गतांश से आगे...
तेरहवें अध्याय का तीसरा भाग...
तेरहवें अध्याय का तीसरा भाग...
मग-मगध-सम्बन्ध विचार-
मगध (बिहार का एक खास क्षेत्र-पूरब में किउल से
पश्चिम में कर्मनाशा पर्यन्त । किंचित मत से काशी से अंगदेश- भागलपुर तक।) से भी
मग का सम्बन्ध जोड़ा जाता है— मगध शब्द की व्युत्पत्ति है—मगाः धीयन्ते यत्र
–मग को धारण करता हो जो—मग लोग निवास करते हों जहां, अथवा मगं दधाति इति मगधः – इस व्युत्पत्ति से
भी मगध को शाकद्वीपियों का सम्बन्ध जोडा जाता है,जो पूर्णतः अविवेकपूर्ण है।
हालाकि संयोग से बहत्तरपुरों में प्रायः पुर
मगध क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। मगों के प्रसिद्ध देवस्थल देव (औरंगाबाद), देव
वरुणार्क(भोजपुर), देव मार्कण्डेय, पंडारक (पटना), आदि भी मगध के अंग हैं, किन्तु
इससे मग ब्राह्मण का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।
मगध का अर्थ उक्त व्युत्पत्त्यानुसार स्वीकार कर
लिया जाए यदि, तो निश्चित है कि ऐतिहासिक क्रम बिलकुल बिगड़ जायेगा । ऐसा नहीं कि
मगों से ही मगध हुआ । मगों से मगध की प्रसिद्धि बढ़ी- ये भले कहा जा सकता है। जरासंध (कंस के स्वसुर) मगधराज कहे जाते थे।
स्पष्ट है कि मगध नाम उस समय भी था इस क्षेत्र का। इससे भी पीछे चलने पर त्रेता
में महाराज रघु की माता सुदक्षिणा को मागधी कहा जाने का प्रसंग पुराणों में मिलता
है। महाराज अज की पत्नी इन्दुमती भी मागधी कही जाती हैं। साम्ब द्वारा शाकद्वीपीय
तो उसके बहुत बाद बुलाये गए। ब्रह्मपुराण के सत्ताइसवें अध्याय में कहा गया है –
मल्ला मगधका नन्दा प्राच्याजनपदास्तथा ।
शलिकाः कुडकाश्चैव मागधाश्चतथैवच ।।
ऐसा भी प्रसंग आता है कि प्रारम्भ में तो साम्ब
द्वारा आमन्त्रित होकर ये चन्द्रभागा तट और आसपास के क्षेत्रों में ही बसे,किन्तु
बाद में मगध के राजा ने इन्हें अपने यहां बुलाया, और वासार्थ अनेक ग्राम दान में दिए।
इस सम्बन्ध में एक रोचक प्रसंग है – हो सकता
है कि शाकद्वीपियों के पुरों की संख्या में अन्तर(बहत्तर और इससे काफी अधिक- नब्बे
या एक सौ चौआलिस) इसी कारण आया हो, जिसका स्पष्ट इतिहास अभी अन्वेषण का विषय है।
पुर-संख्या और नाम की चर्चा पूर्व अध्यायों में की जा चुकी है।
मगों के विषय में मगकुलभूषण पं.वृहस्पति पाठकजी
के शब्दों में बड़ा ही सुन्दर वर्णन है, जिससे नयी पीढ़ी भले ही अनजान हो, किन्तु
प्रायः प्रत्येक पुरानी पीढ़ी अवगत है। वे कहते हैं – सात द्वीप प्रधान जग में शाकद्वीप
विराजहीं, तंह बसहीं चारों वरण निर्मल
कर्म करि शुभ साजहीं । तंह जाति ब्राह्मण मग कहावे क्षत्रियन मागम रहैं, वैश्य सब
मानस कहावै शूद्र के मन्दग कहैं ।।४।। तेहि द्विज अठारह कुल ले आये पीठ पर खग
जाईके, शाम्ब के रवियज्ञ कारण कृष्ण आज्ञा पाईके । सूर्य के
आराधना सब वेद विधि कियो हैं यथा,जो विदित है इतिहास में होइहें प्रकाशित सुनु तथा
।।५।। (पूरा गीत पूर्व अध्याय में दिया जा चुका
है।)
भोज-भोजक सम्बन्ध विचार तथा भ्रम-निवारण—
पूर्वकाल में आर्यावर्त में लम्बे समय तक
भोजवंश का शासन चला है। भोज नाम के एक महा प्रतापी राजा हुए हैं, जिनसे पालित नगर भोजपाल
नाम से सुख्यात था। कालान्तर में आर्यावर्त
के प्रधान स्थलों के नाम-परिवर्तन के संकटमय काल में इसका ही नाम
भोपाल(मध्यप्रदेश) पड़ गया।
भोज-भोजक सम्बन्ध विचार के पूर्व, जरा भोज के
सम्बन्ध में उपलब्ध आधुनिक इतिहास पर एक नजर डाल लें।
परमारभोज परमार के नवें राजा थे। परमार वंशीय राजाओं ने मालवा की राजधानी धारानगरी (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी
के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। भोज ने बहुत से युद्ध किए और अपनी प्रतिष्ठा
स्थापित की, जिससे सिद्ध होता है कि उनमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उनके जीवन का
अधिकांश युद्धक्षेत्र में व्यतीत हुआ, तथापि उन्होंने अपने राज्य की उन्नति में
किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। उन्होंने मालवा के नगरों व ग्रामों में
बहुत से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है। कहा जाता है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल को राजा भोज ने ही बसाया
था , तब उसका नाम भोजपाल नगर था , जो
कि कालांतर में भूपाल और फिर भोपाल हो गया। राजा भोज ने भोजपाल नगर के पास ही एक
समुद्र के समान विशाल तालाब का निर्माण कराया था, जो पूर्व
और दक्षिण में भोजपुर के विशाल शिव मंदिर तक जाता था। आज भी भोजपुर जाते
समय , रास्ते में शिवमंदिर के पास उस तालाब की पत्थरों की
बनी विशाल पाल दिखती है। उस समय उस तालाब का पानी बहुत पवित्र और बीमारियों को ठीक
करने वाला माना जाता था। कहा जाता है कि राजा भोज को चर्म रोग हो गया था तब किसी
ऋषि या वैद्य ने उसे इस तालाब के पानी में स्नान करने और उसे पीने की सलाह दी थी
जिससे उसका चर्मरोग ठीक हो गया था। उस विशाल तालाब के पानी से शिवमंदिर में
स्थापित विशाल शिवलिंग का अभिषेक भी किया जाता था।
परमार राजा देवसेन ने अपने यहां यज्ञ कराने
हेतु बहत्तर पुर वाले मगविप्रों में सत्रह कुलों(छः आर,एक अर्क,तीन आदित्य,चार
किरण और तीन मंडल आम्नाय)को आमन्त्रित किया। यज्ञोपरान्त इन सबों को मारवाड़ में
बसाया गया,जहां से धीरे-धीरे पूरे राजस्थान में फैल गए ।
(इस सम्बन्ध में डॉ.गीताराय का शोध ग्रन्थ—शाकद्वीपीय
मगसंस्कृतिःएक ऐतिहासिक अनुशीलन - द्रष्टव्य है।)
राजा भोज
स्वयं बहुत विद्वान थे और कहा जाता है कि उन्होंने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोश-रचना, भवन-निर्माण,
काव्य, औषध-शास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर
पुस्तकें लिखी हैं, जो अब भी उपलब्ध हैं। इनके समय में कवियों को राज्य से आश्रय
मिला था। उन्होंने सन् १००० ई. से १०५५ ई. तक राज्य किया । इनकी विद्वता के
कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित हुई –कहाँ राजा
भोज कहाँ गंगू तैली । ऐसा इसलिए कि राजाभोज बहुत वीर,
प्रतापी, पंडित और गुणग्राही थे। इन्होंने
अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक (करीब८४) ग्रंथों की रचना भी
की थी। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। इनकी
रचनाओं में सरस्वती कंठाभरण, श्रृंगारमंजरी,चारुचर्या, चंपूरामायण, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि प्रसिद्ध हैं। इनकी
सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था, जो
बहुत बड़ी विदुषी थी। जब राजा भोज जीवित थे तो कहा जाता था— अद्य धारा सदाधारा
सदालम्बा सरस्वती । पण्डिताः मण्डिताः सर्वे भोजराज भुविस्थिते।। (अर्थात- आज
जब राजा भोज धरती पर स्थित हैं, तो धारानगरी सदाधारा( अच्छे आधार वाली है,सरस्वती
को सदा आलम्ब मिला हुआ है,सभी पंडित समादृत हैं)। और जब उनका देहान्त हुआ, तो कहा
जाने लगा— अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती । पण्डिताः खण्डिताः सर्वे
भोजराजे दिवंगते ।। (अर्थात्- आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारानगरी
निराधार हो गयी है, सरस्वती आलम्ब विहीन हो गयी है, और सभी पंडित खंडित हो गये हैं,यानी
उनका आदर करने वाला कोई नहीं रहा अब।)
गुर्जर
सम्राट मिहिरभोज गुर्जर
प्रतिहार राजवंश के सबसे महान
राजा माने जाते है। इन्होंने लगभग ५० साल तक राज्य किया था। ये विष्णु के परम भक्त
थे। कुछ सिक्कों में इन्हें आदिवराह के रुप में दर्शाया गया है। मेहरोली नामक जगह
इनके नाम पर रखी गयी थी। राष्ट्रीय
राजमार्ग २४ का कुछ भाग गुर्जर सम्राट मिहिरभोज मार्ग नाम से जाना जाता है। गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का विशालतम
साम्राज्य था, जिसमें राजस्थान,मध्यप्रदेश,उत्तरप्रदेश,पंजाब हरियांणा,उड़ीशा,गुजरात,हिमाचल
आदि शामिल थे।
मिहिरभोज
ने ८३६ ई.सन् से ८८५ ई.सन् यानी ४९ साल तक राज किया। मिहिर भोज के साम्राज्य का
विस्तार आज के मुलतान से पश्चिम बंगाल में गुर्जरपुर तक और कश्मीर से कर्नाटक तक
था। मिहिर भोज के साम्राज्य को तब गुर्जर देश के नाम से जाना जाता था। ये धर्म
रक्षक सम्राट शिव के परम भक्त थे । स्कंदपुराण के प्रभास खंड में गुर्जर सम्राट
मिहिर भोज के जीवन के बारे में विवरण मिलता है। ४९ वर्षों
तक राज्य करने के पश्चात वे अपने बेटे महेंद्र पाल को राज सिंहासन सौंप कर सन्यास ले
लिए। अरब यात्री सुलेमान ने भारत भ्रमण के दौरान लिखी पुस्तक सिलसिलीउत तुआरीख ८५१ ई. में सम्राट मिहिरभोज को इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु बताया है , साथ ही मिहिरभोज की महान सेना की तारीफ भी
की है, तथा मिहिर भोज के राज्य की सीमाएं दक्षिण में राजकूटों के राज्य,
पूर्व में बंगाल के पाल शासक और पश्चिम में मुलतान के शासकों की
सीमाओं को छूती हुई बतायी है ९१५ ई. में भारत आए बगदाद के इतिहासकार अल-मसूदी
ने अपनी किताब मरूजुल महान में भी मिहिरभोज की छत्तीश लाख सैनिकों की पराक्रमी
सेना के बारे में लिखा है । इनकी राजशाही का निशान “वराह” था और मुस्लिम आक्रमणकारियों के मन में इतनी
भय थी कि वे वराह यानि सूअर से नफरत करते थे । मिहिरभोज
की सेना में सभी वर्ग एवं जातियों के लोगों ने राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार
उठाये और इस्लामिक आक्रमणकारियों से लड़ाई लड़ी।
सम्राट
मिहिर भोज के मित्रों में काबुल ,कश्मीर,नेपाल और आसाम के राजा थे। सम्राट मिहिर
भोज के उस समय शत्रु, पालवंशी राजा देवपाल, दक्षिण का राष्ट्र कटू महाराज आमोधवर्ष और अरब के खलीफा मौतसिम वासिक,
मुत्वक्कल,मुन्तशिर, मौतमिदादी थे । अरब के
खलीफा ने इमरान बिन मूसा को सिन्ध के उस इलाके पर शासक नियुक्त किया था, जिस पर
अरबों का अधिकार रह गया था। सम्राट मिहिर भोज ने बंगाल के राजा देवपाल के पुत्र
नारायणलाल को युद्ध में परास्त करके उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में सम्मिलित
कर लिया था । दक्षिण के राष्ट्र कूट राजा अमोधवर्ष को पराजित करके उनके क्षेत्र
अपने साम्राज्य में मिला लिये थे । सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पूरी तरह
पराजित करके समस्त सिन्ध गुर्जर साम्राज्य का अभिन्न अंग बना लिया था। केवल मंसूरा
और मुलतान दो स्थान अरबों के पास सिन्ध में इसलिए रह गए थे कि अरबों ने गुर्जर
सम्राट के तूफानी भयंकर आक्रमणों से बचने के लिए अनमहफूज नामक गुफाएं बनवाई
हुई थी, जिनमें छिप कर अरब अपनी जान बचाते थे । सम्राट मिहिर भोज नहीं चाहते
थे कि अरब इन दो स्थानों पर भी सुरक्षित रहें और आगे संकट का कारण बने,
इसलिए उसने कई बड़े सैनिक अभियान भेज कर इमरान बिन मूसा के अनमहफूज नामक जगह
को जीत कर गुर्जर साम्राज्य की पश्चिमी सीमाएं सिन्ध नदी से सैंकड़ों मील पश्चिम
तक पंहुचा दी और इसी प्रकार भारत देश को अगली शताब्दियों तक अरबों के बर्बर,
धर्मान्ध तथा अत्याचारी आक्रमणों से सुरक्षित कर दिया था। इस
तरह गुर्जर सम्राट मिहिरभोज के राज्य की सीमाएं काबुल से करांची व आसाम तक,
हिमालय से नर्मदा नदी व आन्ध्र तक, काठियावाड़
से बंगाल तक, सुदृढ़ तथा सुरक्षित थी ।
अरब
यात्री सुलेमान और मसूदी ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है ’गुर्जर सम्राट जिनका नाम वराहमिहिरभोज है।
उसके राज्य में चोर डाकू का भय कतई नहीं है। उसकी राजधानी कन्नौज भारत का प्रमुख
नगर है, जिसमें सात किले और दस हजार मंदिर है। गुर्जर सम्राट आदिवराह (विष्णु) का
अवतार माना जाता है। यह इस्लाम धर्म और अरबों का सबसे बड़ा शत्रु है। गुर्जर
सम्राट मिहिरभोज अपने जीवन के पचास वर्ष युद्ध के मैदान में घोड़े की पीठ पर
युद्धों में व्यस्त रहा। उसकी चार सेना थी उनमें से एक सेना कनकपाल परमार के
नेतृत्व में गढ़वाल नेपाल के राघवदेव की तिब्बत के आक्रमणों से रक्षा करती थी। इसी
प्रकार एक सेना अल्कान देव के नेतृत्व में पंजाब के वर्तमान गुजराज नगर के समीप
नियुक्त थी, जो काबुल के ललियाशाही राजाओं को तुर्किस्तान की तरफ से होने वाले
आक्रमणों से रक्षा करती थी। इसकी पश्चिम की सेना मुलतान के मुसलमान शासक पर
नियंत्रण करती थी। दक्षिण की सेना मानकि के राजा बल्हारा से तथा अन्य दो
सेना दो दिशाओं में युद्धरत रहती थी। सम्राट मिहिरभोज इन चारों सेनाओं का संचालन,
मार्गदर्शन तथा नियंत्रण स्वयं करता था। अपने पूर्वज गुर्जर
प्रतिहार सम्राट नागभट् प्रथम की तरह सम्राट मिहिरभोज ने अपने पूर्वजों की
भांति स्थायी सेना खड़ी की जो कि अरब आक्रमणकारियों से टक्कर लेने के लिए
आवश्यक थी । यदि नागभट् प्रथम के पश्चात के अन्य
सम्राटों ने भी स्थायी, प्रशिक्षित व कुशल तथा देश भक्त सेना
न रखी होती तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता तथा भारतीय संस्कृति व सभ्यता नाम की
कोई चीज बची नहीं होती । जब अरब सेनाएं सिन्ध प्रान्त पर अधिकार करने व उसको
मुस्लिम राष्ट्र में परिवर्तित करने के बाद समस्त भारत को मुस्लिम राष्ट्र
बनाने के लिए सेनापति मोहम्मद जुनेद के नेतृत्व में आगे बढ़ी, तो उन्हें सिन्ध से मिले गुर्जर प्रदेश को जीतना जरुरी था । इसलिए
उन्होंने भयानक आक्रमण प्रारम्भ किए। एक तरफ अरब, सीरिया व
ईराक आदि के इस्लामिक सैनिक थे, जिनका मकसद पूरी दुनिया में
इस्लामी हुकूमत कायम करना था और दूसरी तरफ महान आर्य-धर्म व संस्कृति के
प्रतीक गुर्जर योद्धा । अरबी
धर्मांध योद्धा ‘अल्लाह हूँ अकबर’
के उद्घोष के साथ युद्ध में आते तो मिहिरभोज की सेना जय
महादेव जय गुर्जेश्वर, जय महाकाल की ललकार के साथ टक्कर लेने
और काटने को तैयार थी । हिन्दू योद्धा रात्रि में सोये हुए सेनिकों पर आक्रमण को
धर्म विरुद्ध मानते थे, लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारी रात्रि के समय कभी भी हमला कर
देते। इस प्रकार के भयानक युद्ध अरबों व गुर्जरों में निरन्तर चलते रहे । कभी
रणक्षेत्र में भिनमाल,कभी हकड़ा नदी का किनारा, कभी भड़ौच व वल्लभी नगर तक अरबों के प्रहार हो जाते थे । कोई नगर
क्षतिग्रस्त और कोई नगर ध्वस्त होता रहता था । जन-धन की भारी हानि गुर्जरों को
युद्ध में उठानी पड़ी, जिनका प्रभाव अगले युद्धों पर पड़ा । बारह वर्ष तक इन भयानक
युद्धों में गुर्जरों के भिनमाल आदि अनेक प्रसिद्ध नगर बुरी तरह ध्वस्त व कई
राजवंश नष्ट हो गए और कई की दशा बहुत बिगड़ गई, परन्तु आर्य धर्म व संस्कृति के
रक्षक वीर गुर्जरों ने हिम्मत नहीं हारी । कश्मीर का सम्राट शंकरवर्मन मिहिरभोज का
मित्र था । मिहिरभोज के समय अरबों ने भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने का खूब प्रयास
किया लेकिन बहादुर हिन्दू गुर्जर सम्राट ने अरबों को कच्छ से भी निकाल भगाया,
जहाँ वे आगे बढ़ने लगे थे। इस वीर सम्राट ने अपने बाहुबल से खलीफा का अधिकार सिन्ध
से भी हटा लिया। मिहिरभोज का राज्याधिकारी अलाखान काबुल हिन्दूशाही वंश के राजा
लालिप को अरबों के होने वाले आक्रमणों के विरूद्ध निरन्तर सहायता देता रहा क्योंकि
उस समय काबुल-कन्धार भारतवर्ष के ही भाग थे। अब राष्ट्रीय राजमार्ग चौबीस जो
दिल्ली से लखनऊ को जोड़ता है का नाम भी दिल्ली सरकार ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज
के नाम पर रखा है और दिल्ली में निजामुद्दिन पुल है, जहां से यह राजमार्ग शुरू
होता है, वहां पर दिल्ली सरकार ने एक बड़ा सा पत्थर लगाया है, जिस पर लिखा है
गुर्जर सम्राट मिहिरभोज राष्ट्रीय राजमार्ग । इसी राजमार्ग पर स्थित स्वामी
नारायण संप्रदाय का अक्षरधाम मंदिर है। अक्षरधाम मंदिर में स्थित भारत उपवन में
गुर्जर सम्राट मिहिरभोज की धातु की
प्रतिमा लगी है, जिस पर लिखा है – महाराजा गुर्जर मिहिरभोज महान।
वस्तुतः
मिहिर और भोज शब्द का संयोग ही संशय का कारण बना। शाकद्वीपियों के विरोधी इसे कुछ
के कुछ प्रमाणित करने का प्रयास किए और गहराई से पुराणेतिहास को समझे-बूझे वगैर,अन्यान्य
लोग भी भ्रमित हो गए।
क्रमशः...
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