शाकद्वीपीय ब्राह्मणःलघुशोध--पुण्यार्कमगदीपिका भाग आठ

गतांश से आगे...
सातवें अध्याय का उत्तरार्द्ध

शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्य तेजोत्पन्न हैं, इस कारण इन्हें सौर भी कहते हैं। दिव्य एवं  साध्य संज्ञा भी व्यवहृत होती है इनके लिए— 
यो हि मगेति वै प्रोक्तो मगो दिव्यो द्विजोत्तम ।      दिव्याश्चैते स्मृताः विप्राः आदित्याङ्ग समुद्भवाः ।।  भूयिष्ठ, महिर, भूदेव,दिव्य,सूर्यविप्र,सूर्यद्विज,वाचक, ऋतव्रत आदि सम्बोधन भी इनके लिए प्रयुक्त हुए है । शब्दकल्पद्रुम नामक शब्दकोश में ऋतव्रत शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का पर्याय कहा गया है । ये सद्विप्र परम त्यागी, वेदज्ञ, अति श्रेष्ठ, गुणी, सच्चरित्र और सुशील थे - ऐसा प्रसंग श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध के ६४ वें अध्याय में है— स्वलंकृतेभ्यो गुणशील वद्भ्यः सीदत् कुटुम्बेभ्यः ऋतव्रतेभ्यः । तपः श्रुत ब्रह्म वदन्य सद्भ्यः प्रादां युवभ्यो द्विज पुङगवेभ्यः ।।

शाकद्वीपियों के गुणवाचक नामरुप अनेक हैं, किन्तु सर्वाधिक प्रचलित है—मग,याजक,भोजक,ऋतव्रत,उर्ध्वरेतस, सूर्यद्विज,सत्यव्रत,वेदव्रत,श्रोत्रेय,पंक्तिपावन,सामग, देवब्राह्मण,दिव्यद्विज,देवर्षि,ब्रह्मर्षि,पूजक,मृग,सेवक,सेवग इत्यादि।

  मग । मग शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की गयी है । मन्त्रोत्पादक और गुरु अर्थबोधक है । से मार्तण्ड और  से पूजक व प्रकाशक अर्थबोध भी होता है । ये दोनों अर्थ वैदिक और पौराणिक रुप से मान्य हैं । अझरं चैव ओंकारं सार्धमात्रा द्वयेस्थिताम । वदन्ति चार्ध मात्रस्थं मकारं व्यंजनात्मकम् ।। ध्यायन्ति च मकारं ये ज्ञानं तेषां मद्यत्मकम् । मकार ध्यान योगाश्च मगाः ह्येते प्रकीर्तिताः ।। (भविष्यपुराण ब्राह्मणपर्व अध्याय २७) ।

भोजक धूपमाल्यैर्जपैश्चापि ह्यपहारै स्तथैव च । भोजयन्ति सहस्त्रांशुं तेनते भोजकाः स्मृता  ।। (भविष्यपुराण ब्राह्मणपर्व अध्याय ११७)  धूप,माल्य, नाना प्रकार के नैवेद्यों,उपहारों तथा वैदिक मन्त्रों के जप पूर्वक भास्कर को नैवेद्य अर्पण करके स्वयं भोजन करने वाला होने के कारण शाकद्वीपियों की भोजक संज्ञा भी है। तथा च— नाभोज्यं भुंजते यस्मात्तेनासौ भोजको मतः । (उक्त- श्लोक ५५) ये कदापि अभोज्य भोजन नहीं करते। इस प्रकार त्रिविध अन्नदोष के भागी नहीं होते।

याजक – यज्ञ-निष्णात होने के कारण यज्जन और यज्ञ सम्पादित कराने के कारण याजक भी कहे गये हैं । धूपमाल्यैर्जपैश्चापि ह्यपहारै स्तथैव च । ये यजन्ति सहस्रांशुं तेन ते याजकाः स्मृताः ।। (साम्बपुराण) धूप,माल्य, नाना प्रकार के नैवेद्यों, उपहारों तथा वैदिक मन्त्रों के जपपूर्वक भास्कर का यजन करते हैं,इसलिए याजक कहे गए ।
साधक — ब्रह्मयामल नामक ग्रन्थ में कहा गया है— शरद्वीपे च वेदाग्निः शाकद्वीपे च साध्यकः । भूमध्ये  ब्रह्मचारी च दैवज्ञो द्वारिकापुरे ।। शाकद्वीपीय ब्राह्मण स्थान भेद से भिन्न नामों से जाने जाते हैं- गन्धमादन पर्वत क्षेत्र में वेदाग्नि,शाकद्वीप में साधक,मध्यदेश में ब्रह्मचारी तथा द्वारकापुरी में दैवज्ञ नाम से प्रचलित हैं । (रुद्रयामल अध्याय १४ में भी उक्त श्लोक का उत्तरार्द्ध यथावत है)
हेमाद्रिकल्पतरु में कहा गया है कि ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं- एक दिव्य और दूसरा भौम । द्विविधा ब्राह्मणा राजन् ! दिव्या भौमास्तथैव च । भोजकादित्य- जाताहि दिव्यास्ते परिकीर्तिता ।। (भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व अध्याय १३९) जम्बूद्वीपीय विप्रों के लिए भौम संज्ञा है और शाकद्वीपीयों के लिए दिव्य । भोजयेत् ब्राह्मणान् दिव्यान्भौमाश्चापि सदक्षिणाम् ।। तथा च दिव्याश्चैते स्मृताः विप्रा आदित्यांग समुद्भवाः ।। (भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व)
अन्यश्च— मगाश्च भोजकश्चैव याजको वाचकस्तथा । वेदाङ्गचैव दिव्यश्च सौरः सूर्य ऋतव्रतः ।। यज्वी जापक इत्येते शाकद्वीप निवासितः । (भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व) मग,भोजक,याजक,वेदाङ्ग,दिव्य,सौर,ऋतव्रत,याज्वी, जापक इत्यादि संज्ञायें हैं शाकद्वीपियों के लिए ।
  मगाश्चब्राह्मणाः पूर्वे निःसृताः सूर्यमण्डलात् । ज्वलदर्क प्रतीकाशाः शाकद्वीपमवातरन ।। (मगब्राह्मण पहले सूर्यमण्डल से जाज्वल्यमान सूर्य जैसे शाकद्वीप में प्रकट हुए।) इसी भांति स्कन्दपुराण के बल्लार्क चरित प्रसंग में आया है— मगाश्चैनेस्मृता विप्रा आदित्यांग समुद्भवाः । दिव्यास्ते ब्राह्मणाज्ञेया वशिष्ठा- गिंरसादयः ।। (सूर्य के अंग से निःसृत वशिष्ठ आंगिरस आदि दिव्य मग ब्राह्मण हैं।) यज्ञकल्पलता में कहा गया है— सूर्यांगसम्भवा विप्राः शाकद्वीपनिवासिनः । मगाब्राह्मण भूयिष्ठाः सर्वयज्ञेषु पूजिताः ।। (शाकद्वीप में रहने वाले सूर्यांग से निकले हुए सर्वश्रेष्ठ मग ब्राह्मण सभी यज्ञों में परम पूज्य हैं।) विप्रपूजनपद्धति में भी कहा गया है— भास्करांगभवा विप्राः शाकद्वीपनिवासिनः । सर्वपूज्याः सर्वमान्या सर्वलोकनमस्कृताः ।। (सूर्य के अंग से निःसृत शाकद्वीपीय ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य, सर्वलोक नमस्कृत हैं।)
 योगाभ्यास में सदा रत रहने के कारण योगीन्द्र नाम भी सार्थक है। मन्त्रों का सस्वर गायन (योगविधि से) करने में दक्ष होने के कारण तथा अमर विद्या का ज्ञाता होने के कारण मृग नाम से भी विभूषित किया गया है। मनुस्मृतिकार का कहना है कि हिरण्यगर्भ मनु के जो मरीचि,अंगिरा,अत्रि,पुलस्त्य, पुलह, क्रतु,वशिष्ठादि सात पुत्र सौरकुल के ही हैं । प्रचेतस,भृगु आदि भी इसी कोटि में आते हैं । शाकद्वीप के साध्यगण में और भी बहुत से नाम हैं । यथा— भारद्वाज,गौतम,शाण्डिल्य,रोहित, गर्ग,शातातप,सनत्कुमार,सत्यवद,भार्गव,पराशर,पौण्डिक,शंकक्रतु,दक्ष,काश्यप, जमदग्नि, कार्तिकेय, कुम्भ योनि इत्यादि । (ध्यातव्य है कि कुछ नाम अन्यत्र भी अन्य रुप से प्रयुक्त हुए हैं।) भूमि पर अति पूज्य होने के कारण भूदेव संज्ञा तो आधिकारिक तौर पर बनती ही है, जिनका चरण-रज ग्रहण करने को योगेश्वर श्रीकृष्ण भी तत्पर रहते हैं । उन्हीं की कृपा-प्रसाद से जम्बूद्वीप को मगविप्रों का स्थायी वास-लाभ प्राप्त हो सका ।

अल्ल— संस्कृत में अल्ल् शब्द है,जो भूषण का द्योतक है— अलंकरोति इति अलंकारः । अल्ल शब्द का प्रयोग भी शाकद्वीपियों के लिए होता है । ये स्वयं को अल्लवंशीय मानते हैं, जिनका गोत्र  महर्षि है।  पंच प्रवर, शुक्ल ययुर्वेदीय, माध्यंदिन शाखा, दक्षिण शिखा धारी हैं, जिनके कुलदेवता जमनाजी (यमुनादेवी) हैं ।   पंजाब तथा मध्य प्रदेश में इस शब्द का प्रयोग करने वाले मूलतः मगद्विज ही हैं, जो स्वयं को महर्षि गोत्र का बताते हैं । उनके क्रिया कलापों पर ध्यान दिया जाय, उनका इतिहास जाना जाये , तो बात स्पष्ट होगी । कंचन, कंवल, साधन, अरियेदी, लक्खी, लखी, इकबन्ने, अक्षौणी, सोढ़ल, लोई, बिंजू, आदि प्रकार को ये स्मरण रखे हुए हैं। (साभार—मगबन्धु के मगविशेषांक में प्रकाशित पं.गंगासहाय का लेख- संग्रहकर्ता महर्षिगोत्रीय पं.मदनलाल मिश्र एवं नारायण महर्षि, उदयपुर,राजस्थान)

सेवक/सेवाग/सेवग— विक्रमसंवत् १९८८ के आषाढ़ अंक में शाकद्वीपीय ब्राह्मणबन्धु नामक चर्चित पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें लेखक का नाम स्पष्ट नहीं है। लेख में सेवग और भोजक संज्ञक मगविप्रों के बारे में चर्चा है, जो प्रायः ओसवालों के जैन मन्दिरों की सेवा में रहे। फलतः सेवग वा सेवक कहलाये । पुर-गोत्रादि के स्थान पर ये खाप का प्रयोग करते हैं, जो सोलह खापों में बंटे हुए हैं। जोधपुर, जयपुर,जैसलमेर,बीकानेर आदि क्षेत्रों में ये विशेष रुप से बसे हुए हैं । लेखक महोदय ने बड़े आग्रह पूर्वक लिखा है कि सभी शाकद्वीपियों को आपसी भेद सूचक उपनानों से बचना चाहिए । क्यों कि ये मूलतः एक ही हैं। (मगबन्धु, मग विशेषांक)
  प्रसंगवश अब यहां भारत में पाये जाने वाले शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के नाम भेद की चर्चा करते हैं । यह प्रसंग ब्रह्मयामल के चौदहवें अध्याय में आया है— शरद्वीपेच वेदाग्निः शाकद्वीपेच साध्यकः । भूमध्ये ब्रह्मचारी च देवलो द्वारिकापुरे । कलिङ्गे ज्ञानविप्रस्यादाचार्यो गौडदेश के । धर्माणे धर्मवक्ताच पांचाले शास्त्रिसंज्ञकः । सारस्वते शुभमुखो गान्धारे चित्र पंडितः । कर्णाटे शुभ मुखश्चैव नैपाले देवविप्रकः ।। (शरद्वीप में वेदाग्नि,शाकद्वीप में साध्य,भूमध्य में ब्रह्मचारी,द्वारिकापुरी में देवज्ञ, कलिंग (उड़ीसा) में ज्ञानी विप्र, गौड़ (बंग प्रान्त) आचार्य, धर्मारण्य (अमरकंटक) में धर्मवक्ता, पंजाब में शास्त्री, सारस्वत (काश्मीर) में शुभमुख, गन्धार में चित्रपंडित, कर्नाटक (मैसूर) में सुब्रमण्यम्, और नेपाल में देवब्राह्मण कहे जाते हैं । ध्यातव्य है कि ये स्थानिक नाम भेद है, न कि आन्तरिक विशेष भेद।
 श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में ही त्रेतायुग का एक प्रसंग है—इक्ष्वाकु पुत्र राजा नृग ने ऋतव्रत संज्ञक ब्राह्मणों को गोदान दिया था । इससे स्पष्ट होता है कि उस काल में भी शाकद्वीपीय ब्राह्मण जम्बूदीप में थे । किन्तु हां, इस प्रसंग से ये प्रमाणित नहीं हो रहा है कि वे यहां स्थायी रुप से बसे हुए थे ।  हां, द्वीपान्तर यात्रायें तो होती ही थी- जैसा कि आज भी एक स्थान का ब्राह्मण दूसरे स्थान पर जाकर यज्ञादि कर्म सम्पन्न करता-कराता है ।
  भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व के ११७ वें अध्याय में एक प्रसंग ऐसा भी है— अति प्रारम्भ में शाकद्वीप में भी तीन ही वर्ण थे- क्षत्रिय,वैश्य एवं शूद्र ।  यानी कि ब्राह्मण का अभाव था । शाकद्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र मेघातिथि के प्रति सूर्य के वचन से लक्षित होता है— क्षत्रियादि त्रयो वर्णाः द्वीपेऽस्मिन नात्र संशयः । ते च नार्हन्ति मे पूजां न प्रतिष्ठां कदाचन ।। ऐसी स्थिति में मेघातिथि ने सूर्य से प्रार्थना की कि आपके पूजन योग्य ब्राह्मणों को उत्पन्न किया जाय । उनके अनुनय पर सूर्य ने ध्यान लगाया । और तब सूर्य के ललाट से दो,वक्ष से दो,पैर के ऊपरी भाग से दो, तथा पादतल से दो यानी कुल आठ ब्राह्मण उत्पन्न हुए—   
अथ मे चिन्त्यमानस्य स्वशरीराद् विनिःसृताः ।  शशिकुन्देन्दु संकाशाः संख्ययाष्टौ महाबलाः ।। ललाट फलकाद् द्वौतु द्वां चान्यां वक्षसस्तथा । चरणाभ्यां तथा द्वौतु पादाभ्यां द्वौ तथा खग ।।
इस प्रकार सूर्यांश से उत्पन्न अष्ट विप्रों के वाम भाग से पुनः स्त्री एवं दक्षिण भाग से पुरुष की उत्पत्ति हुयी ।  सृजामि प्रथमं वर्णं मग संज्ञमनौपम् – मग नामधारी इन्हीं युग्मों (जोड़ों) से आगे ब्राह्मणों की सृष्टि हुयी।
प्रसंगवश शाकद्वीपियों के लिए सूर्यांश शब्द का प्रयोग यदाकदा किया गया है और आगे भी किया जाता रहेगा । सूर्यांश संज्ञा से कदापि भ्रमित होने की  आवश्यकता नहीं है और न इसे सूर्यवंशी समझने-मानने की भूल करने की जरुरत है। वंश शब्द विशेषकर अपत्यार्थक होता है, जब कि अंश शब्द इससे बिलकुल भिन्न है। अभी-अभी ऊपर के प्रसंग में ....स्वशरीराद् विनिःसृताः...कहा गया है। अंश का एक अर्थ रश्मि या किरण भी होता है। किरणों का स्वामी(स्रोत) होने के कारण सूर्य को अंशुमाली भी कहा जाता है । इस प्रकार सूर्यतेजोद्भूत हैं मग । अंश और वंश में एक गहन अन्तर ये भी है कि अंश अमैथुनी सृष्टि का द्योतक है,जबकि वंश मैथुनी सृष्टि का। अंश और अंशी का कैसा विलक्षण सम्बन्ध है- श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों के पाठक इसे अच्छी तरह जानते-समझते हैं । किसी शब्द विशेष को एकतरफा पकड़ कर खींच-तान करने पर स्वाभाविक है कि भ्रम पैदा होगा । अर्थ का अनर्थ होगा । अतः शब्दों की अनेकार्थक शक्ति और प्रयोग का ध्यान रखना आवश्यक है । आगे एक प्रसंग में शक-शाक-शाकद्वीपीय,भोज-भोजक जैसे भ्रामक शब्दों को जोड़ने के प्रयास  का प्रमाणिक खण्डन किया गया हैवहां भी ऐसा ही शब्दजाल पैदा किया गया है मगनिन्दकों द्वारा। अस्तु।
  
पुनः मूल प्रसंग पर आते हैं । शाकद्वीप के मग गणों में ही अंगिरा का नाम आता है—  अंगिरा मुखतोऽक्षणोऽत्रिमरीचिर्मनसोऽभवत्...। (श्रीमद्भागवत ३-१२) सृष्टि के आदिदेव साध्य ब्राह्मण शाकद्वीपीय हैं । इस विषय पर बहुत ही स्पष्ट रुप से ब्रह्मयामल के चौदहवें अध्याय में कहा गया है—शाकद्वीपेच साध्यकः...। वेदोक्त सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात...(पुरुषसूक्त) वैदिक और सनातन धर्म की रीढ़ है, जहां सृष्टि के प्राण-विकास के क्रम और उसके तत्त्व हैं । इस सूक्त में स्पष्ट किया गया है कि आदित्य ब्रह्म विराट के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुयी है । साम्बपुराण अध्याय २७ में कहा गया है—होमं ये मन्त्रतः कृत्वा परं होमे पिवन्तिते । ऋडमयं मण्डलं तच्च दिव्यं ह्यमरमव्यम् ।।   
यज्जन कहे जाने वाले शाकद्वीपीय ब्राह्मण मान्त्रिक विधि से अग्नि में आहुति देते हैं, पुनः समन्त्र उसे पान करते हैं, जिसके परिणाम स्वरुप उन्हें अमरत्व प्राप्त होता है । इसी भांति इनके विषय में औशनस स्मृति, शंखस्मृति, आंगिरसस्मृति, तथा कपिल स्मृति में कहा गया है कि इन सद्विप्रों को हव्य-कव्य, श्राद्धादि में भोजन कराने का अति महत्त्व है । ऐसे दिव्य जन्मा अग्निहोत्री मग को समक्ष वैठा कर सत्कार पूर्वक भोजन कराना चाहिए । विविध धर्मशास्त्र इनकी प्रशस्ति गाथा से भरे पड़े हैं । मगों को श्रद्धा-भक्ति पूर्वक आमन्त्रित करके भोजन करावे, तथा यथाशक्ति सहर्ष दान देवे । ऐसा करने से पूर्व-पर दस-दस पीढ़ियों का उद्धार होता है— मगांनां भोजनं भक्तया शक्तया दानं प्रकल्पयेत् । दशपूर्वान्दशपरानात्मना सहभारत ।। (महाभारत) देव पूजन, पर्व,उत्सव,श्राद्धादि अन्य पुण्यकालों में सूर्य की उपासना करे, और सूर्योपासक भोजक संज्ञक विप्रों (मगविप्रों) को आहूत कर, भोजन कराने से सूर्यलोक की प्राप्ति होती है ।  क्यों कि सभी प्राणियों में उत्तम मनुष्य है। मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है । ब्राह्मणों में भी विद्वान श्रेष्ठ है । विद्वानों में भी तत्त्वानुरागी श्रेष्ठ है । तत्वानुरागियों में भी तत्त्वज्ञानी श्रेष्ठ है । तत्त्वज्ञानियों में भी योगी श्रेष्ठ है । कोटि-कोटि योगियों से भी एक भोजक (मग) श्रेष्ठ हैसर्वेषामेव भूतानामुत्तमाः पुरुषास्मृताः । पुरुषेभ्यो द्विजः   श्रेष्ठो द्विजेभ्योग्रन्थ पारगः ।। ग्रन्थिभ्यो वेदविद्वांसस्तेभ्यस्तत्वार्थचिंतकाः । अर्थविद्भ्यश्च ज्ञानार्थं प्रतिबुध्ये विशिष्यते ।। ज्ञानार्थं विदां कोटिभ्यो वरिष्ठः योगिनोस्मृताः । योगिनां कोटि कोटिभ्यो भोजकश्चोत्तमेः भवेत् ।। योगिह्यायोग निष्ठाश्चपितरो योग सम्भवः । भोजिते भोजके सर्वे प्रीताः  स्युस्ते न संशयः ।।  (भविष्यपुराण ब्रा.प.१७२)
साम्बपुराण में कहा गया है— मेघाच्छन्नो यदा सूर्यः श्राद्धादौ यज्ञ कर्मणिः । शाकद्वीपद्विजस्तत्र स्थापनीयः प्रयत्नतः ।।
तथा च –  लुप्ते सूर्य वह्नि हीने शाकद्वीप द्विजस्थिते । तत्र यज्ञादिकं कर्म करणीयं न दोषभाक् ।। -
श्राद्धादि शुभाशुभ कर्मों में, जहां सूर्य रहते कर्म समाप्ति का नियम है, किसी कारण वश विलम्ब हो जाये, तो सूर्य के अभाव में सूर्योपासक सूर्यांश मगविप्र को साक्षी मान कर कर्म सम्पन्न किया जाना चाहिए । इस प्रकार सूर्य का विकल्प कहा गया शाकद्वीपीय ब्राह्मण को ।
तथा च – साम्ब को सूर्य का आदेश - मम पूजा करंगत्वा शाकद्वीपादि हानय...।
किंचित भिन्न वाक्य - तान मगान् मम पूजार्थं शाकद्वीपायहानय । आरुह्य गरुडं साम्बः शीघ्रं गत्वाऽविचारयन् ।।   (भविष्यपुराण अ.१३९ श्लोक ८२, साम्बपुराण अ.२६, ब्रह्मपुराण ३५-४०)
तथा च – भविष्यपुराणे ब्राह्मपर्वणि सप्तमीकल्पेएकोनचत्सारिंशदुत्तरशत तमाध्याये सूर्यवाक्यं साम्बमुद्दिश्य-– तान मगान् मम पूजार्थं शाकद्वीपायहानय । आरुह्य गरुडं साम्बः शीघ्रं गत्वाऽविचारयन् ।। मगाब्राह्मणभूयिष्ठा मानगाः क्षत्रियास्तथा । वैश्यास्तु मानसा ज्ञेया शूद्रास्तेषां तु मन्दगाः ।।
इसी प्रसंग में आगे शतानीक-सुमंतु संवाद है— तथेति गृह्य तामाज्ञां रवेर्जाम्बवतीसुतः । पुनर्द्वारवतीं गत्वा कान्त्यातीव समन्वितः ।। आख्यातवान् पितुः सर्वं स्वकीयं देवदर्शनम् ।। तस्माच्च गरुडं लब्ध्वा ययौ साम्बोऽधिरुह्य तम् ।। शाकद्वीपमनुप्राप्य संप्रहृष्टतनूरुहः । तत्रापश्यद्यथोद्दिष्टान् साम्बस्तेजस्विनो मगान् ।। एवं स आनयित्वा तु मगान् साम्बो महीपते । स महात्मा पुरा साम्बश्चन्द्रभागा सरितत्तटे ।। पुरं निवेशयामास स्थापयित्वा दिवाकरम् । कृत्वा धनसमृद्धंतु भोजकानां समर्पयेत् ।।  तत् पुरं सवितुः पुण्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।। साम्बेन कारितं यस्मात्तस्मात् साम्बपुरं स्मृतम् ।।
शाकद्वीपियों के सम्बन्ध में मगतिलक नामक शोधपुस्तिका में महुआइन ग्राम निवासी मगविभूति पं.रामधन पाठक जी कहते हैं – इह खलु भारते वर्षे आयार्वर्ते भूमौ शाकद्वीपीया नाम भूमिदेवा जयन्ति । एतेषां किल पूर्वजा भोजकापरपर्याया मगानाम कृष्णतनूजेन साम्बेन गरुड़सहायेन शाकद्वीपादानीय मित्रवने सूर्यप्रितमाप्रतिष्ठादि इतरब्राह्मणैः कर्त्तुनमशक्यं कर्म निर्वर्तयितुं पूर्वं निवासिताः। शिशुदारसहितानां दिव्यानां मगानां जीविकार्थं सुखदान्नरसाद्युत्पत्ति चणक्षेत्रा- दिसनाथीकृतानां पुराणां द्वासप्ततिं सूर्याय समर्प्य मगसात् कृतवान् साम्बः । अथ तत्र तत्र पुर उषित्वा पुरोपान्तक्षेत्रादिषूत्पन्नानि अन्नरसवसनादी नि सूर्यसमर्पितानि कृत्वा तैर्लोकयात्रां कुर्वाणाः सुतरां सुखिनः सन्तः शाकद्वीपादागता इति हेतुना शाकद्वीपीयशब्देन व्यवहृतास्ते वभूवुस्तद्वंशभवा अत्र शाकद्वीपीयपदेनाभिधीयन्ते ।

   मगप्रशस्ति में लघुश्वालायनस्मृति(११-३०) में यहां तक कहा गया है कि वैवस्वतकुलोत्पन्नौ महावीरौ सुरोत्तमौ शुनौद्वौश्याम शबलौपितृभागार्थिनौसदा ।। - वैवस्वतकुलोद्भव (सौर) महावीर उत्तम श्वान (देवता श्याम और शबल, जो पितरों के भागों के सदा अधिकारी हैं, श्राद्धीय अन्नभाग को ग्रहण कर तृप्त होते हैं। (ध्यातव्य है कि श्राद्धादि में पंचबली— गौ,काक,श्वान,पिप्पलिकादि का बहुत महत्त्व है।) अभिप्राय ये है कि सौरगणों के श्वान भी पितरों का अंशभागी है, फिर विप्रों का क्या कहना ।   भोजकानां शरीरेतु नित्यं सन्निहितो रविः । ये भोजकान् त्यजंत्यन्ते सर्व पापे स्ववस्थिताः ।। अधोमुखोर्धपादास्ते पतन्ति नरकाग्निषु । कृमिभिर्भिन्नवदना । स्तप्यमानाश्च वह्निना । पीड्यन्ते चायुधैर्घोरै यावदिंद्राश्चतुर्दश ।  (भविष्यपुराण ब्रा.प.१८८) शाकद्वीपियों के शरीर में सदा रवि का वास होता है। इनका जो अपमान या निन्दा करता है, हेय मानता है, वह अधोमुख नरकाग्नि में पड़ता है। इत्यादि।

    आधुनिक काल में भी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों पर यदाकदा शोधकार्य होते रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि आत्मश्लाघा में सिर्फ मगों ने ही ये कार्य किए,बल्कि विभिन्न लोगों ने मगमहिमा को अपने शब्दों-भावों में उजागर करने का प्रयास किया है। विदेशी पर्यटक और इतिहासकारों ने भी अपने अध्ययन का केन्द्र-विन्दु बनाया मगों को।
    पुराणादि की चर्चा तो पिछले प्रसंग में की जा चुकी है। यहां कुछ आधुनिक विद्वानों के संग्रह की नाम-चर्चा करते हैं। किन्तु खेद है कि इनमें कुछ के प्रकाशक के बारे में मुझे जानकारी नहीं मिल पायी है,बस नाम भर है। जिज्ञासुओं को अपने स्तर से इसकी खोज करनी चाहिए। यथा— 
1.मग ब्राह्मण उत्कर्ष— पं.विश्वनाथ शास्त्री, शाकद्वीपीय ब्राह्मण बन्धु  कार्यालय,उदयपुर,राजस्थान-( विक्रमाब्द २०२७)
2.मगदर्शन— पं.गौरीनाथ पाठक,गुमला,झारखंड, (विक्रमाब्द २०५०)
3.मगपरिचय—श्रीनाथ शर्मा,मधुबनी,बिहार
4.शाकद्वीपीय ब्राह्मणोपाख्यान—श्रीकेदारनाथ मिश्र, कुतुबपुर,चेचर, वैशाली,(विक्रमाब्द २०६२).
5.मग सूर्य प्रकाश—कवितेज,जैसलमेर,राजस्थान
6.शाकद्वीपीय ब्राह्मण दर्शन—श्री रामनारायण मिश्र,निखिल शाकद्वीपीय  ब्राह्मण महासंघ,इलाहाबाद, ,(विक्रमाब्द २०६२,खृष्टाब्द २००५).
7.मगतिलक—पं.रामदहिन मिश्र,शाहाबाद,बिहार
8.मगतिलक—पं.श्रीरामधन पाठक, महुआइन, गुरारु, गया, बिहार
9.शाकद्वीपीयमगसंस्कृति—डॉ.गीताराय,तरुण प्रकाशन,लखनऊ (1996ई.)
10.अंशुमाली—श्री श्यामसुन्दर पाण्डेय,इलाहाबाद (1992ई.)
11.विश्वविमर्श—पं.विष्णुदत्त मिश्र,चन्दा,ओबरा, औरंगाबाद, (1970ई.)

                      ---)ऊँ दिवाकराय नमः(---

क्रमशः..

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