गतांश से आगे...
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‘ कहीं कोई
खूबसूरत परी ले उड़ी अपने रंगीन पंखों पर विठा कर,फिर मैं हाथ मलती ही रह जाऊँगी।’
– ईरीना मिथुन की ओर देखकर आँख दबा दी,जो उस नयी लड़की की ओर देख रहा था।
‘
हिन्दुस्तानी लोग इतने मनचले नहीं होते। एक जगह चिपक जाते हैं,तो हटने का नाम नहीं
लेते। तभी तो हिन्दुस्तानी औरते पति को गॉड मानती हैं।’
‘ तब तो
बेफिकर होकर,चला जाय।’- ईरीना मानों आश्वस्त हो गयी लड़की की बात पर।
मुस्कुराती,थिरकती चल पड़ी उसका हाथ पकड़कर।
मिथुन अपनी
जगह पर बैठा,उन दोनों का पृष्ठभाग निहारता रहा,जबतक वे पानी में उतर न गयी, साथ ही
मन ही मन अपने भाग्य और चुनाव पर इठलाता भी रहा। पल भर के लिए उसके जवानी ने जोश
मारा। विचार हुआ—आज ही ईरीना को स्पष्ट स्वीकृति देदे। वैसे कहा जाये तो स्वीकृति
देना शेष ही कहां कह गया है। हर तरह से पूछपाछ कर ईरीना ने उसका विचार जान लिया
है। वह तो उसे पाने के लिए वेचैन है ही। विचार करना तो सिर्फ इस बात का रह गया है
कि शादी के बाद वह यहीं रहना पसन्द करेगा या स्वेदेश वापस जाना।
किन्तु इस
सम्बन्ध में भी ईरीना अपनी राय ज़ाहिर कर चुकी है। मिथुन के पिता से आशीष लेने एक
दफा हिन्दुस्तान जाना जरुर चाहती है, मगर अपनी मम्मी-डैडी को छोड़कर हमेशा के लिए
भारत में बस जाना गवारा नहीं। हालांकि बूढ़े पिता चाहें तो अपनी जिन्दगी बेटे-बहू
के साथ इंगलैंड में गुजार सकते है। आँखिर उनका रखा ही क्या है नीरस हिन्दुस्तानी
गृहस्थी में!
मिथुन सोच
रहा था- ईरीना के बारे में, और ईरीना उस लड़की के साथ जल-विहार कर रही थी। आसपास
कई लोग पसरे पड़े थे गुदगुदे रेतीले गलीचे पर सुरमई धूप का आनन्द लेते। कई
जोड़ियां तैर रही थी मछलियों की तरह।
एकाएक शोर
मचा—विभिन्न भाषाओं का सम्मिलित शोर, और उसके साथ आराम करती जोड़ियां भी उठकर
किनारे जा खड़ी हुयी।
शोर का
कारण कुछ समझे वगैर मिथुन भी हड़बड़ा कर दौड़ पड़ा उसी ओर जहां पर्यटको की जमघट
थी। वहां पहुँचने पर जो कुछ भी मालूम चला उससे मिथुन के दिल की धड़कन अचानक तेज हो
आयी।
किनारे
खड़े लोग कह रहे थे—अभी-अभी जो दो लड़कियां नीले और व्राउन स्वीमिंग सूट में तैर
रही थी,अचानक बचाओ-बचाओ की शोर मचाकर कहीं गुम हो गयी...।
एक
व्रितानी पर्यटक ने कहा- ‘ मैंने नीली सूट वाली को पानी से ऊपर हाथ उठाये देखा था
उस ओर...।’
और उसके कहते
के साथ ही मिथुन लपक कर कूदने को तैयार हो गया। पास खड़ी अमरीकन जोड़ी उसे पकड़ न
लेती तो पल भर में ही वह भी जल-समाधि ले चुका होता।
मिथुन जोर
लगाकर उनसे पिंड छुड़ाना चाह रहा था, मानों बाज के शिकंजों से कुकरी चिड़ियां भाग
जाना चाह रही हो। मगर उसे छोड़ न रहे थे वे लोग।
‘ कहां
जाओगे उस भंवर में जूझने...आगे बहुत खतरा है...उन्हें इतनी दूर जाना ही नहीं चाहिए
था...मोटरवोट वालों को कहो...कोई तेज तैराक होता तो...मगर किधर ढूढ़ा जाये...इतनी
जल्दी नजरों से ओझल हो गयी दोनो...तैरना नहीं जानती होगी...फिर गयी कैसे इतनी दूर
गहरे पानी में...।’ – जितने मुंह उतनी बातें।
मिथुन लगभग
चीख रहा था- ‘ छोड़ दो मुझे...जाने दो पता
लगाने...मैं निकाल लाऊंगा भंवर से...।’
मगर उसे
छोड़ा नहीं जा रहा था। लोग समझ रहे थे- भावनात्मक आवेश में कूद कर यह भी जान गंवा
बैठेगा। अमरीकन दम्पति उसे मजबूती से पकड़े हुए थे। एक-दो अन्य लोग उसे तरह-तरह से
समझाने की भी कोशिश कर रहे थे।
कुछ देर
बाद कुछ नाविक अपनी वोटें लेकर इधर-उधर ढूढ़ने का प्रयास करने लगे। तकरीबन तीन-चार
घंटे तक खोजबीन जारी रहा। चारों तरफ जाल डाल कर भी ढूढा गया। कुछ साससी गोताखोर भी
उतारे गए। यहां तक कि पर्यटन कार्यालय के अनुरोध पर पनडुब्बी भी बुलायी गयी।
किन्तु इतने भाग-दौड़ के बावजूद परिणाम कुछ न निकला। सबको इस बात का आश्चर्य हो
रहा था कि आखिर दोनों गये कहां! यदि कोई समुद्री जन्तु भी नजर
आता तो कहा जा सकता था।
दरअसल डोवर
के लिए यह एक हैरतअंगेज सनसनीखेज घटना थी। यह तो ठीक वैसा ही हुआ- जैसे कि
अन्तरिक्ष में ब्लैकहोल में या फिर बरमूदा त्रिकोण प्रायः हो जाया करता है-
बड़े-बड़े जहाज एकाएक गुम हो जाते हैं। लाख यत्न के बावजूद उनका कुछ अतापता नहीं
मिलता।
पर्यटन
विभाग द्वारा डोवर का तट सील कर दिया गया। किसी को उधर जाकर नहाने की अनुमति नहीं
थी। मगर इन सबसे क्या ,जो होना था सो तो हो चुका। मिथुन का मानों संसार ही लुट
गया। उसकी स्थिति विचित्र सी हो गयी। शुरु में तो चीखता-चिल्लाता रहा। वहां
उपस्थित लोग सहानुभूति पूर्वक सम्भाले रहे। जब मोटरवोट और पनडुब्बीयों द्वारा खोज
शुरु हुयी,तब कुछ शान्ति हुआ। थोड़ी आशा बंधी। किन्तु हताश पनडुब्बियों का
निराशाजनक परिणाम सुन,उसकी हालत और भी विचित्र हो गयी।
एकबार जोरों
से चीखा—ई...ऽ...री...ऽ...ना...ऽ...,जिसकी भारी आवाज आसपास की ईमारतों से
टकरा-टकराकर पूरे डोवर प्रान्त को गुंजा गयी, और इसके साथ ही उसकी बड़ी-बड़ी भूरी
आँखें पथराने लगी। पलकों का झपकना बन्द हो गया। यह भी नहीं कि बेहोश होकर गिर
जायेगा,वरन् पत्थर की प्रतिमा सा शान्त निश्चल बैठा रहा। काफी देर तक यही स्थिति
बनी रही।
ईरीना के
टूरिस्ट बैग पर उसका पता अंकित था। अमरीकन दम्पति ने गाड़ी में टांग-टूंग कर बैठा
दिया मिथुन को। पहले उसे अस्पताल ले जाया गया। डॉक्टर ने निरीक्षण - परीक्षण के
बाद कुछ साधारण सी दवायें देकर छुट्टी कर दी। कहा- सिर्फ गहरी नींद की जरुरत है।
सदमें की वजह से ऐसा हुआ है। जल्दी ही ठीक हो जायेगा।
वे दम्पति
ही उसे लिए डॉ.क्लॉर्क के निवास पर पहुँचे। डॉ.क्लॉर्क घर पर ही थे। अमरीकनों
द्वारा स्थिति की जानकारी मिलने पर पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ, किन्तु मिथुन की
स्थिति देख सच्चाई का आभास मिला। क्षण भर तक एकटक देखते रहे मिथुन की सूनी आँखों
में, फिर उससे लिपट कर बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगे।
रो-कलप कर
दिल का दर्द शान्त किया डॉ.क्लॉर्क ने ,और फिर धैर्य के धक्के से जीवन की गाड़ी को
धीरे-धीरे चलाने का प्रयास करने लगे। हिम्मत ने साथ छोड़ दिया था, किन्तु कर्तव्य
ने हिम्मत नहीं हारा था। दस-पन्द्रह दिनों तक शोक-सन्तप्त रहने के बाद पूर्ववत
अपने दैनिक क्रिया-कलापों में लग गये। हां,इनमें किंचित परिवर्तन अवश्य आ गया। समय
पर वापस आने की पाबन्दी समाप्त हो गयी थी। सोने का समय भी सुनिश्चित नहीं रह गया
था। हां,जगने का समय वही था,जो पहले था। जीवन एक तरह से रस-बिहीन हो चुका था।
हालाकि अभी पत्नी थी,एक बच्चा भी था उससे, किन्तु ईरीना उनकी मात्र बेटी ही नहीं
सहयोगी,सहचरी और प्रेरणा शक्ति थी,जो अब समाप्त हो चुकी थी।
किन्तु मिथुन? उसका तो सबकुछ था- सगे पिता,सौतेली माता, भाई,
बहन, इष्ट-मित्र, गुरुजन...भरापूरा विस्तृत विश्वविद्यालय समुदाय- सबकुछ तो थे ही। मगर एक तरह से कहें तो उसकी दुनिया- प्यार और आशा की दुनिया,सुख-चैन की दुनिया, भावी सपनों की मोहक-रंगीन दुनिया उजड़ चुकी थी। आंखों का पथरीलापन तो सामान्य सी दवाइयों से ही दूर हो चुका था,पर दिल पर पड़ी भारी भरकम चट्टान जरा भी सरक न रही थी। इसी भारी चट्टान-तले उसके सारे अरमान,सारी खुशियां,सारा सुख-चैन,सारी शान्ति दबकर कराह रही थी, और वह चुपचाप डॉ.क्लॉर्क के निवास पर अपने शयन-कक्ष में पड़ा अपने दिल की अधूरी धुकधुकी सुनता रहता। सूनी आँखों से प्रेम की उजड़ी बगिया को देखा करता। सहानुभूति देने वाला भी कोई नहीं था। अंकल क्लॉर्क के सुख में तो स्वयं ही छाले पड़े थे। देर रात कभी घर आते तो मात्र औपचारिक रुप से पूछ भर लिया करते- ‘ खाना खा लिए मिथुन?’
बहन, इष्ट-मित्र, गुरुजन...भरापूरा विस्तृत विश्वविद्यालय समुदाय- सबकुछ तो थे ही। मगर एक तरह से कहें तो उसकी दुनिया- प्यार और आशा की दुनिया,सुख-चैन की दुनिया, भावी सपनों की मोहक-रंगीन दुनिया उजड़ चुकी थी। आंखों का पथरीलापन तो सामान्य सी दवाइयों से ही दूर हो चुका था,पर दिल पर पड़ी भारी भरकम चट्टान जरा भी सरक न रही थी। इसी भारी चट्टान-तले उसके सारे अरमान,सारी खुशियां,सारा सुख-चैन,सारी शान्ति दबकर कराह रही थी, और वह चुपचाप डॉ.क्लॉर्क के निवास पर अपने शयन-कक्ष में पड़ा अपने दिल की अधूरी धुकधुकी सुनता रहता। सूनी आँखों से प्रेम की उजड़ी बगिया को देखा करता। सहानुभूति देने वाला भी कोई नहीं था। अंकल क्लॉर्क के सुख में तो स्वयं ही छाले पड़े थे। देर रात कभी घर आते तो मात्र औपचारिक रुप से पूछ भर लिया करते- ‘ खाना खा लिए मिथुन?’
वैसे अभी
महीने भर और ठहरने से मिथुन का काम पूरा हो पाता सही ढंग से। किन्तु उसे अब जरा भी
मन नहीं लग रहा था यहां। अपने अन्वेषण के काम में जरा भी दिलचश्पी नहीं । अंकल के
समझाने का भी कोई खास असर नहीं।
अन्त में
एक दिन डॉ.क्लॉर्क ने कहा- ‘ न होतो एक बार स्वदेश जाकर घूम आओ। मन बहल जायेगा।
यूं मायूस पड़े रहने से स्वास्थ्य भी खराब होता जा रहा है।’
‘ अब जी
नहीं लगता अंकल। जितना हो चुका वही काफी है।’
‘ तो फिर
वापस जाना चाहते हो या यहीं तुम्हारे रहने की व्यवस्था सोचूं?’
अंकल के
सवाल का कोई सही जवाब सोच न पाया मिथुन। बल्कि कुछ ही सोचता रहा इसबीच। पहले तो
सोचता रहा- पुत्री के प्रेम में यहीं रखने का विचार करते हैं, मगर अब? अब तो इनकी बेटी ईरीना भी नहीं रही,फिर उसके प्रेमी के प्रति स्नेह कैसा और क्यों?
‘ आप जो भी
उचित समझे,मैं करने को तैयार हूँ अंकल।’- मिथुन ने नम्रता पूर्वक कहा।
‘ ठीक है।
मैं तो यही सुझाव दूंगा कि एक बार कलकत्ता हो आओ। पुनः यहां जब भी आने की इच्छा हो
मुझे सूचित कर देना। मैं फौरन आने की व्यवस्था कर दूंगा। तुम कुछ अन्यथा न सोचो।
ईरीना, मेरी बेटी चली गयी, मगर तुम्हारा हिन्दुस्तानीपन तो समाप्त नहीं हो गया न।
हिन्दुस्तानियों के प्रति मेरे प्रेम में बेटी का सम्बन्ध आड़े नहीं आ सकता।’
और अगले
पन्द्रह दिनों बाद मिथुन अपनी पुरानी दुनिया में लौट आया- कलकत्ता। वापसी यात्रा
उसने हवाई जहाज से की,क्यों कि यादों की नगरी से जल्दी से जल्दी दूर हो जाना चाहता
था। मगर यादें थी कि दूर होने का नाम न ले रही थी। ज्यों-ज्यों दूरी बढ़ रही थी,
यादें गहरायी जा रही थी। फिर वह उसी देश में वापस आ गया है,जहां उसका सुलगता अतीत
अभी भी वर्तमान है।
अचानक
विश्वविद्यालय में उपस्थित देखकर सबको आश्चर्य हुआ।
‘ अरे
तुमने तो कोई सूचना भी नहीं दी वापसी की।’ – कुलपति महोदय ने स्नेह से कंधा
थपथपाते हुए पूछा- ‘ कहो कैसी रही विदेश-यात्रा?’
‘ आपके
आशीर्वाद से सब ठीक ही रहा गुरुदेव।’- मिथुन ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
‘ मेरे
मित्र डॉ.क्लॉर्क का क्या हाल है?’ – पूछने पर क्षण भर के लिए
मिथुन का चेहरा मुरझा सा गया। कहे ना कहे के द्वन्द्व में उलझ गया।
‘ बिलकुल
स्वस्थ-सानन्द।’ – मुंह से तो निकल गया, पर सानन्द शब्द पर खुद ही अटक गया। जरा
ठहर कर बोला - ‘ उनकी कृपा से ही तो
वर्षों का काम महीनों में पूरा कर सका।’
इसी प्रकार
काफी देर तक बातें होती रहीं। अन्य साथियों और गुरुवरों से मिलजुल कर यात्रा का
विवरण सुनाता रहा। सारा दिन एक न एक लोग मिथुन को घेरे ही रहे। किन्तु हँसी-खुशी
के इस माहौल में भी बेचारा कहीं शान्ति ढूढ़ न पा रहा था।
करीब
सप्ताह भर तक यही क्रम रहा। समय पर विश्वविद्यालय जाना,वापस आना और गुमसुम डेरे
में पड़े रहना। बाहर घूमने-फिरने का काम पहले भी बहुत कम ही करता था। अब तो और भी
खतम हो गया। हर समय मन उचाट सा लगता। किसी
काम की कोई महत्व और आवश्यकता न रही थी। खाना कभी खा लेता,और बिन खाये ही पड़ा रहता।
स्वास्थ तेजी से गिरना शुरु हो गया था। कोई राजदार भी ऐसा न था, जिससे कह बतिया कर
मन हल्का कर पाता।
इधर घर की
याद भी काफी सताने लगी थी। पिता से मुलाकात हुए करीब छः महीने हो गये थे। फलतः इसी
उधेड़बुन में पड़ा घर चला आया। घर की स्थिति काफी बदली हुयी सी लगी। पिता महीने भर
से खाट पकड़े पड़े थे,जिसकी सूचना भी देने की आवश्यकता इन लोगों ने महसूस न की थी,और
न उनकी सेवा-सुश्रुषा पर ही किसी का ध्यान था। नीता पूरे तौर पर उदासीन ही रही।
मिथुन के घर आने पर कोई दिसचस्पी न दिखायी। पिता इस स्थिति में थे नहीं कि खुशी या
रंज ज़ाहिर करते। सुदीपका बौड़ापन इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ा नजर आया। उसे तो पहले भी
फुरसत या परवाह नहीं रहता था भाई के लिए। एक दो घनिष्ट मित्र- अनूप और सुधीर थे।
सुबह-शाम उनकी बैठकी घंटे-दो घंटे की लगती, पर बातचीत में सक्रिय भाग न लेता देख
वे भी क्षुब्ध हो जाते। किसी को समझ न आता कि क्या हो गया है। क्यों मिथुन इतना
गमगीन है।
थोड़ा
ध्यान रखने वाली एक थी- दीपा। परन्तु उस पर माँ का इतना कड़ा अंकुश रहता कि बेचारी
मिल भी न पाती ठीक से अपने प्यारे भाई से।
समय पाकर
एक दिन दीपा ने ही बतलाया - ‘ तुम्हारे लन्दन जाने के बाद,एक दिन अचानक फैक्ट्री
में आग लग गयी। सब कुछ स्वाहा हो गया। आग कैसे लगी कुछ पता न चल पाया। पुलिस
आयी,जांच का कोरम पूरा कर गयी। फैक्ट्री तो बन्द ही हो गयी। मजदूर लोग अलग सवार
हैं सिर पर। उनका पुराना बकाया भी चुकाना है। बहुत दिनों से उन्हें वेतन नहीं मिल पाया
है। इन्स्योरेंस वाले भी हरजाना देने से अभी इनकार ही कर रहे हैं। वे साबित करने
में लगे हैं कि आग जानबूझ कर लगायी गयी है...।’
दीपा की
बातों का कुछ खास अर्थ न निकल पाया मिथुन के लिए,बल्कि नयी उलझने और नये सवाल खड़े
होने लगे। आखिर आग जानबूझ कर क्यों लगायी गयी...कौन लगाया...किसने कहा...क्यों
कहा...आखिर अपने ही पेट में क्यों छूरा घोंपा गया...?
किन्तु एक
दिन अनूप ने कहा तो बहुत सी बातें स्पष्ट होने लगी— ‘ इन
सबके पीछे बनर्जी का हाथ है।’
‘ बनर्जी
का हाथ क्यों कर हो सकता है? ’ – किंचित जानकारी रहते हुए भी
मिथुन ने बिलकुल अनजान सी बातें की।
‘ बनर्जी
को एक बेटी थी,तुम शायद उसे जरुर जानते होवोगे। ’ – अनूप ने कहा।
‘ हां
अच्छी तरह जानता हूँ। वही न जिसे पिछले दिनों सेक्रेटरी बनाया गया था आनन-फानन में?’
‘ हां,वश
वही सारे मामले की जड़ में है। शहर में कई तरह की अफवाहें फैली हैं। कह नहीं सकता
असलियत क्या है, मगर इतना तो ज़ाहिर है कि बनर्जी की बेटी स्मिता अब रही नहीं। ’ –
अनूप ने कहा तो मिथुन एकबारगी चौंक पड़ा।
‘ क्यों
क्या हुआ उसे?’
‘ उसने
आत्महत्या कर ली। ’ – अनूप ने आगे कहा - ‘
आत्महत्या कर ली या कि हत्या कर दी गयी- अभी ठीक से कहा नहीं जा सकता । मामला
अदालत में पहुँच चुका है। पुलिस अपने ढंग से छानबीन करने में जुटी है। बनर्जी ने
आरोपी सुदीप को घोषित किया है। उसने कहा है कि उसकी बेटी स्मिता मजदूरों की ओर से
मालिक से बकाये बोनस और वेतन के लिए पैरवी कर रही थी। इसी बात को लेकर सुदीप और
स्मिता में काफी कहासुनी हो गयी। मालिक भला कब चाहेगा कि मजदूरों को कोई मशीहा
पैदा हो। चुकि बात काफी आगे बढ़ गयी थी,इस कारण सुदीप ने ही मैनेजर खन्ना के सहयोग
से स्मिता की हत्या कर दी...।’
अनूप की
बातें तो मिथुन सुन रहा था, किन्तु उधर अनुमान लगा रहा था कि मामला क्या हो सकता
है- निश्चित ही यह कुकृत्य नीता का है। वह जानता है कि सुदीप तो पहले ही जवाब दे
चुका था। मिथुन भी बागी होकर निकल भागा था- विदेश-यात्रा के बहाने। लाचार नीता ने
ही नया रास्ता अख्तियार किया होगा- घटनाक्रम की असली साक्ष्य स्मिता को ही रास्ते
से हटा देने का कृत्य। किन्तु यह रास्ता कितना किसके लिए निरापद सिद्ध होगा- यह तो
वर्तमान में दीख ही रहा है,और भविष्य का भी संकेत कर रहा है।
घर की
दयनीय स्थिति से मिथुन का मन और भी खिन्न हो गया। जितनी ही शान्ति ढूढ़ना चाह रहा
था, अभागी शान्ति उससे उतनी ही दूर छिटकती जा रही थी।
एक दिन यूँ
ही कमरे में पड़ा आँसू बहा रहा था कि अनूप और सुधीर आ पहुँचे। उसे देख कर जल्दी से
आँखें पोंछ उठ बैठा मिथुन।
‘ क्यों
गमगीन बैठे रहते हो यार,क्या तकलीफ है? ये लो सिगरेट पीओ।
’- अपनी जेब से सिगरेट और लाइटर निकाल,मिथुन को देते हुए सुधीर ने कहा।
‘ क्या
होगा इस सिगरेट धुंआ-धुकुर से? दिल तो यूं ही जल कर खाक हुआ जा
रहा है। ऊपर से और आग और धुआँ! ’
‘ सिगरेट
की खुशबूदार धुंयें से गम की आग खुद ब खुद बुझ जायेगी यार। पी कर तो देखो।’ – अनूप
ने सिगरेट जबरने उसके होठों से लगा दिया था। सुधीर ने लाइटर से उसे जला भी दिया।
मिथुन ने कश खींचे और जोरों की खांसी आयी,इतनी जोरदार खांसी कि लगा कि फेफड़ा फट
जायेगा। सिगरेट उठा कर दूर फेंक दिया।
‘ धत्त। इन
बाहियात चीजों से क्या तसल्ली मिल सकती है।’
किन्तु
अनूप ने दूसरा सिगरेट थमा दिया- ‘ बार-बार
क्या खांसी ही आती रहेगी। धीरे से कश लो,और देखो,ये मारकोपोलो है,कोई
विल्स-पनामा-कैप्सटेन नहीं। ’
अनूप के
कहने पर मिथुन कश लेने लगा। कुछ देर के लिए लगा कि गम सही में उड़ता जा रहा है
सिगरेट के धुंएं के साथ। और उस धुंएं के साथ ही मिथुन ने दिल के कुछ गुब्बारों निकालने
की कोशिश की। सब तो नहीं,मगर कुछ जरुर निकला दोस्तों के बीच।
‘ मैं भी
उड़ती चिड़िया पकड़ता हूँ यार। ’ – अनूप ने हँस कर कहा- ‘ मुझे लग रहा था कि जरुर कोई खास बात है। इस
उम्र में कोई विदेश जाये,और प्रेमपाश में जकड़े बगैर छूंछा-छूंछा वापस आ जाये- ये
भी मानने की बात है।’
‘ मगर
मिथुन भाई जैसा भोला-भाला विशुद्ध हिन्दुस्तानी भी गोरी-चिट्टी मेम के चंगुल में
फंस गया यही आश्चर्य हो रहा है मुझे।’ – सुधीर ने कहा।
सिगरेट के
कश ने,और दोस्तों की चुहलबाजी ने मिथुन के गम को काफी हट तक कम किया,मगर वास्तविक
शान्ति मिल न पा रही थी। उसकी शान्ति तो ईरीना चुरा ले गयी। स्वयं चली गयी मिथुन
के दिल में प्यार के जोत लगाकर,और अब उस पर विरह और गम के पतंगे मड़रा कर उसका
तन-वो-वदन झुलसाये जा रहे हैं। प्यार का दीपक जलते-जलते एकाएक भभक उठा है।
विरह-वेदना का लौ काफी तेज हो आया है। लगता है उस भयंकर ज्वाला में उसका सर्वनाश
ही हो जायेगा।
अतीत की
यादों को वर्तमान का जोरदार झटका लगा। पूरा वदन कांप उठा एक बार। सूनी आँखें, जो
कहीं शून्य में खो सी गयी थी,वर्तमान की झांकियां देखने लगी। सामने चोली-लहंगे में
लिपटी ईरीना खड़ी नजर आयी।
मगर नहीं।
यह ईरीना नहीं। यह तो खुद को मन्दाकिनी कह रही है। अभी-अभी उसकी कलाई पकड़ ली थी
मिथुन ने,जिसे झकझोर कर बड़े बेरहमी पूर्वक छुड़ा ली है उसने। सच में यह उसकी
ईरीना नहीं हो सकती। ईरीना को तो तड़प थी
लिपट पड़ने की। वह तो हरदम मौके की तलाश
में रहा करती थी। जब भी मौका मिलता, आ लिपटती थी। होठों पर होंठ रख
देती...गरम-कोमल होठ, जिन्हें चूमे बिना कतयी रहा ही नहीं जा सकता। जिसके मादक
गन्ध ने कई बार मदहोश कर दिया था, और बा-मुश्किल खुद पर नियंत्रण रखना पड़ा था।
‘ चाय ठंढी
हो रही है बाबू ! पी लो उसे। क्या सोच रहे हो? सच में मैं तुम्हें
कैसे य़कीन दिलाऊँ कि मैं मन्दा हूँ। मैं
यहीं की रहने वाली हूँ। यहीं मेरा जनम हुआ है। यहीं मेरा घर-वार है...।’-
मन्दाकिनी के कहने पर मिथुन का ध्यान बगल में रखे प्याले पर गया। उसे उठाकर होठों
से लगा लिया,मानों ईरीना के होठ हों।
चाय बिलकुल
ठंढी हो चुकी थी। एक ही घूंट में शरबत की तरह सुड़क कर प्याली उसकी ओर बढ़ाते हुए
बोला- ‘ तुम्हारी बात मान लेता हूँ, मगर मै अपनी यादों की क्या करुं,जो इस कदर
मुझे उलझा रखी हैं?’
‘ कैसी
यादें बाबू?
किसकी यादें,क्या घरवाली की याद सता रही है?’ –
मन्दाकिनी ने प्याली मिथुन के हाथ से लेते हुए पूछा। प्याली को वहीं नीचे रख,जरा
आगे बढ़,दरवाजे तक गयी। बाहर झांक,फिर आ खड़ी हुयी चौखट से टेका लगाये।
‘ वे ही
यादें,जिनकी वारात लिए दुल्हन की तलाश में भटक रहा हूँ। ’ – कहा मिथुन ने उसके
मुखड़े को निहारते हुए।
‘ मगर मैं
इसमें तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूं बाबू?’
‘ मदद मैं
तुमसे मांग भी कहां रहा हूँ। इसकी आवश्यकता भी नहीं है मुझे।’ – मिथुन झुंझलाकर
बोला- ‘ यदि तुम ईरीना नहीं हो,फिर मुझे यहाँ लायी ही क्यों? छोड़ क्यों न दिया तूने जंगल में ही? घायल हो ही
चुका था। तड़प-तड़प कर मर जाता। इस कदर जीने से तो भला मर जाना ही है।’
‘ क्या
कहते हो बाबू! यह भी कोई इन्सानियत है,कोई भलमनसी है? कोई तकलीफ
में हो और उसकी मदद न की जाये?’
‘ तुम्हारी
सहायता और सेवा से मेरी तकलीफ बढ़ी ही है। शरीर की तकलीफ को तो तुम दूर कर भी सकती
हो,मगर दिल के दर्द को...।’
‘ यदि उसे
भी दूर...।’ – अचानक मन्दा के मुंह से निकल तो गया,किन्तु बात की गहराई पर ध्यान
गया,तो खुद में ही शरमा कर सिमट सी गयी। सोचने लगी - ‘ये क्या पागलपन कर गयी मैं...उसके दिल के दर्द
को दूर करने का मुझे क्या अधिकार...।’
‘ क्यों
चुप क्यों हो गयी अचानक बोलते-बोलते?’ – मिथुन मुस्कुरा
उठा। जवाब में मन्दा कुछ बोल न पायी। एकटक उसे देखती रही। मिथुन का दिल मचलता रहा।
वह स्वयं को लाख समझाने की कोशिश कर रहा था, पर मन मानने को राजी नहीं,किसी जिद्दी
बालक की तरह रट्ट लगाये था- यह ईरीना ही है,मन्दाकिनी नहीं।
योगी लोग
कहते हैं- मनुष्य जब ध्यान की गहराई में उतर जाता है,जो ध्यान वाली वस्तु ही
सर्वत्र दीखने लगती है। प्रत्यक्ष दुनिया कहीं खो सी जाती है,और अप्रत्यक्ष ही
चारो ओर नजर आने लगता है। अणु-अणु में एक ही ईश्वर के वास के पीछे यही रहस्य है। ध्यान
वह परमात्मा का करता है। ध्यानमय होने पर एक ही विम्ब चहुं ओर नजर आने लगता है।
मिथुन की भी कुछ वैसी ही स्थिति हो गयी है। वह ईरीना के ध्यान में इतना मग्न हो
गया है कि हर लड़की ईरीना ही दीख रही है।
आहट
पा,मन्दा ने पीछे देखा- दादी के साथ काकू वैद चले आ रहे थे।।
अन्दर
आ,बाबू के माथे पर हाथ रखे,आँखों में गौर से झांके,फिर विस्तर पर एक ओर बैठते हुए
बोले - ‘ कहा था न,बाबू सुबह तक जरुर ठीक हो जायेगा।’
‘ गरम पानी
ले आऊँ काकू?
पट्टी बदलेंगे न?’ – मन्दाकिनी के पूछने पर
काकू ने कहा- ‘ यह तो हर रोज का काम है,जब तक ज़ख्म पूरी तरह ठीक नहीं होजाता। ’ –
फिर पीछे मुड़ बुढ़िया के हाथ से थैली लेने लगे- ‘ ला दे,मेरी झोली।’
बुढ़िया
झोली पकड़ा दी,जिसमें दो बोतलों में कोई अर्क और तेल जैसा था। एक साफ कपड़े का
गोला भी पड़ा था,साथ ही रुई भी। काकू ने एकएक कर सबको बाहर निकाला। तब तक मन्दा एक
कटोरे में गरम पानी लेआयी,जिसे चाय बनाने के बाद ही,चूल्हे पर चढ़ा आयी थी।
‘ घाव की
ड्रेसिंग करेंगे काकू इन सब दवावों से?’ – मिथुन ने
आश्चर्य से पूछा।
काकू ने
सिर हिलाया- ‘ इन्हीं दवाओं से मरहम-पट्टी करेंगे।’
‘ सजीवन
वूटी है बाबू। क्या समझते हो इन दवाओं को,इसी के वदौलत अब तक इलाज हो रहा है।’ –
बुढ़िया ने कहा,और पास आकर बाबू को लिटाने में सहयोग करने लगी - ‘लेट जा बाबू।
बैठे-बैठे पट्टी बदलने में दिक्कत होगी। ’
बुढ़िया के
कहने पर,और उसका सहारा पाकर,मिथुन लेट गया। काकू ने गरम पानी का छींटा देकर पहले
से बंधी पट्टी को भिंगोया,फिर आहिस्ते से अलग किया। मिथुन दर्द से सिसकारियां भरने
लगा। पट्टी पूरी तरह खुल जाने पर देखा- ज़ख्म काफी गहरा है। किन्तु कमाल की बात है
कि स्थिति बिलकुल ठीक है। मवाद का नामोनिशान भी नहीं है।
‘ कितना
समय लगेगा काकू जी इसे पूरी तरह ठीक होने में?’ – मिथुन के पूछने
पर काकूवैद ने बताया कि करीब पन्द्रह-बीस दिन में सब ठीक हो जायेगा। घबराने की कोई
बात नहीं है। इन दवाओं का कमाल ये है कि ज़ख्म के निशान भी नजर नहीं आयेगा।
‘ निशान तो
रहेगा ही.. ज़ख्म का ना सही...सेवा का ही...ओफ ! आप कितने महान हैं
काकू। ’ – मिथुन ने भाउक होकर कहा।
‘ मेरा तो
यह पेशा है- सेवा के बदले पैसे लेना,मगर इसकी महानता को तुम सराह रहे हो। वास्तव
में तुम्हारी जान बचायी है जिसने,उसकी सराहना और महानता कहनी चाहिए। ’- बगल में
खड़ी मन्दाकिनी की ओर अंगुली उठाकर काकू ने कहा।
मिथुन ने
कुछ कहा नहीं,सिर्फ देखता रहा सामने खड़ी मन्दा की ओर,जिसे अब तक वह ईरीना समझ रखा
है।
समय यूँ ही
कटता रहा। काकू की दवा,बुढ़िया की दुआ और मन्दा की सेवा ने मिथुन को धीरे-धीरे चंगा
करना शुरु कर दिया। मन्दा इसके लिए काफी द्यान रखा करती। अब उसे पहले की तरह मिथुन
के पास जाने में भय या संकोच नहीं लगता। मिथुन भी पहले की तरह हरकत नहीं करता। उसे
भी यकीन आ गया कि यह वास्तव में ईरीना नहीं,बल्कि कोई और ही है, और इस विश्वास ने
ही दोनों के दिल में एक आश जगा दिया।
मन्दा
ईरीना भले न हो,मगर उससे कुछ तो सम्बन्ध जरुर है- मिथुन को ऐसा ही लग रहा था अब
भी। आँखिर नैन-नक्स,कद-काठी,रंग-रुप सब तो उसीका पायी है- ऐसा कैसे हो सकता है...क्या
रहस्य है...क्या संयोग है...क्या...?
अन्ततः एक
दिन पूछ ही दिया बुढ़िया दादी से मिथुन ने - ‘ दादी ! ये मन्दा तो बिलकुल शहरी लगती है। इस निरे जंगल में इतनी सलोनी नातिन
कैसे पा गयी दादी?’
सुनकर
बुढ़िया का पोपला मुंह पल भर के लिए खुला रह गया। फिर कहने लगी- ‘ इसे भगवान ने
भेजा है बेटे! खास मेरे लिए। ये मेरी नातिन नहीं,फ़रिस्ता है।’
‘ आंखिर
कैसे ?
’ – मिथुन को जरा आश्चर्य हुआ,जिसे शान्त करने के लिए बुढ़िया ने
अतीत के पन्ने पलटने शुरु किये—
‘ बहू के
गुजरने के बाद मेरा पागलों की तरह हो गया था। यह बहुत दिन पहले की बात है- कोई
बीस-बाईस साल पहले की। उन्हीं दिनों की बात है- एक दिन फलगू में नहा रहा था। मौसम
बरसात का था। सदा रेत उड़ाने वाली फलगू नदी अपने पूरी जवानी दिखा रही थी। भयंकर
बाढ़ आयी हुयी थी। उसी बाढ़ में एक लड़की बही जा रही थी। वेटे को दया आयी, छपक कर
उसे छान लिया।’- बुढ़िया कहे जा रही थी पुरानी कहानी।
उसने आगे
कहा- ‘ लड़की बेहोश थी। बहुत पानी पी चुकी थी। काफी मिहनत के बाद उसके पेट से पानी
निकालने में कामयाब हुआ। लड़की गर्भवती थी। और फिर अनकही कहानी साफ होने लगी
बेजुबानी ही। बेहोशी की हालत में ही उसे उठाकर घर ले आया। काकू बैद के उपाय से और
मेरी सेवा से लड़की जल्दी ही ठीक हो गयी। आँखें खुली तो फूट-फूट कर रोने लगी—“ क्यों बचाया आपलोगों ने मुझे,छोड़ देते मरने को। मैं अभागिन हूँ। दुनिया
के लिए बोझ हूँ। मर जाने में ही मेरी भलाई है। ” काफी समझाने
बुझाने पर रो-रोकर उसने आपबीती बतायी। बहुत बड़े घर की बेटी थी-
पढ़ी-लिखी,सुन्दर,होशियार। मगर होशियारी भी इन्सान को कभी-कभी धोखा दे जाती है।
उसका घर नालन्दा के पास था। एक अंग्रेज साहब ने उसकी जवानी से खिड़वाड़ किया,और
दुनिया से मुंह छिपाने को मजबूर कर दिया बेचारी गंगा को। ’
‘ गंगा को? ’ – मिथुन चौंक कर पूछा - ‘ क्या उस लड़की का नाम गंगा था,और वह नालन्दा
की रहने वाली थी?’
‘ हां
बेटे,उसने यही बतलाया था। मगर इस नाम से तुम इतना चौंके क्यों?’- बुढ़िया भी चौंक कर पूछी। मिथुन का चौंकना उसे भी चौंका गया।
‘ चौंकने
का भी कुछ खास वजह है दादी। ’ – कहा मिथुन ने- ‘ क्या उसने उस अंग्रेज का नाम भी
बतलाया था?’
‘ हां
बेटे,कहा था उसने जरुर,मगर मुझे याद नहीं आ रही है। ठहरो मन्दा से पूछती हूँ। उसे
याद हो शायद,क्यों कि उसे मैं पूरी कहानी सुना-बता चुकी हूँ।’- कहती बुढ़िया मन्दा
को आवाज लगायी,जो दूसरे कमरे में कुछ काम में लगी हुयी थी।
‘ क्या बात
है दादी?
’ – पास आकर मन्दा ने पूछा।
‘ उस साहब
का क्या नाम था,जो तेरी मां का...?’
‘ वह
डॉक्टर था दादी। क्लार्क नाम बतलाया था तुमने मुझे।’ – कहा मन्दा ने तो मिथुन
एकाएक उछल सा पड़ा अपनी जगह से— ‘ बश,मेरी शंका बिलकुल ठीक निकली।’
‘ कैसी
शंका बाबू?’- पास खड़ी मन्दा भी चौंककर मिथुन का मुंह देखने लगी- ‘क्या मेरी मां को
जानते हो बाबू? ’
‘ बिलकुल
जानता हूँ- तुम्हारी मां को भी और उस बाप को भी। ’ – मिथुन ने कहा-- ‘ तुम जिसे
डॉक्टर कह रही हो, वास्तव में वह पेशे से कोई डॉक्टर नहीं, बल्कि डॉक्टर तो उसकी
उपाधि है- पढ़ाई वाली उपाधि। वह लन्दन का
रहने वाला है। मैंने तुम्हारी माँ गंगा की तसवीर भी उस आदमी के पास देखी है।
किन्तु एक बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह कोई
दगाबाज साहब नहीं ,बल्कि हालात का मजबूर इन्सान है,जिसे समय ने धोखा दिया
है। आज भी वह उस गंगा के लिए तड़प रहा है- अपनी प्यारी गंगा के लिए। ’- इतना कह कर
मिथुन पूरी बात बतला गया, जो डॉ.क्लॉर्क ने बतलायी थी, साथ ही कुछ-कुछ अपनी रामकहानी
के भी खास अंश सुना गया।
‘ ओह! अब मैं समझी इतने दिनों से तुम मुझे ईरीना क्यों कह रहे थे। ’ – मन्दा की
आँखों में आँसू छलक आये- ‘ ओफ ! बड़े अफसोस की बात है बाबू
कि तुम्हारी ईरीना तुमसे बिछड़ गयी। भगवान भी अजीब है- दो दिलों को मिला देता है
इतनी आसानी से और खींच कर बेरहमी पूर्वक अलग भी कर देता है...।’- मन्दा के दिल में
अनायास ममता उमड़ आयी। मिथुन के प्रति दिल में छिपी दुर्भावना पल भर में कहीं गायब
हो गयी। आँखे बरबश बरसने लगी।
बुढ़िया भी
पूरी कहानी सुन कर रो पड़ी। बारम्बार निर्दयी दैव को कोसने लगी- ‘ काश आज गंगा होती। तुम्हारे मुंह से यह
सुन-जान कर कितनी खुशी होती उसे। मगर निष्ठुर भगवान ने कितनों की खुशियां छीन ली। मन्दा
के जन्म के साथ ही गंगा चल बसी, और उसकी आह में घुल-घुलकर मेरा बेटा वर्षभर के
अन्दर ही दम तोड़ दिया। गंगा उसकी पत्नी तो नहीं थी,सच पूछो तो कोई नहीं थी,फिर भी
दोनों में आपार प्रेम था बेटे। आखिर उसने ही तो उसकी जान बचायी थी। कसम देदी- “ यदि तुम मुझे बचा लाये हो तो,जीवन भर अपनी झोपड़ी में शरण भी देना होगा।
तुम्हारी बूढ़ी मां के चरणों में जीवन गुजार दूंगी ।” ऐसा ही
कहती थी वह। मगर मेरे भाग्य में ये सुख भी नहीं लिखा था।’ – कहती हुयी बुढ़िया
बिलख-बिलख कर रोने लगी थी।
मन्दा उसे
चुप कराने लगी - ‘ जाने जो दादी,पुरानी बातों को याद करने से क्या होने को है? ’ – हालाकि उसका भी गला भरा हुआ था।
कुछ देर
बाद बुढ़िया का मन थोड़ा हल्का हुआ तो गिड़गिड़ाकर बोली - ‘ जिस बाप की बेटी
तुम्हारी ईरीना थी,उसी बाप की बेटी मेरी मन्दा भी है- आज तुम्हारी ही बातों से यह
साबित हो गया है। तुमने भी इसे गलतफ़हमी में अपना ईरीना समझा, इसका मतलब है कि
रुप-रंग में ऐसी ही रही होगी- बिलकुल बाप पर गयी होंगी दोनो बेटियां। हां, गुण और
ज्ञान में उसकी बराबरी नहीं हो सकती। मैं अपने को बड़ा भाग्यवान समझती यदि मेरी
मन्दा तुम्हारी ईरीना का जगह पा जाती...।’
बुढ़िया
दादी की बात पर मिथुन आवाक रह गया। कोई जवाब देते न बना। मन्दा लजा कर सिर झुका
ली। अनजान मुस़ाफिर का परिचय इतना जाना हुआ निकलेगा- उसे अभी भी सब कुछ सपने जैसा
लग रहा था। मिथुन के प्रति ममता का सागर जोरों से हिलोंरें लेने लगा था।
धीरे-धीरे
ममता की लहरों ने सेवा की सतह को ठोस बनाना शुरु कर दिया। और फिर उस ठोस सतह पर
प्यार का कोमल पौधा उग आया। उगा ही नहीं तेजी से लहलहाने भी लगा। बुढ़िया की
आकांक्षा ने उसमें खाद-पानी का काम किया। मिथुन और मन्दा की आपसी हँसी-मजाक चुहल
और गपबाजी ने निकौनी का काम किया,मिथुन की विरही तड़प ने उसे सींचा और प्यार का वह
पौधा तेजी से बड़कर विशालकाय वृक्ष का रुप ले लिया।
और
आस-पड़ोस की अंगुलियां उठने लगी- ‘ बाबू भी पूरा घाघ निकला। इसने तो बुढ़िया की
नातिन को ही फुसला लिया।’
किन्तु
गांव वाले क्या कह रहे हैं,इसकी बुढ़िया को जरा भी परवाह न थी। वह तो मन ही मन खुश
हो रही थी। जान बूझ कर इन दोनों को अधिक से अधिक मौका दे रही थी पास और पास आने
का,एक दूसरे को ठीक से समझने का। किन्तु भीतर से बहुत सतर्क-सावधान भी थी- कहीं
ऐसा न हो कि कुछ धोखा हो जाय। मगर धीरे-धीरे बाबू पर विश्वास जमता गया। मिथुन की
श़राफत ने उसके दिल में ऊँचा स्थान बना लिया था। वह समझ गयी थी कि बाबू बेवफाई
नहीं करेगा उसकी नातिन के साथ।
एक दिन
काकूबैद से इस विषय पर सलाह पूछी- ‘ क्यों कैसा रहेगा बाबू से यदि मन्दा बिटिया
व्याह दी जाय?’
‘ सोने में
सुगन्ध भर जाये। मगर पढ़ा-लिखा बाबू,क्या पसन्द करेगा मन्दा से शादी करना? ’- काकू ने आशंका जतायी।
‘मन्दा की खूबसूरती पर तो बाबू फिदा है। वह उसे
अपनी पुरानी प्रेमिका ईरीना की नर से देखा करता है।’
ईरीना के
विषय में बुढ़िया ने काकू से पहले भी कहा था एक दिन। आज यह भी कह डाली कि मन्दा
उसकी सौतेली बहन है,और साथ ही पूरी कहानी सुना डाली,जो मिथुन से हाल में जानकारी
हुयी थी।
सुनकर काकू
बहुत खुश हुए। सिर हिलाते हुए बोले- ‘ तब तो बिलकुल छोड़ने लायक नहीं है। हाँ इसके
बारे में दोनों से एक बार राय कर लेना जरुरी है। कारण कि खूबसूरती पर रीझना और बात
है,शादी करके पत्नी बनाकर जीवन गुजारना और बात।’
‘ मन्दा के
नाज़-नखरे से तो लगता है कि जी जान से पसन्द है बाबू। ’ – बुढ़िया ने मुस्कुराते
हुये कहा- ‘ एक दिन इन दोनों की जरा सी बात सुनी थी पीछे से।’
‘ क्या?’- उत्सुकता से काकू ने पूछा।
‘ बाबू की
बात तो सुन न सकी,पर मन्दा कह रही थी- बड़ी भाग्यवान होगी जो तुम्हें पा सकेगी।’
‘ इसका
मतलब तो साफ है,फिर भी एकबार पूछ-जान लेना जरुरी लगता है मुझे।’- काकू ने अपनी राय
सुनायी।
और एक दिन
पूछ ही लिया बुढ़िया ने- ‘ उस दिन कुछ कहा नहीं बाबू तूने।’
‘ क्या
नहीं कहा दादी?’- मिथुन भी अब प्यार से दादी ही कहने लगा था।
‘ मन्दा के
विषय में तुम्हारी क्या राय बनी?’- बुढ़िया ने स्पष्ट किया।
मन्दा भी वहीं बैठी थी। दादी ने बात छेड़ी तो वह उठ कर बाहर वरामदे में आ गयी,जहाँ
पत्तों के अम्बार लगे थे। इधर कई दिनों से पत्तल बनाने का काम नहीं हो पाया था।
मिथुन उसे
उठकर बाहर जाते हुए देखता रहा। उसकी इच्छा थी कि मन्दा भी यहीं बैठी रहती,किन्तु
लजालु लड़की चट चल दी उठकर। मिथुन कुछ बोल नहीं पा रहा था। कुछ देर चुप्पी साधे
दादी के मुखड़े को देखता रहा,मानों दादी के सवालों का जवाब उसके चेहरे पर ही लिखा
हो। फिर बोला- ‘ मन्दा ने मुझे मौत के मुंह से खींच लाया है। उसकी सेवा का ही फल
है कि आज मैं जीता-जागता आपसब के सामने हूँ। मन्दा के एहसान तले मैं खुद को दबा
हुआ महसूस कर रहा हूँ।’
‘ इसमें
एहसान की कौन सी बात है बेटे। आदमी ही तो आदमी की सेवा करता है।’- बुढ़िया ने कहा।
‘ और
एहसानमन्द होना भी तो आदमी का ही कर्तव्य है। सच पूछो तो दादी, मैं इस विषय में
कुछ कहने का अधिकारी नहीं समझता खुद को,और न तुम्हारे और मन्दा के अरमानों से ही
खिड़वाड़ करने की साहस कर सकता हूँ।’- मिथुन ने स्पष्ट शब्दों में कहा। जिसे सुन
बाहर बैठी मन्दा के दिल की धड़कने तेज हो आयी थी।
वह सोच रही
थी- ‘ पता नहीं बाबू क्या कहेगा।’
मगर क्या कह सकता है, इसका अन्दाज़ा तो वह अवशय लगा रही थी। कल ही की तो बात है,जब
मन्दा चाय देने कमरे में गयी थी,पहले दिन की ही भांति प्याला विस्तर पर रखवा दिया
और दायीं हाथ बढ़ाकर मन्दा की कलाई थाम ली थी। हथेली को प्यार से चूमते हुए कहा
था- ‘ लगता है मैं आजकल सपनों के संसार में ज्यादा ही भटक रहा हूँ। मेरी खोई ईरीना
मुझे इस रुप में मुझे वापस मिल जायगी- सपने में भी गुमान न था। ’
जिस पर मचल
कर मन्दा ने कहा था- ‘ मगर मैं तुम्हारी ईरीना की बराबरी कैसे कर पाउँगी बाबू? कहां वह पढ़ी-लिखी शहरी,वो भी विदेशी,और मैं निपट गंवार अनपढ़। एक ओर वह सुन्दर
गमले में सजी गुलाब की टहनी और दूसरी ओर मैं जंगली पुटूस की झाड़ी जिसके फूलों में
भी कोई खास सुगन्ध नहीं- कोई तुलना क्या हो सकती है दोनों में?’
‘ कभी-कभी
जंगल में भी गुलाब खिल जाता है,और उसे जंगली कहकर लोग छोड़ नहीं देते,होता तो वह
भी गुलाब ही है न। अक्लमंदी इसी में है कि उसे भी गमले में सजाने की फिक्र की जाए।
नस्ल तो एक है दोनों का,फर्क है सिर्फ संरक्षण और वातावरण का मेरी मन्दो !’
‘ फिर भी
काफी फर्क है।’ – कहती हुयी मन्दा पास में ही विस्तर पर बैठ गयी थी।
‘ चांद
इसलिए ज्यादा मोहक लगता है,क्यों कि वह बहुत दूर है,और सूरज का साथ है उसे। यदि
सूरज हो ही नहीं,फिर चांद की सुन्दरता भी कहां रह पायेगी।’
‘ सो तो
ठीक ही है। तब क्या चांद की रौशनी भी गुम नहीं हो जायेगी?’- मन्दा के तर्क पर मिथुन मुस्कुरा उठा।
‘ सो क्यों?’
‘ तुम्हारे
उपकार का मोल चुकाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। मेरे प्यार का खजाना तो लगभग
खाली हो चुका है। उसके तलछट में थोड़ा कुछ बच रहा है...।’ – मिथुन कुछ कहना चाहता
था,कि उससे पहले ही मन्दा बोल पड़ी - ‘ उसे पाकर ही मन्दा धन्य हो जायेगी मिथुन
बाबू। तुम जिसे तलछट कहते हो,मेरे लिए वही अफलातून का खजाना है। ’ – कहती हुयी
मन्दा प्यार से लिपट पड़ी थी मिथुन के गले से।
और मिथुन
ने उसके होठों को चूम कर कहा था- ‘ सच में तूने मुझे उबार लिया है मन्दा। एक ओर
तूने शेर से घायल मेरे शरीर की रक्षा की,तो दूसरी ओर ईरीना की विरह-ज्वाला में
जलते दिल को भी राहत की गुलाबी फुहार से तर कर दिया है। काकू की दवा ने शरीर के
जख्म को भरा तो तुम्हारे निःछल स्नेह ने दिल के जख़्म को। मुझे शर्म आती है इतनी
महान सेवा के बदले अपने प्यार की खाली झोली तुम्हारे आगे फैलाते हुए।’
‘ क्या
कहते हो बाबू?’- मन्दा ने कस कर जकड़ लिया था मिथुन को- ‘ ये खाली प्यार की झोली नहीं
है बाबू! समन्दर है,जिसमें मन्दा डूब जायेगी,यदि तूने उसे
ठीक से सम्हाला नहीं। मेरे इस छोटे से दिल में इतनी जगह कहां है,जो समा सकूं प्यार
के गहरे सागर को...।’
मिथुन का
रोम-रोम हर्षित हो चुका था मन्दा के प्यार भरे बोल सुनकर। सच में देहाती लड़कियां
कितनी निच्छल होती हैं,कितनी सन्तोषी- सोचा था मन ही मन,और इकलौती बांह के घेरे
में कस कर एक बार फिर चूम लिया था। मन्दा ने भी पूरी तौर पर समर्पित कर दिया था
उसकी बाहों में।
वास्तव में
वह तो उस क्षण ही दीवानी हो गयी थी, जब मिथुन ने पहली बार उसे लिपटा कर चूम लिया
था ईरीना कह कर, मगर उस चुम्बन के आनन्द में भय आशंका और लज्जा का ज्यादा अंश था।
दर्पण की जरुरत उसे उस दिन भी महसूस हुयी थी,और अब भी दर्पण में अपना गुलाबी
मुखड़ा निहारने जाती है। मगर उस दिन दर्पण मुंह चिढ़ाता ता उसे देख कर भय लगता था।
पर अब वैसा कुछ नहीं हो रहा है।
मिथुन और
मन्दा की प्यार भरी बातें बहुत देर तक चलती रही थी, और विस्तर पर एक ओर रखी चाय की
प्याली अपने भाग्य पर कुढ़ती रही थी,जिसे होठों से लगाने वाला कोई नहीं था वहां।
सच में जिसे मन्दा को सुकोमल होठों का स्वाद मिल गया हो,उसे काली चाय की क्या तलब!
आज बुढ़िया
के सवालों का उत्तर मिथुन ने खुल कर नहीं दिया। मगर कुछ कहना वाकी भी नहीं रह गया।
बुढ़िया चाहती ही है,मन्दा की इच्छा है ही, और मिथुन में इतनी साहस नहीं जो इनके
अरमानों –आकांक्षाओं के विपरीत जाय।
‘ तो मैं
अपनी इच्छा पूरी समझू?’ – मुस्कुरा कर बुढ़िया दादी ने फिर पूछा- ‘ वचन दे रहे हो न?’
‘ और कैसे
कहूं दादी?
तुम्हारे इन चरणों की कसम ,मन्दा मेरी होगी मैं मन्दा का। मन्दा के
सिवा किसी और को जीवन सहचरी नहीं बना सकता।’- कहते हुए मिथुन ने दादी के पांव छू
लिए। प्यार से उसकी पीठ थपथपाती बुढ़िया की आँखों में खुशी के आँसू छलक आये।
‘ जीते रहो
बेटे। युग-युग सलामत रहे ये जोड़ी।’
बाहर
बैठी,पत्तल बीनती मन्दा आनन्द से पुलकित हो उठी। जी चाह दौड़ कर मिथुन को गले लगा
ले,चूम ले उसके होठों को, मगर कमरे में दादी की मौजूदगी उसे ऐसा करने से रोक रही
थी।
जख़्म का
इलाज चलता रहा। दिल का जख़्म तो पूरी तरह भर चुका, ईरीना की जगह पूरी तरह से
मन्दाकिनी ले चुकी,यही कारण है कि अब विरह के उच्छवास नहीं निकलते, और न तड़पन ही
रह गया बाहों का। ऐसा लगता है मानों ईरीना उसके जीवन के रंगमंच पर कुछ समय के लिए
आयी,और अपना पार्ट अदा कर – नीरस मिथुन को सरस बना,प्यार की डगर पर खड़ा कर,चल दी
नेपथ्य में। किन्तु शेष रहा शरीर का जख़्म ,तो उस पर काकू की दवा अपना काम कर ही
रही है। पट्टी अब नाम मात्र का रह गया है। सप्ताह भर के अन्दर सब ठीक हो जायेगा-
ऐसा ही काकू ने कहा है।
मिथुन की
दिनचर्या भी अजीब है- सुबह उठने के बाद,मन्दा की ड्यूटी है उसका हाथ-मुंह धुला देना,चाय
लाकर दे देना। चाय पीकर,चुप वहीं वरामदे में या फिर बाहर पेड़ की जड़ पर घंटों
बैठे रहना जब तक कि मन्दा अपने रसोई के काम में व्यस्त रहती। फिर वहीं जड़ के पास
ही पानी रख जाती वाल्टी में। बायां हाथ ऊपर उठाकर,दाएं हाथ से किसी तरह नहा
लेता,हालाकि कभी-कभी मन्दा को भी मदद करनी पड़ती मिथुन को नहलाने में। स्नान के
बाद भोजन करना,और फिर कमरे में खिड़की के पास बैठ ,बाहर की सूनी आकाश को निहारते
रहना,तब तक- जबतक कि मन्दा अपने सभी काम से निबट कर पास आकर बैठ न जाये।
खाना खाकर
दादी रोज दिन जंगल से पत्ते लाने चल देती,जो देर शाम वापस आती। इधर मन्दा घर में
मिथुन के पास बैठी पत्तल बनाती रहती,और दुनिया-ज़हान का गप हांकती रहती। मिथुन
बैठा सुनता रहता तन्मय होकर बिलकुल। बीच बीच में कुछ हां-हूं,तब,कैसे,क्यों... के
साथ हाथ या सिर हिला देता।
दोपहर का
लम्बा समय इसी तरह गुजर जाता। सूरज ढलने की तैयारी करता,तब मिथुन वहीं,घर के पास
ही इधर-उधर थोड़ी चहलकदमी कर लेता। उस समय भी मन्दा का साथ बना रहता।
घंटे-आध
घंटे बाद वापसी,और उधर मन्दा रसोई में घुसती,इधर मिथुन पाटी पर बैठे दादी से
गप्पें लगाता। भोजन तैयार होता,सभी साथ बैठ कर खाना खाते,कुछ देर इधर-उधर की बातें
होती,फिर अपनी-अपनी खाट सम्हालते। लगभग रोज का यही क्रम रहता। सूरज-चांद का
आना-जाना अपने क्रम से जारी रहा,और मिथुन-मन्दा की जीवन-चर्या अपने ढंग से चलती
रही। किसी ने किसी के काम में दखलअन्दाजी करना फ़िजूल समझा। सूरज-चांद आपस में
बातें करें ना करें,मिथुन-मन्दा बातें किये बिना कैसे रह पाते !
बातों ही
बातों में एक दिन ध्यान आया कि इतने दिन हो गए,घर पर तो किसी तरह सूचना दे ही दी
जाए, किन्तु फिर यह सोच कर निश्चिन्त हो गया कि किसे और क्या सूचना...देखा
जायेगा,एक ही बार सामने पहुँचा जायेगा- पूर्ण स्वस्थ होकर। स्वस्थ के साथ-साथ
सानन्द भी,क्यों कि अकेला नहीं मन्दा का जो साथ है।
बुढ़िया का
विचार है कि शादी-व्याह का रस्म यहीं पूरा हो जाए,फिर नातिन-दामाद को खुशी-खुशी
विदा करे। मन्दा को भी जल्दवाजी लगी है- जितनी जल्दी हो सके बाबू स्वस्थ हो,और
रस्मोरिवाज का ठप्पा लगे।
किन्तु
मिथुन जरा आदर्श और मर्यादावादी बनते हुए कहा- ‘ नहीं दादी,इस तरह शादी कर,सीधे
पत्नी के साथ घर पहुँचना माता-पिता का अपमान होगा,साथ ही सामाजिक नियम- मर्यादाओं की भी अवहेलना होगी।’
‘ तो क्या
चाहते हो?’- बुढ़िया ने सवाल किया। उधर मन्दा भी इन बातों को सुन रही थी,कान लगाये।
‘ यूं ही
विदा कर दोगी दादी अपनी नातिन को?’ – मन्दा की ओर देखते हुए मिथुन
ने मुस्कुराकर कहा -‘ साज-बाज के साथ वारात लेकर आऊँगा,और मन्दा को डोली में बिठा
कर बिदा कराऊँगा बाकायदा दुल्हन बना कर। ’
‘ जैसी
तुम्हारी मर्जी।’ – कहने को तो बुढ़िया कह गयी,किन्तु धुक-धुकी लगी रही- ‘ कहीं घर
जाकर मुकर न जाए,घर वाले कुछ उल्टा-पुल्टा पढ़ा न दें। ’ – किन्तु भगवान की मर्जी
पर भरोसा करके,बुढ़िया ने कहा कुछ नहीं।
आज पूरे
बाईस दिन हो गए। मिथुन पुलकित होकर अपने घर जा रहा है। मन्दा के रहते इन बाईस
दिनों में बहुत कुछ पाया,बहुत कुछ खोया भी। बहुत कुछ सोचा-विचारा भी- घर की
बिगड़ती स्थिति,पिता का गिरता स्वास्थ्य,अपना अतीत,ईरीना का सपना, और अब मन्दा के
साथ रंगीन भविष्य की झांकियां...।
विदा करते
वक्त मन्दा की आँखों में आँसू थे, ‘ जल्दी आ जाओगे न बाबू?’ – सिर्फ इतना ही पूछ पायी थी वह।
‘ वस,समझो
कि यूं गया,यूं आया।’- मुस्कुराकर मिथुन ने कहा।
‘ फिर भी
पन्द्रह-बीस दिन तो लग ही जायेंगे न बेटे।’- बुढ़िया आंखें पोछती हुयी बोली- ‘
पहुंचते ही खबर देना। मुझे भी तो तैयारी करनी होगी न।’
मिथुन की
आँखें भी बरसाती नदी की तरह उमड़ी हुयी थी। मन्दा को छोड़कर जाने की इच्छा जरा भी
न हो रही थी,फिर भी बहुत कुछ पाने के लिए थोड़ा कुछ तो त्यागना ही पड़ता है- सोचते
हुए जी कड़ा कर आगे बढ़ चला। दादी के पांव छुए, मन्दा के मरझाये मुख कमल पर पल भर
निहाहें ठहरीं,और फिर बाहर निकल पड़ा।
काकूवैद
गांव से दूर पक्की सड़क तक छोड़ने आए। गाड़ी में विठाते हुए काकू ने प्यार से कहा-
‘ बुढ़िया की आशाओं पर जल्दी अमल करना बेटे। भगवान तुम्हें सदा सुखी रखें।’
मिथुन का
गला भर आया था। कुछ कल न पाया। झुक कर काकू के पांव छुए,और गाड़ी में सवार हो गया।
नीचे खड़े
काकू दूर भागती गाड़ी को तबतक देखते रहे जबतक कि आँखों से ओझल न हो गयी।
अगले दिन
मिथुन अपने पुराने वसेरे में पहुंचा,उस वसेरे में जो अब विनाश के कगार पर टिका कुछ
और झोकों की प्रतीज्ञा कर रहा था।
पिता देवेश
बाबू की स्थिति पहले से भी बदतर हो गयी है। कौन उनके पास आता है,जाता है- इसकी कुछ
भी परवाह नहीं उन्हें। चिकित्सा के नाम से चिढ़ है। वस अन्तिम सांस का इन्जार है।
मां,नीता
भी अपने आप में सिमट गयी है। लगता है दुनिया से उसे भी विरक्ती हो आयी है या फिर
किसी भारी तूफान के पूर्व की ख़ामोशी ग्रस सी है।
भाई,सुदीप
पुनः किसी रोजगार की स्थापना में उलझा है। गुजरे करतूतों का पश्चाताप शायद छू भी
नहीं पाया है उसे।
बहन दीपा
ने आगे बढ़कर मिथुन की आगवानी की। सामान्य औपचारिकता के बाद भाई-बहन खुल कर मिले।
उसकी खुशी की सीमा न थी।
‘ हमलोग तो
बिलकुल निराश ही हो गये थे भैया। अनूप और सुधीर ने आकर जो कुछ भी बताया,उसपर यकीन
न आया,किन्तु दैव के प्रकोप को रो-कलप कर बरदाश्त करना पड़ा। आज तुम्हें देख कर लग
रहा है कि कोई सपना देख रही हूँ। कहां रहे इतने दिन,कैसे बिताये?’
‘ दोस्तों
ने भले ही साथ छोड़ दिया हो,मगर किस्मत ने नहीं छोड़ा।’ – मुस्कुरा कर मिथुन ने
कहा,और संक्षेप में पूरी घटना सुना गया दीपा को।
‘ अभी भी
दुनिया में एक से एक साहसी और कर्तव्यनिष्ट इन्सान हैं भैया।’- दीपा ने
खुश होकर कहा- ‘ सबसे अधिक खुशी इस
बात की हो रही है कि तुमने उससे वायदा किया है शादी के लिए। अब जल्दी से ले आओ
दुल्हन बना कर...।’
‘
मां-पिताजी की राय भी तो जरुरी है।’- मिथुन ने कहा।
‘ जब तुमने
वचन दे ही दी है,फिर राय का प्रश्न कहां रह जाता है?’ – दीपा ने
गम्भीरता पूर्वक कहा- ‘ दूसरी बात ये कि यहां राय देने वाला बैठा कौन है? पिताजी को किसी हानि-लाभ से मतलब ही नहीं रह गया है,मां आज तक कब तुम्हारी
भलाई सोची है जो अब सोचेगी?’
‘ और तुम? ’- मिथुन धीरे से मुस्कुराया।
‘ मेरा
क्या पूछते हो,मैं तो कब से बेचैन हूँ। जल्दी से घर में भाभी आ जाये,और तुम्हारी
दुनिया खुशियों से भर जाये।’- इठलाती हुयी दीपा ने कहा।
‘ फिर भी
औपचारिक तौर पर मां-पिताजी को जानकारी तो जरुरी है दे देना।’
‘ तो ये
कौन सी बड़ी बात है,वो मैं अभी किये देती हूँ।’- कहती हुयी दीपा चट उठी,और मां के
कमरे की ओर चली गयी।
अन्दर आते
ही नीता ने भौं चढ़ाकर पूछा- ‘ क्या बात है दीपा आज बड़ा खुश नजर आरही हो? ’
‘ क्यों
मां,तुम्हें खुशी नहीं है क्या मिथुन भैया मौत के मुंह से निकल कर आया है,और पूछती
हो मेरी खुशी का कारण।’- दीपा ने चट बात काटी।
‘ खुशी
क्यों नहीं है, मगर मिथुन ने खुशी में थिरकने का हक ही कहां छोड़ा है हमलोगों के
लिए?
वह तो खास कर मुझे अपना शत्रु समझ लिया है। ’- नीता ने कहा।
‘ ऐसी बात
नहीं है मां। मिथुन भैया दिल के बिलकुल साफ आदमी हैं।’
‘ सिर्फ
दिल का साफ है या दिमाग का भी? उसे जरा भी समझ नहीं कि घर-परिवार में किसकी क्या अहमियत है?’- तुनकती हुयी नीता ने कहा।
‘
क्यों,ऐसी बात तो नहीं है बिलकुल। अब देखो न आज ही की बात है- अपनी शादी के लिए
तुम्हारी राय जानना चाहते है,पर संकोच में तुमसे सीधे कह नहीं पा रहे हैं।’
‘ शादी? ये क्या कह रही है तूं- मिथुन शादी करने को राजी हो गया है?’- नीता एकाएक मुस्कुरा पड़ी।
‘ हां मां।
एक सुन्दर सी लड़की भी देख आया है।’- कहती हुयी दीपा पूरी बात बता गयी नीता को।
सुन कर नीता के आंखें छलक आयी। शीघ्र ही उठकर दूसरे कमरे में चली आयी,जहां मिथुन
बैठा पिता से बातें कर रहा था इसी विषय पर। पल भर में लगा कि वर्षों का कलुष धुल
कर गायब हो गया,जैसे सूरज की रौशनी पड़ते ही दूब पर पड़ी ओस की बूंदे गायब हो जाती
हैं।
कमरे में
घुसते ही नीता ने कहा- ‘ मुझे यह जान कर काफी खुशी हुयी कि तुम रास्ते पर आ गये।’
‘ ऐसी बात
नहीं है माँ। मैं हमेशा से रास्ते पर ही चला हूँ। ये बात अलग है कि दूसरे को मेरा
सही रास्ता भी गलत नजर आये।’- मिथुन ने बड़े स्नेह से नीता की ओर देखते हुये कहा।
आज नीता
बहुत देर तक मिथुन से बातें करती रही। माँ का प्यार एक बार फिर उमड़ आया है जैसा
कि पिछली बार कलकत्ते में उमड़ा था। भोला-भाला मिथुन उबचूब होता रहा प्यार की
दरिया में।
जल्दी ही
घर में शादी की तैयारियां शुरु हो गयी। बुढ़िया को शादी की तैयारी हेतु सूचना देने
के लिए एक खास नौकर को रवाना किया गया। जातें समय नीता काफी मात्रा में फल और
मिठाइयां भेजी बुढ़िया के घर। एक अलग डब्बे में कुछ विशेष मिठाइयां और कपड़े वगैरह
खासकर मन्दा के लिए भी भेजा गया नीता के द्वारा। नौकर के हाथ में पैकेट थमाती हुयी
नीता ने हिदायत किया था- ‘ ठीक से समझा
देना,पता नहीं इधर के रीति-रिवाजों का उन्हें पता भी है या नहीं,इस डिब्बे में
कुलदेवता का प्रसाद है। इसे दूसरे लोग न छू-छा करें। सिर्फ बहू ही खायेगी इस
प्रसाद को।’
खुशियों से
झूमती दीपा ने एक पत्र भी दिया था मन्दा भाभी के लिए। उस बेचारी को क्या पता था कि
मेरी भाभी पत्र पढ़ भी नहीं सकती।
आने वाली
खुशियों के इन्तजार में समय की रफ़्तार बहुत धीमी पड़ जाती है,मानों खड़ी पहाड़ी
पर छुकछुक करती धुएं उगलती भाप वाली ईंजन चली जा रही हो। विवाह की तिथि पन्द्रह
दिनों बाद रखी गयी है,परन्तु ये पन्द्रह दिन मिथुन के लिए पन्द्रह वर्ष की तरह लग
रहे हैं- राम के वनवास से भी थोड़ा ज्यादा ही। दीपा की बेचैनी भी मिथुन से जरा भी
कम नहीं है,फर्क है सिर्फ दोनों के विचारों का,ख्वाबों का,योजनाओं का।
खुशियों की
बेताबी में ही आशंकाओं की बेचैनी जब घुल-मिल जाय,तो उसका हिसाब लगाना और भी
मुश्किल हो जाता है। ऐसी ही बेताबी और बेचैनी की स्थिति में दीपा एक रात मिथुन के
कमरे में आयी। मिथुन का कमरा ऊपर में ही दीपा के कमरे के ठीक बगल में ही था।
‘ क्या बात
है दीपा,तुम इतना घबरायी हुयी क्यों हो?’- दीपा के चेहरे का
उड़ा हुआ रंग देखकर मिथुन ने पूछा।
‘ जरा मेरे
कमरे में चलो।’- दीपा ने कहा,और बिना इन्तजार किये,पीछे मुड़ चली अपने कमरे की ओर।
मिथुन भी हड़बड़ाकर उठा,और दीपा के साथ हो लिया।
दीपा के
कमरे में विस्तर पर एक टेपरेकॉर्डर रखा हुआ था। दीपा उसके पास ही बैठ गयी। बगल में
बैठते हुए मिथुन ने पूछा- ‘ अब कहो क्या
बात है,क्यों बुलायी मुझे यहां?’
मिथुन के सवाल
का समुचित जवाब देने के बजाय, दीपा रेकॉर्डर प्ले करती हुयी बोली- ‘ मेरे बदले
तुम्हें यही बतलायेगा।’
रेकॉर्डर
से आवाज आने लगी। आवाज ऐसी थी,मानों बहुत दूर से आ रही हो। एक जनानी और एक मर्दानी
आवाज थी। गौर करने पर पता चला कि यह तो नीता और सुदीप की आवाज है। दीपा और मिथुन
रेकॉर्डर से कान लगाये सुनते रहे—
‘...वह
आदमी अभी तक लौटा नहीं। ’
‘उसे लौटने
का सवाल ही नहीं है। मैं उसे यहां आने से मना कर दी थी। ’
‘ तो फिर
जानकारी कैसे मिलेगी?’
‘ जानकारी
की जरुरत ही क्या है। क्या उस दवा पर तुम्हें भरोसा नहीं,जो लाकर दिये थे उस दिन
तुम?’
‘ भरोसा तो
बिलकुल है,फिर भी...।’
‘ रामधनी
दिमाग का धनी है। उस बार भी स्मिता के समय...।’
‘
चुपचुप...जबान पर इस शब्द को लाना भी मत कभी।’
‘ क्या
फर्क पड़ता है,कौन कान लगाये है अभी यहां?’
‘ क्या
कहती हो मां ! दीवारों के भी कान होते हैं - तुम्हीं तो कहा करती हो, और खुद भूल कर रही
हो।’
‘ मुझे एक
बात की चिन्ता है।’
‘ क्या?’
‘ यदि किसी
प्रकार मिथुन को भनक मिल गयी...।’
‘ फिर
तुमने नाम लिया माँ।’
‘ भनक तो
एक न एक दिन मिलेगी ही,और नहीं तो देर होने पर वहां जाकर पता भी कर सकता है।’
‘ उसकी भी
व्यवस्था मैं कर चुका हूँ। ’ – इसके साथ ही चुटकी बजाने की आवाज आयी।
‘ शाबाश
मेरे होनहार बेटे
! वाकई तूने मेरा दूध पीया है। ’
‘ मेरा दिल
जल रहा है प्रतिशोध की ज्वाला में। अब कहीं जाकर ठंढ़ा होगा।’
‘ मगर अभी
तक उस पत्र भेजने और फोन करने वाली का पता नहीं चल सका। इतना तो तय है कि दोनों
काम एक ही व्यक्ति का है।’
‘ यही तो
मेरी चिन्ता का सबसे बड़ा कारण है।’
‘ इस पर भी
निहाह रखे हुए हूँ। कभी ना कभी तो पता चल ही जायेगा,फिर उसकी खैर नहीं।’
इसके साथ
ही दीपा ने रेकॉर्डर बन्द करते हुए कहा- ‘ अनर्थ हो गया भैया,भारी अनर्थ।’
‘ मैं कुछ
समझा नहीं अभी तक,बात क्या है?’- मिथुन भौंचंक्का सा दीपा का
मुंह ताकते हुए बोला।
‘ तुम
पढ़े-लिखे होकर भी इतने बेवकूफ हो भैया,मुझे आश्चर्य होता है। इन दोनों की बातों
पर गौर नहीं किया तुमने?’
‘ गौर तो किया
ही- माँ और सुदीप की आवाज थी,मगर यह कैसेट तुम्हें कहां मिला और इसे टेप किसने ,कब
और क्यों किया? ’
मिथुन की
बात पर दीपा जरा मुस्कुरायी और बोली- ‘टेप तो उसने ही किया,जिसने कभी तुम्हारे पास फोन
किया,और पत्र भेजा। ’ –
कहा दीपा ने, तो मिथुन आवाक रह गया। पल भर के लिए उसकी आँखें फैलती चली गयी, और
मुंह कौए की चोंच की तरह खुले रह गए। विचार शून्य सी स्थिति हो गयी। कुछ सोच-समझ न
पा रहा था।
‘ तो फिर
मेरे पास पत्र भेजने और फोन करने वाली कौन थी, उसे मेरे पारिवारिक स्थितियों की
इतनी ठोस जानकारी कैसे है, और उससे तुम्हारा क्या वास्ता है? ’- मिथुन ने कई सवाल कर दिए दीपा से,जिसे सुन दीपा फिर एक बार मुस्कुरायी,और
बोली- ‘ बहुत भोले हो भैया,यह भोलापन ही तुम्हारे लिए काल बन रहा है। इधर आओ और
देखो जरा।’- कहती हुयी दीपा मिथुन का हाथ पकड़,कोने में रखी मेज के पास आयी। जहां
मिथुन ने देखा कि एक टेपरेकॉर्डर जमीन में पड़ा है, उससे तार निकल कर फर्श को
फोड़ता हुआ नीचे की ओर चला गया है।
‘ यह सब
क्या है?’- मिथुन ने आश्चर्य से पूछा।
‘ ये सब है
षड़यन्त्रकारियों का कच्चा चिट्ठा खोलने वाला सूत्र।’- दीपा के कहने पर मिथुन को
बातें कुछ-कुछ पल्ले पड़ी।
सिर हिलाते
हुए बोला- ‘ इस कमरे के नीचे माँ का बेडरुम है। ये तार तो उसी कमरे में जा रहा है
न । इसी के जरिये तुम उनलोगों की बातें
जाना करती हो,और अब मैं समझा कि ये सारी कारवायी तुम्हारी ही थी।’
दीपा ने
हां में सिर हिलाते हुए कहा - ‘ अभी समझा तुमने। आज तुमसे सारी बातें स्पष्ट बतला
देना जरुरी समझती हूँ।’- कहती हुयी दीपा पुनः आकर अपने विस्तर पर बैठ गयी। साथ ही मिथुन
भी आ बैठा,और जिज्ञासा भरी नजरों से दीपा को देखने लगा। दीपा कह रही थी- ‘ माँ के
प्रति मेरे विचार तब से ही बदल गये जब से उन्होंने पिताजी को अधिकार-च्युत किया।
मैं समझ रही थी कि इसमें मुख्य बात तुम्हें चोट पहुँचाना है। असमय में इतने अधिकार
पाकर, और बेइन्तहा दौलत पाकर किसी का बहक जाना स्वाभाविक है। सुदीप भैया के साथ भी
कुछ ऐसा ही हुआ। मेरे कान तब और खड़े हुए , जब स्मिता बनर्जी सेक्रेटरी बनायी गयी।
स्मिता को मैं बहुत पहले से ही जानती थी,वह अच्छे चरित्र की बिलकुल नहीं है।
स्मिता को लाकर,मिस माथुर को हटाया गया,इससे वे नाराज हो गयी,और इसका बदला लेने के
लिए सोचने लगी। उनके पति होटल रॉक्शी में काम करते हैं,और सुदीप भैया मैनेजर खन्ना
को साथ लेकर वहां जाया करते थे। स्मिता भी इनका साथ देती थी। अतः इसे ही सूत्र
बनाया मिसेज माथुर ने। इन लोगों के आपत्तिजनक स्थियों के फोटोग्राफ ले लिए। उन्हीं
चित्रों के माध्यम से वे बहुत बड़ा षड़यन्त्र रचने जा रही थी। इसी बीच संयोग वश
सारी बातों की भनक मुझे मिली। तब मैं सीधे
मिसेज माथुर से मिली,और जानबूझ कर माँ तथा सुदीप भैया के विरोध में बात करने लगी।
इसका बड़ा ही अनुकूल असर हुआ उन पर। मेरी बात बनने लगी। धीरे-धीरे मिसेज माथुर से
उनके मन की बात उगलवा ली,और यहां तक कि सारे फोटो भी हासिल कर ली,यह कह कर कि जो
काम आप करना चाहती हैं,वह काम इन हथकंडों से मैं और भी आसानी से कर सकती हूँ, क्यों
कि मुझे भी बहुत दुःख है अपने पिता की दयनीय स्थिति से। इस प्रकार मिसेज माथुर
पूरे तौर पर मुझे साथ दे रही थी। इसी बीच स्मिता को भी गुमनाम रुप से फोन करके
सावधान करना चाही,साथ ही उसके पिता को भी सूचना दे दी। किन्तु बात बनी नहीं,क्यों
कि मामला तब तक काफी आगे बढ़ चुका था। स्मिता गर्भवती हो गयी थी। जिसके बाद मिस्टर
बनर्जी घर आकर माँ को धमकी भी दे गये।,और तब मां और सुदीप भैया ने योजना बनायी
तुम्हारे माथे इस पाप को थोपने की।’
जरा ठहर कर
दीपा फिर कहने लगी - ‘ मैं उन सारी तसवीरों को मां के पास एक पत्र के साथ
भेजी,ताकि उसकी आँख खुले,किन्तु सुदीप भैया न उल्टा-सीधा पढ़ा दिया,और मेरी योजना
खटाई में पड़ गयी। और अपने सिर का कीचड़ तुम्हारे सिर थोपने में लग गए दोनों। मैं
नहीं चाहती थी कि तुम्हें इन सब बातों में उलझाउँ,मगर लाचारी में तुम तक भी सब
संवाद पहुँचाना पड़ा,और समय पर तुम सावधान होकर,विदेश यात्रा पर निकल पड़े। इधर
क्रोध में जलती माँ स्मिता का ही काम तमाम करवा दी।’
बड़ी देर
से चुप्पी साधे दीपा की बात ध्यान से सुनते हुए मिथुन ने कहा - ‘ यानी कि यह कुकृत्य
भी माँ का ही है। ओफ
! कहां तक गिरोगी माँ ! ’
‘ हां
भैया, दलदल में फंसा इनसान लागातार धंसता ही जाता है। एक कदम पाप के रास्ते उठ
जायें तो फिर सम्हलना मुश्किल हो जाता है। गलत कदमों का सफ़रनामा शुरु हो जाता है।
सुदीप भैया के बढ़ाये कदमों का दुष्परिणाम हमसबको भी किसी न किसी रुप में भुगतना
ही पड़ रहा है। बेटे के मोह में,और बेटे के ही क्रोध में माँ ने स्मिता की हत्या
करवायी पान में जहर देकर।’
‘ पान में
जहर देकर?’- मिथुन चौंक कर पूछा- ‘ मुझसे तो अनूप कह रहा था कि सन्देहास्पद स्थिति
में मौत हुयी है। आत्महत्या है कि हत्या कहा नहीं जा सकता।’
‘ स्मिता
पान की शौकीन थी। सारा दिन पान खाती रहती थी। दफ़्तर से जाते वक्त दो-चार बीड़े
बन्धवाकर साथ रख लिया करती थी रात के लिए। पान लाने का काम रामधनी करता था,जो
फैक्ट्री में दरवान है।’
‘ तो उसने
ही ये सब किया?’- मिथुन ने सिर हिलाकर कहा।
‘ हां
भैया,इस काम के लिए माँ ने उसे दो महीने की तनखाह का बकशीस दिया था। और सुदीप भैया
जहर की शीशी का जुगाड़ किये थे।’
‘ ओफ ! इतनी नीचता पर उतर आये दोनों माँ-बेटे।’- मिथुन कह ही रहा था कि दीपा बीच
में ही टोक कर बोली - ‘ इतना ही नहीं भैया,इससे भी बहुत आगे । सुनोगे तो पांव तले
की धरती खिसक जायेगी। आज ही मुझे पता चला कि वैसी ही दवा देकर उसी हत्यारे रामधनी
को फिर भेजा गया है मन्दा भाभी के पास मिठाइयां लेकर।’
‘ मन्दा के
पास रामधनी गया है मिठाइयां लेकर?’- मिथुन एकाएक उठ खड़ा हुआ
मानों विजली का झटका लग गया हो- ‘ ऐं...ऽ...ऐं...तो क्या मेरी मन्दा की हत्या की
साजिश की है माँ ने...क्या कहती हो तुम दीपा?’
‘ ठीक कहती
हूँ,सोलह आने सही। दीपा बिना कोई ठोस सबूत के यूं ही बकबक नहीं करती। अभी सुनायी
गयी टेप की आवाज पर लगता है तुमने पूरा गौर नहीं किया।’ – मिथुन का हाथ पकड़ कर
बैठाती हुयी दीपा ने कहा - ‘ सिर्फ भाभी ही नहीं,इसके बाद भैया यानी तुम्हारी भी
हत्या की साजिश रची जा रही है इन षड़यन्त्रकारियों द्वारा।’
दीपा की
बातें सुन कर मिथुन के नथुने फड़कने लगे। होठ कांपने लगे। उसे शान्त करते हुए दीपा
बोली- ‘ नीच नीचता का स्तर नहीं देखता।
बाघ नहीं सोचता कि बच्चा ब्राह्मण का है। उसे तो वश शिकार चाहिए।’
‘ मगर जब
तुम इतना सावधान रही,फिर पहले क्यों नहीं बतलायी मुझे? आज तो उस आदमी को गए दो दिन हो गये। पता नहीं अब तक क्या गुल खिला चुका
होगा।’- कहा मिथुन ने तो दीपा सिर झुका ली। थोड़ी देर तक उसके मुंह से कोई आवाज भी
न निकली। मानों किसी बड़े अपराध के लिए पश्चाताप कर रही हो।
‘ दांत
टूटे सांप पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं उधर से थोड़ा बेखबर हो गयी थी,इसी बात
का अफसोस है। स्मिता की मौत और फैक्ट्री की आगज़नी के बाद से माँ का स्वभाव काफी
बदल गया है- हमेशा गुमसुम,उदास,अपने आप में सिमटी-सिकुड़ी सी। लगता है,उन्हें अपने
किए का बहुत पश्चाताप हो रहा है। इधर देखती हूँ- कुछ पूजा-पाठ भी करने लगी हैं।
सिर से पांव तक नास्तिकता में डूबा हुआ इन्सान अचानक इतना बदल गया...।’ - फीकी
मुस्कान बिखेर कर दीपा ने कहा- ‘ और मैं
इस बगुलाभगत के चोंच में फंस गयी। मुझे भी यकीन हो गया कि माँ सही में सही रास्ते
पर आ गयी है,और इस य़कीन ने ही उधर से बेखबर कर दिया,जिसका नतीजा हुआ कि
षड़यन्त्रकारियों का कारनामा इस अन्ज़ाम तक पहुँच गया। हालाकि एक और कारण हो गया
कि मकान में सफेदी किया जा रहा था,इस कारण उस कमरे से कनेक्शन हटाना पड़ा,जिस वजह
से कई दिनों तक इन लोगों के कृत्य से अनजान रही। आज संयोग से मां सारा दिन घर से
बाहर रही,और मुझे फिर से कनेक्शन करने का मौका मिला,और तब ये रहस्यमय जानकारी मिली
अभी-अभी। काश कनेक्शन हटा न होता,और उन दुष्टों की साजिश का हाल मिल गया होता...।’
लम्बी सांस
लेती-छोड़ती दीपा अफसोस ज़ाहिर करती रही। मिथुन की आंखें जलते अंगारे की तरह दहकने
लगी। क्रोध में होंठ फड़कने लगे। सांसें भी ऊँची-ऊँची चलने लगी। दांत पीसता रहा
कुछ देर तक।
‘ जी चाहता
है अभी जाकर गला घोंट दूं दोनों का...धरती का बोझ कुछ हल्का हो जाता...मगर...अपने
ही लहू से हांथ रंगू ? ’ – जरा दम लेकर दीपा बोली।
मिथुन अभी
भी कमरे में चलहकदमी कर रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे,क्या न करे ऐसी
स्थिति में।
क्रोध और
बेचैनी में भीतर की उद्विग्नता बाहर निकलने लगी - ‘ ईरीना तो छोड़ कर चली गयी... लगता है अब मन्दा
से भी हाथ धोना पड़ेगा...मेरी किस्मत में यही वदा है ... ओफ ! ’
एकाएक
मिथुन के मन में कुछ विचार कौंधे। झपटकर चल दिया अपने कमरे की ओर। दीपा भी
पीछे-पीछे चली। उसे कुछ आशंका सता रही थी।
कमरे में
पहुँचकर मिथुन जल्दी-जल्दी कपड़े बदलने लगा। दीपा ने पूछा- ‘ क्या बात है भैया
क्या सोच रहे हो?’
‘ अभी ढ़ाई
बज रहे हैं,जल्दी करुं तो दूनएक्सप्रेस मिल जायेगी। ’ – कलाई पर बंधी घड़ी देखते
हुए मिथुन ने कहा।
‘ तो क्या
तुम वहां जाना चाहते हो मन्दा भाभी का पता करने और वो भी अकेले ही?’
‘ और नहीं
तो क्या,बिना गए कैसे पता चलेगा। जाना तो होगा ही। एक तो काफी देर से खबर मिली...।’
‘ सो तो
है...मगर इस तरह अकेले... वहां जाना ....बिलकुल ठीक नहीं है भैया।’- दीपा की आवाज
अटक रही थी,क्यों कि वह बहुत घबरायी हुयी थी, भावी आशंकाओं से और मिथुन के स्वभाव
से भी वह पूरी तरह वाकिफ़ थी।
‘ अकेले
नहीं तो क्या वारात लेकर जाऊँ अपनी अभागिन दुल्हन को लाने...हाय मेरी मन्दा ! पता नहीं तुम्हारी कैसी हालत है...।’- कहते हुए मिथुन की आँखें डबडबा आयी
थी।
‘ अकेले मत जाओ भैया,हो सकता है दुष्टों ने कुछ
और जाल बुन रखा हो वहां।’- आतुर होकर मिथुन की बांह पकड़, दीपा ने कहा - ‘ दो दिन
बीत चुके,थोड़ा और सही। कम से कम सबेरा हो जाने दो। मैं कुछ इन्तज़ाम कर-करा दूंगी।
एक-दो और लोगों को साथ लेकर मैं भी चलना चाहती हूँ।’
‘ नहीं
दीपा नहीं...मुझे किसी के सहारे और सहयोग की जरुरत नहीं है और ना कुछ घंटे और
बरबाद कर सकता हूँ। ’- दीपा का हाथ झटकता मिथुन बाहर निकल गया।
‘ रुक जाओं
भैया...रुक जाओ...सुन लो मेरी बात...।’- दीपा कहती रही,मगर उसकी बात सुनने को
मिथुन रुका नहीं पल भर को भी। खटाखट सीढ़ियां उतरा,और फिर ज़ाफरी खोल लॉन में
आगया।
‘ नहीं
रुकोगे भैया?’- दीपा की रुंआँसी आवाज मिथुन के कानों में पड़ी,जिसे अनसुना करता,गेट
खोल, निकल पड़ा बाहर सुनसान सड़क पर लम्बे डग भरता हुआ।
सारा शहर
निस्तब्धता की चादर में लिपटा सो रहा था। दूर कहीं आवारा कुत्ते भों-भों करके अपनी
उपस्थिति दर्शा रहे थे। लैम्पपोस्ट की रौशनी में मिथुन ने घड़ी देखा- 2.40,कदम
थोड़े और तेज हुए... और तेज ...और तेज बुझते दीए की लौ की तरह।
ट्रेन से
बस,बस से पैदल...सफ़र जारी है। प्रेम के मैदान में भाग्य का खेल देखने अभागा इनसान
चला जा रहा है। खेल एक ही है,मैदान भी एक ही। बदले हैं सिर्फ खिलाड़ी। इसी मैदान
में माँ की हार हुयी,ईरीना की भी हार ही हुयी। अब नौबत है- पत्नी बनने जा रही
मन्दाकिनी की...सदा उम्मीदों के सहारे जीने वाला इनसान अकसरहां नाउम्मीदों को भी
उम्मीदें ही मान लेता है। धरती और आसमान के काल्पनिक मिलन को भी स्थायी और
वास्तविक मिलन ही मान लेता है । तो क्या ये मिलन होगा?
----- इत्यलम्---
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