गतांश से आगे...
४. कलापग्राम : रहस्यमय यात्रा
मत्स्य
पुराण के प्रारम्भ में ही प्रसंग है— महाराज मनु स्नानोपरान्त तर्पणार्थ अंजली में
जल ग्रहण किए, तभी उन्हें शफरी (अति लधु मत्स्य) का दर्शन हुआ। दयार्द्र ऋषि ने
उसे अपने कमण्डलु में डाल दिया। थोड़े ही पल में उसके आकार में वृद्धि हुयी और
कमण्डल छोटा पड़ने लगा। आगे क्रमशः उसका त्वरित आकार-वृद्धि होता रहा और उसे कूप,
सरोवर,सरितादि में स्थानान्तरण करते रहे ऋषि । अन्त में अति जिज्ञासु भावापन्न ऋषि
ने सादर निवेदन किया- परिचय स्पष्टी हेतु । वस्तुतः प्रभु का मत्स्यावतार था वह ।
प्रभु ने मनु को आज्ञा दी कि सृष्टि के समस्त बीज यथाशीध्र एक नौका में संग्रहित
कर दिये जायें, क्यों कि आसन्न महाप्रलय में सबकुछ जलमग्न हो जाना है। उस नौका को
महामत्स्य के विशाल श्रृंग में बांध कर प्रभु कलाप ग्राम की यात्रा पर निकल पड़े।
योग्य
विप्र की खोज में देवर्षि नारद भूमंडल छान मारने के पश्चात् निराश हो उसी
कलापग्राम की यात्रा पर निकले, क्यों कि उन्हें विश्वास था कि वहां उन्हें दिव्य
विप्रों का दर्शन अवश्य मिलेगा,जिनसे उन्हें अपने द्वादश जटिल प्रश्नों का उत्तर
प्राप्त होगा ।
यात्रा
काशी से प्रारम्भ होती है केदारक्षेत्र की ओर,जहां सौ योजन विस्तार वाला
हिमाच्छादित प्रदेश है । उसे पार करने पर कलापग्राम की सीमा तो प्रारम्भ हो जाती
है,किन्तु भूस्वर्ग उससे भी सौयोजन दूर है,जो प्रायः वालुकौघ है। उसे पार करने
हेतु अति गुप्त मार्ग (सुरंग) से गमन करना पड़ता है- अन्न-जलादि त्याग पूर्वक ।
किंचित आगे बढ़ने पर दक्षिणमुख कार्तिकेय का दर्शन होता है । उनकी कृपा प्राप्त
करने के पश्चात आगे का मार्गनिर्देश मिलता है,जो उनके स्थान से पश्चिम की ओर सात
सौ योजन विस्तार वाला है । नीरव गुफा में मरकतमणि-मंडित शिवलिंग का दर्शन होता है।
आगे बढ़ने पर सुवर्ण सदृश मिट्टी मिलती है । उस मिट्टी को ग्रहण कर, आगे बढ़
स्तम्भतीर्थ में स्नानोपरान्त , तत्उपस्थित कुमार और वाराह का दर्शन-आराधन करना
चाहिए । वहीं अर्द्ध रात्रि में कूपजल ग्रहण करे और उस जल में सुवर्णमृत्तिका
का घोल बना कर,आंखों में अँजन करे तथा पूरे शरीर में लेपन भी करे । आगे लगभग साठ
पग गमनोपरान्त एक अति सुन्दर गुहा का मुख
दीखेगा, जिसमें निःशंक यात्रा करे। उस गुहा में असंख्य कारीयकीट मिलेंगे,किन्तु
सुवर्णमृत्तिका लेपन के प्रभाव से यात्रा किंचित भी बाधित नहीं कर पायेंगे । उस
गुहा में निरंतर आगे बढ़ते जाना है, जहां दिव्यातिदिव्य सूर्य-सदृश सिद्धों का
दर्शन लाभ होगा। गुहा समाप्ति के पश्चात् ही कलापग्राम अवस्थित है । अस्तु ।
(नोट-
पौराणिक कहानियां सिर्फ कहानी नहीं होती,उसके पीछे गहन रहस्य छिपा होता है—समानान्तर
रुप से कथा और साधना-विधि दोनों जारी रहता है। नीर-क्षीर विवेचन सदा गुरुगम्य होता
है। कहानी का रुप तो रोचकता हेतु दिया जाता है । किन्तु प्रायः लोग कथा में ही
उलझे रह जाते हैं, और क्रम विन्यास नहीं बैठने पर पुराणों की आलोचना करने लगते हैं-
कि बकवास है...एक ही बात अलग-अलग जगहों पर कही गयी है, यहां तक कि एक बात दूसरे को
काटने वाली प्रतीत होती है । उक्त प्रसंग भी अति गूढ़ है । फलतः गुरुगम्य है । इसका
सीधा सम्बन्ध चक्रसाधना से है । वो भी प्रारम्भिक नहीं, बल्कि काफि आगे की ।
सामान्य साधक भी गहराई से समझने का प्रयास करेंगे, तो सम्भवतः मार्ग स्पष्ट हो
जायेगा।)
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