गतांश से आगे....
(सोलहवें अध्याय का पहला भाग)
१६. कुलदेवता/देवी की अवधारणा
(औचित्य,परिचय और परम्परा )
‘विज्ञान’ की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि सृष्टि
महामाया का भ्रू-विलास मात्र है और सायंस की भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि
पदार्थ और ऊर्जा का खेल है सब कुछ। ज्ञातव्य है कि सायंस का हिन्दी अनुवाद विज्ञान
कदापि नहीं है, और न विज्ञान को अंग्रेजी में सायंस कहना चाहिए। सायंस और विज्ञान
में जमीन-आसमान का फर्क है,किन्तु इस पर चर्चा, यहां मेरा अभीष्ट नहीं है।
कहने को तो सृष्टि में अनेकानेक देवी-देवता
हैं। इनके नाम-रुप-कर्म को गिनना-जानना-समझना सामान्य मनुष्य के लिए असम्भव सा है।
वस्तुतः दिव् धातु से देवता शब्द बना है। दिवो दानात् द्योतनात्
दीपनात् वा- यही इसका निर्वचन है। प्रयोग प्रकाशमान होना अर्थ
में है। विशेष अर्थ होता है— कोई पारलौकिक शक्ति जो अनश्वर और पराप्राकृतिक है और इसीलिये पूजनीय है। देव
इस तरह के पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और देवी इस तरह की स्त्रियों के लिये।
देवताओं को परमेश्वर (ब्रह्म) का
लौकिक रूप या ईश्वर का सगुण रूप कह सकते हैं। यह भी ध्यान रखने योग्य है कि ‘देवता’ मूलतः स्त्रीलिंग है। देव और देवता के
शब्द-भेद को ध्यान में रखते हुए प्रयुक्त स्थानों पर भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।
देवताओं का वर्गीकरण कई प्रकार से हुआ है, जिनमें चार मुख्य है— स्थान
क्रम,परिवार क्रम ,वर्ग क्रम और समूह क्रम। निर्गुण-निराकार ब्रह्म जब सगुण-साकार
हुआ तो स्वाभाविक है कि सुविधानुसार इनका मानवीकरण हुआ। क्यों कि मनुष्य
सुविधापूर्वक मनुष्य के स्वरुप और स्वभाव को ही आसानी से समझ सकता है। ध्यान में
उतारना भी आसान होता है। अच्छाई और बुराई
के विविध प्रतीकों, शक्ति और शौर्य की अभिव्यक्तियां,इच्छा,कामना और साधन—इन सबको
ही आधार बनाया गया स्वरुप कल्पना में। फिर समयानुसार इन मानवीकृत स्वरुपों की मूर्तियाँ
बनने लगी। विविध सम्प्रदाय बनने लगे। मत-मतान्तर होने लगे और अलग-अलग तरीके से पूजा पाठ होने लगे।
सबसे पहले जिन देवताओं का वर्गीकरण हुआ उनमें
ब्रह्मा, विष्णु और महेश आते हैं। ये
त्रिदेव कहे जाते हैं। इन्हें सृष्टि,पालन और संहार का कार्यभार सौंपा गया है।
सौंपा क्या गया,प्रत्युत यों कहें कि इन्होंने सृष्टि,पालन और संहार का कार्यभार
ग्रहण किया है । और आगे, क्रमशः देव-संख्याओं में निरन्तर वृद्धि होती गयी समयानुसार । निरुक्तकार यास्क के अनुसार देवताओं की
उत्पत्ति आत्मा से ही मानी गयी है। महाभारत
(शांतिपर्व) में कहा गया है— आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च
मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे
समास्थितौ। स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राह्मणा इति निश्चयः, इत्येतत सर्व देवानां
चातुर्वर्णं प्रकीर्तितम् ।। शतपथब्राह्मण में भी देवताओं के सम्बन्ध में कुछ
ऐसे ही भाव व्यक्त किये गए हैं।
साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य है कि— योगेनासृष्टिविधौ
द्विधारुपो वभूवसः । पुमांश्च दक्षिणार्धांगो वामार्धा प्रकृतिःस्मृताः । सा च
ब्रह्मस्वरुपा च नित्या सा च सनातनी ।। यथात्मा च तथा शक्तिर्यथाग्नौ दाहिकास्थिता
। अतएव हि योगीन्द्रैः स्त्रीपुंभेदो न मन्यते।। (देवीभागवत) इस कथनानुसार
देवता के लिए स्त्री-पुरुष के भेद का क्या औचित्य? मूलतः वह न स्त्री है, और न पुरुष। मानवी अल्प बुद्धि में सहज समाने योग्य भाव से
वह दिव्य शक्ति द्वि भेदाभासित हो रहा है।
वृहदारण्यकोपनिषद में एक रोचक प्रसंग है- सामान्यतः
तैंतीस कोटि देवों की बात की जाती है। संहार क्रम में (सम्यक् आहरण—समेटने के क्रम
में) यही तैंतीस करोड़ ३३३३ बना और फिर ३३ और फिर तीन (त्रिदेव- ब्रह्मा,विष्णु,महेश)।
फिर डेढ़ । और फिर सिमट कर एक विन्दु मात्र रह गया। ध्यातव्य है कि कोटि शब्द सिर्फ
संख्या बोधक न होकर प्रकार बोधक भी है। यानी सृष्टि में ३३ प्रकार के देवता कहे गए
हैं। यथा— द्वादश आदित्य,एकादश रुद्र,अष्ट वसु तथा दो अश्विनी । शेष सब इन्हीं मूल के विस्तार या अंग-प्रत्यंग हैं। गहराई में जायेंगे तो वहीं
पहुँच जायेंगे- शक्तिपुंज में समाहित हो जायेंगे।
ऐश्वर्य वचनः शश्च क्तिः पराक्रम एव च ।
तत्स्वरुपा तयोर्दात्री सा शक्तिः परिकीर्तिता ।। (देवीभागवत)
‘श’ ऐश्वर्य ‘क्ति’ पराक्रम और इसके मेल से बना शब्द— शक्ति ।
प्रश्न उठता है कि आंखिर अनेकानेक झमेले क्यों ?
क्र
१
क्रमशः...
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