गतांश से आगे...
सोलहवें अध्याय का दूसरा भाग..
अब किंचित भिन्न दृष्टिकोण से देव-विस्तार पर विचार करें। तन्त्रात्मक सृष्टि-विस्तार
को समझने का प्रयास करें तो प्रमाणिक रुप से पाते हैं कि निर्गुण-निराकार
आद्यशक्ति सगुण-साकार होकर विन्दु का स्वरुप ग्रहण करती है। वस्तुतः विन्दु का
आकार है भी और नहीं भी। उसी विन्दु का पुनः चतुर्दिक विस्तार होता जाता है। सृष्टि
को दर्शाने वाले और पाये जाने वाले सारे यन्त्र और कुछ नहीं, वश विन्दु के विस्तार
मात्र हैं। अपरिमित वृत्त,उसका केन्द्र,केन्द्र से परीधि की ओर गत्यमान रेखायें, उसका
उभयदिक् (वृत्तीय) घूर्णन,घूर्णन काल में बनते उर्ध्वाधर विविध त्रिकोण और फिर
त्रिकोण ही त्रिकोण...यही तो सृष्टि है।
और
विपरीत विचार करें तो संहार कहलाता है। वृत्त,त्रिकोणादि सभी सिमट कर विन्दु में
समाहित हो जाते हैं और फिर वह विन्दु भी महाशून्य में विसर्जित हो जाता है। वैसे
ही जैसे मकड़ी अपने लार से जाले बुनती है और आवश्यकतानुसार उसे आत्मसात भी कर जाती
है। पुनः-पुनः सृष्टि-पालन और संहार की ऐसी ही क्रिया दुहराई जाती है- अनादि
और अनन्त । गंगा से भी पूर्व पवित्रतम नदी- पुनपुन के महत्त्व और औचित्य का रहस्य
भी इसी में छिपा है- आदिगंगा पुनःपुनः...जो कि स्वतन्त्र रुप से गहन विचार
का विषय है,किन्तु यहां इसकी गहनता में जाना उद्देश्य नहीं है।
शक्ति
और शक्तिमान(शिव और शक्ति) का ही सम्यक् विस्तार है अखिल ब्रह्माण्ड । और पिण्ड तो
ब्रह्माण्ड की ही प्रतिकीर्ति है। यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे— इस बात से सभी अवगत हैं—जो ब्रह्माण्ड में हैं, वो
सब पिण्ड में भी विद्यमान है। इसे समझाने,बुझाने, साधने,सधवाने वाला शास्त्र ही वस्तुतः तन्त्र शास्त्र है। और सर्व तत्त्व विलेयक
आकाश की तन्मात्रा का सम्यक् ज्ञान कराने वाला शास्त्र मन्त्र शास्त्र
कहलाता है। महाण्ड के विस्फोट के समय जो प्रथम ध्वनि उत्पन्न हुयी थी, वह ओंकार की
ध्वनि थी। यही कारण है कि यह महामन्त्र कहलाया । मन्त्रों का अथ और इति यही
है। भूः,भुवः,स्वः ये तीन व्याहृतियाँ,जो साक्षात् सूर्य स्वरुपा हैं, इसी समय
उत्पन्न हुयी। सच पूछा जाय तो ऊँ से भी सूक्ष्म है सूर्य का स्वरुप । ‘कारण’
सूक्ष्म और सौर रुप से ‘कार्य’
रुप स्थूल विश्व का आविर्भाव हुआ। तदनन्तर सभी ओर विखरे सौर किरणों से यह विश्व
प्रकाशमान हो उठा। निखिल जगत के मूल कारण अविनाशी स्वरुप सूर्यनारायण सबके आदि में
उत्पन्न होने के कारण आदित्य नामधारी हुए। तन्मुखादोमिति महानभूच्छब्दो महामुने
। ततो भूस्तु भुवस्तस्मात् ततश्च स्वरनन्तरम् ।। एता व्याहृतयस्तिस्र्यः स्वरुपं
तद्विवस्वतः । ओमित्यस्मात् स्वरुपात्तु सूक्ष्मरुपं रवेः परम् ।। (मार्कण्डेयपुराण
अ.१०१ श्लो. २३,२४) इसी
आदित्य के तेज से उत्पन्न हुए हैं मगविप्र,जिन्हें तन्त्र,मन्त्र और यन्त्र त्रिकुटी
का महान ज्ञाता कहा गया है।
पुनः
हम ‘विन्दु’
पर आते हैं। हम जो ब्रह्म के एकोऽहं वहुस्यामः की बात करते हैं- वो और कुछ
नहीं इस एकमात्र विन्दु का ही अनन्त विस्तार है। स्वाभाविक है कि विन्दु विस्तार
पाकर रेखा में परिणत होगा । रेखा आगे बढ़कर अपरिमित अनादि वृत्त की परिधि का
स्पर्श करेगी - उभय दिशा में । सच पूछें तो महाशून्य में ऊपर-नीचे,दायें-बायें तो
कुछ होता नहीं। ये तो सापेक्षता-सिद्धान्त है सिर्फ । ‘हम’ से ‘वो’ की दूरी और दिशा का बोध...। ये सब विविध दिक् संज्ञायें हम अपनी सुविधा और
समझ के लिए विकसित किए हुए हैं- समयानुसार,आवश्यकतानुसार।
पुनः
इसे जरा भौतिकी या रेखागणितीय शैली में समझने का प्रयास करते हैं— चुम्बक के छड़
में हम पाते हैं कि नैसर्गिक रुप से ऊर्जा-प्रवाह द्विविध होता है, इस प्रकार
यह निश्चित है कि उसका कोई मध्य विन्दु
होगा। मध्य(केन्द्र)से सिर्फ किसी एक दिशा में शक्ति प्रवाह कदापि हो ही नहीं सकता । जब भी होगा तो
दो दिशाओं में, जो एक दूसरे के ठीक विपरीत होंगी । दो विपरीत दिशाओं में लगता हुआ (जाता हुआ)
चुम्बकीय बल ही वृत्ताकार घूर्णन की क्षमता (ऊर्जा) प्रदान करता है । इसी कारण
चुम्बकीय कम्पास का कांटा धूमता है, और हमें उत्तर-दक्षिण दिशाओं का बोध कराता है।
वस्तुतः दोनों सिरायें परस्पर आकर्षण की स्थिति में होती हैं। एक ही चुम्बक दो
दिशाओं में चुम्बकीय शक्ति से गति करता हुआ वृत्तीय पथ पर भ्रमण करता है। ध्यातव्य
है कि उसका केन्द्र सदा स्थिर रहता है। कल्पना
करें कि चुम्बक के दोनों सिरों पर दो व्यक्ति बैठे हैं। यदि उनसे हम पूछें तो दोनों
दो तरह की बात करेंगे- एक कहेगा कि हम पूरब जा रहे हैं और दूसरा कहेगा कि हम
पश्चिम जा रहे हैं। एक ही केन्द्र से
निकलने वाला बल दो प्रकार का हो गया।
साधना
जगत में मूल रुप से ये ही दो (विपरीत प्रतीत होने वाली) शक्तियां दो कुल कहे गए—एक
श्रीकुल और दूसरा कालीकुल । तन्त्र की गहरी पैठ रखने वाले भलीभांति जानते हैं
कि ये सब भेद, सारा बखेड़ा परिधि पर है। केन्द्र तो केन्द्र है। वहां कोई न श्री
है और न काली । या कहें काली ही श्री हैं और श्री ही काली। वहां न वाम है और न
दक्षिण । या ये भी कह सकते हैं कि वाम कब अचानक दक्षिण हो जाता है या कि दक्षिण कब
अचानक वाम में बदल जाता है कहना कठिन है। तारापीठ जैसे सिद्ध वामस्थल पर महर्षि वशिष्ठ
जैसे साधक को भ्रमित होना पड़ा है, फिर अन्य की क्या विसात !
रामकृष्ण परमहंस जैसे ‘कालीमय’ विभूति को भी इस द्वन्द्व ने क्षण
भर के लिए उलझा लिया था।
खैर । तन्त्र की इस
गहराई में ले जाना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है। हमारा अभीष्ट है- शाकद्वीपियों के
कुलदेवी/देवता की एकता/अनेकता पर विचार
करना। और इससे भी पहले सीधे ये कहना-सोचना कि जब हम सूर्यतेजांश हैं, तो सीधे
सूर्यविम्ब की उपासना-साधना क्यों न करके ये विविध देवी-देवताओं के चक्कर में पड़
गए। दूसरी बात विचारने वाली ये है कि शाकद्वीप से गरुड़ द्वारा अठारह कुल मगविप्र
लाए गये। वे सब के सब तो मग (सूर्यतन्त्रसाधक) ही थे। सीधे सूर्य की साधना करते।
सूर्य ही उनके कुलदेवता कहे-माने जाते। या वे अठारह कुल भिन्न-भिन्न अठारह
परम्पराओं वाले थे यदि, तो भी कुलदेवी/देवता की संख्या अठारह
ही होनी चाहिए थी, जब कि ऐसा बिलकुल नहीं है। यदि ये कहें कि कुलदेवी/देवता का निर्धारण अपने-अपने पुर के आधार पर हुआ, तो ये सूत्र भी ठीक नहीं
बैठ पाता, क्यों कि कुलदेवी/देवता की संख्या बहत्तर नहीं मिल
रही है कहीं। कुलदेवी/देवता की संख्यात्मक भेद का एक और कारण
हो सकता है—आम्नाय भेद । तो ये आम्नाय भी पांच ही हैं—अर्क,आर,आदित्य,कर और मण्डल—
जब कि कुलदेवी/देवता की परम्परा-प्राप्त संख्या पांच से काफी
अधिक है। ऐसे में उलझने होंगी ही, जिन्हें सुलझाने का प्रयास करना होगा। अस्तु।
क्रमश..
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