शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोध - पुण्यार्कमगदीपिका-भाग नौ

गतांश से आगे...

(आठवें अध्याय का पहला भाग)

            ८. शाकद्वीप से जम्बूद्वीप आगमन
          (जम्बूद्वीपीय विप्रचर्चा एवं साम्ब-सूर्य-याग)

  योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा, साम्ब-शापोद्धारार्थ, शाकद्वीप से आचार्च रुप में सादर आमन्त्रित और जम्बूद्वीप के कल्याण हेतु छल पूर्वक यहां वसा दिए गए दिव्य ब्राह्मणों को ‘ मग ’ कहा जाता है । इसका वर्णन विविध पुराणों में विशद रुप से उपलब्ध है । विविध पौराणिक प्रसंगों से स्पष्ट है कि मगों के आगमन से पूर्व जम्बूद्वीप में पञ्चगौढ़ और पञ्चद्रविड़ यानी दस श्रेणी के ब्राह्मण वास किया करते थे, जो महर्षि गौतम के श्राप से बिलकुल तेजहीन हो चुके थे । द्वापर की समाप्ति से पूर्व ही यानी कृष्ण के रहते हुए ही, उनकी स्थिति अति दयनीय हो चुकी थी ।  महर्षि गौतम-प्रसंग की विस्तार से चर्चा पूर्व अध्याय में  जा चुकी है—  कृष्णावतार पर्यन्तम् कुम्भीपाके वसिस्यथ(देवीभागवत) । नारद की विकलता पूर्वक कलापग्राम की यात्रा का प्रसंग भी चौथे अध्याय में स्पष्ट किया जा चुका है।  
 द्वापर में या उससे पूर्व में शाकद्वीप निवासी मगविप्र सामान्य दीपान्तर-यात्रा क्रम में जम्बूद्वीप आते-जाते जरुर रहते थे, किन्तु स्थायी रुप से यहां रसे-बसे नहीं थे । ये वो काल था जब दीपान्तर ही नहीं प्रत्युत लोकान्तर और ब्रह्माण्डान्तर यात्रायें भी सामान्य रुप से हुआ करती थी । आज के वैज्ञानिक युग में ये सर्व विदित है कि ब्रह्माण्ड भी अनेक हैं, भले ही वहां तक पहुंच नहीं है सामान्य मनुष्य की ।
 इस प्रकार जम्बूद्वीपीय विप्रों की दुर्गति और तेजहीनता के कारण भूमिका तो बहुत पहले ही बन चुकी थी जम्बूद्वीप से भिन्न किसी स्थान से सतेज-सद्विप्रों को आमन्त्रित करने की । पुनः समुचित समय पर कुछ और लीलायें हुयी ताकि तैयार पृष्ठभूमि पर कार्य आगे बढ़ाया जा सके ।  भावी लोककल्याण के हित में नारदादि द्वारा पुनः एक लीला हुयी जिसकी चर्चा यहां विस्तार से करना अप्रासंगिक नहीं होगा।  किन्तु प्रसंगवश पहले यहां जम्बूद्वीपीय ब्राह्मणों में बारे में थोड़ी चर्चा करलें ।

जम्बूद्वीप के ब्राह्मणों के प्रकार—
पूर्व अध्याय में विप्रस्रजन के सम्बन्ध में चर्चा की जा चुकी है कि ब्राह्मणों की आदि सृष्टि शाकद्वीप में ही हुयी, जो सूर्यतेजांश दिव्यजन्मा थे । इसके उत्तरी भाग में ही श्वेतद्वीप है । विविध पुराणों की मान्यता है कि देवलोक भी वहीं आसपास है । नारायण वहीं क्षीर सागर में शेषशैय्यासीन हैं । यथा— तेषे तोयाब्धे रुत्तरं कूलं श्वेतद्वीप मिहोच्यते । सन्दर्शनाय योगीन्द्र सनकादि महात्मनाम् ।। साध्या मरुद्गणाश्चैव सेवन्ते नित्य देवताः । सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्य सनातनः सनत्कुमारो जातश्चवोढुः पंचशिकस्तथा ।। स प्रेते ब्रह्मणः पुत्रायोगिनः  सुमहौजसः । नरनारायणद्यश्च श्वेतद्वीपे वसन्ति ते ।। (पद्मपुराण ६ उत्तर खण्ड अध्याय २५९)
   सर्ग-विस्तार क्रम में जम्बूद्वीप में भी ब्राह्मणोद्भव हुआ । वे सभी अति तेजशाली और संस्कार युक्त थे । किन्तु कालान्तर में शनैःशनैः संस्कार हीनता आती गयी और अन्त में गौतम-श्राप-ग्रसित होकर बिलकुल ही निस्तेज हो गये ।

  ध्यान देने की बात है कि वे ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मण थे- सम्पूर्ण अर्थ में- ब्रह्मजानातीति ब्राह्मणः...। पाणिनी कहते हैं- ब्राह्मणो जनपदाख्यायाम्- (५-४-१०५) ब्राह्मण जनपद से ही ख्यात हैं। यानी जिस स्थान(जनपद) में वास करते हैं, वही उनकी संज्ञा प्रचलित होती है। यथा- सौराष्ट्र में सौराष्ट्री इत्यादि।  जातौ ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः (६--१४१) ब्राह्मण-ब्राह्मणी के संयोग से उत्पन्न ही ब्राह्मण हैं। ऐसे ही भावों को आगे भाष्यकार पतञ्जलि व्यक्त करते हैं— त्रीणि यस्यावदात्तानि योनिर्विद्या च कर्म च । -- ब्राह्मणाद् ब्राह्मण्यां जन्मेव ब्राह्मण्यलक्षणम् । विद्याकर्मणो तु प्राशस्त्यरुपाग्रययत्व सम्पादके । (४-१-१०४) ब्राह्मण वह है जो योनि,विद्या और कर्म तीनों में उत्तम(श्रेष्ठ)हो। मनु कहते हैं- उत्पत्ति रेव विप्रस्य मूर्तिधर्मस्य शाश्वतीः । (मनुस्मृति १-८८) (ब्राह्मण उत्पन्न ही होता है साक्षात धर्मस्वरुप । वह साक्षात धर्ममूर्ति है।) उत्पत्ति बता कर अब आगे ब्राह्मण के कर्म की बात करते हैं—अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहंश्चैव ब्राह्मणानामल्पयत् ।। (मनुस्मृति१-९८) अध्ययन-अध्यापन,यजन-याजन,दान-प्रतिग्रह— मुख्य तीन का उभय पक्ष है।
ब्राह्मण शब्द में प्रयुक्त वर्णों पर विचार करते हुए स्पष्ट किया गया है—
ब- अमृतबीजं । चन्द्ररुपं अमरत्वाधार्यकं अमररुपंच ।
र- वह्निवीजं । वहति प्रापयति स्वाशित द्रव्यैर्देवपित्रादीन तोषयति, दहति   दुरितं चेति ।
आ- आदित्यबीजं । कृत्याऽकृत्य प्रकाशकं सत्यर्थ प्रदर्शकं धर्माधार रुपं च ।
ह- व्योमबीजं । शब्दगुणमाकाश इति वेदमय देवपित्राद्युदबोधकम् ।
म- चन्द्रबीजं । क्षमाशान्तिप्रकाशाह्लादमयम् । असपत्नत्वं च ।
न (ण)- इति पुरोक्तधर्म नयनात्प्रापणादन्वर्थ नाम ब्राह्मणः ।
अर्थात्— ब- अमृतबीज है। चन्द्ररुप,अमरत्व,देवत्व सूचक । र- अग्नि(वह्नि) बीज है। देव-पित्रादि निमित्त प्रदान की गयी वस्तु(हुत)का वहन करने वाला ।  वहन करके उन्हें तोषित करने वाला । आ- आदित्यबीज है। प्रकाशबोधक। कर्त्तव्य,अकर्त्तव्य, सत्पथ प्रदर्शक । इस प्रकार धर्म और कल्याण का आधार स्वरुप । - शब्दमूलक आकाशबीज है । ब्राह्मणों की वाङ्गमय वेदज्ञता देव-पित्रादि के उद्वोधनशीलता का सूचक है । म- चन्द्रबीज है । क्षमा,शान्ति,अज्ञान तिमिर में प्रकाशक,धर्म-ज्ञानादि उपदेशक, सद्विवेक पूर्वक आह्लादित करने वाला । न- उपर्युक्त तत्त्वों का नयन (प्रापक) होने के कारण ब्राह्मण अन्वर्थ सिद्ध होता है।
  दूसरी बात यहां ध्यान देने योग्य है कि उनका प्रकार भेद भी नहीं था- जैसा कि आजकल है । वेदादि विविध ग्रन्थों से प्रमाणित है कि ब्राह्मण मात्र दो प्रकार के होते हैं- दिव्य और भौम। इस प्रकार शाकद्वीप में दिव्य और जम्बूद्वीप में भौम ।      यानी सिर्फ और सिर्फ एक ही प्रकार था ब्राह्मण का पूरे जम्बूद्वीप में, और ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि विक्रम सम्वत् के बारहवी शती तक ये विविध वर्गभेद भी नहीं था। (वर्तमान में विक्रमाब्द २०७४, तदनुसार २०१७ ई.सन्) आगे विभिन्न कारणों—परिवेश,आहार-विहार,क्रिया-कलापादि से आपसी भेद-भाव पैदा होते गए और सीधे यह कहा जाने लगा कि जम्बूद्वीप में दस प्रकार के ब्राह्मण वास करते हैं । यथा— सारस्वताः कान्यकुब्जाः गौड़ाश्चोत्कलमैथिलाः । पञ्चगौडसमाख्याताः विन्ध्योत्तर- निवासिनः ।। कर्णाटकाश्च तैलङ्गाः द्राविडागुर्जरास्तथा । महाराष्ट्राश्च पञ्चैते द्राविडा विन्ध्यदक्षिणे ।। पांच-पांच के दो विभाग हेतु विन्ध्यगिरि को सीमा माना गया । उससे उत्तर एवं दक्षिण उक्त पांच-पांच का निवास कहा जाता है। वस्तुतः कुल, परम्परा,गोत्र,प्रवर,मूल निवास आदि के आधार पर ये विभेद पैदा हुए और दस – पंच द्रविण और पंच गौड़ कहे जाने लगे । इन दस के अतिरिक्त अन्य नाम भी यत्र-तत्र प्रदेशों में मिलते हैं,जिन्हें इन मूल की ही शाखा कह सकते हैं।  
  प्रसंगवश यहां इनके विषय में किंचित विस्तार से चर्चा की जा रही है। यथा—
१.     सारस्वत— पूर्वकाल में हिमालय प्रदेश पंजाब,हरियाणा, राजस्थान से होकर सरस्वती नदी गुजरती थी, जो कच्छ की खाड़ी में जाकर गिरती थी । उस पवित्रतम नदी के तटवर्ती क्षेत्र में वसने और विकसित होने के कारण उन क्षेत्रीय ब्राह्मणों को सारस्वत ब्राह्मण कहा जाने लगा । ये ठीक वैसे ही है जैसे आज कोई बिहार का लड़का दिल्ली में जाकर रहने लगे,तो उसे दिल्ली वाला कहकर सम्बोधित किया जाता है । इसका मतलब ये नहीं हुआ कि वह कोई और जाति-नस्ल का हो गया । हां, इतना अवश्य होगा कि परिवेश का प्रभाव क्षेत्रवासी पर अवश्य पड़ने लगेगा, और लम्बे समय के बाद किंचित खान-पान,आचार-विचार भिन्नता भी भासित होने लगेगी ।
२.     गौड़— गौड़देश जहां से ब्राह्मणों का विकास हुआ- ये मूल स्थान जरा विवादास्पद है । इतना तय है कि सरस्वती क्षेत्र से ही धीरे-धीरे स्थानान्तरित हुए हैं लोग । आजकल गौड़ ब्राह्मण विशेष रुप से पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश,हरियाणा,राजस्थान,मध्यप्रदेश,पश्चिमी बंगाल के दक्षिणी भाग और गुजरात में विशेष कर मिलते हैं। ध्यातव्य है कि मूलतः सारस्वत और गौड़ में कोई भेद नहीं है ।  प्रसंग के प्रारम्भ में कहा जा चुका है कि एक ही मूल की दश शाखायें हो गयी । प्रसंग है कि कलियुग के प्रारम्भिक राजा पाण्डव पौत्र परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने इन्हें वासार्थ एक हजार चार सौ चौआलिस ग्राम दान में दिए थे ।
३.     कान्यकुब्ज—क्रमशः विकास और स्थानान्तरण के क्रम में कानपुर,फतेहपुर,इटावा,फरुखाबाद, उन्नांव, हरदोई,सीतापुर,लखनऊ, राय बरेली आदि जिले कान्यकुब्ज प्रदेश के अन्तर्गत आते हैं । और यहां बसे ब्राह्मण कान्यकुब्ज कहे जाते हैं । इन्हीं का एक नाम या कहें अपभ्रंशित नाम कन्नौजिया भी है । कन्नौजिया से कन्नौज क्षेत्रीय अर्थ भी लिया जाता है । षोडश कुलगोत्र क्रम में काश्यप,गर्ग, वत्स,वशिष्ठ,परासर,कौशिक,गौतम,शाण्डिल्य आदि इनके गोत्र होते हैं । (सरयूपारी कहे जाने वाले ब्राह्मण भी मूलतः कान्यकुब्ज ही हैं— सरयूतटवर्ती, किन्तु ऐसा भी मत है कि वो अलग हैं कोई।
४.     मैथिल— बिहार में गंगा के उत्तर-पूर्व इलाके— तिरहुत-मिथिला क्षेत्र में बसे विप्र कुल मैथिल कहे जाते हैं । साधना-पद्धति की भिन्नता से इनमें काफी भेद दीखता है, जबकि मूलतः सब समान ही हैं। वर्तमान में इनके भी चार उपभेद हो गये हैं— सोति (श्रोत्रिय), जोग (योग्य),जैवार और पंजीवार । ये सभी प्रायः स्वयं को विभेदित मान कर विवाहादि सम्बन्ध आपस में ही करते हैं । जैसे- श्रोत्रिय जैवार में सम्बन्ध नहीं करेंगे । श्रोत्रियों की विशेषता है कि पौरोहित्य कर्म को हेय समझते हैं, और स्वयं को श्रेष्ठ मानते हैं। जोग श्रेणी वाले मैथिल ब्राह्मण गुरुवई करते हैं, यानी यजमान-चेला बनाते हैं। जैवार श्रेणी वाले विशेष कर पौरोहित्यकर्म करते हैं। पंजीवार श्रेणी में वैसे मैथिल हैं जिनकी सामाजिक स्थिति अपेक्षाकृत अति सामान्य हैं, किन्तु विप्र-पंजिका में उनका नाम अंकित है।
५.     उत्कल— उड़ीसा,बंगाल और असम क्षेत्र के ब्राह्मण इस श्रेणी में आते हैं। इनमें भी उड़िया ब्राह्मणों के अनेक उपभेद और उपाधियां हैं। जैसे—पाणीग्रही, सरुआ,सेनापति,मस्तान आदि। बंगाली ब्राह्मणों में राढ़ी और वारेन्द्र प्रधान हैं। चट्टोपाध्याय, मुखोपाध्याय,वन्दोपाध्याय(चटर्जी,मुखर्जी,बनर्जी),गांगुली,मैत्र(मित्रा),वागची,सान्याल,चक्रवर्ती, भट्टाचार्य, घोषाल इत्यादि । ध्यातव्य है कि घोष और घोषाल बिलकुल अलग उपाधियां हैं।
६.     गुर्जर— गुजरात प्रान्त में इनकी प्रसिद्धि है ।  इनके चौरासी भेद हैं।  इनमें पांच मुख्य हैं। कहा जाता है कि किसी समय में गुजरात के महाराजा ने इन्हें उत्तर भारत से आमन्त्रित कर वासार्थ एक हजार नौ ग्राम दान में दिये थे ।
७.     मराठी (महाराष्ट्रीय)— कोकणस्थ अथवा चितपावन तटीय ब्राह्मण इस श्रेणी में आते हैं ।
८.     कर्णाटक— कर्नाटक क्षेत्रीय ब्राह्मण इस श्रेणी में आते हैं। इनके भी छः उपभेद कहे गये हैं। इनमें स्मार्त, वैष्णव और माध्व सम्प्रदाय के अनुयायी मिलते हैं ।
९.     तेलंग— तेलंगाना क्षेत्र के ब्राह्मण इस श्रेणी में आते हैं। इनके भी छः उपभेद कहे गये हैं। यथा- वेलनाडु, वेगिनाडु, मुरिकिनाडु, तिलगाड़ी, कर्णकर्मा और कासलनाड़ु ।  
१०.द्वविड़— तमिलनाडु और केरल क्षेत्र के ब्राह्मण इस श्रेणी में आते हैं। इनमें दो साम्प्रदायिक भेद हैं—स्मार्त और वैष्णव । पुनः स्मार्त के भी चार उपभेद  और वैष्णव के दो उपभेद हैं, जो भिन्न उपभेदों में विवाहादि सम्बन्ध नहीं करते ।
११. शाकद्वीपीय—उक्त दश जम्बूद्वीपीय ब्राह्मणों के अलावा ग्यारवां श्रेणी है शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का जो मुख्य विवेच्य विषय है इस पुस्तिका का ।

हालाकि इन ग्यारह के अलावे भी याचक-अयाचक भेद से कई उपभेद हैं, जिनके बारे में विस्तार में जाना पुस्तिका का मूल उद्देश्य नहीं है। अतः प्रसंगवश सिर्फ नाम चर्चा किये देता हूँ। यथा— त्यागी, महियाल, तगा, अनाविल, चितपावन, औदीच्य,नागर,नम्बूद्री,जाजपुरी,गोलापूर्व, पालीवाल, भार्गव, डंडौनिया, मेड़तवाल, पोकरने, पान्डेपन्त इत्यादि।

क्रमशः... 

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