शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिका- सत्रहवां भाग

गतांश से आगे....

          १२.    ऐतिहासिक शिलालेखीय प्रमाण

 मेरे पूज्य पितृव्य पं.बालमुकुन्द पाठक जी (व्याकरणादिअष्टतीर्थ) (साधना-भूमि काशी, और कर्मभूमि कलकत्ता) के परम मित्र, वेद-व्याकरणतीर्थ पं.विश्वनाथ शास्त्रीजी (कलकत्ता) के दर्शन का सौभाग्य किशोरावस्था में ही प्राप्त हुआ था । उनसे समय-समय पर काफी कुछ जानकारियां मिली थी । अपने स्मृतिगह्वर से, तथा पूर्वजों के धरोहर से कुछ निकालने के प्रयास में हूँ । उसकी कुछ बानगी यहाँ प्रस्तुत हैः-
१)—मि.कनिंघम (सुख्यात अंग्रेज अफसर) को गया जिले के गोविन्दरपुर ग्राम से शक संवत् १०५९ (वर्तमान शक १९३९) यानी अब से ८८० वर्ष पूर्व का एक शिलालेख मिला था, जो कलकत्ता अजायबघर में सुरक्षित है, जिसका विशद विवरण कनिंघम आर्कियोलॉजी सर्वे रिपोर्ट के सोलहवें भाग में दर्ज है - में मगब्राह्मणों के सम्बन्ध में १४३ पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनका किंचित उपलब्ध  अंश मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ –
देवोजीयात्रिलोकीमणिरयमरुणोयन्निवासेन पुण्यः शाकद्वीप सदुग्धाम्बुनिधिबलयितो यत्रविप्रोमगाख्या वंशस्तत्रद्विजानां भ्रमि लिखित तनोर्भास्वतः स्वाङ्ग(जातः)शाम्बो यामानिनायस्वयमिह महितास्ते जगत्यांजयन्ति तेषां यः प्रथमः समस्त निगम ज्ञानात्म विद्यापदं बुद्ध्या व्यापृत एव नित्ययजन व्यापार पारीनया पूर्वेस्तयोभिरथ सुप्तसवैर्यशोभिः यत्रापरे परमतत्व विदोडन विद्यावदातमतयः पतयोः द्विजानाम।नन्देषुव्योमेन्दु(१०५९) समे शकाब्दे रुद्रात्मजश्चोद्धरगस्यनप्त्वा।इमां शिलां शिल्पिवरः प्रशस्तिं स शूलपाणिः स्वयमुच्चरेवान।।  
         अर्थात् देवताओं के आदिदेव तीनों लोकों के मणिमय हैं, उन अरुण देवता का जय जयकार हो। वह  अपने निवास से जिस स्थान को पवित्र करते हैं, वह शाकद्वीप दुग्ध सागर से घिरा है। उस शाकद्वीप के ब्राह्मण मग नाम से जगत में प्रसिद्ध हैं । ये मग ब्राह्मण चक्र द्वारा छंटवाये गये- भगवान सूर्य के तेज से(अमैथुनी)आविर्भूत हुए हैं। ये मग ब्राह्मण विमान द्वारा शाम्ब से बुलवाये गये हैं। ये अपने आत्मतेज से सर्वदा जय-युक्त होते हैं। ये लोग अपनी विद्या,तपस्या और प्रगतिकारी अपने यशों से सुशोभित पहले से ही होते आये हैं । जिन मगों से बचा हुआ कोई भी तत्त्ववाद का रहस्य नहीं है । विद्या, विनय और विवेक में ये द्विजातियों के स्वामी हैं । ये लोग नीति-निपुण,व्यवहार-कुशल और क्रियाकाण्ड(कर्मकाण्ड) के विलक्षण पारदर्शी हैं। इस शिलालेख के उद्धरण न्यस्तकारी रुद्रतनय शूलपाणि ने इसे शकसंवत् १०५९में उत्कीर्ण कराया है। इति।।
साभार- पं.विश्वनाथशास्त्रीसंग्रह, श्री गोपाल पुस्तकालय, मैनपुरा, अरवल,बिहार

२)— मगोत्कर्ष विवरण-प्रसंग में पं.विश्वनाथशास्त्रीजी का एक लेख मिला है —

                 ऐतिहासिक सत्य के शाकद्वीपीय ब्राह्मण

भारत,पाकिस्तान,नेपाल में वर्तमान में हम शाकद्वीपीय सनातन वैदिक ब्राह्मण पाते हैं। इनका प्रमाणिक इतिहास मिलता है। पन्द्रह सौ से अधिक वर्ष पूर्व जीवितगुप्त (द्वितीय) के समय का एक शिलालेख है,जिसमें लिखा गया है कि मगधदेश (बिहार)के गया जिले(सम्प्रति औरंगावाद जिला) के देववरुणार्क ग्राम के सूर्य मन्दिर की पूजा-अर्चना हेतु भोजक नाम शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यमित्र को देवोत्तर भूमि दी गयी थी। गुप्तकाल का शासन नष्ट होने पर बालादित्यदेव ने भी भोजक सूर्यमित्र (ध्यातव्य है कि भोजक शाकद्वीपीय का पर्याय है) को उक्त ग्राम देवोत्तर रुप में प्रदान किया । बालादित्यदेव के बाद वर्मन राजाओं का अधिकार हुआ । वर्मन राजाओं ने भी उक्त भूमि को ज्यों का त्यों रहने दिया । बाद में महाराज सर्ववर्मा (वर्मनराजा) ने उक्त देवोत्तर भूमि को भोजक हंसमित्र को समर्पित किया । उसके बाद राजा अवन्तीवर्मा ने भोजक ब्राह्मण ऋषिमित्र को दिया । शिलालेख के क्रमिक इतिहासों के अनुशीलन से पता चलता है कि भोजकों ने इसे कई राजवंशों से लागातार प्राप्त कर प्रतिष्ठा पायी । (सर्ववर्मा का काल ५०७ से ५७५ तक का है)।
    इसी लेख के दूसरे भाग में ब्राह्मोत्तर की चर्चा है और किशोरवाट ग्राम का भी उल्लेख है । तत्कालीन गया जिले(वर्तमान औरंगावाद) के देव सूर्यमन्दिर से एक मील की दूरी पर किशोरवाट गांव है। सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हर्षचरित में वर्म वंशीय मगध राजाधिपति सूर्यवर्म और ईशानवर्म का नाम मिलता है।
(ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार गुप्तशासन ३२०ई.से आरम्भ हुआ। सर्ववर्मा का काल ५६०-५७५ ई. तक का है। इस प्रकार उक्त शिलालेख चौथी शताव्दी का है।)
(Fleets.INSCRIPTIONS OF GUPTA KINGS,VOL.III Page-217.)
) गुजरात प्रान्त के मोरवी नामक स्थान में ५८५ संवत् यानी ५२८ ई.सन् का एक शिलालेख मिला है,जिसमें एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण को अपने पितर की सद्गति के लिए भूमिदान देने की घोषणा की गयी है। शिलालेख काफी बड़ा है। उसका किंचित अंश यहां प्रस्तुत है— ब्राह्मण अग्रहर वास्तव्य...शाण्डिल्य स गोत्र मैत्रायणीय स ब्रह्मचारी ब्राह्मण...जाञ्चकाभ्यां  सौहादित्य सुताभ्यां पयः पूर्वया शशांक तपनार्णव स्थिते सन्तानोपभोग्य तया मार्तण्ड मण्डलाश्रायिणि स्वर्भानोबलि चरु वैश्वदेवाय स, ब्रह्म (क्रिं) यार्थं पितरोरात्मनाश्च पुण्य शोभि वृद्वे.....गौप्तेदवादोनृपः सोप रागेऽर्क मण्डले रभसद्वर्ण्णालीकं सुमुचितं पद न्यासरुचिर सदाग्न्यायेनाग्रनृगनधु (हु) ष कल्पस्यनृपतेः । मुखस्थेनाभातं द्विज मिव शिव स्वस्ति वचसा लिखञ्जूजागयोदरः । शुचित (र) मनाः शाशन मिति सम्वत् ५८५ फाल्गुन सुदी ५ स्वहस्तोयंश्रीजाइंकस्य शंकरसुत देद्द केसु (नों) त्किरितम् ।।
.....शाण्डिल्यगोत्रीय सौहादित्य के हम दोनों पुत्र अपने पिता की मृत्यु पर उनकी सद्गति और सूर्यमण्डल में आश्रय के वास्ते,मैत्रायणी गोत्र ब्रह्मचारी यज्वन ब्राह्मण को नृपनहुष के समान गति पाने के लिए यह दानलेख उत्कीर्ण करते हैं....।    ( ध्यातव्य है कि ब्रह्मचारी और यज्वन शब्द भी शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त होता है- ब्रह्मयामल—भूमध्ये ब्रह्मचारी स्यात्....)।
( पूरा विवरण – इण्डियन एन्टीक्यूरी भाग 2 का पृष्ठ 2-257 द्रष्टव्य)।

४)  देव सूर्य-मन्दिर का शिलालेखः-
औरंगावाद (बिहार) मण्डलान्तरगत, शाकद्वीपियों का प्रमुख तीर्थ – देव का महान सूर्य मन्दिर है, जिसकी ख्याति के सम्बन्ध में कुछ भी कहना- सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है। इसकी स्थापना के विषय में लोकचर्चा है कि विश्वकर्मा ने इसे बनाया था। उपलब्ध शिलालेख में एक श्लोक उत्कीर्ण है-
शून्यव्योम नभोरसेन्दुकरभू हीने द्वितीये युगे। माघे वाण तिथौ सिते गुर दिने देवे दिनेशालयम्।। प्रारेभे दृषदाञ्चयै रचयितुं सौम्यादी लायाम्भवो। यस्यासीत्सनराधिपः प्रभुतया लोको विशोको भुवि।।(‘अंकस्यवामागति’ नियमानुसार उक्त श्लोक का अर्थ होता है- शून्य = शून्य, व्योम=शून्य, नभ = शून्य, रस= छः, इन्दु= एक, कर= दो, भू= एक । इस प्रकार प्राप्तांक हुआ—१२१६००००> जिसे द्वितीय युग यानी त्रेतायुग के मान में से हीन करना है। त्रेता का मान >,२९,६०,००० वर्ष है। इसमें १,२१,६०,००० घटाने पर होगा ८०,००० वर्ष। यानी अस्सीहजार वर्ष त्रेतायुग शेष था, उस समय माघ शुक्ल पंचमी गुरुवार को  देव मन्दिर की स्थापना हुयी थी । इसप्रकार वर्तमान गणित होगा—     शेष त्रेता - ८०,००० वर्ष + द्वापर मान- ८,६४,००० वर्ष + वर्तमान सम्वत्-२०७४(ई.सन् २०१७) तक गतकलि का मान- ५११८ वर्ष = ९,४९,११८ वर्ष यानी नौ लाख उनचास हजार एकसौ अठारह वर्ष । यह मन्दिर राजा ऐल का बनवाया हुआ है । शिलालेख में आगे एक शब्द है-‘ईलायाम् भवः’ अर्थात् ऐलः। ईला मातृनाम है। अस्तु।

५) उमगा मन्दिर का शिलालेखः-                                
उमामहेशं सहितं गणेशम्....उ+म+गा=उमगा > एक पवित्र मगस्थली है—बिहार प्रान्त के औरंगावाद जिले में मदनपुर के समीप पूर्णाडीह ग्राम, जहाँ एक से एक मगविभूति तान्त्रिक, ज्योतिषी,कर्मकाण्डी,आयुर्वेदज्ञ आदि हुए हैं। विन्ध्यगिरि की श्रृंखलाओं से जुड़े प्राकृतिक छटाओं से ओतप्रोत सिद्धस्थली उमगा में भगवती उमा, भूतभावन भोलेनाथ के साथ विघ्नेश्वर गणेश का भी अद्भुत मन्दिर है।
उपलब्ध शिलालेख— जाते तर्क नवाम्बुधीन्दु गुणिते संवत्सरे वैक्रमे। वैशाखे गुरुवासरे सित तरे पक्षे तृतीये तिथौ । रोहिण्याम्पुरुषोत्तममं हलभृतं भद्रांसु भद्रान्तथा। प्रत्यष्ठापयदेकदैव विधिना श्री भैरवेन्द्रो नृप ।। अर्थात् विक्रमसंवत् १४९६(यानी ई.सन् १४३९) में इसकी स्थापना वैशाख मास के अक्षय तृतीया को राजा भैरवेन्द्र द्वारा हुयी थी।
उमगा पर्वतश्रृंग के गौरीशंकर मन्दिर की स्थापना उक्त मन्दिर की स्थापना के चार वर्षों बाद यानी विक्रमाब्द १५०० में हुयी,उक्त राजन् भैरवेन्द्र द्वारा ही,  जिसका शिलालेख है- खखेषु चन्द्रे खलु विक्रमाब्दे ज्येष्ठेसिते मास तिथौ च चन्द्रे प्रत्यष्ठिपद्भैरव एक भूपः।। अस्तु।
                 (साभार-पूर्णाडीह मगविप्रवंशावली, संकलक- पं.गुप्तेश्वर पाठक(वि.स.२०१३)

) शाहाबाद(आरा)के देववरुणार्क (देववरणा) नामक स्थान में शाकद्वीपियों के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। वरुणार्क पुर वालों का मूलस्थान इसे ही माना गया है। एक शिलालेखीय प्रमाण है—
विज्ञापित श्री वरुणावासि भट्टारक प्रतिबद्ध भोजक सूर्यमित्रेण उपरिलिखित...ग्रामादि संयुक्तं परमेश्वर श्री बालादित्यदेवेन स्वशासने न भगवच्छीवरुणासिभट्टारक...परिवाहक ...भोजक हंसमित्रस्य समापत्य यथाकाला ध्यासिभिश्च एवं परमेश्वरश्री सर्ववर्म...भोजक ऋषिमित्र पत्तकं एवं परमेश्वरश्री मवन्तिवर्मणां पूर्वद्त्त कमवलम्ब्य...एवं महाराजाधिराज परमेश्वर...शासन दानेन भोजक...धर मित्रस्यानुमोदितेन...भुज्यते...। (रिक्त स्थान अपाठ्य है) (Inscriptions of Gupta Kings Vol, iii pg.217)
            उक्त शिलालेख का आशय है कि देववरुणार्क  ग्राम में बहुत पहले से भोजक (शाकद्वीपीय)ब्राह्मण को बसाया गया था । सूर्यदेव की पूजा के लिए मगध पति बालादित्य ने भोजक ब्राह्मण सूर्यमित्र को ग्राम दान दिया। बाद में वर्मा भूपालों का शासन होने पर सर्ववर्मा ने भोजक हंसमित्र को उक्त ग्राम दिये (यानी शासक बदल जाने पर भी उनसे लिया नहीं गया)। इसके बाद अवन्ती वर्मा ने भोजक ऋषिमित्र को दिया। (द्वितीय जीवितगुप्त का ये शिलालेख सातवीं शताब्दी का है।
(डॉ.रविन्द्र कुमार पाठक (पाली विभाग,मगध विश्वविद्यालय) ने इसके विषय में अपने चर्चित ब्लॉग- मगसंस्कृति में विस्तृत चर्चा की है।)  

) इक्यावन शक्ति पीठों में हिमालय प्रदेश में अवस्थित ज्वालादेवी का नाम सर्व विदित है। उस क्षेत्र का एक चर्चित प्रसंग है कि महाराज भूमिचन्द्र जी ने उस दिव्य स्थान का दर्शन किया। घोर वन में मन्दिर का निर्माण करवाया और देवी की पूजा-अर्चना के लिए शाकद्वीपीय भोजक संज्ञक दिव्य विप्रों- पं. श्रीधर तथा पं. कमलापति को नियुक्त किया । उन्हीं के वंशज आज भी वहां पुजारी हैं।

) एपिग्रेफिया इण्डिका,जिल्द 2 पृ.33 पर बेवर महोदय का एक लेख है मगव्यक्ति ऑफ कृष्णदास । वस्तुतः शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के महत्त्व पर आधारित एक प्राचीन पुस्तक है मगव्यक्ति ,जिसके लेखक है पं.श्रीकृष्णदासजी ।

)  I. Journal Asiatic Research Society(Paris) June 1887,Pg.701,
     II. Alberuni’S Indian Vol. I,Pg.121
     III. Cunningham’s Ancient Geographical Indian Pg. 233.
     IV. Cunningham’s Archeological Survey of India Vol.I Pg.111  इन जगहों पर भी शाकद्वीप और शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के विषय में देखा जा सकता है।
मगबन्धु (अखिल) के मग विशेषांक में प्रकाशित वाराणसी के  प्रो. मुरलीधर मिश्रजी का एक लेख है - शाकद्वीपी ब्राह्मणों का गौरवशाली इतिहास, जिसमें इस बात की चर्चा करते हुए मिश्र जी कहते हैं कि उनके पास उक्त पुस्तक की एक प्रति अति जीर्णावस्था में थी,जिसे उन्होंने गंगाराम संस्कृत विद्यापीठ, वाराणसी के प्रो. श्रीमती शैलकुमारी मिश्र को दे दिया। यह पुस्तक मगों के विषय में बहुत कुछ स्पष्ट जानकारी देती है।
इस प्रकार मगों की ऐतिहासिकता असंदिग्ध है । वेद,पुराण,इतिहास, शिलालेखादि सर्वत्र इसके प्रमाण उपलब्ध हैं।


                  ---)ऊँ श्री आदित्यायार्पणमस्तु(---
क्रमशः...

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