शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधः पुण्यार्कमगदीपिका--अठारहवां भाग

गतांश से आगे...

अध्याय १३.    सामाजिक ईर्ष्या

        (गैर शाकद्वीपियों द्वारा विरोध और अवमानना)

   सम्प्रति समाज में मगों के विषय में तरह-तरह की भ्रान्तियां हैं। विशेषकर गोरण्ड मतावलम्बी इतिहासकारों द्वारा अज्ञानवश एवं किंचित जानवूझकर भी फैलायी गयी भ्रान्तियाँ वर्तमान समय में शाकद्वीपियों के लिए अधिक घातक सिद्ध हो रही हैं। उनके द्वारा किये गये तथाकथित शोध और रचे गए मिथ्या इतिहास के भंवर में विश्व के अन्यान्य लोगों के साथ-साथ भारतवासी भी उलझकर रह गए हैं । आर्यावर्त का गौरवमय इतिहास — वेदोपनिषद-पुराणादि को गणेरियों-चरवाहों का गीत और मिथक कह कर लांछित किया गया और फिर पश्चिमी छल-छद्मपूर्ण शोधों को ही ब्रह्मवाक्य जैसा मान लिया गया । अगणित (अनादि-अनन्त) वर्षों की सृष्टि-संरचना को हास्याष्पद बौने स्केल से नाप कर, B.C.और A.C. के क्षुद्र कालखंडों में समेट लिया गया । पुराणों में विवेचित सप्त महाद्वीपों को  मात्र भारत और इसके आसपास के क्षेत्रों में प्रमाणित करने की बचकानी हरकतें भी खूब की गयी। सच पूछें तो जम्बूद्वीप की सीमा का ही  सर्वसम्मत निर्धारण नहीं हो पाया है, फिर अन्य द्वीपों की क्या बात ! शाकद्वीप को भी पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा नापी-जोखी गयी दुनिया का ही हिस्सा मान लिया गया। और इस प्रकार इन्हें बाहरी सिद्ध करना और भी आसान हो गया ।
            श्रीकृष्ण-काल का ही एक विरोध प्रसंग है—एक बार नारदी और श्रीकृष्ण साम्ब-स्थापित सूर्य-मन्दिर में गए। वहां नियुक्त मगविप्रों ने उनका सत्कार किया और प्रसाद दिया,जिसे उनलोगों ने सहर्ष ग्रहण किया,किन्तु तत्रोपस्थित कृतवर्मा नामक एक स्थानीय द्विज ने प्रसाद लेने में असहमति जतायी। उनका कहना था कि शाकद्वीपीय अभोज्य हैं, अतः इनके हाथ का प्रसाद अग्राह्य है। उनकी शंका का निवारण करते हुए श्रीकृष्ण ने विस्तृत रुप से शाकद्वीप और शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का रहस्योद्घाटन किया। श्री कृष्ण ने यहां तक कह दिया कि इन दिव्य विप्रों की कृपा के बिना किसी मनुष्य की भुक्ति-मुक्ति सम्भव नहीं।  आश्चर्य की बात है कि दिव्यलोक के ये परम पवित्र प्राणी इस पापयुक्त पृथ्वी पर क्षणभर भी ठहर कैसे जाते हैं ?
यथा— य एते भोजका विप्राः आनीता मत्सुतेन वै । शाकद्वीपमितोगत्वा ज्ञानिनो मोक्षगामिनः ।। तान् दृष्ट्वा रुपतो वीर प्रवेशात्कर्मणस्तथा । कौतूहलं समुत्पन्नं हर्षश्च परतो मम ।। कथमेते क्षणमपि तिष्ठन्ति पृथिवी तले । येषां रविः सदा पूज्यो येषां मुक्तिः सदावसेत् ।। नागत्वा भोजकत्वं हि मोक्षमाप्नोति कश्चन । इदं मे मनसो ब्रह्मन् सदा संप्रतिभाति में ।(भविष्यपुराण अ.१४४)
  श्रीकृष्ण-व्यास संवाद क्रम में यहां काफी विस्तार से मगप्रशस्ति का अवलोकन किया जा सकता है। अखिल ब्रह्माण्डनायक लीलापुरुष श्रीकृष्ण,जिनके मुखारविन्द से लोकतारक  सर्वोपनिषदसार श्रीमद्भगद्गीता निःसृत है—ऐसे श्रीमुख से शाकद्वीपियों का गुणगान सुनकर किसी जम्बूद्वीपीय गौतम शापित को ईर्ष्या नहीं होगी ! किसी अमग को कैसे सह्य हो सकता है ! और वो भी तब, जब कि आते ही आते यहां(जम्बूद्वीप)के लगभग सभी आदरणीय पदों पर आसीन हो गया हो अपने दिव्य तेज-प्रभाव से ! भले ही कोई असक्य हो,अयोग्य हो,लाचार हो,निरीह हो, अज्ञानी हो, किन्तु अपना अधिकार खोना कैसे पसन्द करेगा ?
    शाकद्वीपियों ने अपने तेजप्रभाव से जम्बूद्वीपीय विप्रों ही नहीं , प्रत्युत नायकों, महानायकों,शूरवीरों तक को अभिभूत कर दिया था। उनके प्रताप का डंका सुदूर क्षेत्रों में भी प्रतिध्वनित हो रहा था । ऐसे में स्वाभाविक है कि सारे अयोग्य अपने आपसी वैर-भाव को भुलाकर एकत्र होना चाहेंगे किसी एक उद्देश्यपूर्ति हेतु। उस एकता का ही दुष्परिणाम है मगनिन्दा । पिछले समय में इनके विरोध में,इनके अपमान में काफी कुछ लिखे गए। पुराणेतिहासिक तथ्यों से भी काफी छेड़छाड़ किया गया।  उन लेखों,आलेखों,पुस्तकों,प्रपत्रों आदि का यहां नाम गिनाकर इस पुस्तिका का सुकलेवर विगाड़ना अच्छा नहीं होगा,अतः मूल विषय पर ही चर्चा करते हैं।  

   सिद्धान्त की बात है कि किसी राष्ट्र पर पूर्ण आधिपत्य प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम उसके सांस्कृतिक धरोहर को नष्ट करना चाहिए और फिर आपसी फूट— जाति,धर्म,ऊँच-नीच का विभेद पैदा करना चाहिए । पवित्र आर्यावर्त पर शासन करने के लिए म्लेच्छों और गोरंडों ने भी यही किया । इतना ही नहीं,उनके बाद स्वतन्त्र भारत के  नेतागण भी प्रायः वही किए और किए जा रहे हैं -  सिर्फ अपने सिंहासन के लिए ।
एक दूसरा सिद्धान्त ये भी है कि किसी झूठ को इतनी बार बोलो (प्रचारित करो) कि धीरे-धीरे सच साबित हो जाये—गोवत्सश्वान न्याय । वैश्विक राजनीति में इस सिद्धान्त का समय-समय पर बखूबी प्रयोग हुआ है और सफलता भी मिली है झूठे और चालबाजों को।
   शाकद्वीपियों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है । सुनियोजित ढंग से रचे गए इतिहास का परिणाम ये हुआ कि हम अपने असलियत से काफी दूर होते चले गये। गैरों के सुर में सुर मिलाकर हम भी वैसे ही प्रश्न चिह्न लगाने लगे आर्ष ग्नन्थों और मौलिक प्रमाणों पर , साथ ही अपने आसपास के बुद्धिजीवियों पर भी । बड़े-बुजुर्गों की बातें दकियानूसी और पुरानपंथी लगने लगी । नयी पीढ़ी परम्पराओं को जानने में जरा भी दिलचश्पी नहीं दिखाती । पुरानी पीढ़ी भी परम्पराओं के औचित्य और महत्त्व को समझाने के बजाय थोपने का प्रयास करती है। इस प्रकार वैचारिक जेनरेशन-गैप तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह सब बड़ी चिन्ता की बात है।
त्रिकालदर्शी, दिव्यद्रष्टा ऋषि-महर्षि तो गिरि-कन्दराओं में समाधिस्थ हैं। इतना सौभाग्य कहां कि वे आकर साक्ष्य उपस्थित करें, जब कि मगविभूतियों की कृतियों से हमारा विविध साहित्यिक वाङ्गमय भरा पड़ा है। इन्होंने अध्यात्म, चिकित्सा,तन्त्र,योग,खगोल,भूगोल,ज्योतिष,गणित,राजनीति आदि विविध क्षेत्रों में अपनी ख्याति स्थापित की है। आर्यभट्ट, आचार्य चाणक्य,वराहमिहिर,कमलाकर भट्ट, बाणभट्ट, शिवराज कौण्डिन्यायन आदि प्रमुख मगविभूतियों का नाम लेकर हम आज भी गौरवान्वित होते हैं ।
  वस्तुतः हमारा यह गौरवमय इतिहास ही हमारे प्रति अन्य लोगों को ईर्ष्या-दग्ध किया और हमारे विरुद्ध तरह-तरह के षड़यन्त्र रचे जाने लगे—कभी विदेशी सिद्ध कर, तो कभी वर्णसंकर कह कर।  हमारी जड़ों को उखाड़ने का पुरजोर प्रयास किया गया- पहले भी और आज भी।
  किन्तु सौभाग्य की बात है कि आततायियों द्वारा बहुत कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिए जाने के पश्चात् भी काफी कुछ अभी शेष है। वेद-पुराणादि जो उपलब्ध ज्ञान-कोष है, उनका सम्यक् अध्ययन,मनन,मन्थन करना होगा,तभी अज्ञान का पर्दा हटेगा और सत्य दृष्टिगोचर होगा,अन्यथा मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना।

शक-शाक-शाकद्वीप सम्बन्ध विचार-
   कुछ नितान्त अज्ञानी, प्रपंची, दम्भी, धूर्त लोगों द्वारा शकशब्द से शाकद्वीपीयों को जोड़ कर समाज में कई तरह की भ्रान्तियाँ फैलायी गयी।  सत्य यह है कि शकों का सदा से जम्बूद्वीप ही निवास स्थान रहा है। शाकद्वीप से उनका कोई लेनादेना नहीं है। इतिहास, पुराण, शिलालेखादि इस बात के प्रमाण हैं, वशर्ते कि निष्पक्ष रुप से (खुले दिमाग से) हम इन पर विचार करें।  
    शक, हूण, किरात आदि जम्बूद्वीप के विभिन्न जनपदों के वासी रहे हैं। (ध्यातव्य है कि यहां हम जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग कर रहे हैं,न कि किसी देश विशेष का नाम ले रहे हैं।)  बृहत्संहिता की व्याख्या करते हुए ९६६ई.सन् में उत्पलने लिखा कि शक साम्राज्य को जब सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने पराभूत कर दिया, तब नया संवत् अस्तित्व में आया, जिसे आज विक्रम संवत् कहा जाता है। विदेशी शकों को उखाड़ फेंकने के बाद तब के प्रचलित संवत्(कालगणनाक्रम) के स्थान पर विदेशियों और आक्रमणकारियों  पर विजय स्तंभ के रूप में विक्रम संवत् स्थापित हुआ। प्रारम्भ में इस संवत्‌ को कृतसंवत् के नाम से जाना जाता था। कालांतर में यह मालव संवत् के रूप में भी प्रख्यात हुआ। बाद में जब राष्ट्र प्रेम प्रतीक चिन्ह के रूप में महाप्रतापी विक्रमादित्य स्थापित हुए, तब मालवसंवत् शनैःशनैः, कई सुधारों को अंगीकार करते हुए, विक्रम संवत्‌ के रूप में पूर्ण रुप से स्वीकृत हो गया ।
   इसे हम सौभाग्य कहें या कि दुर्भाग्य लम्बी गुलामी से मुक्ति पाने के बाद - स्वतन्त्र भारत में(सन्१९५७)जब हम राष्ट्रीय कैलेण्डर का चुनाव करने बैठे, तो विक्रमीसंवत् को दरकिनार कर शकसंवत् को स्थापित करने का पुरजोर प्रयास किया गया। हालाकि अपनी लोकप्रियता के कारण विक्रम सम्वत् आज भी सिरमौर बना हुआ है, जबकि सरकारी कार्यों में भले ही गैगोरियन कैलेंडर को ढोये जा रहे हैं, और शकसंवत् भी लगभग समानान्तर रुप से जारी ही है। ज्ञातव्य है कि ये प्रचलित शकसंवत् विक्रमसम्वत् से काफी बाद का है। यथा- वर्तमान ई.सन् २०१७ में विक्रमसम्वत् २०७४ है, जब कि शकसम्वत् १९३९ है यानी १३५ वर्ष बाद की स्थापना है इसकी। इस प्रकार ई.सन् से ५७ वर्ष पुराना है प्रचलित विक्रमाब्द और शकसम्वत् से ७८ वर्ष पुराना है ई.सन्। फसली-१४२४,हिजरी-१४३८,बंगीय-१४२३ आदि संवत तो और भी नये हैं इनकी तुलना में।  
    हालाकि कुछ इतिहासकारों का ऐसा भी मत है कि शक प्राचीन आर्यों के वैदिक कालीन सम्बन्धी रहे हैं, जो शाकद्वीप पर बसने के कारण शाक अथवा शक कहलाये। शक्तिशाली राजा सगर द्वारा देश से बाहर निकाले गए थे, एवं लम्बे समय तक निराश्रय रहने के कारण अपना सही इतिहास सुरक्षित नहीं रख पाए। हूणों द्वारा शकों को शाकद्वीप क्षेत्र से भी खदेड़ दिया गया था, जिसके परिणाम स्वरुप शकों का कई क्षेत्रों में बिखराव हुआ। इस जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है। राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत कर देश से निर्वासित किया था। वर्णाश्रम धर्म आदि नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। उन्हीं के वंशज शक कहलाए।
आधुनिक विद्वानों का ऐसा भी मत है कि मध्य एशिया पहले शकद्वीप के नाम से प्रसिद्ध था। यूनानी इस देश को 'सीरिया' कहते थे। उसी मध्य एशिया के रहनेवाले शक कहे जाते थे। एक समय यह जाति बड़ी प्रतापी हो गई थी। ईशा से दो सौ वर्ष पहले इसने मथुरा और महाराष्ट्र पर अपना अधिकार कर लिया था । ये लोग अपने को देवपुत्र कहते थे। इन्होंने १९० वर्ष तक भारत पर राज्य किया था। इनमें कनिष्क और हविष्क आदि बड़े प्रतापी राजा हुए हैं।
भारत के पश्चिमोत्तर भाग कापीसा और गांधार में यवनों के प्रभाव के कारण शक समुदाय ठहर न सके और बोलन घाटी पार कर भारत में प्रविष्ट हुए। तत्पश्चात् उन्होंने पुष्कलावती एवं तक्षशिला पर अधिकार कर लिया और वहाँ से यवन हट गए । ७२ ई. पू. शकों का प्रतापी नेता मोअस उत्तर पश्चिमान्त के प्रदेशों का शासक था। उसने महाराजाधिराज महाराज की उपाधि धारण की, जो उसकी मुद्राओं पर अंकित है। उसी ने अपने अधीन क्षत्रपों की नियुक्ति की जो तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र और उज्जैन में शासन करते थे। कालांतर में ये स्वतंत्र हो गए। शक विदेशी समझे जाते थे, यद्यपि उन्होंने शैव मत को स्वीकार कर लिया था। मालव जन ने विक्रमादित्य के नेतृत्व में मालवा से शकों का राज्य समाप्त कर दिया और इस विजय के स्मारक रूप में विक्रम संवत् का प्रचलन किया जो आज भी हिंदुओं के धार्मिक कार्यों में व्यवहृत है। शकों के अन्य राज्यों को शकारि विक्रमादित्य (गुप्तवंश के चंद्रगुप्त द्वितीय) ने समाप्त करके एकच्छत्र राज्य स्थापित किया। हालाकि शकों को भी अन्य विदेशी जातियों की भाँति भारतीय समाज ने आत्मसात् कर लिया। शकों की प्रारंभिक विजयों का स्मारक शकसंवत् आज तक प्रचलित है।
इतिहासकारों का एक पक्ष ये भी हैशक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था। इनकी सही नस्ल की पहचान करना कठिन रहा है, क्योंकि प्राचीन भारतीय, ईरानी, यूनानी और चीनी स्रोत इनका अलग-अलग विवरण देते हैं। फिर भी अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि ' सभी शक स्किथी थे, लेकिन सभी स्किथी शक नहीं थे यानि 'शक' स्किथी समुदाय के अन्दर के कुछ हिस्सों का जातिय नाम था। शक एक प्राचीन ईरानी भाषा-परिवार की बोली बोलते थे और इनका अन्य स्किथी-सरमती लोगों से सम्बन्ध था। शकों का भारत के इतिहास पर गहरा असर रहा है, क्योंकि यह युएझ़ी लोगों के दबाव से भारतीय उपमहाद्वीप में घुस आये और यहाँ एक बड़ा साम्राज्य बनाया। आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय कैलंडर 'शक संवत् कहलाता है। बहुत से इतिहासकार इनके दक्षिण एशियाई साम्राज्य को 'शकास्तान' कहने लगे हैं, जिसमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, सिंध, खैबर, अफगानिस्तान आदि शामिल थे।  
५०० ई. के उपरान्त संस्कृत में लिखित सभी ग्रन्थ शक संवत् का प्रयोग करने लगे । हालाकि इस संवत् का यह नाम क्यों पड़ा, इस विषय में विभिन्न मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, इस विषय में अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सका है। यह एक कठिन समस्या है, जो भारतीय इतिहास और काल निर्णय की अत्यन्त कठिन समस्याओं में मानी जाती है। 
वराहमिहिर ने इसे शक-काल तथा शक-भूपकाल कहा है। उत्पल स्पष्ट कहते हैं कि जब विक्रमादित्य द्वारा शक राजा मारा गया तो नया संवत चला।  कुछ लोगों ने कुषाण राजा कनिष्क को शकसंवत् का प्रतिष्ठापक माना है। पश्चात्कालीन, मध्यवर्ती एवं वर्तमान कालों में ज्योतिर्विदाभरण में भी यही बात है, शकसंवत् का नाम 'शालिवाहन' है। किन्तु संवत् के रूप में शालिवाहन रूप तेरहवीं या चौदहवीं शती के शिलालेखों में आया है। यह सम्भव है कि सातवाहन नाम 'शालवाहन' बना और 'शालिवाहन' के रूप में आ गया।
ऊपर कही गयी विभिन्न ऐतिहासिक सूचनाओं पर अब जरा ध्यान दें—
वर्तमान में विक्रमसम्वत् २०७४ है और इससे ५७ साल पीछे है- विश्व प्रसिद्ध ई.सन् २०१७ तथा वर्तमान में शकसम्वत् १९३९ है ,यानी विक्रमसम्वत् से १३५ साल पीछे और ई.सन् से ७८ साल पीछे है। इन सबसे पुराना है गतकलि- यानी वर्तमान में कलियुग को व्यतीत हुए ५११८ वर्ष हो रहे हैं। विक्रमसंवत् से शालीवाहन शक एक सौ पैंतीस साल बाद का है। जाहिर है कि इसका संचालक(प्रवर्तक)वह प्राचीन शक नहीं हो सकता,जिसे विक्रमादित्य ने परिजित किया था। शाकद्वीपियों का जम्बूद्वीप में आगमन साम्ब के रवियज्ञ में हुआ,जो द्वापर के चतुर्थ चरण का प्रसंग है। ध्यातव्य है कि द्वापर की पूर्णायु आठलाखचौंसठहजार वर्ष माना गया है-पुराणों में। महाभारत विजय के पश्चात् युद्धिष्ठिर  छत्तीश हजार वर्ष राज्य करने के बाद,पौत्र परीक्षित को उत्तराधिकारी बना कर हिमालय गमन किए हैं(महाभारत)। साम्ब द्वारा सूर्य-स्थापन इससे काफी पहले हो चुका है। यानी ५११८ वर्ष से भी काफी पहले । ऐसे में शक-शाक सम्बन्ध का क्या औचित्य?
            शक चाहे जो भी हों,जब भी हों, शक शक थे, शाकद्वीपी नहीं। शाकद्वीपीय शाक हो सकते हैं, शक कदापि नहीं। शक और शाक में काफी अन्तर है- इसे आधुनिक वैयाकरणियों के साथ-साथ इतिहासकारों को भी ठीक से समझने का प्रयास करना चाहिए। शक और शाक के इसी शब्द-जाल में सामान्य जन ही नहीं किंचित विद्वत् जन भी उलझ कर रह गये हैं।
जरा सोचने वाली बात है कि जिस गुप्तवंश ने शकों का नाश कर शकारि विक्रमादित्य की उपाधि ग्रहण की, वे ही शकों को इस प्रकार पूजेंगे? उन्होंने तथा उनके वंशजों ने सदा शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को ही पूजा । अपने राज्य में ब्रह्मोत्तर भूमिदान दिया। इस सम्बन्ध में अनेक शिलालेख आज भी उपलब्ध हैं।
इतिहास साक्षी है कि विक्रमादित्य की राज्यसभा में नवरत्न हुआ करते थे। विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि — यथा— 
 धन्वन्तरिःक्षपणकोऽमरसिंहः     शंकूवेतालभट्टघटकर्परकालिदासाः ।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥
(वराहमिहिर,धनवन्तरि,क्षपणक,अमरसिंह,शंकु,वेताल भट्ट,घटकर्पूर,कालिदास और वररुचि)। स्पष्ट है कि इनमें मिहिर गोत्रीय शाकद्वीपीय ब्राह्मण वराहमिहिर स्थान पा चुके हैं, जो आचार्य आदित्यदास के पुत्र थे। इनके पुत्र का नाम पृथुयश था। इस कुल में सूर्योपासना की महान परम्परा रही।   ज्योतिष शास्त्र को क्रमबद्धता पूर्वक नयी दिशा देने में वराहमिहिर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वृहत्संहिता, वृहज्जातक, लघु जातक, पञ्चसिद्धान्तिका, टिकनिक यात्रा, वृहत्यात्रा वा महायात्रा, योगयात्रा (स्वल्पयात्रा), वृहत् विवाह पटल, लघु विवाहपटल, कुतूहलमंजरी, दैवज्ञवल्लभ, लग्नवाराहि तथा समाससंहिता आदि इनके चर्चित ग्रन्थ हैं। इनका जन्म विक्रमसम्वत् ५६२ यानी  ई.सन् ५०५ में हुआ था। (किंचित मत से - विक्रमसम्वत् ५५६ यानी ई.सन् ४९९ और मृत्यु ५८७ ई.सन्) अपनी बहुचर्चित पुस्तक वृहज्जातक में उन्होंने अपने विषय में लिखा है-  
       आदित्यदासतनयस्तदवाप्तबोधः काम्पिल्लके सवितृलब्धवर प्रसादः ।
       आवन्तिको मुनिमतान्यवलोक्य सम्यग्घोरां वराहमिहिरो रुचिरां चकार ।।

(काम्पिल्ल नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता आदित्यदास से ज्योतिषशास्त्र की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की, तदनन्तर उज्जैनी में जाकर रहने लगे, वहीं पर वृहज्जातक की रचना की।) युवावस्था में ही इन्हें कुसुमपुर (वर्तमान पटना) आने का अवसर प्राप्त हुआ,जहां महान खगोलविद-गणितज्ञ आर्यभट्ट (प्रथम) से मिलना हुआ। ज्योतिष के प्रति प्रेम तो वचपन से ही था, जो आर्यभट्ट से मिलने के बाद जीवन का ध्येय बन गया। कहा जाता है कि आर्यभट्ट ही इनके गुरु थे। ज्ञातव्य है कि खलोलवेत्ता आर्यभट्ट की वेधशाला कुसुमपुर में था,जो आज खगौल(दानापुर)के नाम से जाना जाता है।  

       वराहमिहिर का असली नाम विष्णुमिश्र था। मिहिर(मगों का एक पुर) इनका पुर था। इनके अद्भुत ज्योतिषीय ज्ञान से प्रभावित होकर सम्राट विक्रमादित्य ने विशेष आदरणीय वराहचिह्न अर्पित किया।  तभी से वे वराहमिहिर के नाम से विख्यात हुए।  

क्रमशः....

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