गतांश से आगे...
पन्द्रहवें अध्याय का दूसरा भाग...
२.विविध
संस्कारों की अनिवार्यता—यज्ञोपवीतादि विविध संस्कार की परम्परा रही है हमारे
यहां। गृह्यसूत्रों के अनुसार चालीस संस्कारों की बात तो बहुत पुरानी हो चली, उनके
नाम गिनना-गिनाना भी मात्र ज्ञानवर्द्धन कहा जायेगा। संक्षिप्त होकर षोडश संस्कार
पर आ टिका है । कुछ ऋषियों (बाद के कर्मकाण्डियों) ने बारह और चार (वरीयता क्रम सूची)
बना दी । यथा—गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्त, जातकर्म, नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण,
उपनयन, केशान्त, समावर्त्तन और विवाह, तथा दूसरे चार में - कर्णवेध, विद्यारम्भ,वेदारम्भ
और अन्त्येष्टि। समयानुसार अब वो भी लुप्त होते जा रहा है ।
मोमबत्तियां बुझाकर,जन्मोत्सव मना कर केक काटने-बांटने की परम्परा को हमने
पश्चिम से आयात कर लिया है, किन्तु उम्रांकानुसार दीपक जलाकर, गणेशाम्बिका पूजन-आरती
करके, फिर बच्चे की आरती उतारने की अपनी परम्परा को विसार दिए । गर्भाधान संस्कार
की तो बात ही बेमानी है, क्यों कि वो तो विविध आधुनिक अवरोधकों की चूक से नैसर्गिक
रुप से सम्पन्न हो जाता है। उसके लिए पति-पत्नी की ओर से कोई खास तैयारी तो होती
नहीं। पुंसवन-सीमन्तादि संस्कार को किंचित नाम भेद (गोदभराई) से कहीं-कहीं ढोया जा
रहा है, वो भी क्रिया भ्रष्ट रुप से। फिर बारी आती है- जातकर्म,नामकर्म,अन्नप्राशन,मुण्डन,कर्णवेध,उपनयन,
विवाहादि संस्कार की।
यदि हम अपनी परम्परागत सत्संस्कारों को यथावत (यथासम्भव) जीवित रखें तो हम
अपने नष्ट धरोहर को अधिकाधिक लब्ध करने में सफल होंगे- इसमें कोई दो मत नहीं। अतः
प्रयास ही नहीं, संकल्प करें कि यथासम्भव अधिकाधिक संस्कारों का पालन करेंगे। ऋषि-मुनियों
द्वारा बनाये गए ये नियम पूर्ण वैज्ञानिक हैं। (सायंटिफिक नहीं कह रहा हूँ यहां) ।
इनका जितना अधिक पालन करेंगे, उतना अधिक लाभ होगा। तेज,बल,आरोग्य,यहां तक कि भोग
और मोक्ष में भी सहयोगी होगा।
तेजी से बदल रही (लुप्त होरही) यज्ञोपवीत (उपनयन) परम्परा पर विशेष रुप से ध्यान दिलाना चाहूंगा,क्यों कि
इसकी महत्ता और उपयोगिता को बिलकुल नकारा जा रहा है। इस अति महत्त्वपूर्ण संस्कार
के आयु सीमा को न तो ध्यान में रखा जा रहा है और न अन्य पालनीय, करणीय बातों का ही
।
जब
कि स्मृतिकारों ने स्पष्ट रुप से क्रमशः पांच,आठ,और बारह वर्ष निर्धारित किया है। यानी
पांच वर्ष सर्वश्रेष्ठ, फिर आठ वर्ष मध्यम, फिर बारह वर्ष अधम और तद्पश्चात् प्रति
वर्ष के क्रियालोप हेतु प्रायश्चित गोदान पूर्वक अधिकतम सोलह वर्ष की सीमा
निर्धारित की है। सोलह के बाद का यज्ञोपवीत तो सिर्फ बोझ है शरीर पर— एक व्यर्थ धागे
का। किन्तु प्रायः देखा जाता है कि सीधे विवाह के समय यज्ञोपवीत का धागा डाल दिया
जाता है। और कौन कहें कि विवाह पहले की तरह किशोरावस्था में होता है अब। आजकल तो पढ़ाई
पूरी करते और फिर नौकरी ढूढ़ते-ढूढ़ते चेहरे पर झुर्रियां आने लगती हैं। लड़कियां
भी तीस के आसपास ही व्याही जाती हैं। और ये सब भी हमने पश्चिम से ही आयात किया है।
इतिहास तो अपना भूल ही गए हैं,भूगोल भी याद नहीं है। ध्यान देना चाहिए कि इंगलैंड
और भारत एक ही अक्षांशरेखा पर नहीं हैं। फिर दोनों जगह का प्राकृतिक नियम समान
कैसे हो सकता है ?
और हां,ये भी गौर करने लायक है कि दुल्हेराजा अपने रुप-सौन्दर्य को बचाये रखने के
लिए मुण्डन भी नहीं कराते। ज्ञातव्य है कि यज्ञोपवीत कोई सामान्य सा धागा नहीं
है,प्रत्युत उपनयन की प्रक्रिया है।
यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में प्रसंगवश
यहां कुछ और बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ। जनेऊ कोई सामान्य धागा नहीं हैं। इसके
निर्माण और स्थापन की विशिष्ट विधि है। आजकल लोग सीधे बाजार से मोटा-मजबूत धागा
खरीद लाते हैं। मनमाने ढंग से उसका मापन करके सुविधानुसार किसी लम्बाई का जनेऊ बना
लेते हैं और पहन लेते हैं। जबकि जनेऊ पहनने की चीज नहीं है,प्रत्युत धारण करने की
चीज है। पहनना और धारण करना बिलकुल भिन्न क्रिया है।
मुख्यतः चरखे या तकली पर काता हुआ
सूत्र ही सर्वाधिक पवित्र और उपयुक्त माना जाता है,जिसे कच्चा सूता कहते हैं। कुमारी
कन्या द्वारा काता हुआ सूत्र तन्त्र-शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। समयानुसार
व्यवस्था और उपलब्धि बदलती गयी। लोग मूल बात को भूलते-विसारते गए। जीवनोपयोगी सारी
वस्तुओं के लिए बाजारवाद पैदा हो गया । और हम पूरे तौर पर उसी पर निर्भर होते चले
गए।
मैं ये नहीं कहता कि आप अपना नौकरी-चाकरी,काम-धन्धा,रोजी-रोजगार छोड़कर सूत
कातते रहें। किन्तु इतना तो कर ही सकते हैं कि बाजार से सही ढंग का कच्चा सूता
खरीद लायें। ऐसा नहीं कि आजकल ये मिलता नहीं । ढूढ़ने की जरुररत है।
कच्चे सूते की लत्ती (लच्छी) से चावा (हाथ की चार अंगुलियां- कनिष्ठा,
अनामिका,मध्यमा और तर्जनी को मिलाने से बनने वाला आकार) के माप से छियानबे चावा
सूत निकालें। इसे बिना तोड़े हुए ही त्रिगुणित करें। सूत्र की यही लम्बाई यज्ञोपवीत
के लिए शास्त्र-विहित है। इस प्रकार लम्बाई कुल उतनी ही रही, मोटाई बढ़ गयी। अब इस
त्रिगुणित छियानबे को लच्छी से तोड़ कर अलग करलें और टेकुए(बड़ी तकली) के सहारे
ऐठन दें । अब पुनः त्रिगुणित करें । इस
प्रकार (९६x३)÷३ का वास्तविक परिणाम ३२
चावा ही हुआ । यही धागा शुद्ध यज्ञोपवीत के लिए तैयार हुआ । अब इसमें खास तरीके से
प्रवरादि विचार पूर्वक गांठें लगानी हैं। इस प्रकार तैयार जनेऊ का एक जोड़ा(गृहस्थ
के लिए) और ब्रह्मचारी के लिए तीन तन्नी का प्रयोग होना चाहिए । तैयार जनेऊ को
संध्या-विधान में निर्दिष्ट वैदिक मन्त्रों या सिर्फ गायत्री मन्त्र से
अभिमन्त्रित-पूजित करके, पुनः विनियोग और धारण मन्त्र पूर्वक धारण करना चाहिए। (विशेष
जानकारी के लिए नित्यकर्म पद्धति का अवलोकन करें। गीताप्रेस से प्रकाशित नित्यकर्मपूजाप्रकाश
प्रमाणिक और उपयोगी पुस्तक है। कीमत भी औरों की अपेक्षा काफी कम है। नियम-संयम की
बहुत सी बातें यहां सरल शब्दों में स्पष्ट हैं। )
शाकद्वीपियों में कुलदेवता पूजन के लिए श्रावण
पूर्णिमा विशेष रुप से ग्राह्य है। वैसे भी चार वर्णों के लिए शास्त्रों में कहे
गए चार मुख्य त्योहारों में ब्राह्मण के लिए श्रावणीकर्म ही
निर्धारित है। क्षत्रियों के लिए दशहरा,वैश्यों के लिए दीपावली और शूद्रों के लिए
होली। किन्तु आजकल लोग इसे बिलकुल भुला बैठे हैं। श्रावण पूर्णिमा सिर्फ रक्षा
बन्धन, वो भी भाई-बहन का त्योहार बन कर रह गया है। श्रावण पूर्णिमा को
शाकद्वीपियों को क्या-क्या करना चाहिए, इसके लिए उपाकर्म-श्रावणीकर्म
पद्धति का अवलोकन करना चाहिए। ये पुस्तकें अभी आसानी से उपलब्ध हैं। पूरे वर्ष के लिए आवश्यक यज्ञोपवीत स्थापन हेतु
यह दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
क्रमशः...
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