शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिका- सोलहवां भाग

गतांश से आगे...

          ११.पुर-गोत्र-प्रवरादि विचार और औचित्य

    पिछले अध्यायों में सृष्टि क्रम विस्तार से लेकर शाकद्वीपियों की उत्पत्ति, उत्कर्ष और शाकद्वीप से जम्बूद्वीप आगमन की चर्चायें हुयी, जिनसे स्पष्ट है कि सूर्यांश दिव्यजन्मा मग ब्राह्मण स्थायी तौर पर जम्बूद्वीप में आ बसे। जम्बूद्वीप के भविष्य को देखते हुए, नारद-कृष्ण लीला और यजमानों की कृपा से वासार्थ भूमि दी गयी, जहां पूरे व्यवस्थित रुप से (पुर-गोत्र-प्रवरादि विचार सहित) वसते हुए कुल बहत्तरपुरों और अठारह उपकिरणों के नाम से ख्यात हुए । समयानुसार स्थान परिवर्तन और अन्य विविध कारणों से ७२+१८=९० की संख्या में भी किंचित मतान्तर मिलता है । कई तरह की सूचियाँ मिल जाती हैं, जो संशययुक्त और विरोधाभासी भी हैं, किन्तु जो भी हो, मूल बात यह है कि पुर-उपकिरणादि नाम की प्रधानता ही शाकद्वीपियों की असली पहचान बनी । ये परम्परा जम्बूद्वीपीय गैर शाकद्वीपीय ब्राह्मणों में कदापि नहीं है। अतः अपनी पहचान को बनाये रखने हेतु पुर-परम्परा का सम्यक् ज्ञान अनिवार्य है इनके लिए।

कभी-कभी ऐसा प्रश्न भी उठाया जाता है (विशेष कर गैर मगों द्वारा) कि क्या इनकी मूल पहचान- पुरपरम्परा वहां शाकद्वीप में भी थी?
यह प्रश्न अपने आप में बेतुका है । पिछले सभी अध्यायों का अवलोकन करने के बाद  किसी के मन में ऐसी आशंका शेष रहेगी- ऐसा मुझे नहीं लगता। सीधी सी बात है कि इस परम्परा में ये जम्बूद्वीप में आने के पश्चात् ही बंधे । वहां शाकद्वीप में तो सब एक समान थे।
अब प्रश्न ये उठता है कि इनका वैवाहिक सम्बन्ध किस आधार पर होता है, या होना उचित है- जैसा कि जम्बूद्वीप की परम्परा है- गोत्रादि विचार करके विवाहादि सम्बन्ध करना । जम्बूद्वीपीय (गैर मग) ये मानते हैं कि गोत्र परम्परा सन्तति परम्परा का सूचक है। इस अज्ञान या अधूरे ज्ञान का समाधान भी पिछले अध्यायों में करने का प्रयास किया गया है। पुर,गोत्र,प्रवरादि विषयक शास्त्र-सम्मत विशेष परिभाषायें भी दी गयी हैं।    संक्षेप में पुनः कह सकते हैं कि गोत्र परम्परा सन्तति परम्परा नहीं है, और विवाहादि सम्बन्ध करने में सपिण्ड,सगोत्र,सप्रवर वर्जना की बात की जाती है और की जानी चाहिए भी। समान गोत्र,समान प्रवर और समान पुर वाली कन्या-वर का विवाह कदापि नहीं होना चाहिए । जैसा कि शास्त्र वचन है—
असपिण्डा च या मातुर सगोत्रा च या पितुः ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दार कर्माणि मैथुने ।। (मनुस्मृति ३-५)
हालाकि सपिण्ड की मर्यादा(सीमा) व्यासस्मृति ने पितृकुल में सात पीढ़ी तक और मातृकुल में पांच पीढ़ी तक ही मानी है। इसी सिद्धान्त का तर्क देती है आज की पीढ़ी कि काफी दूरी हो जाने पर विवाह करने में क्यों वर्जना है ?
किन्तु व्यासस्मृति की सीमा का ये अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए । यहां संदर्भ-दोष माना जाना चाहिए । वस्तुतः ये बात जननाशौच-मरणाशौचादि निवृत्ति के प्रसंग में कहा गया है न कि विवाहादि सम्बन्ध के विषय में । शौच विचार में स्मृतिकारों ने छूट दी है कि क्रमशः अधिक दूरी (एक-तीन-पांच-सात) बनते जाने पर शौचाचार की मात्रा (अवधि) में अन्तर आते-आते अन्ततः लोप हो जाता है। ध्यातव्य है पाणिनी,पतञ्जलि, कात्यायन आदि ने ‘ लोप ’ शब्द को कैसे व्याख्यायित किया है- अदर्शनः लोपः कह करके । लोप याने नष्ट नहीं, दर्शन (मात्रा) की न्यूनाधिकता । प्रत्यक्ष (स्थूल) जल अग्नि या वायु में विलीन हो जाता है, इसका ये अर्थ कदापि नहीं कि जल तत्त्व ही नष्ट हो गया । वस्तुतः वह उपस्थित है । मात्र उसका दर्शन लोप हुआ है । इसी तरह महर्षियों ने किसी तरह के पक्षपात रहित होकर,सहज द्रष्टा भाव से विचार करते हुए सारी व्यवस्थायें दी हैं। शाकद्वीपियों की पुर-व्यवस्था भी उन्हीं में एक है। अतः इन्हें मानना हमारा धार्मिक कर्तव्य है। वैवाहिक सम्बन्ध में पितृपुर के साथ-साथ मातृपुर विचार भी अनिवार्य माना जाना चाहिए।
   ये आधुनिक विज्ञान(Science)सम्मत भी है कि वैवाहिक सम्बन्ध जितने दूर होंगे, भावी सन्तति उतनी बलवती होगी। रक्त की समीपता कई कारणों से वर्जित किया गया है। आज के क्रॉसब्रिड के जमाने में इसे और भी स्पष्ट तरीके से प्रमाणित करने का प्रयास किया जा रहा है वैज्ञानिकों द्वारा। किन्तु इसका ये अर्थ तो नहीं कि कुछ को कुछ से जोड़ कर कुछ नये का सृजन कर दिया जाय । समीपता की भी एक सीमा होनी चाहिए और दूरी की भी । सामान्य (TC,DC…)रक्त-परीक्षण से काफी आगे बढ़कर, आज का विज्ञान DNA परीक्षण तक पहुंच चुका है । हो सकता है आने वाले समय में इससे भी अधिक गहन परीक्षण करने में सक्षम हो जाये, और तब उस दिन ज्ञात हो कि हमारे मनीषियों की परख कितनी पैनी थी । जो बात या सिद्धान्त समझ में न आवे, उसे सीधे नकार देना कोई बुद्धिमानी नहीं । बुद्धिमानी इसमें है कि उस पर विचार करे, और जब तक स्पष्ट न हो जाये तब तक तो ऋषि-वाक्य मान कर स्वीकारने में ही भलाई है।
हालाकि गोत्र-प्रवरादि काफी उलझे हुए,किन्तु गहन विषय हैं। इनके बारे विशेष जानकारी के लिए विविध धर्मसूत्र और गृह्यसूत्रों का अध्ययन करना चाहिए। यथा—आश्वलायन,आपस्तम्ब,बोधायन,पारस्कर,कात्यायन,लौगाज्ञ,सत्याषाढ़ादि । इन ग्रन्थों में विशद रुप से इनकी चर्चा है । जिज्ञासुओं को इन मूल ग्रन्थों का अवलोकन अवश्य करना चाहिए। अस्तु ।

                         ---)ऊँ श्री भास्कारय नमः(---

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