शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिका--चौबीसवां भाग

गतांश से आगे...

चौदहवें अध्याय का तीसरा भाग-

प्रश्नांक .— शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यांश हैं और सूर्योपासक भी । ऐसे में कुछ कुलों में मांसाहार कैसे प्रचलित हो गया, यहां तक कि कुलदेवता/देवी पूजा में भी मांस का व्यवहार करने लगे,जैसे पूर्णाडीह,गिरीडीह,कौरा आदि ।
शाकद्वीपीय ब्राह्मण सूर्यांश हैं और सूर्योपासक भी। पिछले प्रसंगों में मगों के विषय में काफी कुछ कहा जा चुका है। ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक है- अन्य समाज में या अपनों के बीच भी कि सूर्योपासक यानी परम वैष्णव का एक विशिष्ट स्वरुप- उस सूर्य का उपासक (साधक) जहां लवण और तैल भी वर्जित है, कुछ खास कुलों में सीधे मांसाहार कहां से प्रविष्ट हो गया ?
जिन कुलों में ऐसा हो रहा है,उनसे सवाल करने पर सीधे उत्तर देते हैं कि 1. हमारी कुलदेवी तारा हैं,काली हैं,दुर्गा हैं...इत्यादि,जिनके लिए बलि अनिवार्य है।  2. सूर्य की क्या वाम तन्त्र साधना नहीं है?
3.कुष्माण्ड,माषादि की बलि देते हैं- कल्पित गौ,छाग,महिष, मीनादि के रुप में,और स्वयं को परम वैष्णव कहते हैं। यदि सीधे इन जीवों की बलि दी जाय देवी के लिए तो क्या बुराई है?...
         और भी कुछ ऐसी बातें,ऐसे ही तर्क समाज में सुनने को मिलते हैं। ये भी नहीं कि कहने वाले कोई मूर्ख,आज्ञानी लोग हैं। जानकार हैं। समझदार भी हैं। किन्तु असली बात कहने में संकोच करते हैं, या हो सकता है असली रहस्य उन्हें भी ज्ञात ही न हो।
इस गम्भीर विषय पर हर तरह से जानकारी लेने का काफी प्रयास किया, किन्तु बात कुछ खास बनी नहीं । मुझे तो यही लगता है—कहीं न कहीं चूक हुयी है इन लोगों से। वामतन्त्र के चमत्कार आकर्षित किये होंगे...किसी अनाड़ी गुरु का सानिध्य मिल गया होगा...प्रलोभन देकर किसी ने अपने मार्ग में घसीटा होगा...कुल में कोई ऐसे साधक हुए होंगे, जो पहले गुप्त रुप से मूल साधना से हट कर अन्य साधना भी करते होंगे, और वहीं बाद में मूल लुप्त होकर,गौण प्रधान बन गया। आने वाली पीढ़ी ने इस बात का विचार करना भी आवश्यक न समझा। स्वाभाविक है- घर का बच्चा प्रसाद के नाम पर मांसाहार किया, और उसी वातावरण में पला-बढ़ा । मांस खाना अच्छा लगने लगा । फिर विरोध या विचार करने का विवेक ही कहां रह जायेगा ? फुरसत भी किसे है विचार के लिए।
सच पूछा जाय तो तथाकथित परम्परा शब्द भी बड़ा विचित्र है। कौन सी भूल कब परम्परा का रुप ले ले,कहा नहीं जा सकता। जरा भी आवृत्ति हुयी किसी घटना की, कि चट परम्परा का मुहर लग जाता है। और फिर वुद्धि, विचार, विवेक को पास फटकने भी नहीं दिया जाता । परम्परा में यत्किंचित भी परिवर्तन करने का साहस नहीं हो पाता। मड़वा में बिल्ली बाँधने वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। सच पूछा जाए तो परम्परा-परिवर्तन(गलत का सुधार) हेतु साहस, विवेक और ज्ञान तीनों की आवश्यकता होती है।
(इस प्रसंग में किसी बन्धु को कुछ स्पष्ट कारण ज्ञात हो तो कृपया सूचित अवश्य करेंगे)

प्रश्नांक शाकद्वीपी पारम्परिक तान्त्रिक,ज्योतिषी और वैद्य – कितना सत्य?
   ये सत्य है कि शाकद्वीपीय तन्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेदादि निष्णात हैं। सरस्वती के वरदहस्त शाकद्वीपियों के तेज और प्रतिभा का कितना हूँ वर्णन किया जाय कम ही है। शाकद्वीपीय मूलतः सूर्यतन्त्र के साधक हैं। सूर्यतन्त्र अपने आप में अद्भुत है। सृष्टि-संरचना और प्रसरण में सूर्य का बहुत बड़ा योगदान है। सूर्य के विभिन्न नाम- आदित्य,मार्तण्डादि शब्दों की व्युत्पत्ति पर ध्यान देने पर ये बातें और भी स्पष्ट होजाती है— आदित्य ब्रह्म इत्यादेशः । असदेवेदमग्रआसीत् । तत्सम्भवत् तदण्डन्निरवर्तत । तत्सँव्चत्सरस्यमात्रामशयत् । तन्निरभिधत । तेऽण्ड कपाले रजतं सुवर्णं चाभवताम् । यद्रजतं सेयं पृथिवी । यत्सुवर्णं सा द्यौः । यदजायत सोऽसावादित्यः । य एतमेव विद्वान् आदित्यं ब्रह्मेत्युपास्तेऽभ्याह...। (छान्दोग्योपनिषद्-३-१९) (आदित्य ब्रह्म हैं- ऐसा आदेश है। सृष्टि के पूर्व में असत शून्य था । वह अपनी इच्छा (माया) में आविष्ट होकर अण्ड रुप में परिणत हो गया। चिरकाल तक शयनोपान्त विस्फोटित (विखंडित) हुआ । विस्फोटित (मृतांड) से उत्पन्न होने के कारण मार्तण्ड नाम की सार्थकता है। उसके एक भाग से रजत और दूसरे से सुवर्ण बना । निम्न रजत भाग भूमि और उर्ध्व स्वर्ण भाग द्यौ हुआ । जो उसके मध्य से उत्पन्न हुआ वही आदित्य सूर्य (आदि में होने के कारण) है। इन आदित्य की उपासना विद्वान ब्राह्मण सदा करते रहते हैं।) और जब सूर्य ही आदि है, तो फिर सूर्यतन्त्र को आदि कहने-मानने में क्या आपत्ति हो सकती है ! इसी आदि तन्त्र (व्यवस्था, साधना, विधि...) के मर्मज्ञ रहे हैं शाकद्वीपीय ब्राह्मण । सूर्यतन्त्र ही इनका मूल धरोहर है। सूर्य के बारे में शाकद्वीपीय जितना जान-समझ सकते हैं, भला अन्य क्या समझेंगे उतना?
          ज्योतिष और व्याकरण भी तो सूर्य से ही उद्भुत हुआ। व्या करोमि...। पवनपुत्र हनुमान ने सूर्य से ही व्याकरण सीखा । आठ प्रकार के व्याकरण कहे गए हैं। श्री हनुमान इन आठों के ज्ञाता हैं। इन्होंने अन्य विद्यायें भी सूर्य से ही ग्रहण की।  हनुमान ज्योतिष भी ज्योतिष का चमत्कारी ग्नन्थ है। व्याकरण ही शाकद्वीपियों की वाणी है और ज्योतिष ही उनका नेत्र(ज्ञान अर्थ में भी) है। तन्त्र,ज्योतिष,व्याकरण तीनों का अद्भुत संगम है शाकद्वीपियों में । और इस व्याकरण को कोरा शब्दशास्त्र समझने की भूल न करें। यह जान कर बहुत लोगों को आश्चर्य हो सकता है, या इसे मिथ्या भी मान ले सकते हैं,किन्तु सत्य है,जिसे हृदयंगम करना चाहिए। वस्तुतः पाणिनी अष्टाध्यायी और  पतंजलि महाभाष्य गूढ़ योगविज्ञान है। योग के रहस्य जितने यहां खुले हैं, अन्यत्र दुर्लभ है- इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं ।

इस प्रकार तन्त्र, ज्योतिष और व्याकरण का सम्यक् ज्ञान जिसे हो, उसके लिए शेष ही क्या रह जाता है- संसार में !

 ये कहना अधिक सही होगा कि जम्बूद्वीप में आगमन और आवासन के पश्चात् बहुत बाद में यहां की सभ्यता-संस्कृति को आत्मसात करते हुए, जीविकोपार्जन का आधार बना लिया उन्होंने तन्त्र,ज्योतिष,आयुर्वेदादि को। हम चिकित्सा करने आये थे यहां—यह कहना हमारी तौहीनी है। अपनी तेज व गरिमा को कमतर करके आंकने वाली बात है । ऐसा कह कर हम आयुर्वेद के महत्व और मानवजीवन में इसकी उपादेयता को नीचा नहीं दिखाना चाहते, प्रत्युत सर्वविद्या निष्णात को एक विद्या-विशारद कहने-मानने में आपत्ति जता रहे हैं। अस्तु।
क्रमशः... 

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