शाद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिका- वाइसवां भाग

गतांश से आगे...
चौदहवें अध्याय का पहला भाग-

               १४.विडम्बना

कुछ ज्वलन्त प्रश्न

1.    शाकद्वीपी सब एक, फिर कुलदेवता/देवी अनेक— क्यों-कैसे?
2.    यदि ये कहें कि पुर के अनुसार कुलदेवता/देवी का निर्धारण हुआ है,फिर एक ही पुर-गोत्र में विभिन्न परम्परा क्यों?
3.    शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यांश हैं और सूर्योपासक भी। ऐसे में कुछ कुलों में मांसाहार कैसे प्रचलित हो गया, यहां तक कि कुलदेवता/देवी पूजा में भी मांस का व्यवहार करने लगे,जैसे पूर्णाडीह,गिरीडीह,कौरा आदि ।
4.    शाकद्वीपीय पारम्परिक तान्त्रिक,ज्योतिषी और वैद्य – कितना सत्य?
5.    साम्ब को रोगमुक्ति क्या आयुर्वेदिक उपचार से मिली?
6.    इतनी जल्दी इतने तेजहीन क्यों और कैसे हो गये?
7.    ….

उक्त प्रश्नों का समुचित उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करते हैः-

प्रश्नांक .— शाकद्वीपीय सब एक,फिर कुलदेवता/देवी अनेक— क्यों-कैसे?
                शाकद्वीपी विप्र मात्र मग हैं, यानी सूर्यसाधक, सूर्योपासक हैं। ऐसी स्थिति में तो एक मात्र उपासना सूर्य की ही होनी चाहिए थी। वही सबके कुलदेवता कहे जाते।
देवी-देवताओं का वैविध्य गम्भीर विचार हेतु वाध्य करता है।
सूर्यनारायण तेज(अग्नितत्त्व) के आदि स्रोत हैं। आकाशात्वायुः, वायोरग्निः...। वायु (प्राणादि) के अधिष्ठाता यही हैं।  महाशक्तिमान हैं। शक्तिमान (शक्ति को जो धारण किए हुए है)—स्पष्ट है कि शक्तिमान का अन्तस्थ तत्त्व है— शक्ति। ये वही शक्ति है,जो आकाश से वायु को > वायु के अधिपति सूर्य को प्राप्त हुयी। यही शक्ति अग्नि में आकर पूर्णतः व्यक्त (मुखर) हुयी। ये शक्ति कोई और नहीं, प्रत्युत आकाशस्त नारायणी शक्ति की नवदुर्गा रुप की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि सूर्य को सूर्यनारायण कहते हैं। नारायणि शक्ति युक्त इसी सूर्य को साधना है हमें।
शक्तिमान को पाने के लिए शक्ति का सहारा लेना स्वाभाविक रुप से अनिवार्य है। आवश्यकता और स्थिति के अनुसार इस महाशक्ति के अनेकानेक स्वरुप हुए हैं। अग्नि की प्रचण्ड लपट जैसे वायु का सहयोग पाकर नाना आकृति धारण करती है, उसी भांति परिस्थितिवश शक्ति के भी अनेकानेक स्वरुप कल्पित हुए। मूलतः व तत्त्वतः जरा भी भेद नहीं होने पर भी गायत्री,सावित्री,तारा,काली,दुर्गा,बगला, पद्मावती, त्रिपुरसुन्दरी,धूमावती,छिन्नमस्ता,कात्यायनी... आदि-आदि अवस्थागत अनेकानेक भेद हैं। इस प्रकार शक्ति के विविध स्वरुप कल्पित और मान्य हैं। श्रीदुर्गासप्तशती,देवीभागवत आदि के अध्यवसायी ( मात्र पाठी नहीं) इस बात से भलीभांति परिचित हैं। अतः इसमें जरा भी भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है कि हम सूर्य की आराधना न करके, देवी की आराधना क्यों करने लगे । ध्यातव्य है कि उपनयनोपरान्त गायत्री की दीक्षा दी जाती है। ये गायत्री कोई और नहीं सविता (सूर्य) की ही महाशक्ति हैं। (नयी पीढ़ी वाले युवक सविता को कोई देवी न मान बैठें। सविता सूर्य का ही एक नाम विशेष है) अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वे प्रभवन्त्यहरागमे...(गीता) अव्यक्तः — मनोबुद्धिन्द्रियाद्य विषयः । अहरागमे प्रलमानो सवितृ रुपेण समुदिते व्यक्तयः प्राणिनः प्रभवन्तीति । सविता रुपी ब्रह्म से ही संसार का उद्भव हुआ । सविता में ही समस्त देवों का अन्तर्भाव है। सूर्यमंडल से आती हुयी ब्राह्मी,वैष्णवी, शैवी गायत्री स्वरुपों के सम्यक् ध्यान का यही औचित्य है। गायत्री का सहारा लिए वगैर हम सूर्य-शक्ति को कदापि प्राप्त नहीं सकते ।
अतः वेदमाता गायत्री के अवलम्ब सहित, कुलदेवता की सम्यक् आराधना करते हुए ही स्वयं को ऊर्जस्वित रखा जा सकता है । इससे अच्छा और कोई दूसरा उपाय नहीं हो सकता ।

प्रसंगवश एक बात और स्पष्ट कर दूं कि पुराणों में विशद रुप से कई जगहों पर आया है कि सूर्यमण्डल में केवल सूर्य, अकेले नहीं हैं,प्रत्युत सभी देवी-देवता,ऋषि आदि भी उपस्थित हैं। ज्ञातव्य है कि साल के बारहों महीनों के सूर्य एक ही नहीं बल्कि बारह होते हैं। तदनुसार साथ में परिभ्रमण करते ऋष्यादि भी बदलते रहते हैं। इसे राशिक्रम में रखने पर चैत्र मास के लिए मीन राशि होगी, वैशाख के लिए मेष राशि इत्यादि । वस्तुतः यही सूर्य मास है।

इसे आगे की सारणी में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है,जो श्रीमद्भागवत स्कन्ध १२ अ.११ श्लो. ३३ से ४४ के आधार पर बनाया गया हैः—
                    
                

         आदित्य-व्यूह-विवरण (चैत्रादि मासों में स-गण सूर्य)

क्र.
मास
सूर्य
अप्सरा
राक्षस
सर्प
यक्ष
ऋषि
गन्धर्व
१.
चैत्र                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             
धाता
कृतस्थली
हेति
वासुकि
रथकृत्
पुलस्त्य
तुम्बुरु
२.
वैशाख
अर्यमा
पुंजिकस्थला                       
प्रहेति
कच्छनीर
अथौजा
पुलह
नारद
३.
ज्येष्ठ
मित्र
मेनका
पौरुषेय
तक्षक
रथस्वन
अत्रि
हाहा
४.
आषाढ़
वरुण
रम्भा
चित्रस्वन
शुक्रनाग
सहजन्य
वशिष्ठ
हूहू
५.
श्रावण
इन्द्र
प्रम्लोचा
वर्य
एलापत्र
स्रोता
अङ्गिरा
विश्वावसु
६.
भाद्र
विवस्वान्
अनुम्लोचा
व्याघ्र
शंखपाल
आसारण
भृगु
उग्रसेन
७.
आश्विन
त्वष्टा
तिलोत्तमा
ब्रह्मापेत
कम्बल
शतजित्
जमदग्नि
धृतराष्ट्र
८.
कार्तिक
विष्णु
रम्भा
मखापेत
अश्वतर
सत्यजित्
विश्वामित्र
सूर्यवर्चा
९.
अगहन
अंशु
उर्वशी
विद्युच्छत्रु
महाशंख
तार्क्ष्य
कश्यप
ऋतसेन
१०.
पौष
भग
पूर्वचत्ति
स्फूर्ज
कर्कोटक
ऊर्ण
आयु
अरिष्टनेमि
११.
माघ
पूषा
घृताची
वात
धनञ्जय
सुरुचि
गौतम
सुषेण
१२
फाल्गुन
पर्जन्य
सेनजित
वर्चा
ऐरावत
क्रतु
भारद्वाज
विश्व

भविष्योत्तरपुराणान्तर्गत आदित्यहृदयस्तोत्र के श्लो.सं.५४-५८ में किंचित भिन्न क्रम में बारह महीनों के सूर्य की चर्चा है,जिसकी आराधना से पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि कही गयी है। ध्यातव्य है कि यहां मास क्रम भी माघ से प्रारम्भ है। यथा— अरुणोमाघमासे तु सूर्यो वै फाल्गुने तथा । चैत्रमासे तु वेगांगो भानुर्वैशाखतापनः ।। ज्येष्ठमासे तपेदिन्द्र आषाढ़े तपते रविः । गभस्तिः श्रावणेमासे यमो भाद्रपदे तथा ।। इषे सुवर्णरेताश्च कार्तिके च दिवाकरः । मार्गशीर्षेतपेन्मित्रः पौषे विष्णुः सनातनः ।। पुरुषस्त्वधिकेमासे मासाधिक्येषु-कल्पयेत् । इत्येते द्वादशादित्याः काश्यपेयाः प्रकीर्तिताः ।। उग्ररुपोमहात्मानस्तपन्ते विश्वरुपिणः । धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रस्फुटोहेतवोनृप ।।

ध्यातव्य है कि  माघ के महीने में ही मकर की संक्रान्ति होती है, जो सिर्फ शाकद्वीपीय ही नहीं,प्रत्युत सर्वसामान्य के लिए अति पुण्यकारी काल होता है। माघ की महत्ता को विस्तार से समझने के लिए पुराणान्तर्गत माघ माहात्म्य का अवलोकन करना चाहिए।

ऊपर के दो प्रसंगों में द्वादश सूर्य के क्रमभेद से भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। साधना-पद्धति-भेद से दोनों अपने स्थान पर अनुकूल ही हैं।

अब , प्रसंग के मूल में आते हैं—कुलदेवता की अनेकता वा एकरुपता पर। बारह सूर्य, पांच तत्त्व (तन्त्र में छत्तीश तत्त्व तथा सांख्य में पच्चीस तत्त्व),पांच आम्नाय (तन्त्र में षडाम्नाय), तीन गुण, द्विधा, मुख्य दो मार्ग (कुल—श्रीकुल, कालीकुल), शाकद्वीप से अठारह कुलों का आगमन और पुनः बहत्तरपुरों में विस्तार—कैसी विलक्षण तन्त्र-व्यवस्था है- साधना की, साधक के कल्याण की—इन सब पर गहराई से विचार करने पर व्यवस्थापक (पूर्वजों) के चरणों में नतमस्तक हो जाना पड़ता है भावविह्वल होकर । सूर्यतन्त्र की इस पूरी व्यवस्था को श्रद्धापूर्वक हृदयंगम करने की आवश्यकता है। फिर आत्मसात करने की आवश्यकता है। सारा संशय दूर हो जायेगा।  श्रद्धा-भक्ति-विश्वास पूर्वक पग बढ़ाने की आवश्यकता है। सूर्यमंडल में बैठे हमारे पूर्वज सहर्ष हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।


मगबन्धु के मग विशेषांक में यही सारणी किंचित भिन्नता युक्त है । साथ ही वहां क्रमशः बारह आचार्यों की भी चर्चा है कि शाकद्वीप से बारह आचार्य आए। प्रत्येक अपने साथ प्रत्येक वेदों के एक-एक ज्ञाता और सहयोगी लेते आए । यानी चार ज्ञाता, एवं एक सहयोगी - इस प्रकार १+४+१ = ६ हुआ । बारह आचार्यों के छः-छः के इस समूह से ही १२ x=७२ पुर हो गए। वहां इस सूचना का स्रोत स्पष्ट नहीं है। बारह आचार्यों में क्रमशः बारह पुरों के नाम गिनाये गए हैं, जिसका कोई औचित्य स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। क्यों कि ऐसा कोई प्रमाण अब तक नहीं मिलता कि पुरसंज्ञा सहित मग वहां से आए। फिर बारह की संख्या भी विचारणीय है। बारह महीनों पर तो सही बैठ रहा है,किन्तु अन्य पौराणिक प्रसंगों से बारह और अठारह का भ्रम पैदा हो रहा है। जानकारी के लिए यथावत उस पुर सूची को यहां दिए दे रहा हूँ। यथा— उरवार,छेरियार,मखपवार,देवकुलिआर,डुमरिआर,ओडरीआर, भलुनिआर, पवईआर, पोतिआर,अदईआर,पड़रिआर और सरईआर । बहत्तर में उक्त बारह का चयन कई प्रश्न चिह्न लगा रहा है। अस्तु।

क्रमशः..

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