शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिकाःसैंतीसवां भाग

गतांश से आगे...
सत्रहवें अध्याय का दूसरा भाग

                  ।। अथ मगकुलदेवतास्थापनविधि ।।२।।
 परम श्रद्धेय श्री चन्द्रमोहन मिश्रजी, पिथनुआं, वारुन, औरंगाबाद का पर्याप्त सानिध्य मिला । समय-समय पर उनसे विविध विषयों पर चर्चायें होती रही । उन्हीं में से एक है—मगकुलदेवतास्थापनविधि,जिसकी रचना उन्होंने सन् १९६६ में की थी । मिश्रजी उरवार पुरवासी हैं। उन्होंने बतलाया कि उरवार मात्र की कुलदेवी सिद्धेश्वरी हैं। इनका विस्तृत पटल और पद्धति भी उपलब्ध है। इनके यहां कुलदेवी का स्थान गृहवास्तुमंडल में नैर्ऋत्यकोण में पूर्वाभिमुख है। इस विषय पर चर्चा करने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रारम्भ में तो उन्हें भी संशय होता था कि देवी का स्थान राक्षसकोण में क्यों है। किन्तु बाद में चिन्तन करने पर अनुकूल समाधान भी मिल गया।
ध्यातव्य है कि इस कोण पर नवग्रहों में राहु को स्थान मिला है । नैर्ऋत्य कोण का तत्त्व पृथ्वी है,जो पंचतत्त्वों में सर्वाधिक स्थूलता और गुरुता का प्रतीक है। दूसरी बात ध्यान देने योग्य है कि दवा तो रोगी को ही चाहिए न? स्वस्थ व्यक्ति को क्या आवश्यकता है इसकी? पौष्टिकता दुर्बल को ही चाहिए न ?  वास्तुमंडल को सम्पूर्ण बल मिले, इसलिए कुलदेवी को राक्षस कोण पर स्थापित करते हैं। वास्तुविदों ने राक्षसकोण को रक्षककोण भी कहा है। यानी रक्षक का स्थान।  गृहवास्तु की रक्षा का दायित्व हो जिसपर। जिसकी सीधी दृष्टि ईशानकोण पर होती है। तदनुसार वायुकोण पर वाम और अग्निकोण पर दक्षिण दृष्टि होती है। रक्षक को बलिष्ठ भी होना ही चाहिए। इसप्रकार कुलदेवी/देवता को यहां स्थापित करने का औचित्य सिद्ध होता है।
यहां मिश्रजी द्वारा  बतलायी गयी, पूजा विधि की चर्चा करते हैं।

अथ ध्यानम्— यस्या पाणि तले सरोजममलं तस्यान्तरालेरमाः । देवस्तन्निकटे पुराण पुरुषःस्तन्नाभि पद्मे विधिः ।। तद वक्त्रेनिगमावली विरचिता याताक्रतूनां क्रिया । याभिर्जीवति देवता कुलमिदं मां पातु सिद्धेश्वरी ।।
  
            अथ संकल्प— हरि ॐ तत्सत् ॐ विष्णुर्विष्णुविष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे द्वितीययामे तृतीयमुहूर्ते  श्रीश्वेतवारहकल्पे  सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तरगते बौद्धावतारे प्रभवादि षष्टि संवत्सराणां मध्ये, वैक्रमाब्दे...संवत्सरे श्रीमच्शालिवाहनशाके यथायने सूर्ये यथा ऋतौ च यथा नक्षत्रे यथा-यथा राशि स्थिते ग्रहेषु सत्सु यथा लग्न मुहूर्त योग करणान्वितायाम् एवं ग्रह गुण विशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्य पर्वणि वर्तमाने...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे....मासे...पक्षे....तिथौ...वासरे...गोत्रः....शर्माहं सपत्निकोहं स कुटुम्बस्य मम शरीराविरोधेन क्षेमायुः सौमनस्यनैरुज्य सुत सौख्योत्तरोत्तर संन्तति वृद्धि विपुल धनधान्य सर्वविध कल्याणावाप्ति हेतवे सर्गोपसर्ग त्रिविधोत्पात ग्रहभूतादि बाधा शान्त्यर्थं श्री कुलदेवता सिद्धेश्वर्य्याः तत् प्रीति कामो समुपस्थित पूजा द्रव्यैः पूजनमहं करिष्ये ।

    प्रतिमायां भितौ त्रिशूले यन्त्रे अष्टदल कमले पीठे ध्यात्वा पुष्पाक्षतैः आवाह्य  ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः इति मन्त्रेण अर्घ्यादिभिः सम्पूज्य,ततः सिद्धेश्वरीकवचं पठेत् ।


अर्घ्यंसमर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । पाद्यं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । आचमनीयं जलं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । स्नानीयं जलं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । वस्त्रं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । उपवस्त्रं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । चन्दनं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । सिन्दूरं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । पुष्पं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । पुष्पमाल्यां च समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । कुमकुमं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । प्रत्यक्ष धूपं आघ्रापयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । दीपं दर्शयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । नैवेद्यं निवेदयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । नैवेद्यान्ते आचमनीयंजलं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । पुनराचमनीयंजलं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । शुद्धाचमनीयं जलं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । मुखवासार्थं ताम्बूलंपूगीफलंएलालवंगकर्पूरादि समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । दक्षिणाद्रव्यं च समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । नीराजनं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । आरार्तिकं समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः । मन्त्र पुष्पाञ्जलि समर्पयामि ऊँ सिद्धेश्वर्य्यै नमः(इति)
क्रमशः...

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