गतांश से आगे...
आठवें अध्याय का दूसरा भाग
साम्ब-सूर्य-याग
की पृष्ठभूमि—
किसी
भी छोटी-बड़ी घटना के पीछे कई कारण होते हैं- सामान्य वा विशेष कर्मफल, शाप, वरदान,
निमित्त, लोक कल्याण, भविष्य सृजन इत्यादि । चुंकि हम प्रायः इन सबसे अनजान रहते
हैं, इस कारण दुःखी और चिन्तित होते हैं ।
कुछ नहीं तो दैव पर दोषारोपण कर देते हैं । देवर्षि नारद को अल्पज्ञ लोग या तो
खलनायक समझ लेते हैं या फिर विदूषक । किन्तु यह बहुत बड़ी नासमझी है । वे न तो
खलनायक हैं और न विदूषक । उनके रहस्यात्मक चरित्र में ऐसा कुछ रत्ती भर भी नहीं है
। पुराणोपनिषद के मर्मज्ञ यह भलीभांति
जानते हैं कि नारद की क्या भूमिका है इस त्रिगुणात्मिका सृष्टि में । ब्रह्मा के
मानस पुत्र परम भागवत नारद की अद्भुत लीलाओं से पुराण पटा पड़ा है ।
शाकद्वीप
से सूर्यांश दिव्य जन्मा तेजोदीप्त विप्रों को जम्बूद्वीप लाने में नारद की
महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । नारद की ये लीला न हुयी होती तो जम्बूद्वीप आज
ब्रह्मतेज विहीन हुआ रहता ।
पौराणिक प्रसंग है कि एक बार नारदजी लीलापुरुषोत्तम
श्रीकृष्ण का दर्शन करने के विचार से पृथ्वीलोक पधारे । विचरण करते हुए श्री
द्वारकाधीश-धाम पहुँचे । राजमहल के बाहर ही वाटिका में सभी वाल-गोपाल अपने वाल सुलभ
खेल में मस्त थे। नारदजी को इधर आते देख, सभी आगे बढ़ उन्हें दण्ड-प्रणाम किए । दैव-प्रेरित
या कहें सहज बाल-चापल्यवश जामवन्ती नन्दन कृष्णात्मज साम्ब पूर्ववत अपने खेल में
मग्न रहे । नारद मुस्कुराते हुए महल की ओर बढ़ चले । वहां पहुँचने पर द्वारपालों
से ज्ञात हुआ कि कृष्ण अपनी नायिकाओं के साथ जल-विहार करने तड़ाग की ओर गए हैं।
सूचना
पाकर नारद भी उसी ओर चले गए । नारद को प्रायः कहीं ड्योढ़ी तो लगती नहीं । कृष्ण
से सामान्य हालचाल पूछ कर शीघ्र ही वहां से चलने को उद्यत हुए । चलते समय साम्ब की
उदण्डता की भी चर्चा करते गए किंचित मधुर शब्दों में ।
लौटते
वक्त नारद पुनः उसी रास्ते से गुजरे । जाते-जाते साम्ब को कहते गए कि पिताजी
तुम्हें तत्क्षण बुला रहे हैं । नारद के मुख से पिता की आज्ञा सुन शीघ्र ही साम्ब सहज
भाव से तड़ाग तट पर उपस्थित हो गए । जब कि वहां तो किसी को कुछ ज्ञात था नहीं । आचानक
साम्ब को उपस्थित पा सब चौंक पड़े । सभी नायिकायें अस्त-व्यस्त वस्त्रालंकारयुक्त,
जैसे-तैसे बैठी थी, कुछ जल-बिहार कर रही थी, सबके सब लज्जित होगयी । ऐसी जगह पर(जलबिहार
के अवसर पर) साम्ब की अचानक उपस्थिति कृष्ण को भी बहुत बुरी लगी । साम्ब की
अभ्रद्रता और उदण्डता का जीता-जागता प्रमाण मिल गया श्रीकृष्ण को, जैसा कि अभी-अभी
नारद ने भी कहा था । कुपित कृष्ण क्रोधित होकर साम्ब को शाप दे बैठे — “ जिस सुन्दर शरीर पर
तुम्हें इतना अहंकार है कि मर्यादा का भी ध्यान नहीं रखते, वह शरीर गल जायेगा। ’’
कृष्ण-शापित साम्ब का शरीर तत्क्षण
ही महाकुष्ट रोग-ग्रस्त हो गया ।
इसी
बीच नारद पुनः पधारे और साम्ब को शाप-मुक्त होने का उपाय पूछने लगे । नारद की
अनुकम्पा से कृष्ण ने उपाय सुझाया । उन्होंने कहा कि कुष्ट-निवारण हेतु सूर्य की
आराधना करनी चाहिए । आरोग्य हेतु सूर्य से अधिक किसकी उपासना महत्त्वपूर्ण हो सकती
है ! आरोग्यार्थं आदित्यमिच्छ...।
पिता
प्रेरित साम्ब सूर्याराधन में तत्लीन हो गए । उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर
सूर्य ने दर्शन दिया और साम्ब को कुष्टरोग से मुक्ति मिली ।
साम्ब
पुराण में वर्णन है कि सूर्य ने ही उन्हें आदेश दिया कि सूर्यांश मगविप्रों को
लाकर प्रतिमा स्थापन कराओ । किन्तु अन्यान्य पुराणों में प्रसंग किंचित भिन्न है ।
सूर्य
का आदेश पाकर साम्ब ने जम्बूद्वीपीय ब्राह्मणों को आमन्त्रित किया, और प्रतिमा-स्थापन
की प्रक्रिया प्रारम्भ हुयी । प्रारम्भिक कर्मकाण्ड तो पूरे हो गए किन्तु जैसे ही
सूर्य का आवाहन मन्त्रोच्चार होने लगा सूर्य-तेज की उष्मा से वहां उपस्थित सभी
भूदेव व्याकुल हो उठे । जैसे-जैसे तेज की वृद्धि होती गयी, ब्राह्मणों की विकलता
बढ़ती गयी । और अन्त में परिणाम ये हुआ कि आचार्य सहित होता, वेदपाठी, मन्त्र जापी
सभी ब्राह्मण भाग खड़े हुए । साम्ब का सूर्य-प्रतिमा-स्थापन-याग अपूर्ण रह गया।
चिन्तातुर
साम्ब को पुनः नारदजी का सुझाव मिला कि शाकद्वीप से सूर्यांश मगों को लाया जाय ।
वे ही सूर्य की सम्यक् स्थापना के योग्य हैं ।
कृष्ण
के आदेश से पक्षिराज गरुड़ पांच जलनिधि लांघकर शाकद्वीप पहुँचे। जम्बूद्वीप का
दुःखद समाचार सुनाते हुए, आग्रह किया इसके कल्याण हेतु । वैनतेय के आग्रह को
शाकद्वीपीय विप्रों ने सहर्ष स्वीकार किया । गुरुड़जी ने एक शर्त रखी कि यदि यज्ञ
में दक्षिणादि स्वीकार कर लिए तो पुनः यहां वापस लाना सम्भव नहीं । मगों ने
आत्मगौरव पूर्वक जानकारी दी कि वे किसी तरह का दान-दक्षिणा स्वीकराते ही नहीं, ऐसी
स्थिति में पुनर्वापसी तो निःसंदिग्ध है ।
अठारह
कुल(परिवार)को गुरुड़ द्वारा जम्बूद्वीप के चन्द्रभागा (चिनाव) नदी तट पर लाया गया
। साम्ब का सूर्य-प्रतिमा-स्थापन-याग विधिवत सम्पन्न हुआ । किन्तु यज्ञान्त
दक्षिणा की अस्वीकृति साम्ब को चिन्तित कर गया । मगविप्र यज्ञान्त दक्षिणा नहीं
लेंगे तो उन्हें यज्ञफल कैसे प्राप्त हो सकता है ? ध्यातव्य
है कि ‘यज्ञ
की पत्नी का ही नाम है ‘दक्षिणा’ । दक्षिणा किसी भी यज्ञ का अभिन्न
अंग है। इस नियमानुसार बिना दक्षिणा के कोई यज्ञ सांगोपांग पूरा ही कैसे माना जा
सकता है !
सबकुछ विधिवत सम्पन्न हो जाने के पश्चात् भी साम्ब चिन्तामुक्त नहीं
हो सके । उनके बारबार के आग्रह को मगों ने अस्वीकार ही किया, क्यों कि वे भी अपने
नियमों में बंधे हुए थे। दान-दक्षिणा स्वीकार कर स्वयं को तेजहीन कैसे कर लेते,
साथ ही वैनतेय के शर्त की भी मर्यादा रखनी
थी ।
नारदजी
ने यहां भी अपनी लीला दिखायी । उनकी बतलायी योजनानुसार मगविप्रों को प्रसाद स्वरुप
कम से कम एक नारियल लेने का आग्रह किया गया। शाकद्वीपियों ने इसे सहर्ष स्वीकार कर
लिया । प्रसाद तो अन्ततः प्रसाद ही है- देवता का एक विशिष्ट स्वरुप । प्रसाद
त्यागने का अपराध कोई ब्राह्मण भला कैसे कर सकता है !
यजमान
साम्ब प्रदत्त सूर्य-प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात् शाकद्वीपीय विप्र विधिवत विदा
हुए निज धाम वापसी के लिए, किन्तु जैसे ही एक व्यक्ति गुरुड़ारुढ़ हुआ, उनके भार
से त्रिलोकीनाथ-वाहक गुरुड़ कराह उठे । आश्चर्च की बात थी कि अठारह कुल को सहर्ष
उठा लाने वाले गरुड़, मात्र एक व्यक्ति के भार को वहन करने में स्वयं को असमर्थ पा
रहे थे । मगों को भी आश्चर्य हो रहा था कि आखिर ऐसा क्यों हुआ।
ध्यानस्थ
होकर विचार करने पर नारद प्रेरित साम्ब का छल उजागर हुआ। प्रसाद के बहाने नारियल
में स्वर्ण मुद्राएं भर कर दे दी गयी थी। शाकद्वीपियों के भार- हीनता गुण का अचानक
लोप होने का यही रहस्य था ।
नारदादि
ने अनुनय पूर्वक क्षमा मांगी, और जम्बूद्वीप की दयनीय स्थिति से पुनः अवगत कराते
हुए लोककल्याण हेतु यहीं, जम्बूद्वीप में बसने का आग्रह किया। इसके लिए साम्ब ने
प्रचुर धन सहित बहत्तर ग्राम वासार्थ दिये । इस प्रकार शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का
जम्बूद्वीप में आगमन और आवासन हुआ ।
इस
रोचक प्रसंग को अपने ललित काव्यात्मक शैली से सजाया है मगविभूति पं.बृहस्पति
पाठकजी ने मगोपाख्यान नामक ग्राम्यगीत में,जिसका रसास्वादन आप अगले अध्याय
में कर सकेंगे ।
पुराणों
में किंचित कथा-भेद से भी यही प्रसंग मिलता है— ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद परम
भागवत हैं । वे सदा वैष्णवधर्म के प्रचार-प्रसार में अनुरक्त रहते हैं । द्वापर
में कृष्णपुत्र साम्ब की सौरभक्ति और
प्रचार-प्रसार से उनके वैष्णवधर्म प्रसार-प्रचार में किंचित वाधा आने लगी । वे
चाहते थे कि सूर्यभक्त साम्ब इस क्षेत्र से अन्यत्र कहीं चले जायें । इसीलिए
उन्होंने एक लीला रची ।
पद्मपुराण
अध्याय १३,कूर्मपुराण अध्याय २४ एवं २७ में वर्णित प्रसंगों से स्पष्ट है कि
कृष्णप्रिया जाम्बवती ने एक बार हठ किया कि उन्हें शिव सदृश पुत्र चाहिए। कृष्ण के
बहुत समझाने पर भी वे मानी नहीं । अन्त में विवश होकर जाम्बवती की प्रसन्नता हेतु
कृष्ण ने शिवारार्धन किया । घोर वन में कृष्ण की कठोर तपस्या से प्रभावित आषुतोष
भगवान शिव ने कृष्ण को दर्शन दिया और हँसते हुए कहा कि हे कृष्ण आप तो सर्वज्ञ हैं
। आप जानते हैं कि मेरे जैसा त्रिलोकी में और कोई कैसे हो सकता है । फिर भी आपकी
प्रिया को यदि मेरे जैसा ही पुत्र रत्न चाहिए तो मैं शीघ्र ही आपका मान रखने के
लिए, उसके गर्भ में प्रवेश करने का वचन देता हूँ। आशुतोष ने ऐसा ही किया।
थोड़े दिनों बाद साम्ब का जन्म हुआ । यों
कहें कि पृथ्वी पर रुद्रावतार हुआ । शिव के सौन्दर्य का वर्णन करने में साक्षात सरस्वती
भी असक्य हैं । फिर अन्य की क्या विसात ! शिव के साक्षात स्वरुप साम्ब का सौन्दर्य भी वैसा ही अवर्णनीय था । उन्हें
देख कर अन्य तो अन्य कभी-कभी उनकी सभी मातायें भी मन्त्र मुग्ध हो जाती थी । इस
रहस्य से देवर्षि नारद अवगत थे । फलतः इस कमजोरी का ही अपने उद्देश्य-साधन में उपयोग
किया । छल पूर्वक साम्ब को ऐसे समय में कृष्ण के पास प्रेषित किया, जिस समय वे सभी
रानियों के साथ जलविहार कर रहे थे । असमय में साम्ब का वहां उपस्थित होना, और
नायिकाओं की विह्वल स्थिति देख, कृष्ण क्रोधित होकर साम्ब को शाप दे दिये कि
तुम्हारी यह कंचनकाया गलित हो जायेगी ।
साम्ब
तत्काल ही कृष्ण-शाप से कुष्ठ-व्याधि ग्रस्त हो गए । पुनः नारद ने उन्हें
सूर्याराधन हेतु चन्द्रभागा(वर्तमान चिनाव) तट पर जाकर कठोर तप हेतु प्रेरित किया,
जो द्वारका से काफी दूर था।
साम्ब
के तप से प्रसन्न होकर सूर्य ने तत्काल ही उन्हें रोगमुक्त किया,और अपनी प्रतिमा
स्थापित करने का आदेश दिया । सूर्य ने ही घोषित किया कि आज से यह स्थान साम्बपुर
(वर्तमान मुलतान) के नाम से विख्यात होगा,
और लोक में सूर्य- पूजा के लिए अग्रणी माने जाओगे ।
सूर्य
के इस आदेश का पालन करने में साम्ब को सबसे बड़ी वाधा ये आयी कि तत्कालीन
जम्बूद्वीपीय ब्राह्मण सम्यक् रुप से सूर्य का आवाहन करने में बिलकुल असमर्थ थे । सूर्यतेज
से विकल होकर अपना आसन छोड़ कर सभी पलायन कर गए । पुनः सूर्य ने ही आदेश दिया कि
मेरी आराधना के योग्य दिव्य ब्राह्मण जो मेरे ही अंश से उत्पन्न हुए हैं, उन्हें शाकद्वीप
से ले आओ । कृष्ण के आदेश से, पक्षीराज वैनतेय गरुड़ के सहयोग से साम्ब वहां
पहुंचे और वहां से लाये गए अठारह कुल मगविप्रों द्वारा सूर्य-प्रतिमा की प्राण
प्रतिष्ठा सम्पन्न हुयी ।
उनके
द्वारा लाये गये विप्रों के नाम इस प्रकार हैं— १.मिहिरांशु, २.शुभ्रांशु, ३.सुधर्मा,
४.सुमति, ५.वसु, ६.श्रुतकीर्ति, ७.श्रुतायु, ८.भरद्वाज, ९.पराशर, १०.कौण्डिन्य, ११.कश्यप,
१२.गर्ग, १३.भृगु, १४.भव्यमति, १५.नल, १६.सूर्यदक्ष, १७.अकदत्त और १८.कौशिक । (साभार-मगदर्शन,श्री
गौरीनाथ पाठकजी, गुमला)
मगधक्षेत्र में शाकद्वीपियों की बहुलता के
विषय में पं. श्री गौरीनाथ पाठक जी ने अपनी पुस्तक मगदर्शन में एक और रोचक
प्रसंग की चर्चा की है । प्रसंगवश उसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ—
साम्बपुर(मुलतान)में
सूर्यप्रतिमा की स्थापना कराकर शाकद्वीपीय
ब्राह्मण पुनः वापस लौट जाना चाहते थे, किन्तु श्रीकृष्ण ने उनसे द्वारिका
चलकर कुछ दिनों तक रहने का अनुनय किया । फलस्वरुप कुछ तो वहीं साम्बपुर में रह गए
मन्दिर की पूजा अर्चनादि में और कुछ वहां से द्वारिका चले आए । काफी समय बाद यानी
श्रीकृष्ण के निजधाम गमन के पश्चात् उनका मन उचाट होने लगा और शाकद्वीप वापस जाने
की इच्छा व्यक्त किए ।
यहां
प्रसंग अन्य प्रसंगों से किंचित भिन्न है— गरुड़जी मगविप्रों से प्रतिज्ञा कराते
हैं कि मार्ग में हम कदापि कहीं रुकेंगे नहीं । दैवयोग कहें, कुछ दूर जाने के बाद
गरुड़ारुढ़ विप्रों को करुण क्रन्दन सुनायी पड़ा । उस समय वे मगध क्षेत्र के ऊपर
से गुजर रहे थे । मग विप्रों ने आग्रह किया कि वे नीचे उतर कर जानना चाहते हैं- इस
करुण क्रन्दन का कारण । गुरुड़ जी ने उन्हें अपनी प्रतिज्ञा याद दिलायी । तिस पर
उन्होंने कहा कि किसी आतुर की पीड़ा को अनसुना करना मगों की प्रकृति में नहीं है ।
अतः भावी परिणाम चाहे जो भी हो, हमें तत्क्षण वहां ले चलें । गुरुड़ ने उनकी आज्ञा
का पालन किया ।
नीचे
उतरने पर ज्ञात हुआ कि वहां के राजा धृष्टकेतु को महाकुष्ठ हो गया है। वे बिलकुल
मरणासन्न स्थिति में हैं । उनकी आसन्न मृत्यु से विकल रानियाँ तथा प्रजाजन विलाप
कर रहे हैं । सुनकर मगों ने पूछा कि क्या यहां कोई तपस्वी ब्राह्मण नहीं है, जो
इन्हें रोग मुक्त करके, प्रजाजन का कल्याण कर सके? तदुत्तर में
गरुड़ ने ही कहा कि यदि जम्बूद्वीप में ऐसे सुयोग्य तपोनिष्ट कोई होते तो क्या
साम्ब को रोगमुक्त करने हेतु आप दिव्य जनों को इतनी दूर से यहां लिवा लाना पड़ता ? तत्रोपस्थित प्रजाजन भी गरुड़ की बातों का समर्थन किए।
मगों
में प्रधान मिहिरांशु ने राजमहल में पहुँचकर अपना चरणोदक महाराज धृष्टकेतु को पान
कराया,जिससे वे तत्क्षण रोगमुक्त हो गए। राजमहल सहित प्रजाजन में नयी चेतना का संचार हो आया । दिव्य
ब्राह्मणों के चमत्कारी प्रभाव को देखकर राजा उनके चरणों में लोट गए और अनुनय किया
कि वे यहीं वस जायें । उनके आग्रह तथा गरुड़ की प्रतिज्ञा का मान रखते हुए
शाकद्वीप के पुनर्यात्री मग वहीं ठहर गए। गरुड़ वापस द्वारिका चले गए ।
राजा
धृष्टकेतु उनके वास के लिए प्रचुर धन और ग्रामादि प्रदान किए । ये सभी ग्राम लगभग
मगधक्षेत्र में ही थे । प्रसंग है कि उनमें चार- श्रुतकीर्ति, सुधर्मा, श्रुतायु
और सुमति ने सन्यास लेकर हिमालय यात्रा की और शेष वहीं वस गये, जिनकी सन्तति आज भी
मगध क्षेत्र में व्याप्त हैं ।
---)ऊँ मित्राय नमः(---
क्रमशः...
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