शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोधःपुण्यार्कमगदीपिकाःचालीसवां भाग

गतांश से आगे...
सत्रहवें अध्याय का पांचवां भाग

(नोट-आगे इस प्रसंग में जहां-जहां X चिह्न मिले वहां वैदिक स्वर ग्वं का उच्चारण करें। तकनीकि कारणों से यहां ये फॉन्ट नहीं आ पा रहा है)

             ।। अथ मगकुलदेवतास्थापनविधि ।।३।।
       पूर्वकृत्य— नये भवन में या नये स्थान में जिस दिन कुलदेवता/देवी की स्थापना करना सुनिश्चित हो, उसकी पूर्व संध्या को सपत्निक, स्नानादि से निवृत्त हो, नवीन वस्त्रादि धारण करके (ग्रन्थिबन्धन युक्त) अक्षत,पुष्प,सुपारी,द्रव्यादि लेकर पुराने कुलदेवस्थल में जाकर, एक पत्रावली पर मौन निवेदित कर दे - इस भाव से कि कल प्रातः आपको अपने नवीन स्थान पर स्थापन करने हेतु आमन्त्रित कर रहा हूँ। अगले दिन यथा समय पूर्व निवेदित पुष्पाक्षतादि को ग्रहण करके, मांगलिक कलश, गीतवाद्यादि सहित नवीन स्थान पर प्रस्थान करे।
       वहां पहुंचकर पवित्र आसन पर सपत्निक सुखासीन होकर,आगे की क्रिया अन्यान्य पूजा विधियों ही तरह ही सम्पन्न करे । बैठने के स्थान पर,दायीं ओर पत्नी द्वारा रोली से एक अधोत्रिकोण बनाया जाय, और पुरुष पूर्व से अपने हाथ में लिए हुए मांगलिक जलपात्र को ऊँ आधारशक्तयेनमः कहते हुए स्थापित कर दे।

       तत्पश्चात् आसन शुद्धि,शरीर शुद्धि इत्यादि —
ऊँ केशवाय नमः,ऊँ माधवाय नमः,ऊँ नारायणाय नमः – इन तीन मन्त्रों से तीन बार आचमन करे। तत्पश्चात् ऊँ हृषीकेशाय नमः बोलते हुए हाथ धो ले। ( सिर्फ पुरुष। ग्रन्थियुक्ता पत्नी को अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है।)
              तत्पश्चात् आसनार्थ विनियोग- ऊँ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः ।। - आसन के सामने जल गिरा, कर पुनः जल लेले और मन्त्रोच्चारण पूर्वक अपने आसन के चारो ओर जल-बन्धन करे- ऊँ पृथ्वी ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम् ।।
अब,तीन वा एक बार गायत्री मन्त्र पूर्वक पूरक,कुम्भक,रेचक प्राणायाम करे। तत्पश्चात् पीतल के जलपात्र में जलभर कर,गंगादि तीर्थजल मिश्रित करे। अभाव में सिर्फ मन्त्रोच्चारण करते हुए पात्र-जल को आम्रपल्लव से आलोड़ित करे— ऊँ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे सिन्धुकावेरी जलेस्मिन्सन्निधौकुरु ।।
अब,क्रमशः तीन कुशाओं की बंटी हुयी पवित्री बायें हाथ की अनामिका अंगुली में और दो कुशाओं की बंटी हुयी पवित्री दायें हाथ की अनामिका अंगुली में धारण करे अग्रांकित मन्त्रोच्चारण पूर्वक- ऊँ पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसवः उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । तस्य ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुने तच्छकेयम्।। अथवा मात्र ऊँ भूर्भुवःस्वः कह कर पहन लें(स्त्री को पवित्री धारण करने की आवश्यकता नहीं है, उसे सोने की अंगूठी धारण करनी चाहिए)।
अब विनियोग करे—  ऊँ अपवित्रःपवित्रोवेत्यस्य वामदेवऋषिः विष्णुर्देवता गायत्री छन्दः हृदि पवित्रकरणे विनियोगः।।
              अब,कलछी वा आम्रपल्लव से जल लेकर मन्त्रोच्चारण पूर्वक अपने चारो ओर और सभी पूजन सामग्रियों पर भी जल का छिड़काव करे-ऊँ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स वाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।। ऊँ पुण्डरीकाक्षःपुनातु, ऊँ पुण्डरीकाक्षःपुनातु, ऊँ पुण्डरीकाक्षःपुनातु ।।

  तत्पश्चात् अक्षतपुष्पपूंगीफलद्रव्यादि लेकर स्वतिवाचन मन्त्रोच्चार करे—
ऊँ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः । देवा नो यथा सदमिद्वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे ।। देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानाँ Xरातिरभि नो निवर्तताम् । देवानांXसक्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे ।। तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्। अर्यमणं वरुणँXसोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ।। तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः ।। तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना श्रृणुतं धिष्ण्या युवम् ।। तमाशानं जगतस्त्स्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम् । पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ।। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाःस्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्तिन- स्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो वृहस्पतिरधातु ।। पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः । अग्निजिह्वा मनवः सूरचश्रसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह ।। भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाXसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ।। शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ।। अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः ।। विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ।। द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष X शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वXशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।। यतो यतःसमीहसे ततो नो अभयं कुरु । शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ।। सुशान्तिर्भवतु ।। ॐ गणानान्त्वा गणपतिXहवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपतिXहवामहे निधीनान्त्वा निधिपतिXहवामहे वसो मम । आहमाजानि गर्ब्भधमात्वमजासि गर्ब्भधम् ।। ॐ अम्बे अम्बिके अम्बालिके न मा नयति कश्चन । ससस्त्यस्वकः सुभद्रिकाङ्काम्पीलवासि -नीम् ।। ॐ श्रीमन्महागणाधिपतये नमः। ॐ लक्ष्मीनारायणाय नमः। ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः । ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः। ॐ मातृपितृ चरणकमलेभ्यो नमः । ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः । ॐ कुलदेवताभ्यो नमः । ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः । ॐवास्तुदेवताभ्यो नमः । ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः । ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः । ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः ।  ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय ॐ श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।। ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।। धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।। विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे सकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।। शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ।। अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ।। सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये ! शिवे ! सर्वार्थ साधिके । शरण्ये त्र्यम्बके ! गौरि नारायणि नमोऽस्तुते ।। सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममंगलम् । येषां हृदिस्थो भगवान् मंगलायतनं हरिः ।। तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव । विद्याबलं देवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि ।। लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः । येषामिन्दवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ।। यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम ।। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। स्मृतेः सकल कल्याणं भाजते यत्र जायते । पुरुषं तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम् ।। सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः । देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशान- जनार्दनाः ।। विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम् । वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ।। वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।। ॐ श्री गणेशाम्बिकाभ्यां नमः ।।
 (नोट— शुभकार्यारम्भ में स्वस्तिवाचन और संकल्प अत्यावश्यक कर्म है । इसे किंचित संक्षिप्त रीति से भी करने का चलन है।  सुविधानुसार किया जाना चाहिए।)  

  तत्पश्चात् जलाक्षतपुष्पपूगीफलद्रव्यादि लेकर संकल्प करे— हरि ॐ तत्सत् ॐ विष्णुर्विष्णुविष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे द्वितीययामे तृतीयमुहूर्ते  श्रीश्वेतवारहकल्पे  सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैक- देशान्तरगते बौद्धावतारे प्रभवादि षष्टिसंवत्सराणां मध्ये, वैक्रमाब्दे...संवत्सरे श्रीमच्शा- लिवाहनशाके यथायने सूर्ये यथा ऋतौ च यथा नक्षत्रे यथा-यथा राशि स्थिते ग्रहेषु सत्सु यथा लग्न मुहूर्त योग करणान्वितायाम् एवं ग्रह गुण विशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्य पर्वणि वर्तमाने...नगरे/ग्रामे/क्षेत्रे....मासे...पक्षे....तिथौ...वासरे...गोत्रः....शर्माहं सपत्निकोहं स कुटुम्बस्य मम शरीराविरोधेन क्षेमायुः सौमनस्यनैरुज्य सुत सौख्योत्तरोत्तर संन्तति वृद्धि विपुल धनधान्य सर्वविध कल्याणावाप्ति हेतवे सर्गोपसर्ग त्रिविधोत्पात ग्रहभूतादि बाधा शान्त्यर्थं श्री कुलदेवता सिद्धेश्वर्य्याः तत् प्रीति कामो समुपस्थित पूजा द्रव्यैः पूजनमहं करिष्ये ।
तत्पश्चात् गोपीचन्दन,गंगामृत्तिका (गंगौट) वा गौरमृत्तिका,पीतमृत्तिकादि से उस स्थान को (भित्ती को) आवश्यकतानुसार चतुरस्र मंडल लेपित करे, जहां देव-स्थापन करना है। ध्यातव्य है कि मंडल-लेपन-कार्य प्रत्येक वर्ष किया जाता है। विवाहादि नैमित्तिक वा अर्द्धवार्षिक पूजन के समय पूर्व लेप पर ही सिर्फ छापे की आवृत्ति होती है, जिसे थापा जगाना कहते हैं।
मृत्तिका लेपित मंडल को रेखा,पुष्पपत्रादि से चित्रित करके सजा दे । कहीं-कहीं किसी कुल में बिना घेरे की भी आकृति मिलती है।  किन्तु पूजा-स्थान को सजाना-सवांरना या यूं ही छोड़ देना कोई विधानोचित बात नहीं प्रतीत होरही है । स्पष्टतः यह पूजक की मनस्थिति और श्रद्धा का द्योतक है। ऐसा नहीं कि नहीं सजे हुए देवता को कोई सजा-सवांर देगा तो भारी अनिष्ट हो जायेगा। हां, देवता की मौलिक आकृति में किसी तरह का छेड़छाड़ करना कदापि उचित नहीं है ।  अज्ञानवश या प्रमादवश होती चली आ रही किसी प्रकार की त्रुटि में सुधार करना भी अति साहसी और विद्वान-विवेकशील पुरुष का ही काम हो सकता है।

उदाहरणार्थ यहां दो बहु चर्चित आकृतियों का रेखाचित्र प्रस्तत कर रहा हूँ। कहीं-कहीं थापाओं(तण्डुलपिष्टी-लेपित हथेली की छाप) की दो पंक्तियों के बीच एक वृत्त बना हुआ भी मिलता है,जिसपर सिन्दूर से पुनः किंचित  छोटा वृत्त चित्रित रहता है। वस्तुतः विभूतियों सहित सूर्य की आकृति जान पड़ती है यह । पूर्व में भी कह चुके हैं कि थापाओं की संख्या में काफी भेद मिलता है। अतः लोगों को अपने कुलाचारानुसार अनुशरण करना चाहिए।

 प्रसंगवश उक्त आकृतियों पर थोड़ी चर्चा समीचीन होगी। सबसे पहले दायीं ओर अलग छोटे से मंडल में दिये गए दो छापों की बात करते हैं। प्रायः लोग इन्हें दाई माँ या देवता की सहयोगिनी(उपदेव) मान लेते हैं। वस्तुतः इन दो में एक हैं- आद्यपूजित विघ्न विनाशक गणपति और दूसरे हैं परमशिव । इन्हें पक्षयुग्मदेव वा पखेजु के नाम से भी जाना-माना जाता है। कुलदेवता-मंडल की पूजा या कहें आकृति निर्माण (दोनों कार्य) पहले यहीं से प्रारम्भ करना चाहिए,तत्पश्चात् शेष छापों का सृजन एवं पूजन करेंगे। सिन्दूरादि लेपन भी पहले इन्हीं दो पर करेंगे। सिन्दूर-लेपन-आदेश से यह भ्रम भी हो सकता है कि पुरुष देवों को सिन्दूर क्यों ? ये तो सर्वविदित है कि गणेश और हनुमान दो पुरुष देवता अपवाद स्वरुप हैं, यानी इन दोनों को सिन्दूर अर्पित करना अनिवार्य है। फिर भी शिव को क्यों ? वस्तुतः शिव में शिवा का अन्तर्भाव है यहां । कुछ विद्वानों का मत है कि ये दोनों पक्षेश शुक्ल-कृष्ण पक्षों के अधिपति यानी सूर्य और चन्द्र का प्रतिनित्व कर रहे हैं, जो स-शक्ति हैं।
  आचार्य गणेशदत्त मिश्रजी इन पक्षेशों के पूजन के लिए ऊँ गणपतये नमः  एवं    ऊँ शिवाय नमः मन्त्र सुझाये हैं। आचार्य चन्द्रमोहन मिश्रजी इन्हें सूर्य और चन्द्र मान रहे हैं। यदि सीधे हम सूर्य और गणेश रुप में भी स्वीकारें तो भी किसी प्रकार की आपत्ति और संशय नहीं होना चाहिए। कृष्णपक्ष नाम ही पड़ा है कृष्ण की प्रधानता से और गणेश तो साक्षात कृष्ण ही हैं - इस रहस्य को ठीक से हृदयंगम कर लेना चाहिए । और ठीक इसी भांति सूर्य और शिव में भेदाभास अज्ञान सूचक है। आदित्यहृदय स्तोत्र में स्पष्ट कहा गया है— आदित्यं च शिवंविद्याच्छिवमादित्य रुपिणम् ।
उभयोरन्तरं नास्ति आदित्यस्य शिवस्य च ।।११६।।
प्रातः कालिक सूर्य को ब्रह्म स्वरुप, मध्याह्न कालिक सूर्य को विष्णु स्वरुप, और सायं कालिक सूर्य को शिव स्वरुप माना गया है- ययुर्वेदीय संध्या प्रकरण में । तद्भांति ही तत्-तत् कालिक गायत्री का स्वरुप भी त्रिरुपा(ब्रह्माणी,वैष्णवी,शिवा)मान्य है। किन्तु आदित्यहृदयस्तोत्र में किंचित भिन्न स्थिति कही गयी है- उदये बह्मणो रुपं मध्याह्ने तु महेश्वरः अस्तमाने स्वयं विष्णु स्त्रिमूर्तिश्च दिवाकरः । (११७ का उत्तरार्द्ध एवं  ११८ का पूर्वार्द्ध) । परन्तु इस स्थानभेद, कालभेद से भ्रमित नहीं होना चाहिए। वस्तुतः ये सब क्रियाभेद है।
  खैर,इतना तो निश्चित है कि गणेश, शिव, सूर्यादि कुछ भी कहने-मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हां, आपत्ति होनी चाहिए इन्हें दाईमाँ कहने में । दाईमाँ कह-मान कर प्रधान को ही हमने गौण कर दिया – यह अक्षम्य त्रुटि कही जायेगी।
अब, उक्त मण्डलान्तर्गत शेष छापों की चर्चा करते हैं। आकृति में दिखलाये गए नौ छापे क्रमशः नौ विभूतियों (शक्तियों) के हैं— १.ब्राह्मी, २.माहेश्वरी, ३.कौमारी, ४.वैष्णवी, ५.वाराही, ६.नारसिंही, ७.ऐन्द्री, ८.शिवदूती और ९.चामुण्डा । इनका पूजन प्रणव और नमः युक्त पंचाक्षर मन्त्र से करना चाहिए। यथा- ऊँ ब्राह्म्यै नमः, ऊँ माहेश्वर्य्यै नमः इत्यादि । इन नौ छापों के अतिरिक्त चार और   नाम हैं-१०.विष्णु, ११.लक्ष्मी, १२.ब्रह्मा और१३.सिद्धेश्वरी । इस प्रकार २++४ कुल १५ स्वरुपों की पूजा होती है कुलदेवतापूजन में।

क्रमशः... 

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