गताँश से आगे...
(पन्द्रहवें अध्याय का पहला भाग)
१५. सुपथ और समाधान (संध्या-रहस्य सहित)
पिछले चौदह अध्यायों में शाकद्वीपी
ब्राह्मणों के विषय में काफी कुछ चर्चा हुयी। दीर्घ कालावधि में आए परिवर्तन और
ह्रास का भी विचार किया गया। विडम्बनायें और समस्यायें भी दिखी। अब प्रश्न ये उठता
है कि आगे करना क्या है ? करना क्या चाहिए ?
इस सम्बन्ध में कुछ पगडंडियाँ मुझे
दीख रही हैं,जिनके रास्ते आगे बढ़ कर हम भावी पीढ़ी को सुदृढ़-संतुलित-तेजस्वी बना सकते हैं।
आधुनिकता के दौर में एक ओर लम्बी
छलांग लगाने को सभी आतुर हैं, तो दूसरी ओर ऐसा भी वर्ग है,जो हमारा प्रबल
प्रतिद्वन्द्वी बनने को आतुर है। ज्ञान, विद्वत्ता और आजीविका- ये तीनों कोई जरुरी
नहीं कि एकत्र सुलभ हों । मैं ये नहीं कहता कि हम तान्त्रिक,ज्योतिषी,आयुर्वेदज्ञ, कर्मकाण्डी, याज्ञिक, मठाधीश, आचार्य,
पुजारी पुरोहित आदि बन कर ही जीविकोपार्जन करें । अपनी इच्छा, सुविधा और स्थिति के
अनुसार हम डॉक्टर,ईंजीनियर,वैज्ञानिक, प्रोफेसर, वैरिस्टर जो भी बनना चाहें बनें; किन्तु अपने मूल संस्कार को बचाते हुए ही आगे बढ़ें । आगे बढ़ने की
आपाधापी में इतना न रम जायें कि पीछे मुड़ कर अपनी संस्कृति को देख-पहचान भी न
सकें।
हम सूर्य तेज से उत्पन्न हुए हैं—सूर्यांश
हैं। तेजोदीप्त हैं। आकस्मिक मेघ हमें कितना ढकेंगे !
वायु का झोंका आयेगा और बहा ले जायेगा मेघों को। किन्तु यदि हम
स्वयं ही सघन-श्याम-मेघाच्छन्न रहना पसन्द करने लगेंगे तो फिर वायु क्या करेगा
! आँखें मूंद कर रश्मि और आलोक को विसारते रहेंगे तो
सूर्योदय-सूर्यास्त में अन्तर ही कहां समझ आयेगा !
इसके लिए बहुत अधिक नहीं,कुछ खास
दो-चार बातों पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ मगबन्धुओं को,विशेष कर नयी पीढ़ी को,क्यों
इस पुस्तिका की योजना खास कर उन्हीं के लिए है। इस संदेश के साथ आप मगबन्धुओं
से अनुनय पूर्ण आग्रह है कि कार्य कठिन नहीं,यदि इच्छा-शक्ति प्रबल हो।
यथासम्भव इसे जीवन में उतारने का प्रयास किया जाए,ताकि मगों की मन्द पड़ रही चमक
पुनः पूर्ववत तेजोदीप्त हो सके।
१.
मदिरा-मांसादि का संकल्प पूर्वक त्याग— निस्पक्ष होकर,थोड़ा हिम्मत
जुटा कर, गम्भीरता पूर्वक विचारें- सूर्यांश होकर मदिरा-मांस का प्रयोग क्यों?
सामान्य सामाजिक-पारिवारिक परिवेश में,यहां तक कि कुछ कुलों में
कुलदेवी पूजन तक भी? क्या यह सिर्फ जिह्वा-लोलुपता नहीं है?
सच पूछा जाय तो मांसाहार मनुष्य
मात्र के लिए प्राकृतिक रुप से बना ही नहीं है। परमात्मा ने हमारी शारीरिक संरचना
शाकाहार,अन्नाहार,फलाहार आदि के योग्य बनाया है और हम इस पवित्र मन्दिर को कब्रगाह
बनाये हुए हैं।
प्राकृतिक व्यवस्था में थोड़ा नीचे
आकर कहना चाहूंगा कि उन क्षेत्रों में जहां जीवन निर्वाह के लिए मांसाहार आवश्यक
हो,उन्हें छोड़ कर शेष मनुष्य को तो इससे परहेज करना ही चाहिए। और जरा इससे भी आगे
आकर यह कहना चाहूंगा कि वर्णव्यवस्था में सर्वोत्तम ब्राह्मण- जिसका सीधा सम्बन्ध
ज्ञान-साधनादि से है, सरस्वती का वरद हस्त है जो, उसे तो कम से कम सात्त्विक आहार
पर ही निर्भर रहना चाहिए। थोड़ा और आगे की सोचें तो कह सकते हैं कि शाकद्वीपीय
ब्राह्मण – सूर्य तेजांश मगों को तो कदापि इसका सेवन नहीं करना चाहिए। सूर्योपासक
और मांसाहार- कैसी विडम्बना है ये ! जरा विचार कर तो
देखें ।
सूर्य परम सात्त्विक हैं। हम भी
सात्त्विक बनें। बनने का सतत प्रयास करें। मान लिया कि लोभ, अज्ञान,दबाव,बहकावे
या अन्य किसी कारण से पूर्व में किसी ने कुल में तामसी वस्तुओं का प्रयोग कर
लिया,तो क्या कुल परम्परा के नाम पर हम भी उसे ढोते रहें?
ढोना उसे ही चाहिए जो ढोने योग्य हो। अपरिहार्य हो।
हिम्मत करके,इस दुर्गुण को दूर करना होगा।
सत्त्व हमारे मूल में है। उसे हर हाल में लब्ध करना होगा। ये हमारे मन की दुर्बलता
है कि कुलदेवी या किसी भी देवता के लिए चली आरही परम्परा को बदलेंगे- यदि वह बदलने
योग्य प्रतीत हो रहा हो, तो देवी हम पर नाराज हो जायेगीं। पक्के तौर पर जान लें कि
ऐसा कुछ नहीं होता। ये सीधे मनोरोग है। अन्धास्था है। अन्धविश्वास है। घोर अज्ञान
है।
हालाकि ये सत्य है कि शारीरिक रोग को दूर करने
से कहीं अधिक कठिन होता है- मानसिक रोग दूर करना। रोगी को सत्य का ज्ञान नहीं होता
और चिकित्सक (ज्ञानी) जोर-जबरदस्ती नहीं कर पाता। मांस-मदिरा का प्रयोग शाकद्वीपी
के लिए कदापि ग्राह्य नहीं हो सकता। कहीं न कहीं चूक हुयी है, हमारे पूर्वजों से, जिसे
भावी पीढ़ी को सम्मार्जित करना चाहिए। पूर्वज सदा वन्दनीय हैं, इसमें कोई दो राय
नहीं, किन्तु उनके अज्ञान या दोष या गलती कैसे स्वीकार्य हो सकती है—विवेकपूर्ण
विचार की अपेक्षा रखती है।
हो सकता है- मेरे इस सुझाव-प्रस्ताव पर बहुतों को आपत्ति हो । क्यों कि
हमारे समाज में भी देखा-देखी,अधिक समाजिक बनने के चक्कर में, आधुनिक दीखने-दिखाने
के चक्कर में,या फिर नौकरी,प्रवास,परिवेश,सानिध्य आदि कारणों से काफी प्रवेश हो
गया है मांसाहार का । यही कारण है कि विवाहादि सम्बन्ध करने, कौटुम्बिक भ्रमण-मिलन
आदि में पूछने-जानने की आवश्यकता पड़ती है- उनके खान-पान के विषय में। जहां पहले
तामसी कहे जाने वाले प्याज-लहसुन,मसूर की दाल आदि की भी वर्जना थी शाकद्वीपियों
द्वारा, वहां अब शाकाहार-मांसाहार का सवाल करना पड़ता है। ये बड़े दुःख,ग्लानि और
लज्जा की बात है। और इससे भी बड़ी पीड़ा ये है कि सामाजिक तौर पर(खुले रुप से) लोग
स्वीकार भी नहीं करते- अपने पारिवारिक आहार को । और इस प्रकार अनजाने में या धोखे
में गयी (व्याही) लड़कियों को आजीवन कष्ट उठाना पड़ता है। ये मैं कोई सिद्धान्त की
बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि कई दुःखद उदाहरण हैं मेरे सामने। इसका दूसरा पक्ष ये
है कि गैर व्राह्मण समाज में भी गलत संदेश जाता है। हमें अपनी श्रेष्ठता (गुणात्मक)
रखनी है, समाज का पथ-प्रदर्शक बनना है,अपने पूर्व तेजस्विता को वापस लाना है,तो
ऐसा करना ही होगा—तामसी आहार से संकल्प पूर्वक मुंह मोड़ना होगा,क्योंकि आहार-विहार
पर ही तो व्यवहार अवलम्बित है। इस विषय पर
गीता में श्रीकृष्ण के वचनों को स्मरण रखते हुए उसका सम्यक् पालन करना होगा—
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः
।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या
आहाराः सात्त्विकः प्रियाः ।।
(१७-८)
क्रमशः...
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