शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिका भाग बारह

गतांश से आगे...

(दशवें अध्याय का पहला भाग)

              १०. विविध पुरतालिका (किरणादि सहित)

पुर-परिचय—
   मगकुल में अनेकानेक विभूति हुए हैं,जिनके द्वारा विविध साहित्य-वाङ्गमय समृद्ध हुआ है। वेद-पुराणादि पूर्व ग्रन्थों के बाद का काल भी देखें तो ज्ञात होता है कि समय-समय पर छोटी-बड़ी अनेक पुस्तकें रची गयी हैं। प्रसिद्ध ज्योतिर्विद प्रातः स्मरणीय वराह मिहिर, पृथुयश...आदि के कृतित्व से दुनिया काय़ल है। पिछली शती में अनेक पत्र पत्रिकाएं भी प्रकाशित हुयी हैं। कुछ अभी भी हो रही हैं। शाकद्वीपीय ब्राह्मण बन्धु, मगोपाख्यान, मगदर्शन, मगतिलक, मगपरिचय, मगोत्कर्ष, मगमहिमा, मगव्यक्ति, मगबन्धु, अंशुमाली, मिहिरमहिमा,चन्द्रोदय, संज्ञादर्पण आदि के अवलोकन से मगों के विषय में अनेक सूचनायें मिलती हैं। शाकद्वीपीय मग संस्कृति (डॉ.गीता राय,तरुण प्रकाशन, लखनऊ) विशेष रुप से द्रष्टव्य है। संस्कृत और हिन्दी के अलावे जर्मन, फ्रैंच, अंग्रेजी, हिब्रू (यश्न-५१-१५) आदि भाषाओं में भी समय-समय पर शोधकार्य होते रहे हैं। ताम्रपत्र और शिलालेखों में भी मग-गरिमा का उज्ज्वल इतिहास दर्शित होता है।

   विभिन्न सूचनाओं के आधार पर पुर-गोत्रादि सारणियाँ भी कई तरह की मिलती हैं। इनमें कतिपय विरोधाभास भी झलकता है। पुरों की संख्या में काफी मतभेद है । बहत्तर,नब्बे वा एक सौ चौआलिस की बात की जाती है । किन्तु विशेष चर्चा मूल रुप से बहत्तर की ही है, जो अठारह के चतुर्गुण से बने हैं । पं.रामवक्श शर्माजी अपने एक आलेख में कहते हैं कि बहत्तरपुरों के बारे में अठारह वा सोलह गोत्रों का विवरण मिलता है । भविष्य पुराण, ब्रह्म पर्व अध्याय ७०-७१ , तथा १३९ से १४१ के विवरणों से काफी कुछ स्पष्ट होता है मगों के विषय में— मगः पञ्च विभागतः...।

  पूर्व अध्यायों में स्पष्ट किया जा चुका है कि सूर्यांश मूलतः आठ ही हुए। आगे का विकास इन मूल आठ से ही हुआ । जम्बूद्वीपीय विप्रों की तेजहीनता के कारण निराश-हताश साम्ब को स्वयं सूर्य ने ही दर्शन देकर आदेश दिया था कि शाकद्वीप से जाकर दिव्य ब्राह्मणों को ले आओ, ताकि सूर्य-प्रतिमा की स्थापना हो सके और कलिकाल में जम्बूद्वीप वासियों का कल्याण हो सके । पुनः कृष्ण-कृपादेश से पक्षीराज वैनतेय गरुड़ संवाहक बने शाकद्वीपियों को शाकद्वीप से जम्बूद्वीप तक लाने में, जो मात्र अठारह कुल (परिवार) जिनकी नाम चर्चा पूर्व अध्याय में की जा चुकी है, को चन्द्रभागातट पर ले आये । काफी लम्बे समय के बाद साम्ब द्वारा प्रथम सूर्य मन्दिर वहीं बना। (ऐसा नहीं कि इससे पहले स्थापित सूर्य-प्रतिमा थी ही नहीं जम्बूद्वीप में।

   भविष्यपुराण (१७२-४-६) में एक प्रसंग है— स्थानानि त्रीणि देवस्य द्वीपेऽस्मिन् भास्करस्य तु । पूर्वंमिन्द्रवनं नाम तथा मुण्डीरमुच्यते ।। कालप्रियं तृतीयं तु त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् । तथाऽन्यदपि ते वच्मि यत्पुरा ब्रह्मणोदितम् ।। चन्द्रभागतटे नाम्ना परं यत्साम्बसंज्ञितम् । द्वीपेऽस्मिन् शाश्वतं स्थानं यत्र सूर्यस्य नित्यता ।।
  ५०७४ वर्ष पूर्व का एक विवरण मिलता है कि देवसेन (विश्वसेन) परमार (पंवार) नामधारी एक राजा सूर्य-याग हेतु शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को सादर आमन्त्रित किया। इसी प्रसंग में आगे २०७४ वर्ष पूर्व (विक्रमसंवत् का प्रारम्भिक काल) का भी ऐतिहासिक विवरण मिलता है। इस सम्बन्ध में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया के कई रिपोर्ट द्रष्टव्य हैं ।
   
    शाकद्वीपियों की मूल पहचान— ये बहत्तर पुर पांच आम्नायों में बंटे हुये हैं। यथा—आर आम्नाय, अर्क आम्नाय, आदित्य आम्नाय, किरण आम्नाय और मंडल आम्नाय ।(ध्यातव्य है कि सनातन रुप से भी पांच आम्नायों की बात आती है,जिसे पुनर्स्थापित किया आद्यशंकराचार्य जी ने— सूर्य,विष्णु, शिव, गणेश और दुर्गा ।) साधना जगत में  इन पांचों का अपना विशिष्ट स्थान है। आम्नानाय विभाजन तक तो कोई संशय और मतभेद नहीं है । किन्तु आगे प्रत्येक आम्नायों की अन्तर्संख्या में मतभेद मिलता है । यथा— आरऽकादित्य किरणाः मण्डलोपाधि भेदतः । द्विसप्तति पुरा ख्याताः शाकद्वीपनिवासिनः ।। आराश्चतुर्विंशतिका अर्कासप्तप्रकीर्तिताः । आदित्या द्वादशः प्रोक्ताः करः सप्तदशः स्मृताः ।। प्रख्याता द्वादशादित्या मण्डला दशाष्टोपकीर्तिता । ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे चन्द्रभागानदीतटे । यथा श्रुतं यथाबुद्धि वक्ष्तेऽत्रयथाक्रमम् ।। श्रुतकीर्तिस्श्रुतायुश्च भरद्वाजः पराशरः । कौण्डिन्यः कश्यपो गर्गो भृगुर्भव्यमतिर्नलः ।। सूर्यदत्तोऽर्कदल्लश्च कौशिकश्चेति नामतः । ते ततः कृष्णमित्याहुः कृतकार्य्या वयं विभो ।। गोत्राणि तु सहस्राणि प्रयुतान्युर्क दानिच ऊनपंचास देवैषां प्रवरा ऋषिदर्शनात् ।। ....इत्यादि

     पुर, गोत्र और आम्नायों के अतिरिक्त या कहें इस विभाजन के कारण कुछ और भी विभेद हो जाते हैं । यथा—आस्पद,प्रवर,वेद,उपवेद,शाखा,सूत्र,पाद,शिखा, देवता इत्यादि । वर्तमान स्थिति इतनी चिन्ताजनक है कि ज्यादा से ज्यादा मात्र गोत्र  स्मरण है हमें और शेष सब विस्मृत हो चुके हैं । हमारी अहम् पहचान है पुर-व्यवस्था, जो कई मायने में वर्ण-व्यवस्था से भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है । किन्तु खेद की बात है कि इससे भी अनजान हो गये हैं अधिकांश मग । ऐसी स्थिति में जब कि प्रथम पहचान —पुर ही नदारथ है, फिर अन्तिम पहचान—कुलदेवता/देवी तक कैसे पहुँच पायेंगे ? और कुलदेवता का ज्ञान ही लुप्त हो गया, फिर तो विकास के सारे रास्ते ही अवरुद्ध हो गए । निष्काम भक्ति की बात और तर्क बिलकुल अलग है, किन्तु सकाम कर्म—  नित्य,नैमित्तिक और काम्य कर्मों की क्या गति होती होगी- सोचने वाली बात है, क्यों कि हमारी साधना का मूल बीज ही लुप्त हो गया है । हमारी परम्परा क्या रही है, हमें क्या-कैसे-क्यों करना है अपनी रक्षा और विकास के लिए—ये बिलकुल ज्ञात नहीं है । सुनी-सुनायी, कही-कहायी या देखा-देखी पिंडी, थापा या अन्य किसी चित्रित आकृति को बिलकुल अनजान विधि से (लुप्त पूजा-प्रक्रिया पूर्वक) पूजने को विवश हो गए हैं आज हम सभी । ज्यादातर लोगों के मन में ये जिज्ञासा भी नहीं उठती कि कुलदेवता कौन हैं । यत्किंचित के मन में इच्छा जागृत भी होती है यदि , तो वह पूछे-जाने किससे-कैसे?
  
   इस विषय की विशेष चर्चा हम अगले अध्यायों में पुनः करेंगे ।

      प्रसंगवश यहां संक्षेप में इन विविध नवीन पदों पर एक दृष्टि डाल लें, ताकि नयी पीढ़ी को किसी प्रकार का संशय न हो । इन विभाजनों के औचित्य और रहस्य को ठीक से हृदयंगम किया जा सके । स्वाभाविक है कि किसी चीज को अंगीकार करने से पहले उसका सही परिचय जानना आवश्यक होता है । क्यों कि बहुत बार ऐसा भी होता है कि सही परिचय (ज्ञान) (जानकारी) के बिना हम अच्छी और महत्त्वपूर्ण चीज को भी त्याग / खो देते हैं या नज़रअन्दाज कर जाते हैं और ठीक इसके विपरीत गलत,बुरी या हानिकारक चीज को अंगीकार किये बैठे होते हैं । विगत पांच हजार से अधिक वर्षों में हम मगों की भी यही गति हुयी है। अतः मूल कारणों को जानना-समझना अति आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
१.     पुर— संस्कृत में पुर ग्राम, नगर आदि (वास स्थान) को कहा जाता है। शाकद्वीप से आए हुए (बुलाये गए) अठारह कुल मगों को वासार्थ प्रत्येक कुल को चार-चार गांव दिये गये । इस प्रकार अठारह गुने चार यानी कुल बहत्तर पुर हुए । कुछ ऐसी भी मान्यता है कि प्रत्येक कुल में चार-चार सन्तानें हुयी और अठारह से बहत्तर हो गए । किन्तु यह तर्क जरा बेवजनी लगता है। एक कुल की चार सन्तानें हुयी यदि और इससे बहत्तरपुर की संख्या बनी, तो फिर विवाहादि में (एक से चार) यानी चार पुरों की वर्जना होनी चाहिए थी,जब कि पुरानी मान्यता भी यही चली आ रही है कि मातृपुर और पितृपुर से भिन्न पुर में विवाह किए जायें।
एक ऐसा भी प्रसंग मिलता है कि शाकद्वीप से लाये गए अठारह कुलों में क्रमशः चार— श्रुतकीर्ति,सुधर्मा,श्रुतायु और सुमति ने सन्यास ले लिया और बद्रीकाश्रम चले गए । यानी शेष चौदह कुलों के ही सन्तान आगे बहत्तर पुरों में प्रवर्द्धित हुए। (मगदर्शन, श्री गौरीनाथ पाठक,गुमला,झारखंड)
ध्यातव्य है कि  पुर के लिए कहीं-कहीं खाप शब्द भी प्रचलित है । यहां पुनः स्मरण दिला दूं कि पुर-व्यवस्था सिर्फ शाकद्वीपियों में ही है, किसी और जम्बूद्वीपीय ब्राह्मणों में नहीं । यदि हम पुर या खाप का नाम भूल विसार गए, तो समझें कि अपनी पहचान भूल गए । अब इसे आप पुर कह कर याद रखें या खाप कह कर। पहचान के लिए कुछ तो अंगीकार करना ही होगा। पुर हमारे मूल स्थान की सूचना देता है, जहां शाकद्वीप से जम्बूद्वीप आगमन के बाद पहली बार हमें टिकाया/ वसाया गया था । भले ही कालान्तर में वृत्ति, शिक्षा, या अन्य आपदाओं के कारण स्थानान्तरण या पलायन करना पड़ा  ।
२.     आम्नाय— बहत्तर पुरों को पांच प्रकार के आम्नायों में विभाजित किया गया है । यथा—आर,अर्क,आदित्य, किरण, कर और मण्डल। सभी पुर किसी न किसी आम्नाय में होंगे ही । हां, बहत्तर पुरों के अतिरिक्त आगे चल कर कुछ उपकिरण भी हो गये, जिनके आम्नाय का कोई प्रसंग नहीं मिलता है । या कह सकते हैं कि उनका आम्नाय(प्रकार) उपकिरण हो सकता है,जो विचारणीय है । इसे यों समझा जा सकता है कि कोई मूल ग्राम से अलग हट कर किसी कारण से अलग टोली(विगहा-वारी) वसा लिया हो । जैसे- पाठक विगहा, मिश्रविगहा, ब्राह्मणविगहा, वैद्यविगहा आदि । लेकिन कोई जरुरी नहीं कि वर्तमान के उन विगहों में वसे शाकद्वीपीय किसी पुर या आम्नाय में हों ही नहीं । वे किसी आम्नाय के भी हो सकते हैं, और बिना आम्नाय के भी । ध्यातव्य है ये उपकिरणादि व्यवस्था बहुत बाद में बनी है ।
३.     गोत्र— ऋग्वेद २-२३-२८ में गोत्र शब्द का व्यवहार समूह अर्थ में किया गया है । अथर्ववेद ५-२१-३ में भी कुछ ऐसा ही प्रयोग मिलता है । कौशिकसूत्र के एक मन्त्र के अनुसार भी मनुष्यों का एक दल ही अर्थ किया गया है । कहीं-कहीं एक ही पूर्वज वा वंशज के अर्थ में भी आया है । गुरु या पिता दोनों अर्थों में इसका व्यवहार हुआ है । वैवश्वत मन्वन्तर में गोत्र प्रवर्तक आठ पुरुष कहे गये हैं । यथा—विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽय गौतमः । अत्रिर्वशिष्ठः कश्यपः इत्येते सप्तर्षयः ।। महर्षि अगस्त आठवें ऋषि हैं । यानी मूल में ये आठ ही हैं । इन आठ के गोत्रावयव हैं -अन्यान्य गोत्र । यूं तो गोत्र असंख्य हैं— गोत्राणां तु सहस्राणि प्रयुक्तान्यर्बुदानि च । ऊनपञ्चाशदेवैषां प्रवरा ऋषिदर्शनात् ।।  किन्तु गोत्रों के व्यावर्तक ऋषियों की संख्या स्मृतिकारों ने मात्र ऊनचास (४९) ही स्वीकारा है । मान्य सभी संस्कारों में संकल्प-वाक्य में गोत्रोच्चार अत्यावश्यक कहा गया है । वस्तुतः गोत्रोच्चार करके हम उन ऋषियों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं । भगवत् स्मरण की तरह गोत्र प्रवर्तक ऋषियों का नाम लेना भी पुण्यकार्य है ।
ध्यातव्य है कि गोत्र का नाम किसी न किसी ऋषि के नाम से जुड़ा होता है । प्रायः सीधे उसी शब्द का प्रयोग करते हैं, तो कभी अपत्यार्थक शब्द-योजना का भी।  जैसे- भृगुगोत्र या कहें भार्गव गोत्र । गोत्र शब्द से दो तरह की सूचनायें मिलती हैं । या तो उस ऋषि के वंशज या उनके गुरुकुल के विद्यार्थी होने की सूचना है- गोत्र परम्परा । यही कारण है कि प्रायः ब्राह्मणेतर वर्णों के गोत्र भी एक समान हो जाते हैं । जैसे- भारद्वाज गोत्र का एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण ही हो, कोई जरुरी नहीं । कान्यकुब्ज, सरयूपारी, सारस्वत आदि जम्बूद्वीपीय ब्राह्मणों का भी भारद्वाज गोत्र हो सकता है । इतना ही नहीं एक क्षत्रिय या वैश्य भी इसी गोत्र का अधिकारी कहा जायेगा । अब यहां समस्या खड़ी होगी । सिर्फ गोत्रोच्चारण से कैसे विनिश्चय हो सकता है कि अमुक का वर्ण क्या है, या अमुक का प्रकार क्या है, अमुक की कोटि क्या है? अतः जान रखें कि समान गोत्र का होना समान वर्ण या जाति का होना कदापि नहीं हो सकता । ( हालाकि ये जाति शब्द ही बहुत बाद की चीज है।) ठीक वैसे ही जैसे एक ही विश्वविद्यालय में, या एक ही गुरु से पढ़े हुए अनेक विद्यार्थी अपने परिचय में एक ही बात तो कहेंगे न ! एक ही नाम लेंगे न ? गोत्र के सम्बन्ध में एक और विचित्र परम्परा है, जो काफी हद तक सही भी कही जा सकती है— वो है – जिसे अपने गोत्र का अतापता न हो, वह काश्यप गोत्र वाला कह सकता है स्वयं को । किसी कार्य में, संकल्पादि में अज्ञात गोत्र के स्थान पर काश्यप गोत्र कहा जा सकता है। ध्यातव्य है कि समस्त मानवी सृष्टि ही तो काश्यपी है, यानी कश्यप ऋषि से ही तो मैथुनी सृष्टि आगे बढ़ी है । शाकद्वीपियों में गोत्र-संख्या सोलह या अठारह कही गयी है ।
४.     आस्पद— पाणिनि-सूत्र अध्याय ६ पाद १ सूत्र १४६ में स्पष्ट है— आस्पद प्रतिष्ठायाम्...। प्रतिष्ठा प्राप्ति को आस्पद कहा गया है । इसे विधिवत प्रदान किया जाता था। इसी का बाद का रुप उपाधि है । जैसे—पाठक, मिश्र, उपाध्याय, भट्ट,पाण्डेय आदि । प्रारम्भ में ये उपाधियां कुल के मुख्य कर्म की सूचक थी । जैसे पठन-पाठन में रत रहने वाला पाठक कहा गया । औषधियों के निर्माण और मिश्रण कार्यरत को मिश्र कहा गया । वैसे शर्मा — कल्याणार्थक प्रयोग तो ब्राह्मण मात्र के लिए पूर्ण वैदिक परम्परा में है ही । किन्तु कालान्तर में इन उपाधियों की भरमार हो गयी । कुल, वंश, स्थान-ग्राम,शिक्षा,कर्म आदि की सूचनायें देने लगी ये उपाधियां । आज अनेक उपाधियां मिल जाती है शाकद्वीपियों की  भी, जो काफी भ्रामक हैं ।  इतना ही नहीं और आगे चल कर तो उपाधियों की खिचड़ी पक गयी । सामाजिक नियंत्रण और मर्यादा बिलकुल समाप्त सी हो गयी । जिसे जो मन अपने नाम के आगे उपाधि जोड़ लिया । वर्तमान में इनका कोई खास मोल या तथ्य नहीं जान पड़ता । ये उपाधियां न शाकद्वीपी होने का प्रमाण प्रस्तुत कर पा रही हैं और न वर्ण-जाति,कुल,स्थान आदि की ही सूचना देती हैं । सामाजिक स्थिति इतनी विकृत हो गयी हैं कि हम किसी को कुछ कह भी नहीं सकते । उपाधि मानो उपाधि न होकर चादर हो गयी - जिसे जो मन ओढ़ लिया । ध्यातव्य है आजकल जैसे प्रयुक्त टाइटल या सरनेम की परम्परा पहले बिलकुल नहीं थी । हम कहीं राम सिंह या लक्ष्मण सिंह, कृष्ण यादव, भारद्वाज पाठक जैसा कोई उपाधि सूचक शब्द नहीं पाते किसी ग्रन्थ में । किन्तु क्या किया जाय, कलिकाल का प्रभाव ऐसा है कि स्वामी और परमहंस जैसे महिमामय-गरिमामय आस्पदों को भी जब लोग मनमाने ढंग से ओढ़ ले रहे हैं, फिर शर्मा, पाठक आदि की क्या गिनती ! समाज में एक से एक पाखण्डी हैं,जो अपने नाम के आगे स्वामी और परमहंस का आस्पद धारण किये हुए हैं, किसी धर्माचार्य को इसकी परवाह भी नहीं है । महाक्रूर निर्दयी भी अपने नाम के आगे शर्मा (कल्याणकारी) जोड़ ले सकता है, और निरक्षर भट्टाचार्य भी स्वयं को पाठक सम्बोधित करा सकता है- ये सब समय की विडम्बना है।
५.     प्रवर— प्रवर की धारणा प्राचीन काल से ही गोत्र के साथ जुड़ी है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- वरण वा आवाहन करने योग्य । ऋग्वेद में प्रवर के स्थान पर आर्ष शब्द का प्रयोग मिलता है । प्रवर में उन ऋषियों के नाम लिए जाते हैं, जो प्राचीन काल से अग्न्यावाहन में दक्ष होते हैं । गृह्य सूत्रों एवं धर्मसूत्रों में कतिपय आचारों (संस्कारों) में प्रवर का प्रयोग अनिवार्य कहा गया है। धर्मसिन्धु में कहा गया है—गोत्रवंश प्रवर्तकऋषीणां व्यावर्तका ऋषिविशेषाः प्रवराः इति ।। यानी गोत्र संस्थापक को दूसरे गोत्र संस्थापक से भिन्न करे - वही प्रवर है । उपनयन की मेखला और चौल-संस्कार में बालों के गुच्छ की संख्या प्रवर की सूचना देती है । वस्तुतः प्रवर गोत्र का ही प्रवर्द्धित स्वरुप है । इसमें एक,तीन या पांच ऋषियों के नाम का प्रयोग होता है । जैसे—कश्यप,असित और दैवल- यह त्रिप्रवर हुआ । तात्पर्य ये है कि उक्त तीन ऋषियों को स्थापित किया जायेगा यज्ञोपवीत की गांठों में वा चौलकाल में केशगुच्छों में । किसी कुल का एक प्रवर होगा, किसी का द्विप्रवर तो किसी का पञ्चप्रवर भी होता है । यज्ञोपवीत में पड़ने वाली गांठें प्रवर की सूचना देती है, या कहें स्मरण दिलाने के लिए होती हैं । ध्यातव्य है कि जैसा कि आजकल मोटे धागे को मनमाने ढंग से काटकूट कर फंदा बना,गले में डाल लेते हैं, वास्तव में ये जनेऊ हुआ ही नहीं । जनेऊ के धागे की विशेष माप है, विशेष विधि है बनाने की, ऐंठने की, गांठें देने की, तोड़ने-काटने की । जल्दीबाजी और शॉर्टकट के जमाने में इस पूरी विधि को हम विसार चुके हैं ।
६.     वेद-उपवेद— सर्व विदित है कि वेद चार हैं । और पुनः उन चारों के एक-एक उपवेद भी हैं ।  इन चारों का अध्ययन-मनन सबके लिए आवश्यक है, किन्तु साधना-प्रक्रिया में किसी एक का ही तो प्रयोग होगा । एक व्यक्ति के लिए एक ही मार्ग का अवलम्बन उचित माना जाता है । इसी भांति बहत्तरपुरों में विभाजित शाकद्वीपियों का कोई एक ही वेद और तदनुसार एक ही उपवेद होगा – साधनाक्रम में।
७.     शाखा— माध्यन्दिनी,कौथुमी,शाकल आदि शाखायें कही गयी हैं । इनमें किसी एक का निर्देश किया गया है, किसी विशेष पुर वाले मगविप्र हेतु ।
८.     सूत्र— शाखाओं से आगे सूत्र की बात आती है । कात्यायनी, गोमिल,आश्वलायन आदि सूत्र कहे गए हैं । ये सब भी कोई एक ही निश्चित होगा एक गोत्र वाले का ।
९.     छन्द— छन्दशास्त्र (पिंगल) के अनुसार गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप , बृहति, पंक्ति, और जगति छः छन्द कहे गये हैं । कोई भी मन्त्र किसी न किसी एक छन्द में होगा, जो उसकी साधना का आधार होगा । अतः इसका सम्यक् ज्ञान भी आवश्यक है ।
१०.शिखा— वर्तमान समय में शिखा(चुटिया) हिन्दुत्व की पहचान बन कर रह गयी है सिर्फ । गैर हिन्दुओं में शिखा की परम्परा नहीं है । आधुनिक विचार वाले इसके रहस्य से अनजान होने के कारण इसका कोई महत्त्व और औचित्य नहीं समझते । सच पूछा जाय तो यह सिर में पीछे की ओर लटकने वाले गुच्छेदार बालों का कोई  डिजाइन या फैशन नहीं है, बल्कि योगशास्त्र और साधना विज्ञान का रहस्यमय संकेत है । शास्त्रों में इसकी स्थापना और आकार आदि के विषय में काफी कुछ कहा गया है । अलग-अलग व्यक्तियों (स्थिति और साधना-स्तर) के अनुसार इसके आकार का निर्धारण होता है । मुख्य रुप से ये वाम और दक्षिण दो ही प्रकार का होता है । शिखा में जो गांठ लगायी जाती है, उसमें पर्व और केशाग्र भाग का वाम-दक्षिण विचार रखना होता है – यही भेद है।
११.पाद— शिखा के अनुसार ही पाद का निर्धारण होता है । यानी शिखा दो प्रकार के हैं और पाद(पैर) तो दो होता ही है । इसका प्रयोग मुख्य रुप से पाद-प्रक्षालन के समय ध्यान रखते हुए किया जाना चाहिए । याने जिस व्यक्ति की वाम शिखा होगी, वो पहले वायें पैर का पक्षालन करेगा या करायेगा और दक्षिण शिखा वाला पहले दक्षिण पाद का ।

१२.   देवता— और सबसे अन्त में बात आती है देवता की ।  वैसे तो  मुख्य रुप से पञ्च देवोपासना(सूर्य, विष्णु, गणेश, शिव और दुर्गा) की बात कही जाती है, किन्तु प्रत्येक कुल के लिए किसी एक देवता/ देवी की साधना की परम्परा है । किस कुल में किसकी साधना करनी है यह ज्ञात होना अति आवश्यक है । इसके बिना सब अधूरा-अधूरा सा है । अज्ञानवश, प्रलोभनवश या आकर्षण वश कई बार लोग मूल के साथ अन्य देवता को भी अपना लेते हैं, यहां तक कि अपनी मूल साधना से बिलकुल विमुख हो जाते हैं। इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है- बहुत से शाकद्वीपी कुल में कुलदेवता को मदिरा-मांसादि त्याज्य तामसिक वस्तुओं का अर्पित करना । सोचने वाली बात है कि सूर्य का अंश दिव्य जन्मा शाकद्वीपी मांसाहारी कैसे हो सकता है । बहुत से लोग ऐसा तर्क देते हैं कि भावनिष्ठ बलि दें या कि वस्तुनिष्ठ बलि, बलि तो बलि है । वे लोग वस्तुतः बलि शब्द के मूल अर्थ , औचित्य, रहस्य और प्रयोग पर ध्यान नहीं देते, या जानकारी नहीं रखते । सीधी सी बात है— किसी कारण (अज्ञान, प्रलोभन, आकर्षण) वश कुल का कोई व्यक्ति (पूर्वज) दिग्भ्रमित हो गया, और अपने मूल देवता-देवी के साथ किसी दूसरे देवोपासना में लिप्त हो गया । उसका सुपरिणाम या कुपरिणाम (सिद्धि-असिद्धि) उसे जो भी मिला हो, आने वाली पीढ़ी अनजान या अज्ञान में उसे आँख मूंद कर ढोती चली गयी । कभी किसी सद्गुरु समक्ष जिज्ञासा करना भी आवश्यक नहीं समझी । हां, कभी किसी को इसका सही ज्ञान हो भी जाता है तो कुल-परम्परा को बदलने या सुधारने की साहस नहीं संजो पाता । अस्तु।
क्रमशः... 

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