गतांश से आगे...
तेरहवें अध्याय का चौथा (अन्तिम)भाग
शाकद्वीपीय
ब्राह्मणों के नाम भेद-
प्रसंगवश
अब यहां भारत में पाये जाने वाले शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के नाम भेद की चर्चा करते
हैं। यह प्रसंग ब्रह्मयामल के चौदहवें अध्याय में आया है— शरद्वीपे च वेदाग्निः
शाकद्वीपे च साध्यकः । भूमध्ये ब्रह्मचारी च देवलो द्वारिकापुरे । कलिङ्गे
ज्ञानविप्रस्यादाचार्यो गौडदेश के । धर्माणे धर्मवक्ताच पांचाले शास्त्रिसंज्ञकः ।
सारस्वते शुभमुखो गान्धारे चित्र पंडिततः । कर्णाटे शुभ मुखश्चैव नैपाले
देवविप्रकः।। (शरद्वीप में वेदाग्नि,शाकद्वीप में साध्य,भूमध्य में
ब्रह्मचारी,द्वारिकापुरी में देवज्ञ, कलिंग (उड़ीसा)में ज्ञानी विप्र, गौड़ (बंगप्रान्त)
आचार्य, धर्मारण्य (अमरकंटक) में धर्मवक्ता, पंजाब में शास्त्री,सारस्वत (काश्मीर) में
शुभमुख,गन्धार में चित्रपंडित, कर्नाटक (मैसूर) में सुब्रमण्यम् और नेपाल में देवब्राह्मण कहे जाते
हैं। ब्रह्मयामल के सोलहवें पटल में उक्त प्रसंग का किंचित भेदयुक्त विस्तार भी
मिलता है,जो सम्भवतः प्रतिभेद है।
शाकद्वीपियों
के अड़तालिस प्रकार के नाम भेद मिलते हैं। यथा— शरद्वीपे च वेदाग्निः शाकद्वीपे
च सिद्धकः । भूमध्ये ब्रह्मचारी च दैवज्ञो द्वारिकापुरे ।। द्राविड़े मैथिले चैव
ग्रहविप्रेति संज्ञकाः । धर्माङ्गे धर्मवक्ता च पांचाले शास्त्रसंज्ञकः ।।
सारस्वते शुभमुखो गान्धारे चित्रपंडितः । तिरहोत्रे च तिथिवित् विनायके वेदपाठकः
।। रुद्रालये ज्योतिषीविप्रो ब्रह्मले विधिकारकः । वभ्राटे योगवेत्ता च नैपाले
देवपूजकः ।। राढ़देशे उपाद्यायो गयां तन्त्रदारकः । कलिंगे ज्ञानविप्रस्यात्
आचार्यो गौडदेशके ।।
स्मृतिसुधाकर
में उल्लेख है कि मगाः शाकद्वीपीय मध्यदेशो सूर्यद्विजत्वेन प्रसिद्धः...। अर्थात्
भारत के मध्यदेशों में वसने वाले शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यद्विज के नाम से जाने
जाते हैं। सूर्योपासना के साथ-साथ तन्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि इनकी परम्परा में
है। ये अपना इतिहास भी वैसा ही बताते हैं, जैसा अन्य क्षेत्रों के शाकद्वीपी
ब्राह्मण । इस प्रकार सूर्यद्विज,बरदोलाई,गोस्वामी आदि संज्ञायें भी मगों के लिए
प्रयुक्त होती हैं। कई इतिहासकारों ने भी यही राय व्यक्त की है। असम के राजाओं ने बिहार तथा बंगाल से लाकर अपने
यहां कुछ मग ब्राह्मणों को वसाया, जो बरुआ, गोस्वामी और बरदोलाई कहलाते हैं।
ध्यातव्य
है कि ये स्थानिक नाम भेद है, न कि आन्तरिक विशेष भेद । नाम-भेद की ये चर्चा यहां
इसलिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है, ताकि हम स्वयं को पहचान सकें और अपने आसपास को भी ।
मग-निंदकों
का दुष्प्रयास—
श्री
कृष्ण द्वारा मगों को दिया गया विशिष्ट सम्मान ही कालान्तर में गैर मगों के लिए
इर्ष्या-द्वेष का कारण बना । ऐसे में
प्रतिद्वन्द्विता-दोष स्वाभाविक है। क्यों कि जम्बूद्वीपीय ब्राह्मणों के तेजहीनता
के कारण ही शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को बुलाना पड़ा साम्ब के रवि-स्थापन-यज्ञ में ।
वेद,शास्त्र,पुराणादि
में शाकद्वीपियों को देव-पितृकार्यादि में परम श्रेष्ठ माना गया है। नियम है कि
सूर्यास्त के पश्चात् किसी तरह का श्राद्धकर्म (श्राद्ध के विविध रुप) नहीं करना
चाहिए, किन्तु यदि कोई शाकद्वीपीय ब्राह्मण वहां उपस्थित हो तो उसके समक्ष (साक्षी
में) किया जा सकता है। ऐसा इसलिए कि वह सूर्यांश
है। हीरे की कन्नी को भी हीरा ही कहा और माना जाता है। इसे कोयला कहने-समझने की
भूल न की जाय ।
यथा—
श्राद्धं त्वा तु यो भुंक्ते रवावस्तं गते सति । यातुधानैश्च तद् भुक्तं
कृतमप्यकृतं भवेत् ।। अस्तं मगे यदा सूर्ये न समाप्तिमगात् क्रिया । मगान्
संस्थाप्य यत्नेन कर्ता श्राद्धं समापयेत् ।। (स्कन्दपुराण
श्राद्धोल्लास प्रकरण)
किन्तु
यहां भी कुछ व्याकरण-विहीन अल्पज्ञ एक विचित्र भ्रान्ति फैला दिये हैं। उसके लिए
काल्पनिक प्रमाण देते हुए कहते हैं—
कुष्माण्डं
महिषीक्षीरं विल्वपत्रमगद्विजं , श्राद्धकाले
समुत्पन्ने पितरो यान्ति निराशयः । नवीन
संस्करण वाले गरुड़पुराण(प्रेतखंड) की प्रतियों में ये श्लोक मिलता है। कहते हैं कि कुम्भड़ा,भतुआ (पेठा),भैंस का दूध,
विल्वपत्र और मगब्राह्मण श्राद्ध कार्य में त्याज्य हैं, क्यों कि उनकी उपस्थिति (उपयोग)
से पितर निराश होकर चले जाते हैं। ध्यातव्य है कि विल्वपत्रम् और अगद्विजं
की सन्धि से विल्वपत्रमगद्विजं बना है। मूल में यहां ‘
अग ’
शब्द है, न कि मग । कुछ लोग अग यानी पहाड़ी ब्राह्मण कहकर एक नया द्वेष पैदा करने
की कुचेष्टा करते हैं,जबकि अग का शाब्दिक अर्थ है अपंग ब्राह्मण । किन्तु इसका ये
अर्थ भी न लगा लिया जाये कि अपंग को श्राद्ध-भोजन कराना अनुचित है। अपंग तो प्रेम
और दया का पात्र है।
इस
श्लोक के सम्बन्ध में एक और बात है कि निषिद्ध वस्तुओं के सम्बन्ध में अन्य
शास्त्रीय मतभेद है । कुष्मांड और भैंस का दूध तो निषिद्ध हो सकता है, किन्तु
बिल्वपत्र कैसे निषिद्ध कहा जा सकता है ? इसी भांति
दिव्यजन्मा मग हो या जम्बूद्वीपीय अग ।
उक्त
श्लोक के समतुल्य अन्य श्लोक भी मिलते हैं। यथा—
कुष्माण्डं
महिषीक्षीरं आढक्याराजसर्षपाः ।
मसूराश्चणकश्चैवषडेते
श्राद्ध पातकाः।।
(व्याघ्रपादस्मृति १७९)
कुष्माण्डं
महिषीक्षीरं आढक्येराजसर्षपाः ।
चणका
राजमाषाश्च घ्नन्ति श्राद्ध न संशयः।।
निर्णयात्मक
लोकचर्चित ग्रन्थ निर्णयसिन्धु में कहा गया है— विल्वपत्रादि पादत्रयं
स्वकलोपकल्पितं संयोज्य...अतएव कुत्रापि स्मृतौ पुराणे वा न लभ्यते...विल्वपत्रादि
न श्राद्धे निषिद्धं, अपि च महापवित्रम् ।
ब्रह्माण्डपुराण
के तृतीय उपोद्घात में कहा गया है —
विल्वेदुम्बरपत्राणि
फलानि समिधस्तथा ।
श्राद्धे
महापवित्राणि मेध्यानि च विशेषतः ।।
तथा
च — वृहत्पारासर
स्मृति २२६ –
कुष्माण्डं
गौर वृन्तान्कं वृहत्याश्चफलानि च ।
करीर
फल पुष्पाणि विडङ्गमरिचानिच....।
इसी
भांति याज्ञवल्क्य ४-९४ में कहा गया है—
कुष्माडावाल
वृन्तांका पालक्य तण्डुलीयकम् ।
कुष्ठान्नश्चदग्धान्नं
श्राद्धकर्मणि वर्जयेत् ।।
इन
सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि श्राद्ध में कुम्हड़ा (भतुआ भी), नारियल,
बैगन, पालक, चावल का माड़, विषैला और दग्ध अन्न, भैंस का दूध, राई, अरहर,मसूर, चना,
बहेरा, करीर, विडंग, काली मिर्च (गोलकी) इत्यादि वर्जित हैं । कालान्तर में इसी
क्रम में प्रमाद वा द्वेष वश किसी ने विल्वपत्र और मग को क्षेपित कर दिया है।
श्राद्धप्रकरण में
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को भोजन कराने के महत्त्व का विशद वर्णन भविष्यपुराण के १७२वें
अध्याय में मिलता है।
यथा—मगानां
भोजनं भक्त्या शक्त्यादानं प्रकल्पयेत् ।
दशपूर्वान् दशावरान् आत्मना सह भारत ।।
समादाय व्रजेत् स्थानं रवेरमित तेजसः ।
दैवपर्वोत्सवे श्राद्धे पुण्येषु दिवसेषु
च ।।
अर्थात्
शाकद्वीपीय ब्राह्मणों को भक्तिभाव पूर्वक श्राद्धादि में भोजन कराने और विविध
दानादि प्रदान करने से पितरों की दश पीढ़ी पूर्व और दश पीढ़ी पर,तथा स्वयं का परम
कल्याण होता है। इस प्रकार कुल इक्कीस पीढ़ी का कल्याण हुआ। इस लिए उत्तम
पर्वों,तिथियों,स्थलों पर भगवान भास्कर के उपासक को श्रद्धा पूर्वक भोजनादि
सम्पन्न करावे। इसी प्रसंग में यहां तक कहा गया है कि भोजक को एक दिन भोजन कराने
का फल सैंकड़ो यज्ञों के समतुल्य होता है,क्यों कि ये दिव्य विप्र सूर्यतेजोद्भुत
हैं।
भविष्यपुराण
के ही १४७वें अध्याय में कहा गया है कि देवद्विजमनुष्याणां पितृणां चापि पूजकाः
। ते प्रिया मम वै नित्य शक्ताः पूजयितुं रविम् ।। इत्यादि
मग-निन्दा
का प्रधान विन्दु-
एक
हास्यास्पद और नासमझी पूर्ण विरोध-विन्दु है—कहते हैं कि गरुड़ की पीठ पर अठारह
मगब्राह्मण आए साम्ब के सूर्यस्थापन यज्ञ में, जो गुप्तदान स्वीकृति के पाप से
क्षरित पुण्यवश पुनः वापस लौट नहीं सके अपने मूल धाम को; और साम्ब प्रदत्त बहत्तर ग्रामों
में बसने को विवश हुए। यानी कि वे यहीं जैसे-तैसे विवाहादि करके सन्तति वृद्धि किए
। इस प्रकार वर्ण-संकरता दोष-युक्त हैं ये ।
इस
सम्बन्ध में भविष्यपुराण ब्राह्मपर्व सप्तमीकल्प अध्याय १३९-१४० के कुछ श्लोकों का
यहां पुनः अवलोकन आवश्यक प्रतीत हो रहा है, जिसकी चर्चा इस पुस्तिका के सातवें
अध्याय में भी की जा चुकी है । उसी प्रसंग को यहां किंचित विस्तार से रखा जा रहा
है । ताकि भ्रमजाल टूटे ।
यथा—सूर्य-साम्ब
संवाद—
तान्
मगान् मम पूजार्थं शाकद्वीपादिहानय ।
आरुह्य
गरुड़ं साम्बः शीघ्रं गत्वाऽविचारयन् ।।
मगाब्राह्मणभूयिष्ठा
मानगाः क्षत्रियास्तथा ।
वैश्यास्तु
मानसा ज्ञेया शूद्रास्तेषां तु मन्दगाः ।।
इसी
प्रसंग में आगे शतानीक-सुमंतु संवाद है—
तथेति
गृह्य तामाज्ञां रवेर्जाम्बवतीसुतः ।
पुनर्द्वारवतीं
गत्वा कान्त्यातीव समन्वितः ।।
आख्यातवान्
पितुः सर्वं स्वकीयं देवदर्शनम् ।।
तस्माच्च
गरुडं लब्ध्वा ययौ साम्बोऽधिरुह्य तम् ।।
शाकद्वीपमनुप्राप्य
संप्रहृष्टतनूरुहः ।
तत्रापश्यद्यथोद्दिष्टान्
साम्बस्तेजस्विनो मगान् ।।
एवं
सआनयित्वा तु मगान् साम्बो महीपते ।
स
महात्मा पुरा साम्बश्चन्द्रभागासरितत्तटे ।।
पुरं
निवेशयामास स्थापयित्वा दिवाकरम् ।
कृत्वा
धनसमृद्धंतु भोजकानां समर्पयेत् ।।
तत्
पुरं सवितुः पुण्यं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
साम्बेन
कारितं यस्मात्तस्मात् साम्बपुरं स्मृतम् ।।
इसी
प्रसंग में आगे व्यास-साम्ब संवाद है, जिसे प्रमाण स्वरुप मग-निन्दक
प्रस्तुत करते हुए अपनी मूर्खता या कहें कुटिलता का परिचय देते हैं । शब्दार्थ का
हेरफेर यहां ध्यान देने योग्य है— शाकद्वीपं
मया गत्वा आनीता मगपुङ्गवाः ।
वालायौवनसम्पन्नाः
सन्निविष्टा मगोत्तमाः ।।
सत्कृत्य
पूजयित्वा तु पुरं तेषां समर्पितम् ।
संप्राप्य
तु पुरं ते वै ज्येष्ठमध्यकनीयसः ।।
भोजवंशसमुत्पन्नाः
कन्यकाः समलंकृताः ।
वरयित्वा
कृतं तेषां विप्रप्रणयनं शुभम् ।।
मगविभूति पं.रामधनपाठकजी अपनी पुस्तिका- ‘मगतिलक’
में इस सम्बन्ध में कहते हैं- अत्र वालानां
यूनां चागमनं नारीमन्तराऽसम्भवम् । अतः सस्त्रीकांस्त आगता इति सूचितम् ।
पुरमिति जातावेक वचनम् पुराणीत्यर्थः । द्वासप्ततिसंख्याका- नीति यावत् ।
सम्प्राप्य तु पुरं ते वै इति सम्प्राप्येति क्त्वाप्रत्ययसाधुत्वाय ख्याता इति
क्रियाध्याहारं कृत्वा तत् तत्पुरं प्राप्य तत्तत्पुरनाम्ना ख्याता इत्यर्थः ।
कनीयस इतिच्छान्दसत्वाद् द्वितीया ।
भोजवंश समुत्पन्ना इति भोजकवंश समुत्पन्ना इत्यर्थः । भोजकेभ्यो भोजककन्या
अर्थयित्वा तेषां भोजकानां मध्ये कुमाराणामित्यर्थः । नतु भोजक्षत्रियवंश समुत्पन्ना
इत्यर्थः ।
गुरुड़
द्वारा मगों के जम्बूद्वीप में पदार्पण के पश्चात् एक प्रसंग में श्रीकृष्ण नारद
से कहते हैं —
ये एते भोजका विप्रा आनीता मत्सुतेन वै । शाकद्वीपमित्येन
ज्ञानिनो मोक्षगामिनः ।। — (ये जो
भोजक ब्राह्मण मेरे पुत्र द्वारा शाकद्वीप से लाये गए हैं, वे सब ज्ञानी और
मोक्षगामी हैं।) ये संदेश ही पर्याप्त है कि मगों के लिए भोजक सम्बोधन पहले से ही
था। जम्बूद्वीप में आने और भोजकन्या से विवाह करने जैसा कुटिलतापूर्ण तर्क बिलकुल
निराधार है। भोजकन्या से उत्पन्न होने पर यदि ये सम्बोधन होता तो आते-आते ही कृष्ण
ऐसा कैसे कहते !
ध्यातव्य
है कि इसी अध्याय में प्रसंगवश कहा जा चुका है कि –
न
तेषां संकरः कश्चित् धर्माश्रयकृते क्वचित् ।
धर्मस्याभ्यभिचारित्वादेकान्तसुखिनः
प्रजाः ।। - साम्बपुराण के छब्बीसवें अध्याय में
भी समानार्थी प्रसंग है कि मगों में कोई वर्णसंकर दोषयुक्त नहीं है। धर्माचरणरत
सारी प्रजा अतिशय सुखी है।
क्षत्रिय राजा भोज वंशीया
कन्या से शाकद्वीपियों के वैवाहिक सम्बन्ध की बात प्रमाणित करके, शाकद्वीपियों को
वर्णसंकर साबित किया जाता है—इसमें एक और बात गौर करने लायक है कि क्या चार हजार
वर्ष तक कुंआरे पुरुषों की वंश-परम्परा यूं ही अंतरिक्ष में या कि विदेशियों की
लेबोरेट्री में चलती रही? राजाभोज कब हुए और शाकद्वीप से
मगों को लाया कब गया- इसके बीच की काल रिक्तता जो पुराणेतिहास सम्मत है , फिर ऐसी
मूर्खता क्यों ? काल के साथ आप कितना खींचतान करेंगे ?
यहां सबसे बड़ी बात समझ लेने जैसी है—
शाकद्वीप से गुरुड़ द्वारा मात्र अठारह पुरुष विप्र नहीं, बल्कि अठारह कुल
(सपरिवार) लाये गये। शास्त्रीय नियम और
परम्परा ये है कि ब्राह्मण को कभी अकेले आमन्त्रित नहीं करना चाहिए। कहीं
लाचारी में ऐसा करना भी पड़े यदि तो, उसके परिवार के प्रत्येक सदस्य के निमित्त
अन्नवस्त्रसुवर्णादि प्रदान करना चाहिए। अमान्न दान(सीधादेना) परम्परा के पीछे यही
मूल धारणा है । धीरे-धीरे ये परम्परा
अज्ञान और कंजूसी में विलुप्त होती चली गयी। इस प्रकार स्पष्ट है कि आगत अठारह
कुल, जो कि बहत्तर ग्रामवासी होकर बहत्तरपुर में विभक्त हुए, आगे विवाहादि सम्बन्ध
हेतु मात्र एक वा दो पुर (पितृपुर एवं मातृपुर) की वर्जना करते हुए, शेष
पुरवासियों से सम्बन्ध किये । ध्यातव्य है कि ये परम्परा सिर्फ मगों में ही नहीं, गयापालादि
अन्य दिव्यजन्मा ब्राह्मणों में भी है। गयापाल भी सीधे ब्रह्मांश हैं। योनिजात
नहीं ।(वायुपुराण)
वे
आपस में ही सम्बन्ध करते हैं- एक विशेष वर्जना सहित । क्यों कि उनका सही भागीदार (जोड़ी)
है ही नहीं पृथ्वी पर। शाकद्वीपी मूलतः सूर्यांश हैं। दिव्यजन्मा हैं, योनि-जन्मा
नहीं- इस बात को ठीक से हृदयंगम करना चाहिए।
---)ऊँ
श्री द्वादशात्मकार्पणमस्तु(---
क्रमशः...
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