शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिकाःचौंतीसवां भाग

गतांश से आगे...

                     सोलहवें अध्याय का तीसरा भाग


कुलदेवी/देवता की प्राप्त(ज्ञात) नामावली—


१.     परमेश्वरी
२.     सिद्धेश्वरी
३.     भुवनेश्वरी
४.     कौलेश्वरी
५.     वागेश्वरी
६.     विन्ध्येश्वरी
७.     यक्षेश्वरी/यक्षणेश्वरी
८.     दक्षिणेश्वरी
९.     दक्षिणकाली
१०.कात्यायनी
११.काली
१२.कालरात्रि
१३.सती
१४.भगवती
१५.पद्मावती
१६.महालक्ष्मी
१७.उग्रतारा
१८.नवदुर्गा
१९.शक्ति
२०.चामुण्डा
२१.सिद्धमाता
२२.कालभैरव
२३.नरसिंह
२४.विष्णु
२५.सविता
२६.हनुमान
२७.सोखाबाबा
२८.चन्द्रमनबाबा
२९.ब्रह्मबाबा
३०.मातादाई
३१.नागदेवता
३२......

  
       उक्त नामावली से बिलकुल स्पष्ट है कि मातृकाशक्ति की प्रधानता रही है मगों में। साथ ही विष्णु और नरसिंह (एक सौम्य और दूसरा उग्र) को भी स्थान मिला है, तथा हनुमानजी भी इस सूची में हैं। दूसरी ओर बिलकुल हट कर- ब्रह्मबाबा, सोखाबाबा, चन्द्रमनबाबा और मातादाई भी घुसी हुयी हैं कुल परम्पराओं में । पुर परिचय अध्याय में दी गयी सारणी में भी देवता/देवी की चर्चा हुयी है- जहां रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु ही प्रायः  कुलपूज्य माने गए हैं। दक्षिण-पश्चिम भारत में षोडश गोत्रीय सारणी में चामुण्डा, कालभैरव, गौरी आदि भी नाम मिलते हैं। कुछ अन्य नाम भी मिलते हैं, जिनसे उक्त मूलनामों के ही अपभ्रंसित होने का संकेत मिलता है।
हालाकि सनतकुमारसंहितान्तर्गत सिद्धेश्वरी स्तोत्रम् की निम्न पंक्तियों से ऐसा भी संकेत मिलता है कि शाकद्वीपीय मात्र की कुलदेवी सिद्धेश्वरी ही हैं। कालान्तर में किंचित कारणों से अन्य नाम,रुप की परम्परा बन गयी होगी। यथा—  
   शाकद्वीप कुलोद्धार कारिण्यै च नमो नमः ।
     शाकद्वीप प्रियायै च कुलदेव्यै नमो नमः ।।।।
     अष्टादश कुल पूज्यायै सिद्धिदायै नमो नमः ।
      सिद्धिदा श्रावणे मासे फाल्गुने सर्वकामिका ।।।।

 कुलदेवी/देवता की प्राप्त(ज्ञात)आकृतियाँ—
कुलदेवी/देवता की आकृति के सम्बन्ध में जानकारी एकत्र करने पर कुछ खास बातें समान रुप से मिली- गृहणी के हाथ का छापा- चौरेठ के घोल(ऐपन) में भिंगोयी हुयी दाहिनी हथेली का, देवता घर की दीवार पर छाप और उस पर ऊर्द्ध्वाधर सिन्दूरी रेखांकन । कहीं-कहीं हथेली का छाप न होकर, सिर्फ रेखाएं हीं । तो कहीं एक, तो कहीं दो मृत्तिका पिंडी—उसी तरह ताक या काष्ठ-पीठिका पर बनी हुयी। हथेली की छाप और सिन्दूर की रेखाओं की संख्या में काफी भेद मिला—एक,दो,पांच,सात, नौ, ग्यारह,सोलह, अठारह,बाइस इत्यादि । कुछ खास कुलों में हथेली की छाप के अतिरिक्त ऐपन से बना वित्ते भर का सुन्दर वृत्त और फिर वृत्त के मध्य भाग को सिन्दूर चर्चित किया हुआ भी मिला। हथेली की छापों को वर्गाकार या आयताकार मंडल से घेरा हुआ या कहीं बिना घेरे का भी होने की सूचना मिली । हां, घेरे के बाहर दायीं ओर एक और छोटे घेरे में अलग से एक या कहीं दो छापों की जानकारी भी मिली, जिसका नाम लोगों ने पखेजु या दाईमां बतलाया, जो पक्षेश की याद दिलाने वाली प्रतीत हुयी । कुछ एक कुल में (डोमरौर, अमारुत,गया) थापा, रेखा, वृत्त, पिंडी आदि से बिलकुल भिन्न आकृति भी ज्ञात हुयी—एक विन्दु से तीन दिशाओं में ऊर्ध्वगामी तीन रेखाएं सिन्दुर से खींची गयी, जो त्रिशूल का आभास दिला रही हैं। कुछ एक कुल में सीधे सूर्य बिम्ब पूजन की भी जानकारी मिली। वार (औरंगाबाद,बिहार) पुर अदैयार में नाम स्पष्ट है- सिद्धेश्वरी, जिनके प्रतीक स्वरुप दीवार पर नौ छापे हैं हथेलियों के, साथ ही थोड़ा हट कर एक और थापा है, जिन्हें नागदेवता के नाम से लवण रहित नैवेद्य अर्पित होता है। भलुनियार पुर ग्राम कनौंसी, गुरारु,गया के विप्रों से जानकारी मिली कि ये लोग मूलतः हैं तो भलुनी(रोहतास)के ही, जिनके मूलस्थान में श्रीदुर्गा स्वरुपा कुलदेवी हैं, जो दक्षिणेश्वरी/यक्षिणेश्वरी नाम से जानी जाती हैं। किन्तु वहां से कालवसात स्थानान्तरित होकर यहां आये लोग किसी प्रकार की आकृति की पूजा न करके मूल स्थान से निर्माल्य चन्दनादि से भित्ती लेपन करके पूजा करते हैं। एक विशेष बात इनलोगों से ज्ञात हुयी कि पुरुषों के लिए कुलदेवी का दर्शन भी निषिद्ध है। पूजनोपरान्त पट बन्द कर देने के बाद समीप जाकर, प्रणाम करते हैं, आरती लेते हैं। पूजन के प्रारम्भ में द्वार पर खड़े होकर संकल्पादि बोलने में स्त्री का सहयोग करते हैं। वहीं से ये भी जानकारी मिली कि उनके ही मूल के कुछ लोग जो बिहार (अब झारखंड) में जा बसे हैं, दुर्गादेवी के नाम से पूजते तो हैं, परन्तु छाग बलि का प्रयोग भी करते हैं। भलुनियार पुर (रामपुर,देवकुण्ड,औरंगाबाद) में १२+१०++थापा है,जिनमें प्रथम बारह को पुरुष रुप मानते हैं, जिनपर सिन्दूर नहीं लगाते। अगले दश पर सिन्दूर लगाते हैं। पुनः एक पखेजु के नाम से जाने जाते हैं, और इसके बाद थोड़ा हट कर मनतोड़ादाई और ब्रह्मबाबा के नाम से भी स्थान दिया हुआ है। ये लोग देवी का नाम सिद्धेश्वरी बतलाते हैं। खण्टवार पुर (कोतोगड़ा,गिरिडीह) से जानकारी मिली कि वहां की कुलदेवी विंध्येश्वरी हैं। सिन्दूर का एक टीका अपेक्षाकृत कुछ अधिक लम्बा है,जिनके आसपास अन्य तेरह टीकायें हैं, क्रमशः नरियारावीर,पख्खैवीर,ब्रह्मवीर, तथा जयन्त्यादि नौ दुर्गायें । मंडल के ईशानकोण में दक्षिणाभिमुख देवस्थान है। पूजन काल पुत्र-विवाह,अन्नप्राशन (मुंहजुट्ठी) तथा मुण्डन है। इन तीनों का प्रसाद भी भिन्न-भिन होगा। विवाह में अखरा बुन्दिया, अन्नप्राशन में हविष्य तथा मुण्डन में छागबलि । वैसे सामान्य तौर पर दुर्गापूजा (दशहरा) में मंडल से बाहर बने दुर्गा-मंडप में विशेष पूजा होती है, जहां छागबलि अनिवार्य माना जाता है। वुजुर्गों के बातचीत से प्रमाणित हुआ कि वस्तुतः ये दोनों दो कर्म हैं। ये सही है कि कुलदेवी में नवदुर्गा हैं, किन्तु बलि उस स्थान पर कदापि नहीं दिया जाता। वह तो बाहर के दुर्गा-मण्डप वाली दुर्गा के समीप दिया जाता है। और विशेषकर वालक के मुण्डन के उपलक्ष्य में ही। हां,ये सही है कि उसका प्रसाद परिवार के सभी लोग ग्रहण करते हैं।

     कुछ ऐसे परिवार(व्यक्ति)भी मिले जो गोपन परम्परा की अतिशयोक्ति स्वरुप, कुछ भी बताने से कतराये।

इस प्रकार शाकद्वीपियों के यहां परम्परा से पूजे जा रहे कुलदेवी/देवता के बारे में यथासम्भव जानकारी एकत्र करने का प्रयास किया । प्रायः लोग कुलदेवी/देवता के नाम से अपरिचित मिले । कुछ लोगों को तो आकृति का भी ज्ञान नहीं है। पूजा-कक्ष में दीवार में ताक, रेक या ऐसा ही कुछ बना हुआ है, जिस पर पीतल या तांबे का लोटा या तस्तरी है, या कहीं लकड़ी का छोटा पीढ़ा रखा हुआ है। कहीं खाली ताक मात्र है, जहां समयानुसार विधिहीन परम्परा से कुछ कोरम पूरा कर दिया जाता है। परिचय और इतिहास बतलाने वाले उनके पास कोई नहीं हैं, और कोई खास खोजी जिज्ञासा भी नहीं है। दैवयोग से परिवार में कोई विशेष अनिष्ट का सिलसिला लागातार दीखने लगे यदि, तो नींद खुलती है, और यहां-वहां अनाड़ी ओझा-गुनी-तान्त्रिकों के पास भटकने और ठगी के शिकार होने को विवश होते हैं। उन तथाकथित ओझाओं के लिए यह कह देना तो बड़ा आसान होता है कि आपके कुलदेवता विगड़े हुए हैं, इसी से कष्ट हो रहा है। किन्तु कुलदेवता का नाम, परिचय, आकृति, पूजाविधि आदि की जानकारी देना उनके वश की बात नहीं होती। अतः खूब हुआ तो पुरखों के नाम पर कुछ कर-करा दिया गया। आप भी सन्तुष्ट और ओझा भी तुष्ट।  किन्तु क्या इससे हमारी समस्या का सही हल मिल गया? कदापि नहीं।


 विभिन्न स्रोतों से अब तक प्राप्त कुछ नाम मिले हैं, जिसे ऊपर की तालिका में दर्शाया गया है। विशेष छानबीन करने पर ये भी ज्ञात हुआ कि समान पुर में भी स्थान-भेद वा गोत्र भेद से कुलदेवता/देवी भेद है। जैसे – पुण्यार्कपुर,मौद्गलगोत्र (महुआइन, गया) में दक्षिणेश्वरी उपासना की परम्परा है, तो इसी पुर के भारद्वाजगोत्र (गुमला,झारखंड)में परमेश्वरी पूजन की परम्परा है। इसी भांति उरवार पुर में मुख्य रुप से तो सिद्धेश्वरी परम्परा है, किन्तु चन्द्रपुरा(औरंगाबाद,बिहार) में इसी पुर में चन्द्रमनबाबा पूजे जा रहे हैं। इसी भांति अन्य पुरों में भी गोत्र भेद या स्थान भेद से देवता-भेद मिल रहा है। यहां एक बात गौर करने योग्य है कि बहुत से लोग अपने मूल स्थान (कुल) से विलग होकर मातृकुल, स्वसुरकुलादि में जा बसे। कोई फूआ,मौसी आदि के यहां भी तड़का(सम्पत्ति) पाकर वस गए। वैसे लोग अपना पुर-गोत्र तो वही याद रखे, जो उनका मूल है, किन्तु कुलदेवता स्थानान्तरित कुल वाले का पूजते रहे, और तदनुसार नाम भी उन्हीं का स्मरण रहा आगे की पीढ़ी में । स्वाभाविक नियम है कि एक व्यक्ति दो कुल की देवों की उपासना नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही जैसे दो नावों में सवार होकर जलयात्रा नहीं हो सकती । किसी एक को तो त्यागना ही होगा।
क्रमशः...

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