गतांश से आगे...
दशवें अध्याय का चौथा भाग
एक
प्रश्न त्रेतायुग
वाली पुरतालिका की प्रमाणिकता पर कुछ कहने से पूर्व एक प्रश्न उठता है, जिसका सीधा
सम्बन्ध शाकद्वीपियों के पुनरागमन(द्वापर में) से है। जैसा कि प्रमाणिक तौर पर कहा
जाता है कि पितृशाप/नारदीय छल आदि के परिणाम स्वरुप कुष्ट-व्याधि-ग्रसित साम्ब को
आरोग्य प्रदान करने हेतु एक मात्र उपचार था- सूर्ययाग, और इसके लिए तत्कालीन
जम्बूद्वीपीय ब्राह्मण सक्षम नहीं हुए, क्यों कि वे सब ऋषि गौतम के शाप से निस्तेज
हो चुके थे। सूर्यावाहन होने पर मार्तण्ड के तीव्र रश्मि-पुञ्ज को सह नहीं सके,
उठकर भागने लगे । निराश, हताश साम्ब को, सूर्य की अमैथुनी सृष्टि से उत्पन्न
सूर्योपासक शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को बुलाने हेतु विष्णुवाहक- गरुड़ को भेजना पड़ा
। दान-दक्षिणा न लेने की प्रतिज्ञा पूर्वक वैनतेय खगेश उनके अठारह कुलों (परिवार)
के वाहक बने । ध्यातव्य है कि शाकद्वीपीय ब्राह्मण दान नहीं लेते- ये उनका दृढ़
संकल्प है । स्कन्दपुराण के प्रभास खंड में इसका विशद वर्णन है- ‘‘मैं भिक्षुक
ब्राह्मण नहीं हूँ प्रत्युत शाकद्वीपीय हूँ । दान न लेना हमारा स्वभाव है। इसके
इच्छुक अन्य जो हैं, उन्हें दे दें । हमें तो बस वरदान दें कि मुझे देवत्व प्राप्त
हो ।’’
वैदिक
मर्यादा का उलंघन कर एक जन्म में देवत्व दे सकने की विकट समस्या का निराकरण स्वयं
शिव को आकर करना पड़ा था । शिव ने कहा - आज से शाकद्वीपीय ‘देवता’ हैं । इन्हें
विष्णु के साथ-साथ विश्वेदेवा(पितरों वाले विश्वेदेवा नहीं) नाम से यज्ञांश दिया
जायेगा....अस्तु ।
स्कन्दपुराण
के इसी प्रमाण को उधृत कर लोग भ्रमित होते हैं, और गलत अर्थ लगाकर कहते हैं कि मग
तो त्याज्य हैं, इन्हें दान-दक्षिणा का अधिकार ही नहीं है ।
प्रश्न
यहाँ ये है कि जब त्रेतायुगीन मग यहाँ जम्बूद्वीप में पहले से थे ही, फिर साम्ब को
क्यों कठिनाई हुयी सूर्य-प्रतिमा-प्रतिष्ठा में ?
उत्तर
दो ही हो सकता है- 1.शाकद्वीपीय ब्राह्मण यहाँ स्थायी रुप से थे ही नहीं, या 2.
थे, तो यहाँ के ब्राह्मणों की तरह वे भी निश्तेज हो चुके थे - दान-दक्षिणा
ले-लेकर, जैसा कि कृष्ण के महज पांच हजार एक सौ सात वर्ष व्यतीत होते-होते आज मगों
की स्थिति हो गयी है। प्रवास और वास में अन्तर होता है। आना-जाना और स्थायी वास
करना बिलकुल भिन्न बात है। ऐसा ही कुछ हुआ होगा । पुराण अगाध है, गहन मन्थन का
विषय है । शायद कहीं प्रसंग मिला हो, जिसके आधार पर श्रद्धेय भँवर जी ने
मिहिरमहिमा में चर्चा की हो । अस्तु।
डॉ.सुधांशु
शेखर मिश्रजी द्वारा संपादित, राँची (झारखंड) से प्रकाशित मगबन्धु(अखिल)पत्रिका के
सौजन्य से कुछ सूचनायें मिली,जिन्हें साभार यहां उद्धृत कर रहा हूँ। पत्रिका के
परम्परा-संस्कार अंक में स्वामी गोपाल आनन्द बाबा द्वारा संकलित एक गोत्र-प्रवर
तालिका है। यथा—
क्रमांक
|
गोत्र
|
प्रवर
ऋषि
|
१.
|
अंगिरा/ आंगिरस
|
आंगिरस,ब्रार्हस्पत्य,वसिष्ठ
|
२.
|
अत्रि
|
आत्रेय,आर्चनान,श्यावाश्व
|
३.
|
काश्यप
|
काश्यप,अवत्सार,असित
|
४.
|
कौशिक/विश्वामित्र
|
विश्वामित्र,देवरात,औदल
|
५.
|
पुलस्त्य
|
पुलस्त्य,विश्वश्रवक,दम्भोलि
|
६.
|
जमदग्नि/ जामदग्न्य
|
जामदग्न्य,और्व,
वसिष्ठ
|
७.
|
वसिष्ठ
|
वसिष्ठ,इन्द्रपमद,भरद-वसु
|
८.
|
भरद्वाज
|
भरद्वाज,बार्हस्पत्य,आंगिरस
|
९.
|
अगस्त्य
|
अगस्त्य,माहेन्द्र,मायोभुव
|
१०
|
कण्व
|
आंगिरस,अडमीढ,काण्व
|
११
|
कौण्डिण्य
|
कौण्डिण्य,वसिष्ठ,मित्रावरुण
|
१२
|
गौतम
|
गौतम,वसिष्ठ,बार्हस्पत्य
|
१३
|
वत्स/वच्छ
|
जामदग्न्य,अप्तुवान,च्यवन,भार्गव,और्व
|
१४
|
मुद्गल
|
मौद्गल,आंगिरस,तार्क्ष्य
|
१५
|
वासुकि
|
वासुकि,अनन्त,अक्षोम्य
|
१६
|
शाण्डिल्य
|
शाण्डिल्य,कश्यप,अवत्सार
|
१७
|
शुनक
|
शुनक,सोनहोत्र,गार्त्समद
|
१८
|
शोनक
|
शुनक,धर्मवृद्ध,गृत्समद
|
१९
|
गर्ग
|
गार्ग्य,आंगिरस,सैन्य
|
२०
|
हरित/हारित
|
आंगिरस,अम्बरीष,युवनाश्व
|
२१
|
विष्णुवृद्ध
|
आंगिरस,पोरुकुत्स,त्रासदस्य
|
२२
|
कुत्स
|
आंगिरस,मान्धात,कौत्स
|
२३
|
पराशर
|
परासर,शक्ति,वसिष्ठ
|
२४
|
पूतिमास
|
अंगिरा,उशिज,सूव
चोतथ्य
|
२५
|
माण्डव्य
|
भृगु,तण्डि,मत्स्यगंध
|
२६
|
कपिल
|
विरुप,वृषार्वा
|
२७
|
याज्ञवल्क्य
|
आर्टाबन,पार्ष्णिन,वीरणिन
|
२८
|
व्यास
|
पेल,वाष्कल,सन्यश्रवस
|
२९
|
लोमश
|
कालशिख,गोरवृषा,कैलाप
|
३०
|
मंकिन
|
मंकिन,मंकणक,मंकण
|
३१
|
दुर्वासा
|
दुर्वासा,आत्रेय,दत्तात्रेय
|
३२
|
नारद
|
नारद,काण्व,पर्वत,नारदिन
|
३३
|
प्रह्लाद
|
विरोचन
|
३४
|
बकदालभ्य
|
ग्लाबमैत्र,दालभ्य
|
(नोट-
उक्त तालिका को मैंने यथावत रख दिया है । हालाकि नाम और प्रवर-क्रम में किंचित
संशय है। किन्तु जब तक ठोस प्रमाण नहीं मिल जाता,परिवर्तन कैसे किया जाय ? पाठक बन्धु ! जिन्हें जानकारी हो, मेरा संशय दूर
करने का प्रयास करें। ताकि आगामी संस्करण में सुधारा जा सके।)
पूर्वचर्चित-- पुर,गोत्र,आम्नाय,आस्पद,प्रवर,वेद,उपवेद,शाखा,सूत्र,शिखा,
पाद,छन्द,देवतादि बोधक सारिणी –
(इस
सारिणी को शाकद्वीपियों के सर्वमान्य अठारह गोत्रों के अनुसार सजाया गया है।
जिन गोत्रों में पुरों की संख्या अधिक है उन्हें सारणीवद्ध किया गया है, शेष यानी
जिनमें संख्या कम है, सीधे-सीधे वर्णन कर दिया गया है। )
(१)
मौद्गल गोत्र—मुद्गल ऋषि इसके
प्रवर्तक हैं। इस गोत्र वालों का प्रवर- त्रिप्रवर होता है (मौद्गल,आंगिरस,और
भार्ग्यश्व । सामवेद और ययुर्वेद इनका वेद है । तद्नुसार उपवेद है- गन्धर्ववेद
और धनुर्वेद । शाखा इनकी माध्यन्दिनी और कौथुमी है । सूत्र कात्यायनी
और गोभिल है । छन्द है त्रिष्टुप् तथा जगति । शिखा एवं पाद दक्षिण
है । रुद्र और विष्णु इनके देवता हैं । आम्नाय- 1. अर्क (१-१७),
पुर-पुण्यार्क, मूल स्थान पण्डारक, पटना ।
2.किरण- (१-१७), पुर- पुनरखिया,
मूलस्थान- बाढ़,पटना । 3.
अथोपकिरण- (१-१८), पुर- भुजादित्य, भुजडीहा
। मूल स्थान- वासौ, भोजपुर।
(२)
अत्रिगोत्र— अत्रिऋषि
इसके प्रवर्तक कहे गये हैं । अत्रिगोत्र वाले पञ्चप्रवर हैं । यथा— अत्रि,कृष्णात्रि,अर्चि,
अचनिनस और श्यावाश्य । इनका वेद है ऋग्वेद । उपवेद है आयुर्वेद । शाखा शाकल, सूत्र
आश्वलायन । छन्द गायत्री, शिखा और पाद दक्षिण तथा देवता हैं- ब्रह्मा । इनके
अन्तर्गत मात्र एक पुर है— किरण आम्नाय वाला देवहापुर, जिनका मूलस्थान देव, गया
है।
(३)
अंगिरस(अंगौरा) गोत्र— अंगिरा
ऋषि इसके प्रवर्तक हैं । इस गोत्र वालों का प्रवर- त्रिप्रवर होता
है। सामवेद और ययुर्वेद इनका वेद है । तदनुसार उपवेद है- गन्धर्ववेद
और धनुर्वेद । शाखा इनकी माध्यन्दिनी और कौथुमी है। सूत्र कात्यायनी
और गोभिल है। छन्द है त्रिष्टुप् तथा जगति । शिखा एवं पाद दक्षिण
है। रुद्र और विष्णु इनके देवता हैं । आम्नाय- किरण (१-१७),
पुर- मुकुरमेराव / कुरमेराव, मूल स्थान- यवना(आरा)।
तथा किरण (१-१७) पुर अवधियार/औधियार,अरवल, बिहार।
(४)
भारद्वाज गोत्र— भारद्वाज
ऋषि इसके प्रवर्तक हैं । प्रवर तीन हैं (अंगिरस, भारद्वाज और वृहस्पति), यानी
त्रिप्रवर कहे जाते हैं । तात्पर्य ये है कि उक्त तीन ऋषियों को स्थापित
किया जायेगा यज्ञोपवीत की गांठों में । इनका वेद ययुर्वेद है, तदनुसार उपवेद हुआ – धनुर्वेद ।
शाखा माध्यन्दिनी है और सूत्र कात्यायनी । छन्द है त्रिष्टुप् तथा शिखा एवं पाद
दक्षिण । इस गोत्र वालों के देवता रुद्र हैं । आगे जिन-जिन पुरों के
भारद्वाज गोत्र हैं, उनकी सूची आम्नाय और मूलस्थान सहित सारणी रुप में प्रस्तुत
है-
आम्नाय
|
पुर
|
मूलस्थान
|
आर
१-२४
|
उरवार/उरुवार
|
ऊर,
टेकारी,गया
|
आर
१-२४
|
मखपवार
|
मखपा,टेकारी,गया
|
आर
१-२४
|
देवकुलियार/देवकरियार
|
देवकली,देव,गया
|
आर
१-२४
|
पडरियार
|
पड़ारी,विक्रम,पटना
|
आर
१-२४
|
अदईयार
|
अदई,कोंच,गया
|
आर
१-२४
|
पवईयार/पेवईयार
|
पवई,औरंगाबाद,बिहार
|
आर
१-२४
|
वरवार
|
वारा,परइया,गया
|
आर
१-२४
|
छत्रवार
|
बेलागंज,गया
|
आर
१-२४
|
जम्बुवार
|
जमुआर,टेकारी,गया
|
आदित्य
१-१२
|
वेलासी/विलुशैय्या/विलसैया
|
बेलासी,बरसड़ा,गाजीपुर
|
आदित्य
१-१२
|
गनिया/गड़वार/गंडार्क
|
गंगटी,गया
|
आदित्य
१-१२
|
देवडीहा/दवड़ीहार्क
|
डीहा,देवकुली,गया
|
आदित्य
१-१२
|
गुनसैया/गनैया
|
गंगही,गया
|
किरण
१-१७
|
देव
वरुणार्क
|
देवचन्दा,पीरो,आरा
|
किरण
१-१७
|
पंचकंठी/पंचकंठ
|
पचमो,ईमामगंज,गया
|
किरण
१-१७
|
देवयार
|
देव,टेकारी,गया
|
किरण१-१७
|
गंडार्क
|
गंगटी,गोह,गया
|
किरण१-१७
|
स्वेतभद्र
|
रामपुर,वस्ती,यू.पी.
|
किरण१-१७
|
डुंडइयार/डुडरियार
|
खडराही,गया
|
उपकिरण१-१८
|
धर्मादित्य
|
देवकुली,छपरा
|
उपकिरण१-१८
|
हुंड़रियार
/ हुणरियार
|
हुणराही,टेकारी,गया
|
उपकिरण
१-१८
|
सप्तार्क
|
सेतपुर,छपरा,उ.बिहार
|
उपकिरण
१-१८
|
देवबालार्क
|
.....
|
मण्डल
१-१२
|
भेंड़ापाकर/भड़रियार
|
भंडरिया,गया
|
मण्डल
१-१२
|
डिहिक
/ डिहक
|
डीह,पटना
|
नोटः-1.हुड़रियार अपना मूल स्थान पाण्डेपुर, बरिआवां, जिला औरंगाबाद(बिहार) भी
बतलाते हैं । वर्तमान समय में वहां काफी संख्या में ये लोग हैं । मालीराज
के आसपास के अन्य गांवों(बरिआवां,बेनी,पंडितविगहा,पोखराही इत्यादि) में भी
हुड़रियारों की काफी संख्या है । इससे लगता है कि उनका मूल स्थान पांडेपुर ही रहा
होगा ।
2. विलसैया(वेलासी)पुर
गर्ग गोत्र में भी मिलते हैं । क्षत्रसार पुर कौशिक गोत्र में भी मिलते हैं ।
जम्मुआर क्रमशः वत्स, गर्ग और शाण्डिल्य गोत्र में भी मिलते हैं । गुनसैया कौशिक
गोत्र में भी मिलते हैं । देवबालार्क शाण्डिल्य और कौशिक दोनों गोत्र में मिलते
हैं । मखपवार पुर मिहिरगोत्र में भी मिलता है । ध्यातव्य है कि तदनुसार ही उनका
प्रवरादि भी होना चाहिए ।
(५)
कौण्डिन्य गोत्र —
कौशिक गोत्र वाले त्रिप्रवर हैं - वशिष्ठ,मित्रावरुण और कौण्डिन्य । इनका
वेद सामवेद है । उपवेद है गंधर्ववेद। शाखा-कौथुमी। सूत्र गोभिल । छंद है जगति । शिखा
एवं पाद वाम है, तथा देवता हैं विष्णु । इस गोत्र सूची में निम्नांकित पुर आते हैं—
आम्नाय
|
पुर
|
मूलस्थान
|
आर
१-२४
|
केरियार
|
कटैया,औरंगाबाद,बिहार
|
आर
१-२४
|
ओडरियार/ यौतियार
|
ओड़ो,हिसुआ,नवादा,गया
|
आर
१-२४
|
खंटवार
|
खनेटा,बेलागंज,गया
|
आर
१-२४
|
कुरैयार/वरोचियार
|
कुर्था,बेलागंज,गया
|
आर
१-२४
|
सिवौरियार
|
वेरी,मदनपुर,औरंगाबाद,बिहार
|
आर
१-२४
|
भलौडियार
|
भड़ौरी,परइया,छपरा
|
किरण
१-१७
|
वेरियार/विडौरा
|
कुटेप,वारा,गया
|
अर्क
१- ७
|
कोणार्क
|
कोना,मदनपुर,औरंगाबाद,बिहार
|
मण्डल
१-१२
|
खण्डसूप/
खणासूपक
|
खनेटी,टेकारी,गया
|
आदित्य१-१२
|
कुण्डार्क
|
कुन्डवा,गोह,गया
|
आदित्य१-१२
|
वरुणार्क
|
पटना
|
(६) काश्यप
गोत्र— काश्यप गोत्र वाले त्रिप्रवर हैं- कश्यप,देवल
और असित । इनका वेद सामवेद है । उपवेद इनका है गंधर्ववेद । शाखा- कौथुमी। सूत्र
गोभिल । छंद है जगति । शिखा एवं पाद वाम है, तथा देवता हैं विष्णु । इस गोत्र सूची
में निम्नांकित पुर आते हैं—
आम्नाय
|
पुर
|
मूलस्थान
|
आर१-२४
|
छेरियार
|
छेरियारी,मखदुमपुर,गया
|
आर १-२४
|
कुरैयार/कुरैचियार
|
कुराइच,रोहतास,बिहार
|
आर १-२४
|
भलुनियार
|
भलुनी,रोहतास,बिहार
|
आदित्य१-१२
|
डोमरौर/डुमरौर
|
डुमरा,हसनपुर,गया
|
आदित्य१-१२
|
सर्पहार्क/सपहा
|
सपट्टा,बाबा का बाजार (अस्पष्ट
|
आदित्य१-१२
|
महुरसिया/मुरसिया
|
मोहरस देव,गया
|
उपकिरण १-१८
|
अरिहंसिया
|
ऐयारी,देव,गया
|
उपकिरण१-१८
|
गोरक्षपुरिया
|
गोरखपुर,उत्तर प्रदेश
|
उपकिरण१-१८
|
बेलयार
|
बेलगांव,छपरा,बिहार
|
उपकिरण१-१८
|
श्यामवौर
|
सोमारी,आजमगढ़,उत्तर प्रदेश
|
उपकिरण १-१८
|
मृगहा
|
मृगा,वासो,गाजीपुर,उत्तर प्रदेश
|
किरण १-१७
|
सियरियार/सियरी
|
सियारी,मौआवार,गोरखपुर
|
किरण १-१७
|
मोरियार
|
जमीरा,मलमा,गया
|
किरण १-१७
|
पठकौलियार
|
पठकौली,वस्ती,उत्तरप्रदेश
|
किरण १-१७
|
पंचहाय
|
पंचाननपुर,टेकारी,गया
|
किरण १-१७
|
सौरियार
|
सैदाबाद,पटना
|
किरण १-१७
|
कुकरौंधा
|
कुकरौधा,गया
|
किरण १-१७
|
जुट्टीवरी/जुट्ठीवरी
|
जुट्ठी,डेहरी
|
आर१-२४
|
पुण्यार्क
|
पंडारक,पटना
|
मण्डल १-१२
|
चंडरोह/चंदरोटी
|
चाँदपुर,पटना
|
मण्डल १-१२
|
खजुराहा
|
खजुरी,गया
|
नोट-
ध्यातव्य है कि भलुनियार पुर शाण्डिल्य गोत्र में भी हैं, और श्यामबौरपुर कौशिक गोत्र
में भी हैं । अतः तदनुसार ही उनका प्रवरादि होगा ।
(७)
शाण्डिल्य गोत्र —
इस गोत्र के दो उपभेद हैं- श्रीमुखशाण्डिल्य और गर्धमुखशाण्डिल्य। दोनों त्रिप्रवर
ही हैं, किन्तु ऋषि नाम भिन्न है। श्रीमुख त्रिप्रवर में शाण्डिल्य,असित और कश्यप
है,जब कि गर्धमुख त्रिप्रवर में शाण्डिल्य, असित और देवल हैं। शेष सब समान हैं । वेद
साम है । उपवेद गंधर्ववेद है। शाखा कौथुमी,सूत्र गोभिल, छंद जगति,शिखा और पाद बाम
तथा देवता विष्ण हैं। इस गोत्र में मात्र छः पुर आते हैं। यथा—
आम्नाय
|
पुर
|
मूलस्थान
|
आर१-२४
|
भलुनियार
|
भलुनी,दीनारा,आरा
|
अर्क १- ७
|
वालार्क
|
अयोध्या
|
अर्क १- ७
|
वालार्क
|
देवकुली,गया
|
अर्क १- ७
|
कोणार्क
|
कोना,मदनपुर,औरंगाबाद
|
आर१-२४
|
जुम्बी(संदिग्ध)
|
दुर्गावती
|
मण्डल१-१२
|
पट्टिस
|
पिसनारी,पटना
|
नोट-
ध्यातव्य है कि जुम्बी पुर भारद्वाजगोत्र में भी जम्बुआर पुर के नाम से आया है ।
तदनुसार उनका प्रवरादि भेद भी हो जायेगा ।
(८)
भृगुगोत्र—
भृगुगोत्र वाले पञ्चप्रवर कहलाते हैं । यथा—भार्गव,और्व, च्याव,जामदग्न्य और
आप्नवान । इनका वेद है ऋग्वेद । उपवेद है आयुर्वेद । शाखा शाकल है, सूत्र आश्वलायन
। छन्द गायत्री, शिखा और पाद दक्षिण तथा देवता हैं- ब्रह्मा । इनके अन्तर्गत
निम्नांकित सात पुर आते हैं—
आम्नाय
|
पुर
|
मूलस्थान
|
आर१-२४
|
डुम्बरियार
|
डुमरी,रोहतास,बिहार
|
आर१-२४
|
वद्धवार
|
बधवा,पहलेजा,गया
|
आर१-२४
|
वडवार
|
परैया,गया
|
अर्क १- ७
|
उल्लार्क
|
परैया,गया
|
अर्क १- ७
|
लोलार्क
|
काशी
|
किरण १-१७
|
शुण्डार्क
|
ककरही,टेकारी,गया
|
मण्डल १-१२
|
बलिबाघ/बलिबागव
|
बंधवा,गया
|
(९)
कौशिकगोत्र—
कौशिकऋषि इसके प्रवर्तक कहे गए हैं। इस गोत्र वाले त्रिप्रवर कहे जाते हैं । यथा-
कौशिक, विश्वामित्र और अघमर्षण । सामवेद इनका वेद है और गन्धर्ववेद उपवेद । शाखा-
कौथुमी । सूत्र गोभिल। छंद है जगति । शिखा एवं पाद वाम है, तथा देवता हैं विष्णु ।
इस गोत्र सूची में निम्नांकित पन्द्रह पुर आते हैं—
आम्नाय
|
पुर
|
मूलस्थान
|
आर१-२४
|
छत्रवार
|
छतियाना,बेला,गया
|
आर१-२४
|
सिकौरियार/शिकरौरियार
|
सिकरौरा,डुमरांव,शाहाबाद
|
आर१-२४
|
रहदौलियार/रहयार
|
रहदौली,भुज
|
आर१-२४
|
मलौडियार/मौलियार
|
मलवां,गया
|
आदित्य१-१२
|
गुनसैया/गुलशैय्या
|
मगही,औरंगाबाद,बिहार
|
आदित्य१-१२
|
देवलसिया
|
देव,औरंगाबाद,बिहार
|
आदित्य१-१२
|
हरिहसिया/हरहसिया
|
हरिहोस,हुसैनगंज,छपरा
|
आदित्य१-१२
|
मल्लोर
|
मलवां,गया
|
किरण
१-१७
|
कौशिक
|
जगदीशपुर,भोजपुर
|
किरण
१-१७
|
अवधियार
या औधियार
|
अरवल,बिहार
|
किरण
१-१७
|
महोशवार
|
नृसिंहपुर,मौआवर,गोरखपुर
|
किरण
१-१७
|
गोरहा
|
गोह,गया
|
किरण
१-१७
|
सरइयार/सौरियार/पुरैयार
|
सैदाबाद,सीरंगपुर,पटना
|
उपकिरण१-१८
|
श्रीमौरियार/श्रीमौर
|
गोरखपुर
|
उपकिरण१-१८
|
श्याममोरियार/सोमरी
|
आजमगढ़,उत्तरप्रदेश
|
नोट— अवधियार पुर आंगिरस गोत्र में
भी हैं, तथा गुनसैंया भारद्वाज गोत्र में भी हैं। तदनुसार उनका प्रवरादि भी भिन्न
हो जायेगा।
(१०) वत्सगोत्र—
वत्सगोत्र
में तीन और पांच दोनों प्रकार के प्रवर की परम्परा है। यथा- आंगिरस,
गर्ग, ब्राहस्पत्य,भारद्वाज और शैन्य । सामवेद इनका वेद है और गन्धर्ववेद उपवेद ।
शाखा- कौथुमी । सूत्र गोभिल । छंद है जगति । शिखा एवं पाद वाम है, तथा देवता हैं
विष्णु । इस गोत्र सूची में निम्नांकित पुर आते हैं—
आम्नाय
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पुर
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मूलस्थान
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आर१-२४
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ओडरियार/यौतियार
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ओड़ो,हिसुआ,नवादा,गया
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आर१-२४
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जम्बूयार/जमूयार
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जमुआर,टेकारी,गया
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उपकिरण१-१८
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सत्यवाक(सप्तार्क)
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सैतपुर,छपरा
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आदित्य१-१२
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बिलसैया/बिलशैय्या
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वैलासो,बडसरा,गाजीपुर
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अर्क
१- ७
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मार्कण्डेयार्क
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देवकुली,गया
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मण्डल
१-१२
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कपित्थक(कैथुआ)
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....
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नोट-
जम्बूयार/जमूयार
तथा बिलसैया/बिलशैय्या ये दोनों भारद्वाज गोत्र
में भी मिलते हैं । अतः उनका प्रवरादि तदनुसार ही होना चाहिए ।
(११) परासर
गोत्र— महर्षि परासर इस गोत्र के प्रवर्तक हैं । इस गोत्र
वाले त्रिप्रवर धारी होते हैं- परासर, वशिष्ठ और शक्ति । इनका वेद ययुर्वेद और उपवेद है धनुर्वेद। शाखा
माध्यन्दिनी, सूत्र कात्यायनी,छन्द त्रिष्टुप्, शिखा एवं पाद दक्षिण तथा देवता हैं
रुद्र । इस गोत्र में आठ पुर हैं। यथा—
आम्नाय
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पुरनाम
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मूलस्थान
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आर१-२४
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योतियार
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पवई,औरंगाबाद,बिहार
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आर१-२४
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ऐआरो
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गजहनी,आरा,बिहार
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आर१-२४
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सरैयार
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गजहनी,आरा,बिहार
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आर१-२४
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उरुवार
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ऊर,टेकारी,गया
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उपकिरण१-१८
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पिपरहा
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पिपरहा,छपरा,बिहार
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मण्डल १-१२
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पारसम/तेरहपरासी
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परसन,भोजपुर,बिहार
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किरण १-१७
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कुकरौंधा
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कुकरौंधा,टेकारी,गया
|
किरण १-१७
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गण्डार्क
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विनायक,टेकारी,गया
|
नोट—ऐयार
पुर रहदौरी गोत्र में भी हैं,कुकरौंधा काश्यप गोत्र में भी हैं, उरुवार भारद्वाज
गोत्र में भी हैं । अतः तदनुसार ही उनका प्रवरादि भेद हो जायेगा।
(१२)
मुर्द्धनी गोत्र— इसके
प्रवर्तक मौनस ऋषि हैं । इनका प्रवर तीन है । इनका वेद ययुर्वेद और उपवेद
है धनुर्वेद । शाखा माध्यन्दिनी, सूत्र कात्यायनी, छन्द त्रिष्टुप्, शिखा एवं पाद
दक्षिण तथा देवता हैं रुद्र । इस गोत्र में मात्र एक पुर है—पण्डरिक , जिनका
आम्नाय अर्क है । मूलस्थान पंडारक,पटना माना जाता है । ध्यातव्य है
कि पुण्यार्क पुर वालों का मूल स्थान है यह, और उनका गोत्र मौद्गल है। किंचित
भ्रामक स्थिति है इनके बारे में । लगता है कहीं भूल हुयी है ।
(१३)
वेतायन गोत्र— इस
गोत्र के प्रवर्तक ऋषि भी स्पष्ट नहीं है । त्रिप्रवर की मान्यता
है, किन्तु उसके कौन-कौन से ऋषि हैं ये भी स्पष्ट नहीं है। इनका वेद ययुर्वेद और
उपवेद है धनुर्वेद । शाखा माध्यन्दिनी, सूत्र कात्यायनी, छन्द त्रिष्टुप्, शिखा
एवं पाद दक्षिण तथा देवता हैं रुद्र ।
मण्डल आम्नाय के कांक्ष नामक पुर की चर्चा मिलती है, जिनका मूल स्थान खजनी,
गया बतलाया जाता है। किन्तु ये कुछ भ्रामक है ।
(१४) जमदग्नि
गोत्र— जमदग्नि ऋषि इसके प्रवर्तक हैं। इस गोत्र
वाले त्रिप्रवर कहे गये हैं- भार्गव,च्यावन और आप्नवाल । सामवेद इनका वेद है और
गन्धर्ववेद उपवेद । शाखा- कौथुमी । सूत्र गोभिल । छंद है जगति । शिखा एवं पाद वाम
है, तथा देवता हैं विष्णु । इस गोत्र सूची में मात्र दो ही पुर आते हैं—किरण १-१७ आम्नाय का जुत्य वा छठ्ठी नामक पुर जिनका मूल स्थान कोंच,गया है। तथा
विपरोह या पिपरोहा पुर जिनका मूलस्थान पिपरोहा,गया है । ध्यातव्य है कि पिपरोहा
बिहार के छपरा जिले में भी है।
(१५)
वशिष्ठ गोत्र— इस
गोत्र के प्रवर्तक ऋषि वशिष्ठ हैं । ये त्रिप्रवर वाला गोत्र है। यथा-
वशिष्ठ,परासर और शक्ति। ययुर्वेद इनका वेद है,धनुर्वेद उपवेद । शाखा
इनकी माध्यन्दिनी है, सूत्र गोमिल,छन्द त्रिष्टुप्,शिखा एवं पाद दक्षिण,तथा देवता
हैं रुद्र। इस गोत्र में मात्र एक पुर है- मण्डल १-१२ आम्नाय का वडसार वा वडसारी पुर, जो वरशांव, गया के मूल निवासी
कहे जाते हैं ।
(१६) मिहिर
गोत्र— मिहिर नामक ऋषि इसके प्रवर्तक हैं। त्रिप्रवरीय
इस गोत्र वालों का वेद ययुर्वेद है, धनुर्वेद उपवेद । शाखा इनकी माध्यन्दिनी है,
सूत्र गोमिल, छन्द त्रिष्टुप्, शिखा एवं पाद दक्षिण, तथा देवता हैं रुद्र । इसमें
तीन पुर हैं—1. किरण १-१७ आम्नाय का मिहिर वा
मिहिमगौरियार पुर, जिनका मूलस्थान फुलवरिया,सारन,बिहार है । 2. उपकिरण१-१८ आम्नाय का मिहिर वा महिरमी पुर,जिनका
मूलस्थान मिहिल,वस्ती, उत्तर प्रदेश है। तथा 3. आर१-२४
आम्नाय का पुर मखपवार,जो भारद्वाज गोत्र में भी पाये जाते हैं। इनका मूल स्थान
मखपा,टेकारी,गया है।
(१७) च्यवन
गोत्र— सुख्यात च्यवन ऋषि इसके प्रवर्तक हैं। इसके
अन्तर्गत मात्र एक पुर है- उपकिरण१-१८ आम्नाय का चेचवार वा चैण्डवार पुर,जिनका मूल
स्थान चैनपुर, छपरा, बिहार माना जाता है। ये पांच प्रवर वाले हैं । सामवेद इनका
वेद है और गन्धर्ववेद उपवेद । शाखा- कौथुमी । सूत्र गोमिल । छंद है जगति । शिखा
एवं पाद वाम , तथा देवता हैं विष्णु ।
(१८) रहदौरी
गोत्र— विश्वामित्र,कौशिक और अघमर्षण नामक तीन प्रवर
हैं इस गोत्र के। सामवेद इनका वेद है और गन्धर्ववेद उपवेद। शाखा- कौथुमी । सूत्र
गोभिल । छंद है जगति । शिखा एवं पाद वाम है, तथा देवता हैं विष्णु । आर१-२४ आम्नाय का पुर रहदौरियार एकमात्र पुर है इस गोत्र में । रहदौली,रहयार,
भुज इनका मूल स्थान माना गया है। ध्यातव्य है कि कौशिक गोत्र में भी इस पुर वाले
मिलते हैं।
नोट—
उक्त अठारह गोत्रों के अलावे कहीं-कहीं गौतम गोत्र के शाकद्वीपी की भी चर्चा है।
अबतक अष्टादश गोत्र परम्परा की चर्चा की
गयी । अब आगे षोडशगोत्र परम्परा की संक्षिप्त सूची प्रस्तुत की जा रही है, जो
विशेषकर मध्यप्रदेश,कर्नाटकादि दक्षिण क्षेत्रों में स्थानान्तरित हो गए हैं। ये
सभी तीन प्रवर वाले हैं, और देवी के उपासक हैं। ये पांच ऋषि— भारद्वाज, कौशिक, काश्यप, कौण्डिन्य और मिहिर
गोत्र परम्परा से ही सोलह हुए हैं। यथा—कटात,देवदत्त,भरत,भौंडल्य,हटवल्य,कौडल्य,मगध्न्य,आशिवन,
मधवन, मूर्द्धनी,छाप्रवेन, शाण्डिल्य, कौशिकम्, जगवन, सार्वल्य, और हरिगोन नामक
गोत्र हैं। पुरों में कौरियार, देवलसिया, स्वेतभद्र, भेढ़ापाकर, हुड्डीआरा,
कुरैयार, मलौरियार, हरसिया, भलुनियार, पाराशीन, मेड़तवाल, वालार्क, छत्रवादी,
मल्लौड़, यामुवार, पुनरखिया, और मिहिर नाम मिलते हैं।
इस प्रकार विविध पुर-गोत्र-तालिका का गहन
अवलोकन करने पर कई विसंगतियां दीख रही हैं। नामों की पुनरावृति या अपभ्रंशात्मक
नाम भी मिल रहे हैं। एक ही पुरनाम दो आम्नायों में भी मिल जा रहा है। इसी भांति एक
ही पुरनाम के गोत्र भेद भी मिल रहे हैं।
दूसरी बात ये कि मूलस्थानों की चर्चा जो
की गयी है, उनमें बहुत से स्थानों में वर्तमान समय में शाकद्वीपीय है ही नहीं ।
पूर्व में होने जैसे कोई प्रमाण भी नहीं मिलते। इससे ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि
सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक कारणों से पूरी मण्डली वहां से विस्थापित हो गयी हो।
इसमें भी आर्थिक कारण की तुलना में अन्य कारण ही प्रबल प्रतीत हो रहे हैं।
स्वाभाविक है कि आर्थिक कारण- वृत्ति की खोज में गांव का गांव पलायन नहीं कर सकता ।
नामभेद (विसंगति) में ऐसा भी प्रतीत होता है कि स्थानान्तरण/विस्थापन के पश्चात कुछ दिन तक पूर्व(मूलस्थान)के असली पुरनाम को ढोते रहे
और हो सकता है कि बाद में नये वासभूमि को ही परम्परा में ले लिये हों । जो भी हो, गहन
शोध की आवश्यकता है इस विषय में । किन्तु हां,अहम आवश्यकता है परम्परा को स्मरण
में रखना । हम खोजने का प्रयास करेंगे, तो मिलने की सम्भावना बढ़ेगी । प्रयास ही
व्यर्थ लगेगा यदि तो विसरने का अवसर भी पर्याप्त है । अस्तु।
---)ऊँ श्री
दिनकरार्पणमस्तु(---
क्रमशः....
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