चौंका दिया- ‘ कहां खो गये प्रोफेसर साहब ! देखिये तो कितना सुहावना मौसम है मेरे प्यारे यूरोप का,और ये देखें हमारे स्वागत में कितने स्टीमर खड़े हैं...।’
‘ अरे हां, जिब्राल्टर आ गये न ! ’- चौंक कर मिथुन ने कहा।
‘ तुम्हें क्या लगता है- अभी इस्मालिया में ही घूम रहे हैं हमलोग? ’- ईरीना ने हँस कर कहा- ‘ क्यों यहां जिब्राल्टर में घूमने का विचार नहीं है क्या?
‘ आ गये हैं,तो घूम ही लेना चाहिए।’- अन्यमनस्क सा मिथुन बोला।
‘ यहां का प्रसिद्ध स्थल विलियम्स वे की चार फ़र्लांग लम्बी गुफा, मैं तुम्हें सबसे पहले घुमाऊँगी।’- ईरीना के कहने पर मिथुन ने स्वीकृति मुद्रा में सिर हिलाया, और आगे बढ़ती ईरीना के साथ हो लिया- रेल के डिब्बे की तरह, जो ईंजन के सहारे आगे बढ़ता है सिर्फ, खुद का अस्तित्व बेजान जैसा होता है। हालाकि असलियत तो ये है कि मिथुन का मन किसी और ही गहन गुफा के घोर अन्धकार में भटकने लगा है।
तट तक स्टीमर से आकर फिर टैक्सी का सहारा लिया गया। समुद्री स्नानघाट पर यूरोपियन जोड़े वाथिंग सूट में समुद्र की उछलती लहरों से खिलवाड़ करते नजर आये।
‘ कितना अच्छा लगता है यहां पर नहाना।’- ईरीना के प्यारभरी लालसा पर मिथुन ने जरा भी ध्यान न दिया।
‘ छोड़ो ये कोई नाहाने का मौसम है। चलो जहां चल रही हो। ’
‘ मौसम तो यह प्यार करने का है।’- कहा ईरीना ने और चटाक से चूम लिया मिथुन के गुदगुदे गालों को।
‘ क्या करती हो,इस तरह रास्ते में कोई देखे तो क्या कहेगा?’- ईरीना के पतले होठों के स्पर्श को मानों रगड़ कर पोंछना चाहा हो अपने हाथों से।
‘ ये हिन्दुस्तान नहीं है जनाब। ’- ईरीना मचल कर थोड़ा अलग होती हुयी बोली - ‘अब तो आपका हिन्दुस्तान पश्चिम को भी मात देने लगा है...। ’

जिब्राल्टर का सैर कोई खास मजेदार नहीं रहा मिथुन के लिए, किन्तु ईरीना को बहुत मजा आया। वैसे यह जगह उसका घूमा हुआ था, किन्तु आज मिथुन का साथ होने के कारण शहर की रौनकता और भी बढ़ी-चढ़ी सी लगी ।
सच ही है- अनुभूतियों का सुख मन की शान्ति पर ही निर्भर है।
सुबह का आया जहाज दोपहर बाद जिब्राल्टर छोड़ा। जहाज आगे बढ़ता रहा, और ईरीना का प्यार भी। इधर दो-तीन दिनों में मिथुन का मन भी अब हल्का हो गया है। अपने आप को उसने भाग्य के सहारे छोड़ दिया है। कर्मवादी जब कर्म करते-करते उबने,थकने या हताश-निराश होने लगता है, तब भाग्य पर भरोसा करने को विवश हो जाता है,या कहें भाग्यवादी हो जाता है। मिथुन का मन भी अब धीरे-धीरे शान्त होने लगा है। इधर कई दिनों से मन और बुद्धि के बीच घमासान युद्ध छिड़ा हुआ था। मन कहता था- ईरीना सुन्दर है,बहुत खूबसूरत है,बहुत काबिल है। ऐसी लड़की सहज ही पास आयी है। इसे छोड़कर पछताओगे जीवन भर। वह सच्चा प्यार करती है। इसे पाकर जीवन धन्य हो जायेगा...। और बुद्धि? उसका क्या,वह तो हमेशा मन पर अंकुश रखने की अपनी तानाशाही की सफलता समझता है। बुद्धि दुत्कार उठती है। मिथुन के संयम को धिक्कार रही है- तुम गलत जगह अपना तम्बू लगाने जा रहे हो...एक ऐसा तूफान आयेगा कि तुम्हारे तम्बू का तन्तु-तन्तु बिखर जायेगा, और फिर पछताने के सिवा कुछ भी हाथ न लगेगा...।
किन्तु बहुत बार ऐसा भी होता है कि प्रजान्तत्र की ऊँची आवाज के सामने तानाशाह का तख्ता पलट जाता है। उसे मुंहकी खानी पड़ती है। मन जीत जाता है,और बुद्धि को हार माननी पड़ती है।
‘ तुम्हारा प्यार अनमोल है ईरीना।’- ईरीना के गुलाब की पंखुड़ियों की तरह कोमल सुकुमार होठों को चूमकर मिथुन कहता है- ‘ किन्तु मुझ कंगले की झोली में इतनी दौलत कहां , जो इसका मोल आँक पाऊँ?
‘ तुम्हारे इसी भोलेपन ने तो मुझे बे-मोल खरीद लिया है मिथुन।’ - ईरीना लिपट पड़ती है। कहती है -  ‘ तुम्हारे पास तो दौलत का वह खज़ाना है, जो आजीवन खर्च नहीं हो सकता...और वह दौलत दिखावटी प्यार नहीं है, बल्कि सच्चा प्रेम है...बिलकुल ट्रंच सोना। मिथुन !  मैंने बहुत मर्दों को परखा है इस छोटी सी उमर में ही। मैंने हमेशा यही पाया है कि मर्दों के दिल में प्रेम नाम की कोई चीज होती ही नहीं है। होती है सिर्फ वासना। और वासना के रगड़ में प्रेम की ज्योति कहीं भूल से प्रकट भी हो जाये तो बहुत टिकाऊ नहीं होती। चकमक पत्थर की रगड़ से निकली चिनगारी की तरह, जिसे सहेजना-टिकाना बड़ा ही मुश्किल होता है।  मगर तुममें मैंने प्रेम की वह ज्योति देखी है, इन थोड़े से दिनों में ही, जिस पर वासना का पतंगा मड़रा-मड़रा कर दम तोड़ देता है, और अविचल ज्योति ज्यूं की त्यों स्थिर रहती है- बिलकुल नागमणि के अक्षुण्ण प्रकाश की तरह, न कि दीपक की लौ की तरह, जो जरा सी झंझावात में बुझ जाये। सच्चे प्रेम को परखने में नारी कभी भूल नहीं करती मिथुन, और नारी का मन वहीं समर्पित होता है जहाँ सच्चा प्यार मिलता है। वैसे शरीर का समर्पण तो वेश्या भी कर देती है, और उस बेजान शरीर को पाकर मूर्ख मर्द थिरकता रहता है। उस मुर्दा देह को ही सौन्दर्य और भोग-विलास का खजाना समझ लेता है।’
ईरीना लिपटी रही। मिथुन के अंग-अंग को चूमती रही।  मिथुन के दिल में आनन्द का सागर हिलोरें लेता रहा। और इधर लहरों से किल्लोल करता जहाज ईँगलिश चैनल से गुजरता रहा। यानी लम्बे सफर की अन्तिम कड़ी पार हो रही है।
अगले ही दिन जहाज इंगलैंड के साउथम्पटन बन्दरगाह पर लग जायेगा। लाउड स्पीकर बार-बार जिसकी घोषणा कर रहा है।

वातावरण बदल चुका है। हवा में नमी है। चारों ओर कुहरे का आलम है। मिथुन काफी ठंढ अनुभव कर रहा है। उसने अपने गरम कपड़े पहन लिए। ईरीना भी ओवरकोट टांग ली कंधे पर।
नया सबेरा आया- ईरीना के फादर लैंड का सबेरा...प्यार का सबेरा...सुहाने सफर के बाद का सबेरा।
अपने साथ-साथ मिथुन की भी कागजात दुरुस्त करा चुकी ईरीना। पासपोर्ट, लैडिंग कार्ड,ईम्बारकेशन कार्ड वगैरह सभी दुरुस्त हो गए। और घने कुहरे को चीरता जहाज आ लगा साउथम्पटन बन्दरगाह पर।
साउथम्पटन- इंगलैंड के विदेशी व्यापार का एक बहुत बड़ा केन्द्र। लन्दन यहाँ से दूर है अभी,लेकिन सिर्फ ईरीना के लिए,क्यों कि उसको जल्दवाजी है डैडी के पास पहुँचने की। मिथुन के लिए तो पलक झपकने भर की दूरी है।
अपना सामान उठाये दोनों बन्दरगाह के बड़े हॉल में आये, और उससे बाहर आते ही एक युवक को देखकर ईरीना हर्ष-गदगद हो उठी।
 ‘ हेलो डॉली! ’- कहा उस युवक ने, और लपक कर ईरीना से लिपट पड़ा।
बगल में खड़े मिथुन के पांव डगमगा गए- गोरे-चिट्टे युवक को देखकर उसका दिल धड़कन भूल गया।
ईरीना द्वारा दोनों के परिचय का सूत्र जोड़ा गया- ‘ ये हैं मिस्टर जॉनसन,मेरे पड़ोसी। ’- और फिर मिथुन की ओर मुखातिब ईरीना ने कहा- ‘ और इनसे मिलिए- मेरे जहाजी हमसफर, मगर अब मेरे चीफ गेस्ट मिस्टर मिथुन।’
मिथुन ने दोनों हाथ जोड़ दिए नमस्ते कहते हुए,किन्तु जॉनसन का हाथ आगे बढ़ता देख अपना दाहिना हाथ भी बढ़ा दिया।
‘ क्यों डैडी नहीं आए?’- ईरीना जरा रुआंसी होकर बोली- ‘ उनकी यही आदत मुझे अच्छी नहीं लगती।’
‘ बहुत बीजी थे। मुझे ही गाड़ी लेकर भेज दिए।’- जॉनसन ने कहा।
बहुत बड़े हॉलनुमा छज्जे के बीच बहुत सी गाड़िया खड़ी थी। एक चॉकलेटी कार में ये सभी आ बैठे। सफर का एक और छोटा टुकड़ा शुरु हुआ इंगलैंड की चौड़ी सड़क पर।
गाड़ी चलती रही, और बातचीत का क्रम भी चलता रहा। जॉनसन कह रहा था- ‘ तुम्हारे आने में देर हो रही थी, इस कारण अँकल चिन्तित थे।’
‘ चिन्ता करने का वक्त भी तो रात ग्यारह-बारह के बाद ही मिलता होगा। ’- ईरीना जरा तुनकती हुयी बोली- ‘ कितना कहती हूँ, अब थोड़ा रेस्ट किया करें, मगर कौन सुनता है। बश काम काम काम। ’
‘ कर्मनिष्ट के लिए आराम हराम होता है ईरीना। ’- मुस्कुराते हुए मिथुन ने कहा।
‘ अब मुझे  एक और कर्मनिष्ट से पाला पड़ रहा है। ’- ईरीना फिर तुनकती हुयी बोली।
सफर के दौरान जॉनसन ने ही ज्यादा हिस्सा लिया बातों में। विगत दिनों के वासी और ताजे समाचार ईरीना को सुनाता रहा।
ईरीना अपने पूरे प्रवास काल की कहानी बहुत थोड़े में कह गयी, किन्तु जहाजी सफर का वर्णन काफी विस्तार पूर्वक की— कैसे मिथुन से मुलाकात हुयी,क्या किया,कहां घूमा,क्या देखा...। ईरीना की उत्साह भरी बातों से जॉनसन को अन्दाजा लग गया था कि ये प्यार के गिरफ्त में आगयी है । किन्तु एक काली चमड़ी वाले से इश्क फरमाना उसे कुछ अच्छा न लगा। परन्तु अपनी भावना वह ईरीना पर प्रकट न किया। चुपचाप गाड़ी दौड़ाता रहा।
लन्दन का मौसम बड़ा विचित्र लगा मिथुन को। इस तरह के मौसम में तो हिन्दुस्तान में लोग चाय की चुस्की लेते,रेडियो खोल कर रजाई के नीचे पड़े रहना पसन्द करते हैं। किन्तु ईरीना ने बतलाया- ‘ यह यहां का प्रचलित मौसम है। हम लन्दनवासी अभ्यस्त हैं इसके। वह मौसम ही क्या जब कुहरा न हो,फुहार न हो?
और ऐसे ही फुहार भरे मौसम में लन्दन के चहल-पहल वाले एरिया स्ट्रैण्ड के एक खूबसूरत बंगले के सामने गाड़ी आकर खड़ी हो गयी।
‘ बी.बी.सी. का दफ्तर भी तो स्ट्रैंड में ही है न? ’- गाड़ी से उतरते हुए मिथुन ने
पूछा।
‘ बस,करीब ही समझो। शाम में हमलोग चलेंगे उधर। ढाई-तीन बजे चलने से फायदा ये होगा कि हिन्दी कार्यक्रम के सभी उद्घोषकों से मुलाकात हो जायेगी। ’- कहती हुयी ईरीना भी नीचे उतर आयी।
‘ ढाई-तीन बजे या कि रात आठ बजे?’ – मिथुन ने कहा तो ईरीना हँस पड़ी- ‘ वो ज़नाब! अभी आपका दिमाग हिन्दुस्तान में ही है? जिस समय यहां तीन बज रहे होंगे, उस समय आपके हिन्दुस्तान में....।’
‘ ओ सॉरी। ’ – मुस्कुराते हुए अपनी भूल का एहसास किया मिथुन ने। उसे ध्यान आ गया कि भारतीय समय से यहां इंगलैंड का समय लगभग पांच घंटे पीछे चलता है।
ईरीना का ध्यान जब जाफरी से घिरे वरामदे के द्वार पर गया तो डैडी नजर आये। दौड़ कर जा लिपटी उनके गले से। मगर पल भर मे ही रुठती हुयी अलग हट गयी।
‘ क्यों क्या हुआ मेरी डॉली को? ’ – फिर स्वयं में ही मुस्कुरा उठे डॉ.क्लॉर्क - ‘ ओऽ..ऽ..समझा, मैं तुम्हें रीसीव करने नहीं आया , इसीलिए न?
मिथुन ने हाथ जोड़कर नमस्ते किया, तो आगे बड़कर डॉ.क्लॉर्क ने प्यार से गले लगा लिया उसे । असमय के इस अचानक प्यार को पाकर मिथुन आनन्दविभोर हो उठा। उसे कल्पना भी नहीं थी कि लन्दन में भी कोई इतने प्यार से उसे सीने से लगा सकता है। आज तक प्रोफेसर गुहा या गुरुदेव ने भी ऐसा नहीं किया था। सयाने बेटे को यूँ गले लगाना  तो हिन्दुस्तान में बहुत कम ही लोग जानते हैं।
बातें करते सभी बैठक में आए। डॉ.क्लॉर्क के इस स्नेहिल व्यवहार पर मिथुन को ईरीना की बात याद हो आयी- ‘ मेरे डैडी को हिन्दुस्तानियों से बहुत प्यार है।’
मिथुन ने अपनी जेब से निकाल कर वह पत्र डॉ.क्लॉर्क को दिया, जिसे भी.सी.साहब ने चलते समय दिया था।
पत्र लेकर पढ़ने के बाद मिस्टर क्लॉर्क को लगा मानों अलादीन का चिराग मिल गया हो। एक बार फिर जकड़ लिया उसे अपनी बलिष्ठ बाहों में।
‘ भी.सी.देवांशु तुमको अपने बेटे की तरह मानता है, तो तुम मेरे लिए भी बेटे ही हुए न।’ – कहा डॉ.क्लॉर्क ने - ‘ तिसपर भी तुम उस देश के हो जहां राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक हुए, टैगोर और तिलक हुए, और आज भी मदर टेरेसा जैसी समाज सेविका शान्ति-दूत वहीं हैं न। ’
‘ ये तो सैमशन में ठहरने जा रहा था। मैं तो ज़बरन खींच लायी इसे।’- ईरीना ने चुगली की।
‘ वाई दिश इम्फीयॉरीटी?’- डॉ.क्लॉर्क ने भारी आवाज में कहा- ‘ पर्हैव्स यू  डॉन्ट नो, किसी भी हिन्दुस्तानी के लिए मेरा दरवाज चौबीसों घंटे खुला है मिथुन बेटे। मुझे हिन्दुस्तान से बहुत लगाव है। इतना प्यार है इस देश और देशवासियों के लिए कि कह नहीं सकता...।’- कहते हुए उनका गला भर आया। मौन होकर कुछ सोचने लगे। मिथुन ने गौर किया- अचानक उनका ध्यान एक फोटो-फ्रेम पर चला गया था,जिसमें एक युवती की तसवीर कैद थी। युवती भारतीय प्रतीत  हुयी,और काफी खूबसूरत भी।
डॉ.क्लॉर्क के आँखों में आँसू छलक आये। पता नहीं वे स्नेह के थे या वेदना के; किन्तु उनकी आँखों में अतीत की परछाइयां  देखी उस वक्त मिथुन ने और फिर देखा ईरीना को उस तसवीर के पास जाकर मथ्था टेकते हुए भी। उसका देखा-देखी मिथुन ने भी किया। उसके दिल की गहरायी में अजीब सा कुतूहल जाग उठा।
मौका पाकर ईरीना से उसने उस फोटो-फ्रेम के बारे में जिज्ञासा प्रकट किया,किन्तु ईरीना कुछ विशेष कह न पायी, या कहना न चाही।
उसने सिर्फ इतना ही कहा-  ‘ पता नहीं किसकी तसवीर है, और कब से मेरे घर में पड़ी है, शायद मेरे जन्म से भी पहले से; किन्तु इतना अवश्य पता है कि इस तसवीर ने ही मेरे डैडी की गृहस्थी में तूफान खड़ा किया और उस तूफान में ही बह कर मेरी माँ लेनिनग्राद चली गयी।’
‘ तो क्या वे हमेशा वहीं रहा करती हैं?’- मिथुन ने जानना चाहा।
‘ हां। वैसे जब कभी डैडी को मम्मी की जरुरत महसूस होती है,तो उन्हें ही लेनिनग्राद जाना पड़ता है, यानी कि वह यहां कभी नहीं आती। ’- ईरीना कह रही थी- ‘ डैडी को उस तसवीर के प्रति बहुत श्रद्धा है, और मुझे डैडी के प्रति। इस कारण मेरी भी स्वाभाविक श्रद्धा हो आयी  उस फ्रेम में कैद महिला से अनजाने में ही।’
ईरीना द्वारा स्पष्ट न बताये जाने पर भी,मिथुन ने उस तसवीर के परिचय का ताना-बाना बुन ही लिया। स्वाभाविक है- कुछ खास निश्चित सम्भावनायें ही हो सकती हैं।
मिथुन को डॉ.क्लॉर्क एक सरस और अति भाउक व्यक्ति प्रतीत हुए। नीरस इतिहास का व्यक्ति साहित्य सा सरस! भाउक ! हालाकि मिथुन को कुछ आश्चर्य अवश्य हुआ।
उस दिन वे दोनों कहीं नहीं जा पाये। और न गये कहीं डॉ.क्लॉर्क ही। वश बैठे-बैठे सिगार का कश लेते रहे और गपवाजी का पिटारा खुला रहा।
‘ तुम कहती थी- डैडी को बात करने तक की फुरसत नहीं रहती। चिंता भी करते है तो रात ग्यारह के बाद, विस्तर पर पड़ कर ही।’- मिथुन कह रहा था ईरीना से- ‘ मगर मुझे तो वैसा नहीं लगा।’
‘ ऐसा सौभाग्य कभी दो-चार वर्षों में ही मिल पाता होगा मिथुन । देखना न, वह तो कल ही पता चल जायेगा। ’- ईरीना ने कहा।
किन्तु मिथुन को ऐसा कभी महसूस न हुआ। उसे तो हर रोज ऐसा सौभाग्य मिला करता।  अपने काम से समय बचाकर करीब चार-पांच घंटे नित्य डॉ.क्लॉर्क मिथुन के लिए सुरक्षित रखते। इस बीच विषय वस्तु की चर्चा तो चलती ही, अन्यान्य विषय पर भी जम कर बातें होती।
लन्दन पहुँचने के दूसरे दिन से ही वह अपने निर्धारित कार्यक्रम में जुट गया। सबसे पहले बी.बी.सी. के गणमान्य व्यक्तियों से मिला। उनका मधुर स्नेह और सहयोग पाकर उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह अपने शहर कलकत्ते में ही है।
करीब पन्द्रह दिन तक नित्य वहां जाना-आना लगा रहा। सारा दिन बी.बी.सी. के निजी पुस्तकालय में गुजार कर देर शाम वापस आता तबतक डॉ.क्लॉर्क भी पहुँच चुके रहते घर पर।
घंटे भर की तफ़रीह के बाद इनकी बैठकी जम जाती,सो देर रात तक अखंड चलती रहती।
‘ तुम्हारा यहां कब तक ठहरने का कार्यक्रम है? ’- एक दिन डॉ.क्लॉर्क ने बड़े प्यार से पूछा।
‘ जितनी जल्दी काम पूरा हो जाय।’
‘ क्यों इतनी जल्दवाजी क्या है? जब तक जी चाहे रहो। मैं तो कहूंगा- यहीं ऑक्सफोर्ड में रह जाओ। चाहो तो मैं इसके लिए व्यवस्था कर दे सकता हूँ।’- डॉ.क्लॉर्क ने आश्वास्त किया अपनी ओर से।
‘ नहीं अंकल।’- मिथुन अब अंकल ही कहने लगा था। ऐसे ही रात्रि बैठकी के क्रम में एक दिन डॉ.क्लॉर्क ने मीठी झिड़की लगायी थी - ‘ ये क्या सर-सर का रट लगाये रहते हो? मैं तुम्हारा सर-वर नहीं हूँ। मैं तुम्हें पुत्र-भाव से देखता हूँ, और तुम सर कह कर, आत्मीयता में बट्टा लगा देते हो।’- और उस दिन से मिस्टर क्लॉर्क अंकल सम्बोधित होने लगे। उनके प्यार का धरहरा पिता से भी ऊँचा साबित हुआ मिथुन को।
लन्दन पहुँचने के शीघ्र बाद ही ईरीना ने अपना अभिप्राय अपने पिता को बता दिया था। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा था- ‘ डैडी ! आई लव मिथुन। आई कान्ट लीभ विदाउट हिम। ’- और प्यार से ईरीना की पीठ थपथपाते हुए डॉ.क्लॉर्क ने कहा था- ‘ डॉन्ट वरी माई डॉल। आई प्रेफर योर लव,वट यू हैभ टू वेट सम पीरियड।’
मगर ईरीना को डैडी का सम पीरियड गंवारा नहीं हो रहा था। वह चाहती है कि इसी क्रिसमस डे को विवाह बन्धन में बन्ध जाय।
ईरीना तड़प रही थी मिथुन को पूर्ण रुप से पाने के लिए। तड़प तो मिथुन भी रहा था, मगर उसे तड़पने  के लिए भी समय निकालना पड़ता था। उसका वश चले तो सप्ताहांत की छुट्टियों को भी अध्ययन-अन्वेषण में गुजार दे, किन्तु ईरीना कब ऐसा चाहती!
            वह उसे घसीट ले जाती कभी टेम्प के किनारे, तो कभी विलडन की तराई में , कभी झील में नहाने के लिए।
नहाने के नाम पर मिथुन को भय लगने लगता और मन चंगा तो कठौती गंगा कह कर ईरीना का बना बनाया  नहाने का मूड बिगाड़ देता।
इनका ज्यादातर समय गुजरता टेम्स नदी के किनारे ही,जो लन्दन शहर के बीचो बीच से गुजर कर बहती है।
कभी अपनी गाड़ी लेकर आउटर कॉलनियों की सैर करने निकल पड़ती, तो कभी कृषि फारमों की ओर,कभी पार्कों में,जहां वार्ता का निन्यानबे प्रतिशत रोमांच ही रहता , मानों सिलेबस समाप्त हो गया हो,पढ़ने के लिए अब कुछ नया रह ही नहीं गया। कभी मिथुन चर्चा छेड़ भी देता तो चिढ़ उठती - ‘ ये क्या हर वक्त बश अध्ययन-अन्वेषण की रट लगाये रहते हो ? ज्यादा पढ़ोगे तो दिमाग पर बोझ पड़ेगा। कभी कुछ रंजन भी होजाना चाहिए मन का। ’- और मौका देख लिपट पड़ती मिथुन से - ‘ यह उमर है प्यार करने की। पढ़ाई-वढ़ाई तो करने के लिए सारी जिन्दगी पड़ी है।’
जब कभी मिथुन भी उसके प्यार का जवाब उसीकी भाषा में दे देता। उसके फड़कते अधर को अपने गरम होठों के बीच कैद कर लेता,और मजबूर होकर ईरीना को मौन साधना पड़ जाता। और इसी तरह काफी देर तक प्रकृति के गुदगुदे गलीचे पर करवटें बदलते रहते दोनों।
समय गुजरता रहा। प्यार का पहिया दिल की गहराई में बिछी पटरी पर चलता रहा। इरीना तो पहले ही दीवानी बन चुकी थी,इधर मिथुन भी यह महसूस करने लग गया कि ईरीना के वगैर उसकी जिन्दगी की गाड़ी चल सकना सम्भव नहीं है। उसे भी हड़बड़ी लगने लगी जल्दी से जल्दी ईरीना को अपना बना लेने की। इस प्रकार दोनों के दिल में एक दूसरे को पाने के लिए तड़प बढ़ने लगा। किन्तु मिथुन की ओर से बाधक था- उसका जटिल अन्वेषण-कार्य। वह चाहता था- अपना काम पूरा कर वापसी से पहले ईरीना को अपना बनाले, और उड़ चले प्यार के पंखों के सहारे स्वदेश को।
बी.बी.सी.तथा अन्य सामान्य पुस्तकालयों से सम्बन्धित कार्य पूरा कार इधर महीने भर से इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी का काम प्रारम्भ किया था। इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी यानी भारतीय सभ्यता-संस्कृति का एक बहुत बड़ा धरोहर और रक्षक भी कहें तो कोई हिचक नहीं। लन्दन स्थित यह कार्यालय बहुत कुछ संजोये है अपने आप में। आज बहुत सी ऐसी निशानी, जिसे हम गंवा चुके हैं,खो चुके है, ईंगलैंड का इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी उसे सुरक्षित रखे हुए है। किसी भी अध्ययन-अन्वेषण प्रिय व्यक्ति के लिए इसका काफी अधिक महत्त्व है। मिथुन की बहुत दिनों से लालसा थी यहां आकर घूमने-देखने- परखने की, जो गुरुदेव की कृपा से अब सम्भव हो पाया।
यहाँ आने पर अंकल क्लॉर्क ने काफी सहयोग दिया और साथ ही ईरीना के प्यार और सहयोग ने बहुत से असम्भव कार्य शीघ्र सम्भव बना दिए। मिथुन के प्रति अंकल क्लॉर्क का व्यवहार और दृष्टिकोण भी काफी बदल चुका था। छात्र  के रुप में तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं। प्रारम्भ हुआ प्रिय हिन्दुस्तानी मित्र के रुप में, और अब देखने लगे थे पुत्री के प्रेमी के रुप में। ईरीना और मिथुन का प्रेम सम्बन्ध प्रारम्भ से ही उन्हें  अच्छा लगा था, और इसकी सफलता की मंगलकामना तहेदिल से करने लगे थे।
सफलता की इस कामना के पीछे एक बहुत बड़ी असफलता की आशंका भी छिपी थी,जिसकी स्पष्ट जानकारी मिथुन को तब मिली,जब एक दिन डॉ.क्लॉर्क ने अपने जीवन- पुस्तक का यौवन-अध्याय खोल कर रख दिया सामने।
डॉ.क्लार्क कह रहे थे- ‘ मेरी पहली भारत यात्रा थी मिथुन बेटे ! और उसी यात्रा ने दिल की गहराई में जो घाव लगाया अभी तक ताजा का ताजा सरीखा  ही है। यूनीवर्सीटी की ओर से ही गया था। कई ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण के बाद पहुँचा था नालन्दा। वह प्राचीन विश्वविद्यालय एवं पुस्तकालय जो म्लेच्छों के वदौलत राख के ढेर में तबदील हो गया, वह सब देख-सुन-जान कर आँखें भर आयी- क्या था भारत,क्या हो गया...। ’- कहते हुए डॉ.क्लार्क सही में रुंआँसे हो गये थे। और उनकी निगाहें बैठक की उस तसवीर पर जा लगी थी।
जरा ठहर कर गला साफ कर,मन को सैंयत कर,फिर कहने लगे थे- ‘ विशेष अध्ययन के लिए वहां दो माह ठहरने का प्रोग्राम बना। खास नालन्दा में तो ठहरने लायक कोई जगह थी नहीं उन दिनों। या तो पीछे आकर राजगृह में ठहरा जाये,या फिर आगे जाकर बिहार शरीफ में। हालाकि अब तो नालन्दा एक जिले का दर्जा पा चुका है,और जिला मुख्यालय हो गया है विहारशरीफ। किन्तु उन दिनों बात ऐसी न थी। विहारशरीफ तो कोई बड़ा शहर था नहीं,जहां ढंग का होटल या रेस्ट हाउस मिलता। मेरे सामने समस्या थी दो माह ठहरने की। विष्णु गया या बोधगया आकर ठहरने से नित्य वहां आने-जाने में ही समय नष्ट होता। और आने जाने का बहुत सुविधाजनक साधन भी उपलब्ध नहीं। किन्तु मेरी इस समस्या को चुटकी बजा कर हल कर दिया एक स्थानीय युवती ने। वह भी वहीं शोधकार्य में लगी थी। उसके पिता वहीं उत्खनन में थे।
मिलते ही बोल पड़ी- ‘ आप परेशान न हों। इतनी दूर से आये है,मेरे देश में अध्ययन करने और रहने का जगह न मिले यहां- यह कैसे हो सकता है!
‘ आखिर कहां रहा जायेगा?’ – मेरे पूछने पर वह बड़ी आत्मीयता से बोली थी -       ‘ कहीं क्या, आप निसंकोच मेरे यहां रहिये । सारी व्यवस्था मैं कर दूंगी।’ – और उसके मधुर स्नेह की डोर में बंधकर,उसकी मेहमानवाजी करनी पड़ी थी। किन्तु मुझे क्या पता था...।’ – डॉ. क्लॉर्क की घनी मूंछों में पल भर के लिए मुस्कान की पतली क्षीण रेखा बिजली सी कौंध गयी थी -  ‘ स्नेह की उस डोर में इतनी ताकत थी कि मेरा सब कुछ खो जायेगा,मैं कल्पना भी न पाया था। सच पूछो तो मिथुन बेटे! मैं उस अदृश्य डोर से पूरी तरह बंध गया। उस भोली-भाली युवती और उसके परिवार के मधुर स्नेह में मैं स्वयं को डुबो दिया। और एक दिन जब मेरी वापसी का समय आया तब पता चला कि मैं अब अकेला वापस नहीं जा सकता ...
‘ यूनिवर्सिटी की ओर से नहीं आया होता तो शायद वापस जाता भी नहीं। परन्तु मजबूर होकर जाना पड़ा। वापस अपने देश लौट आया, किन्तु लौटा सिर्फ शरीर। मेरे मन-प्राण तो वहीं रह गए थे। पटने तक वह मुझे विदा देने आयी थी। सुबकते हुए कहा था उसने- ‘एक परदेशी से नेह लगाकर मैंने बहुत गलत कर लिया। ’ उसकी पीठ थपथपाते हुए मैंने उसे आश्वस्त किया था- घबराओ मत गंगा,मैं जल्दी ही वापस आ जाऊँगा, और फिर सारा जीवन तुम्हारी इन ज़ुल्फों की छांव तले हिन्दुस्तान में ही गुज़ार दूंगा...।  ’
‘ तो क्या पुनः आप वहां गए नहीं? ’ – मिथुन ने पूछा।
‘ गया था।’- डॉ.क्लॉर्क बोले- ‘ किन्तु जाने में कुछ देर हो गयी थी, और विलम्ब का
दंड मुझे बहुत बड़ा मिला...बहुत बड़ा दंड,जिसे आजतक भुगत रहा हूँ- मेरी गंगा मुझे मिली नहीं वहां जाने पर...।’
‘ क्या उसने विवाह कर लिया था किसी और से? ’ – मिथुन ने पूछा,और तसवीर की ओर देखने लगा,जहां बारबार डॉ.क्लॉर्क का ध्यान चला जा रहा था,बातें करते-करते।
‘ नहीं,उसने विवाह नहीं किया। विवाह कर अपना घर बसा ली होती तो शायद इतना गम न होता मुझे। वह तो कहीं और ही गुम हो गयी।’ – रुंधे गले से कहा था डॉ.क्लॉर्क ने- ‘ कई महीनों तक वह मेरी प्रतीक्षा करती रही थी, और फिर अचानक एक दिन लापता हो गयी घर से। उसके पिता ने काफी खोज कराया, किन्तु कहीं पता न चला। लोगों का अनुमान था- उसने गुप्तरीति से आत्महत्या कर ली।
‘ हाथ मलता मैं वापस आ गया। तीन-चार महीने उसके गम में पागल बना इधर-उधर भटता फिरा। इसी बीच एक रुसी लड़की आयी मेरे सम्पर्क में,जिसने मेरे गहरे ज़ख्म पर अपने प्यार का मरहम लगाया, और धीरे-धीरे घाव भरने लगा।
‘ घाव भर गया,और मैंने उससे शादी भी कर ली। दूसरा वर्ष पूरा होने से पहले,मैं एक बच्ची का बाप भी बन गया। किन्तु जब कभी भी वह ज़ख्म फिर उभर आता। अतल में उसका भीतरी नासूर तो मिटा नहीं था। मवाद भर आता,और टभकने लगता। किन्तु उसे इस पुराने ज़ख्म से सख्त नफरत होती। बारबार उलाहना देती- कि मैं उसे प्यार नहीं देता,और इसका नतीजा हुआ कि एक दिन वह भी मुझे छोड़कर चली गयी।’
‘ अब अंटी कभी नहीं आती यहां?- मिथुन ने जिज्ञासा की।
‘ नहीं,मिथुन बेटे! वह कभी नहीं आती,पर मैं जाता हूँ उसके पास। इसलिए कि उसे आवश्यकता नहीं है मेरी,किन्तु मुझे हर वक्त है उसकी जरुरत। वह तो बिलकुल खुले विचारों वाली औरत है,जिसके लिए प्रेम और विवाह एक रस्म की अदायगी भर है,एक समझौता भर। जिस पर कभी भी हस्ताक्षर किये जा सकते हैं, और कभी भी डिसमिस किया जा सकता है। वचन और निर्वाह का कोई मायने नहीं वहां। परन्तु मैं जन्मा सिर्फ पश्चिम में हूँ। आत्मा पूरब वाली ही है । मेरे लिए उनके लिए,या कहूं उन दोनों के लिए टीस है,कसक है,तड़प है- एक जिस पा नहीं सका,और दूसरी जिसे पाकर भी...। ’ – डॉ.क्लॉर्क के आंखों में आँसू छलक आये थे,जिसे मुंह फेर कर,पोंछने की कोशिश करने लगे, तभी देर से बाहर निकली ईरीना आ पहुँची, और वातें अधूरी ही रह गयी।
ईरीना के आते ही डॉ. क्लार्क उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। उनकी जगह मिथुन के पास ईरीना बैठ गयी।
‘ आज लाइब्रेरी नहीं जाना है क्या?’- पूछा ईरीना ने तब मिथुन का ध्यान भंग हुआ। वह खोता चला गया था अंकल की बातों में। उनके दिल का दर्द उसे अपने दर्द सा लगा था- ‘ क्या ये पश्चिमी नारियां इतनी बेवफा होती हैं? ’ – पल भर के लिए उसके दिमाग में आया था- ‘ कहीं मुझे भी हाथ न मलना पड़े।’ – किन्तु पीठ पर पड़ी ईरीना की मृदु हथेली के स्पर्श ने ज्यादा सोचने न दिया।
‘ याद है न,कल क्रिसमश डे है?’- ईरीना ने पुनः पूछा था।
‘ था तो नहीं,मगर तुम कही तो याद आ गयी।’
‘ तो यह भी याद आगयी होगी कि कल हमलोग का क्या प्रोग्राम है?’- ईरीना हँस कर बोली।
‘ जरुर याद आगयी कि कल सुबह-सुबह तुम मुझे डोवर घसीट कर ले चलोगी।’
‘ घसीटने का सवाल कहां है,तुम्हें अपने पांव पर चल कर मेरे साथ चलना होगा।’
‘ पावों से तो चलूंगा ही,किन्तु मन से ...।’
‘ सो क्यों?
‘ तुम तो जानती ही हो- नदी-झील आदि से मुझे कोई खास लगाव नहीं है। बल्कि कहो कि चिड़ है। जो मजा हॉटवाटरशावर के फुहार में नहाने में है वो...।’- मिथुन की बात पर ईरीना खिलखिलाकर हँस पड़ी। मिथुन से बातचीत के क्रम में वह जान चुकी थी कि किसी बहम के चलते वह नदी में नहाने से कतराता है।
 ‘ चलो आज भी कहीं घूमा जाये। यूँ मनहूस की तरह बैठे रहने से क्या फायदा।’ – हाथ पकड़कर उठाती हुयी ईरीना ने कहा।
‘ मनहूस की तरह बैठने का समय ही कहां है अभी। लाखों काम पड़े हैं। किन्तु यदि तुम्हें कहीं चलने का विचार ही है ति दूसरी बात है।’ – मिथुन भी उसकी हँसी में साथ देते हुए कहा।
‘ कहीं और नहीं।’- ईरीना खड़ी होती हुयी बोली- ‘ डैडी से पूछ लेती हूँ। मेरा विचार है कि आज ही चल चला जाये। रात डोवर में गुजारेगे,कल सुबह वहां स्नान करके घूमते-घामते शाम तक वापस आया जायेगा।’
मिथुन की इच्छा जरा भी न हो रही थी, किन्तु ईरीना चली गयी डैडी के पास दूसरे कमरे में,और शीघ्र ही उनका आदेश ले, जाने की तैयारी में लग गयी। मन मार कर मिथुन को भी तैयर होना पड़ा।
डोवर- पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र-विन्दु। प्रभु यीशु के पवित्र पर्व की यादगार में सूरज ने अपनी सुनहली किरणों का गरमागरम गुदगुदा गलीचा डोवर की छाती पर विछा दिया है। तट पर बड़ी-बड़ी रंगीन छतरियां भी खड़ी हैं,और उनके नीचे सामान रख कर अगल-बगल रेत पर रंगीन जोड़े सूरजमुखी के फूलों की तरह सूरज की ओर हसरत भरी निगाहों से निहारे जा रहे थे। इंगलैंड के लिए सूरज बड़ा प्यारा हुआ करता है। तट पर जितने भी लोग हैं, अपेक्षाकृत कम कपड़ों में सूरज की मीठी धूप का आनन्द ले रहे हैं।
एक ओर जाकर मिथुन और ईरीना ने भी अड्डा जमाया। मिथुन को ठंढक अधिक महसूस हो रही है। उसे तो नहाने की इच्छा भी नहीं है, मगर ईरीना कब माने वाली है। अपने सारे कपड़े मिनटों में उतार फेंकती है। स्वीमिंगसूट पहले से ही पहन रखी थी।
‘ तुम वाकयी नहीं नहाओगे?’ – मिथुन को स्थिर बैठा देख ईरीना ने सवाल किया।
 ‘ वगैर नहाये काम चल जाये,तो बहुत ही अच्छा हो।’- मिथुन मुस्कुराते हुए सामने खड़ी ईरीना को देखने लगा। खुले वातावरण में खुले शरीर ईरीना को देखने का पहला अवसर था मिथुन के लिए। आसमानी सूट गोरे वदन से चिपककर अपना भाग्य सराह रहा था, और उसे प्यासी निगाहों से निहारता मिथुन अपना भाग्य। ईरीना के गदराये जिस्म को देख कर मिथुन को कुछ अजीब सा लगने लगा। ईरीना भी उसकी आँखों की प्यास और मौन की भाषा को समझ रही थी, किन्तु कुछ बोली नहीं। मिथुन कुछ देर यूंही देखता रहा उसे। इसके पहले भी कई बार उसने नहाने का प्रोग्राम बनाया था,किन्तु हर बार मिथुन कन्नी कटा जाता। आज बहुत जिद्द करने के बाद साथ आना पड़ा है,मगर फिर भी पूरी तरह साथ कहां दे पा रहा है।
‘ तुम भी अजीब हो मिथुन। कितना मजा आता साथ मिल कर नहाने में। चलो उठो कपड़े उतारो।’ – हाथ खींचती ईरीना बोली,जिसे देखकर कई जोड़ी आंखें इधर ही मुड़ गयी थी,जबकि वहां की ऐसी सभ्यता नहीं है। आसपास होते हुए भी सभी अपने आप में ही मस्त रहते हैं। किसी और पर नजर डालते रहना तो भारतीय नजरों की गुस्ताखियां हैं।
‘ अरे बाबा मुझे तैरना नहीं आता। क्यों तंग कर रही हो। तुम नहाओ,मैं बैठ-बैठे देखता रहूंगा तुम्हारी जल-क्रीडा।’ – घसीट कर जबरन स्कूल ले जाते बच्चों सा गिड़गिडाते हुए मिथुन ने कहा तो ईरीना को जोरों की हंसी आगयी।
 ‘ पानी से एलर्जी है क्या तुम्हारे हिन्दुस्तानी यार को? ’ – एक इतालवी लड़की ने चुटकी ली,जो पास ही व्राउन सूट में अकेली खड़ी थी। शायद उसका कोई साथी न था।
‘ एलर्जी तो नहीं,डर और झिझक है सिर्फ।’ – मुस्कुराती हुयी ईरीना उसकी बातों का जवाब दी।

‘ तो आओ चलें,हमदोनों मिल कर नहायें। इन्हें छोड़ दो यहीं रंगीन परियों से आँखें लड़ाने के लिए।’ – पास आकर,ईरीना का हाथ पकड़ी उस लड़की ने कहा।
क्रमशः...

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