शाकद्वीपीय ब्राह्मणःलघुशोध--पुण्यार्कमगदीपिका भाग सात

गतांश से आगे...

(सातवें अध्याय का पहला भाग)



                     .मगोत्पत्ति :: कारण और उत्कर्ष

           जगत  की आदि सृष्टि आदित्य नामधारी ब्रह्मा से हुयी है, जो हिरण्यगर्भ- गुण-युक्त है। उसके एक अवतार—मार्तण्ड ( मृत-अण्ड,निष्क्रिय अण्ड) से मनु हुए, जिनसे मानव-समूह जन्मा—मार्तण्डस्यमनुधीमान् जायतसुतः प्रभूः मनुर्वंशोमानवानां ततोऽयं प्रथितो भवत् । (महाभारत, आदिपर्व अध्याय ७५ श्लोक ११-१४) ।
सृष्टि के आदि में होने के कारण आदित्य नाम सार्थक हुआ।
सर्गादौ तम आसीत् तमसागूढमग्रे । (ऋग्वेद १०-११९)
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्वनदासीत् ...। (यजुः ३३)
ततो रवेरेवादौ प्रादुर्भावः ततो विश्वमिदं सद्यस्तमो नाशात् सुनिर्मलम् । (मार्कण्डेय.पुराण. १०२-११) तथा च— आदित्य संज्ञा मगमत् आदावेव ततोऽभवत् । विश्वस्यास्य महाभाग !  कारणं चाव्ययात्मकम् ।। (मार्कण्डेयपुराण १०२-१४)
तथा च— भावाऽभावौ हि लोकानां आदित्यान्निसृतो पुरा । अविज्ञेयग्रहो विप्र ! दिप्तिमान् सुप्रभो रविः ।। यत्र गच्छन्ति निधनं जायन्ते च पुनःपुनः । क्षणं मुहूर्ता दिवसा निशा पाक्षाश्च कृत्स्नशः ।। (लिङ्गपुराण ६०-९)
आदि सृष्टि में सबसे पहले भूमण्डल का हिरण्यगर्भीय वर्ण का भाग निष्पन्न हुआ, जो शाकद्वीप का मूल वर्ण है—
हिरण्यवर्ण भवन्तदन्तमुदकेशयम्...(ब्रह्मपुराण १-३९)
भूगोलार्द्ध का ऊपर का मुखभाग शाकद्वीप कहलाता है, इसकी चर्चा गत अध्याय में हो चुकी है । विराट पुरुष के मुखभाग से ही ब्राह्मणोत्पत्ति हुयी है— ब्राह्मणस्य मुखमासीद्...(शुक्लययुर्वेद ३१) ये सर्व विदित है । वर्णाश्रम व्यवस्था का आरम्भ शाकद्वीप और प्लक्षद्वीप के सीमांचल में ही हुआ है- यह उपनिषदादि प्रमाणित है । मेरुओं में प्रथम मेरु शाकद्वीप में ही है— शाकद्वीपस्य प्रमुख पर्वतो मेरुः। (वायुपुराण ४९-७७ ), जिसके आसपास अमरावती, वरुणालय,कमलालय आदि सभी दिव्य स्थान हैं। मेरौ रवि रथचक्रं  परिभ्रमति... (श्रीमद्भागवत ) सच पूछें तो शाकद्वीप और पुष्करद्वीप में बहुत भेद नहीं है। हालाकि सप्तद्वीप गणना क्रम में दोनों को भिन्न कहा गया है।
शाकद्वीप की गरिमा और महत्ता का गुणगान वेदोपनिषद, पुराणेतिहासों में भरे पड़े हैं। इनकी कुछ बानगी इन स्थानों पर भी देख सकते हैं— शुक्लययुर्वेद अ.३१, ऐतरेयब्राह्मण- अ.१० खंड ४, तथा वायुपुराण, ब्रह्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, मत्स्यपुराण, श्रीमद्भागवतपुराण स्कन्ध ५अध्याय, २० श्लोक संख्या २४ से २७, देवीभागवत पुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३ श्लोक १५ से २५, भविष्य पुराण, भविष्योत्तर पुराण, वामनपुराण इत्यादि।
इन स्थानों में भी शाकद्वीपी-प्रसंग द्रष्टव्य है—
१.     ब्रह्मपुराण अध्याय २०
२.     विष्णुपुराण द्वितीयांश अध्याय ४.
३.     शिवपुराण सन्तकुमार संहिता अध्याय ३.
४.     देवीभागवत अष्टम स्कन्ध अध्याय १३.
५.     मार्कण्डेय पुराण अध्याय ५४-५५.
६.     लिङ्गपुराण पूर्वार्द्ध अध्याय ५३.
७.     वाराहपुराण अध्याय ९०.
८.     स्कन्दपुराण शंकरसंहिता दक्षखंड अध्याय ४०.
९.     गरुड़पुराण पूर्वार्द्ध अध्याय ५४.
१०.ब्रह्माण्डपुराण अध्याय ५६.
११.मत्स्यपुराण अध्याय १४०.
१२.विविध उपपुराण
१३.महाभारत
१४.नैषधादि काव्यादि
महाभारत भीष्मपर्व के ११वें अध्याय में शाकद्वीपी के विषय में महर्षि व्यास कहते हैं – शाकद्वीपंच वक्ष्यामि यथावदिहपार्थिव । क्षीरोदो भरत श्रेष्ठ येन सम्परिवारितः ।। तत्रपुण्या जनपदास्तत्रनम्रियतेजनः । कुतएवहि दुर्भिक्षं क्षमातेजोयुताहि ते ।। देवर्षिगन्धर्वयुतः प्रथमो मेरु रुच्यते । गौर-कृष्णश्चवर्णौ द्वौतयोर्वर्णान्तरं नृप ।। धार्मिकाश्च प्रजाराजंश्चत्वारोऽतीवभारत ।। वर्णाः स्वकर्मनिरताः नचस्तेनोऽत्र दृश्यते । मगाश्च मशकाश्चैव मानसामन्दगास्तथा ।। मगा ब्राह्मणभूयिष्ठाः स्वकर्मनिरतानृप । मशकेषुतुराजन्या धार्मिका सर्वकामदाः ।। मानसाश्च महाराज वैश्य धर्मोपजीविनः । शूद्रास्तु मन्दगानित्यं पुरषा धर्मशीलिनः।।   यानी क्षीरसागर से घिरे हुए शाकद्वीप में परम पवित्र जनपदों में अमर लोग निवास करते हैं। दुर्भिक्ष वहां कभी नहीं होता । सभी लोग अति तेजवान हैं, फिर भी अति क्षमाशील हैं। देवता,ऋषि,सिद्ध,गन्धर्वादि से भरा हुआ मेरु पर्वत ब्रह्माण्ड का प्रथम मेरु है । वहां की जनता गौर और श्याम वर्ण वाली है । मग,मशक,मानस और मन्दग नामक चार वर्ण हैं, (भूलोक के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चतुर्वर्ण के समान), जो प्रामादालस्य रहित, अपने-अपने कर्मो में निपुण और सदा रत रहते हैं । इस प्रकार मग ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं।
 श्रीमद्भागवत स्कन्ध ५ अध्याय २० श्लोक संख्या २४ से २८ तक शाकद्वीप वर्णन क्रम में किंचित भिन्न प्रमाण मिलता है। यथा— एवं पुरस्तात्क्षीरोदात्परित (कुछ पुरानी प्रतियों में क्षीरोदकात् पाठ है) उपवेशितः शाकद्वीपो द्वात्रिंशल्लक्षयोजनायामः समानेन च दधिमण्डोदेन परीतो यस्मिन् शाको नाम महीरुहः स्वक्षेत्रव्यपदेशको यस्य ह महासुरभिगन्धस्तं द्वीपमनुवासयति ।। तस्यापि प्रैयव्रत एवाधिपतिर्नाम्ना मेधातिथिः सोऽपि विभज्य सप्त वर्षाणि पुत्रनामानि तेषु स्वात्मजान्परोजवमनोजवपयमानधूम्रानीक चित्ररेफबहुरुपविश्वधारसंज्ञान्निधाप्याधीपतीन् स्वयं भगवत्यनन्त आवेशितमतिस्तपोवनं प्रविवेश ।। एतेषां वर्षमर्यादागिरयो नद्यश्च सप्त सप्तैव ईशान उरुश्रृङ्गो बलभद्रः शतकेसरः सहस्रस्रोतो देवषालो महानस इति अनधाऽऽयुर्दा उभयस्पृष्टिरपराजिता पञ्चपदी सहस्रस्रुतिरनिजधृतिरिति ।। तद्वर्षपुरुषा ऋतव्रतसत्यव्रतदानव्रतानुव्रतनामानो भगवन्तं वाय्वात्मकं प्राणायाम-विधूतरजस्तम सः परमसमाधिना जयन्ते ।। अन्तः प्रविश्य भूतानि यो विभर्त्यात्मकेतुभिः । अन्तर्यामीश्वरः साक्षात्पातु नो यद्रशं स्फुटम् ।।  
यानी क्षीरसमुद्र से आगे उसके चारो ओर बत्तीस लाख योजन विस्तार वाला शाकद्वीप है, जो अपने ही आकार तुल्य मट्ठे के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें साध्य, गन्धर्वादि द्वारा रक्षित शाक का विशाल वृक्ष है, जो इसके नाम का कारण है।
आधुनिक विचारक,जिन्होंने वेदोपनिषदादि रुपी उदधि में डुबकी लगाना तो दूर, कभी झांका-देखा भी नहीं है, शाक शब्द से सखुआ,साल, या इसी भांति का कोई वृक्ष - अर्थ निकलते हैं। जबकि इस नामकरण का विशेष कारण है । क्या सखुआ का पेड़ भी किसी को इतना आह्लादित कर सकता है- सोचने वाली बात है। सखुआ — देवदार तो है नहीं । सखुआ में सुगन्ध कहां है ? हां, हरीतिमा है, जिसका आनन्द आँखें ले सकती हैं।  
शाकश्चात्र महावृक्षः साध्य गन्धर्व सेवितः । यत्पत्र वात संस्पर्शात् आह्लादो जायते परः ।। (ब्रह्मपुराण १८-१४) किंचित शब्द भेद युक्त यही श्लोक विष्णु पुराण २-१-४-६३ में भी है।
सुनने में थोड़ा अटपटा लग सकता है,किन्तु ज्ञातव्य है शाकद्वीप का मूलनाम साध्यद्वीप ही है। श्रौत धर्मारम्भादपि प्रागेव साध्य संज्ञित नर-नरायण धर्म कुबेर विरंचि शिवादि देवानां साध्यर्षीणाञ्च निवासादयं साध्यद्वीप इति। (विश्वविमर्श पृ.१९४) अर्थात् वैदिक युगारम्भ के नर-नारायणादि देवों तथा साध्य ऋषियों का निवास स्थान यह साध्यद्वीप ही है,जो कालान्तर में आद्य महालक्ष्मी(शाकम्भरी)की लीला से साध्य से शाक हो गया । भविष्यपुराण १२५-१६ तथा देवीभागवत ८-७ में द्वादश साध्यों की चर्चा है— नर,नरायण,ब्रह्मा(मन), वरुण(प्राण), अग्नि(वृत्ति), मनु, सोम, धर्म, यम, वायु, कुबेर एवं शिव । ब्रह्मपुराण, वायुपुराण,मार्कण्डेयपुराण आदि में भी इन्हीं नामों को गिनाया गया है।
यथा—  मनोऽनुगन्ता प्राणश्च नरोनारायणस्तथा । वृत्तिलम्बो मनुश्चैव सोमो धर्मश्च वीर्यवान् । वित्तस्वामी प्रभुश्चैव साध्याः द्वादश कीर्तिताः ।।
वेद से पुराणकाल तक की, क्रमिक रुप से शब्दों की परिवर्तनात्मक रहस्यमय यात्रा पर जिन्होंने विचार किया है, उन्हें इस परिवर्तन पर जरा भी आश्चर्य नहीं होगा । जैसे - वैदिक काल का शब्द बलग > बल्ग > बगला हो गया, पुराण काल आते-आते । शत्रु की जिह्वा पर लगाम लगाने वाली इन्हीं भगवती का आधुनिक नाम बगला है। बल्ग शब्दो वेदब्राह्मणपुराणादिषु क्रमशः बलग,बल्ग,बगला रुपमाप । (विश्वविमर्श-पं. विष्णु दत्त मिश्र)
रक्षोहणं वलग हनम् । (ययु -३५) कृत्यां बल्गां निखनति (शतपथब्राह्मण ३-५-४-५) मातः श्री बगलामुखि ! (शाक्तप्रमोद,ब्रह्मयामलादि)
शब्दों के इस रहस्यमय परिवर्तनशील यात्रा को समझने के लिए थोड़ा अप्रासंगिक हो रहे हैं—वैदिक शब्दानां प्रचलित परिवर्तने नियन्त्रण रुप संस्कार एव । ततोहि पाणिनिः— प्रचलित शब्दानां भाषा तत्पुरोवर्ति शब्दानां छन्दं इत्युक्तवान् । मयड्वैतयोर्भाषायाम् । (४-८-१४३) भाषायां सदवसु श्रवः । (३-२-१०८) छन्दस्युभयथा । (६-४-८६) तदनुसरन् वररुचिः प्रत्यये भाषायां नित्यम् । ङ्यापोः संज्ञा छन्दसोर्वहुलम् । भाषायां छन्दसि इति द्वैविध्यं शब्दानां परिवर्तनशीलतां व्यनक्ति । तथैव वैदिक साध्यद्वीपो हि हेतु भूयस्त्वात्- शाकद्वीप इति ।
वर्तमान में हम जिसे संस्कृत भाषा कहते हैं,वस्तुतः वह शनैःशनैः संस्कारित होकर अपने इस कलेवर में दर्शित हुआ है । हमारी हिन्दी भाषा के साथ भी कुछ ऐसी ही बात है। भाषा हमेशा परिवर्तनशील है। प्रवहमाण है।  शब्दों के उच्चारणादि पर परिवेशादि का प्रखर प्रभाव पड़ता है और समय-समय पर इसमें आयी विकृतियों का समाधान करना पड़ता है। वैदिक काल से चले आ रहे शब्दों में निरन्तर परिवर्तन देख कर,उनपर नियन्त्रण की आवश्यकता प्रतीत हुयी। और तब उसे ऋषियों ने संस्कारित किया । (अब यहां संस्कार को दोष-निवारण अर्थ में न ले लें। मानकता अर्थ में लेना उचित होगा)। वैदिक शब्दों का नियन्त्रण रुपी संस्कार ही तत् भाषा के संस्कृत नामकरण का कारण बना। आचार्य पाणिनि ने  प्रचलित शब्दों को भाषा तथा उसके परिवर्तित शब्दों को छन्दस कहा है,जो कि अष्टाध्यायी के सूत्रांकन से स्पष्ट हो जाता है। आगे वररुचि ने भी इसका अनुसरण किया । या कहें इसे प्रमाणित किया है । साध्यद्वीप से  शाकद्वीप तक की शब्दयात्रा भी इसी क्रम में हुयी है।
शाकद्वीप नामकरण के पीछे भगवती शाकम्भरी का योगदान है। निखिल शक्ति बीजभूतेयं शाकम्भरी दुर्गमदैत्यार्त देवैः स्तुता प्रादुर्भवति । दुर्गम दैत्य से विकल, भूखे-प्यासे देवगणों की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती शाकम्भरी अवतरित हुयी, उनके पालनार्थ-रक्षणार्थ ।
शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पल विलोचना । मुष्टीं शिलीमुखाऽपूर्णं कमले कमलाऽलया । पुष्प पल्लव मूलादि फलाढ्यं शाकसञ्चयम्। कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति विभर्ति परमेश्वरी ।। (मूर्तिरहस्य) कुछ ऐसी ही भावाभिव्यक्ति देवीभागवत -२८ में भी है। साध्य को शाक,और साध्यद्वीप को शाकद्वीप रुप से ख्यात होना इन्हीं भगवती का कृपा-प्रसाद है। वस्तुतः ये और कोई नहीं आद्यलक्ष्मी- महालक्ष्मी-महामाया ही हैं। भूखे-प्यासे,रोते-विलखते,संतप्त-आतुर का पालन आखिर कौन करेगा इनके सिवा ? उसी समय— जब ये अवतरित हुयी,इनके शरीर से कालिका,तारिणी,वाला,त्रिपुरा, भैरवी,वगला,मातंगी,त्रिपुरसुन्दरी,कामाक्षी,तुलजा,जेमिनी,मोहिनी,छिन्नमस्ता,गुह्य- काली आदि अन्यान्य सहस्र नेत्रोंवाली देवी स्वरुप अवतरित हुयीं। यही शाकम्भरी देवी शताक्षी दुर्गा भी कही गयी हैं।
यथा— ततो देवी शरीरातु निर्गतास्तीव्र शक्तयः । कालिका तारिणी बाला त्रिपुरा भैरवी तथा ।। बगला चैव मातंगी तथा त्रिपुरसुन्दरी । कामाक्षी तुलजा देवी जेमिनी मोहिनी तथा ।। छिन्नमस्ता गुह्यकाली दशवाहुं सहस्रका ।। (देवीभागवत ७-२८)
शाकम्भरी शब्द पर जरा विचार करें(गौर करें)शाकम् भरी—शाक को भरने वाली(द्वितीया विभक्ति),जब कि भाव है- उदरम् भरी—उदर को भरने वाली। यहां इस अर्थ से प्रत्यक्षतः अर्थदोष दीख रहा है। अतः शाक से भरण करने वाली के लिए शाकम्भरी शब्द का प्रयोग कैसे हो सकता है? वस्तुतः यहां शाकद्वीपम्भरी है। शाकद्वीपियों ( निवासियों) का भरण किया जिसने । एक अन्य उदाहरण से इसे स्पष्ट करें—रघुकुलनन्दन – रघुनन्दन में मध्यपद(कुल)का लोप हो गया,उसी भांति शाकद्वीपम्भरी में द्वीप पद का लोप हो गया बहुव्रीहि समास होकर। और शाक का अर्थ सिर्फ साग न समझा जाए, प्रत्युत नीवार,सांवां आदि विविध खाद्य वनस्पति अर्थ वोधक है। कार्तिकमास के शुक्ल पक्ष में होने वाले शाकसप्तमीव्रत(विष्णु के निमित्त)में वस्तुतः इन्हीं शाकम्भरी देवी(महालक्ष्मी)की उपासना है। भाद्रशुक्लपञ्चमी को ऋषिपञ्चमी व्रत करते हैं,जिसमें सप्तऋषियों की उपासना होती है,उसमें शाकान्न (सांवां,टांगुन,कंगुनी आदि अन्नों) से प्रसाद निर्मित करते हैं। ध्रुव ने इन्हीं शाकान्नों का सेवन कर तपस्या करते हुए ध्रुवपद प्राप्त किया था। समयानुसार ये विविध अन्न आजकल लुप्त होते जारहे हैं- सभ्यता के विकास में। हम इनका नाम-रुप सब विसार बैठे हैं। प्रयोग तो बहुत दूर की बात है। किसी भी शुभकार्य में शाक(साग)की अनिवार्यता के पीछे भी यही कारण है। यहां तक की शाकश्राद्ध का भी महत्त्व है।
 शाकद्वीप नामकरण की सार्थकता के पश्चात् अब मूल विषय पर आते हैं। 
            ऐतरेय ब्राह्मण(१०-४) का एक प्रसंग है - देवासुरा वा एषु लोके समयतन्त ते वै देवाः सद एवाऽऽयतनम् कुर्वत तान्सदसोऽ जयक्ष्त आग्रीघ्नं संप्रापद्यन्त ते ततो न पराजयन्त तस्मादाग्रीघ्न उपवसन्ति....।
पुरातन काल में देवासुर संग्राम के क्रम में शाकद्वीप के निवासी- विशेष कर मग,मृग,भोजकादि ब्राह्मण, तथा वृहस्पति, सूर्य, विष्णु आदि ने सहस्रों वर्ष तक युद्ध किया। बाद में इसी क्षीरसागर का देवासुर द्वारा संयुक्तरुप से मंथन भी हुआ— क्रियताममृतोद्योगं मध्यतांक्षीर वारिधि...(मत्स्यपुराण अ. १४९)। यद्यपि इस संग्राम में देवपक्ष विजयी हुआ, किन्तु दीर्घकाल तक युद्धरत शाकद्वीपीय जन अति क्षुब्ध हो गए इस घटना से । उस काल में राजा प्रियव्रत शाकद्वीप में ही निवास कर रहे थे । उन्होंने अपने सात पुत्रों में द्वीपाधिकार विभाजित किया । बड़े पुत्र न्यग्रोध को जम्बूद्वीप का कार्यभार सौंपा, तथा छोटे पुत्र को अपने समीप रखते हुए शाकद्वीप की व्यवस्था सौंपी । भ्रातृ-प्रीति वश द्वीपान्तर यात्रायें होती रही । इस प्रकार शाकद्वीप से जम्बूद्वीप में आवागमन होता रहा ।
देवासुर संग्राम में मगों के कुशल नेतृत्व और शत्रुंजयी दक्षता के कारण इनके लिए मृग संज्ञा भी प्रचलित है । ये अमृतविद्या,मन्त्रविद्या,आयुर्विज्ञान,तन्त्र,नीति, योगक्रियादि में विशेष निपुण हैं । मृग जाति का वर्णन वेदत्रयी के अतिरिक्त तैत्तरीय संहिता में लगभग समान शब्दावलियों में  हुआ है । मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आजगन्थाः परस्याः सृकं संशाय पविमिन्द्र तिग्मं विशत्रुन्ता ढिविमृधोनुदस्व....। अर्थात् योगनिष्ठ मृग (शाकद्वीपीय ब्राह्मण) भयानक वीर हैं । ये कुचर (पृथ्वी पर घूमने वाले) , गिरिकन्दराओं में रहने वाले दुष्टों का लोकशान्ति और कल्याण के लिए अपने योगैश्वर्य की अमोघ शक्ति से वा मन्त्र शक्ति से संहार करते हैं। ध्यातव्य है कि ये शस्त्रास्त्र-युद्ध नहीं करते थे। इसकी इन्हें आवश्यकता ही नहीं थी।
इससे किंचित भिन्न अर्थ करते हुए निरुक्तभाष्य अध्याय १ खंड २० में यास्क ने इन मन्त्रों का विष्णु और सूर्य के अर्थ में प्रयोग किया है—कुचरः गरिष्ठा भीमः मृगः न... गिरिकन्दराओं में रहने वाले पशु आदि, जो पृथ्वी पर निरंकुश घूमते हैं, ऐसे लोगों के लिए रुद्र के समान संहारक हैं। एक वैदिक मन्त्र में जनता के नेता के अर्थ में भी मृग और मग का प्रयोग हुआ है। (ऋ.वे.१०-३६-२२,अ.वे.२०-१-६) ये प्रसंग भी यास्क भूमिका में उपलब्ध है । सूर्य सदा शाकद्वीप के छठी काष्ठा से उदित होकर, भ्रमण करते हुए संध्याकाल में उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिणी गोलार्द्ध में प्रवेश करते हैं- शाकद्वीपस्य षष्ठस्या उत्तरान्तो दितश्चरणः...। (वायुपुराण-५)
मगाः ब्राह्मण भूयिष्ठाः ”- इस वाक्यांश का उद्धरण ब्रह्मपुराण अ.२०, विष्णु पुराण अ. २-४,भविष्यपुराण अ.३६, साम्बपुराण अ.२५, पद्मपुराण स्वर्ग खंडादि में भी विशद रुप से मिलता है । भविष्य पुराण ब्रा.प.अ.११९ में कहा गया है – सृजामि प्रथमं वर्णं मगसंज्ञं मनूपमम्...। सूर्य के तेज से मग नामक अनुपम वर्ण का सर्वप्रथम सृजन किया। अथर्ववेद ९-१०-१५ में कहा गया है- यदामागन् प्रथमजा ऋतस्यादित वाचो अश्नुवै भागअस्याः – आदि मानव मग आदि वाणी वोलने वाले, यज्ञ के आदि मन्त्र-वाचक और यज्ञ-भाग-भोगी हैं।
शाकद्वीप के अन्तर्गत ही उत्तरभाग में श्वेतद्वीप है । यहीं क्षीरसागर में शेष-शैय्या पर चतुर्भुज नारायण विराजते हैं—
शाकद्वीप समावृत्य क्षीरोदः सागरः स्थितः स्वेतद्वीपज्यतन्मध्ये नारायण परायणाः । श्वेतास्तत्रनरानित्यं  जायन्ते विष्णुतत्पराः ।। नारायण समा सर्वे नारायण परायणाः । ध्यायन्ति तत्परं ब्रह्म वासुदेवं सनातनम् ।। (कूर्मपुराण-४९)
अहंकार और उपेक्षारहित शाकद्वीपीय ब्राह्मण यहां पद्मनाभ अच्युत और भगवती रमा के समक्ष सदा सामगान करते रहते हैं ।
तेधे तोयाब्धे रुत्तरं कूलं श्वेतद्वीप मिहोच्यते । संन्दर्शनाय योगीन्द्र सनकादि महात्मनाम् ।। साध्या मरुद्णाश्चैव सेवन्ते नित्य देवताः ।। सनकश्च सनन्दनश्च तृतीयश्च सनातनः । सनत्कुमारोजतश्चवोढुः पंचशिखस्तथा ।। सप्रेते ब्रह्मणः पुत्रा योगिनः सुमहौजसः । नरनारायणाद्यश्च श्वेतद्वीपे वसन्ति ते ।। श्वेतद्वीपे महायोगी सेविते हेय वर्जिते । नानाराजमयूखैस्तुच्छादिते दुग्धवारिधौ ।। (पद्म पु. ६ उ.खं. २५९)।

  ऐसे ही भावार्थ पूर्ण  प्रसंग श्रीमद्भागवतादि अन्य पुराणों में 

 भी है। 

क्रमशः...



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