रहते कहाँ हो ?
अकसर ये सवाल मन को झकझोरता है ।
‘
रहते कहां हो ? ’
- सवाल ही इस बात की ख़बर है कि ‘
होना
’ तो मंजूर है , पर रहने की जगह में
संदेह है या कहें रहने का सही ठिकाना मालूम नहीं । बड़े-बुज़ुर्गों की कही बातें, मोटी-मोटी किताबों
की तरह-तरह की बातें और इन सब के उलट-पुलट, टटोल-मटोल के बाद दिल-वो-दिमाग में
उठने वाले बेहिसाब बवण्डर, बाप रे बाप !
लोगों की देखा-देखी, सुनी-सुनायी
युक्तियों के सहारे ढूढ़ने-जानने का कई बार प्रयास किया, किन्तु हर बार निराशा ही
हाथ लगी । आख़िर क्यों ?
क्या मैंने गलत जगह में ढूढ़ा ? गलत तरीके से ढूढ़ा ? या कि कहने-बतलाने वाले ने ही
गलत बतला दिया - कुछ कह नहीं सकता । हां, साथ में एक और सवाल भी उठा— बतलाने वाले
ने क्या कभी देखा ? मिला ? कुछ बातचीत
भी हुयी उससे ? या यूं ही वो भी सुनी-सुनायी बातें बक गया ?
किन्तु इतने भाग-दौड़,खोज-बीन के बाद जो कुछ
समझा-जाना, वो सिर्फ इतना ही कि उन सारे जगहों में वो बिलकुल नहीं है, अकसरहां जिसके
बारे में लोग कहा करते हैं ।
और इसी उधेड़बुन में हिचकोले
खाता,शरीर और मन से थका-मादा,विस्तर पर औंधे मुंह गिर पड़ा । न जाने कब आँखें लग
गयीं ।
आँखें लग जाने का सामान्य अर्थ
होता है नींद के आगोश में समा जाना,किन्तु इसे पक्के तौर पर नींद भी कैसे कहूं ?
सपना है - मानने को मन गवाही नहीं दे रहा । बहुत बार ऐसा होता है कि
सपने और सच के बीच अन्तर करना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है । जैसे कि वो पुरानी
वाली किताबों में कुछ अनुभवियों ने लिखा है कि ये संसार ही सपना है...।
जीता-जागता, दौड़ता-भागता ये इऽत्ताऽ बड़ा सा संसार जब सपना हो सकता है, फिर बाकी
की बातें...!
मैंने देखा...नहीं, देखा कैसे ?
देखने के लिए तो आँखों का खुला होना जरुरी होता है न ? सुना । ऐसा लगा मुझे— हाथ पकड़ कर
कोई मुझे उठा रहा है — उत्तिष्ठ !...जाग्रत !...वाले अन्दाज में—उठो,जागो,देखो...।
मेरे चारों ओर अज़ीब तरह की
रौशनी थी । ऐसी रौशनी पहले कभी देखा नहीं था । रौशनी भी ऐसी हो सकती है - सोचा भी
नहीं था । उस खास तरह की रौशनी के सिवा कहीं कुछ और न था या हो भी यदि तो मेरी
आँखें देख न पा रही थी,किन्तु कान सुन पा रहे थे ।
मैं सुन रहा था—
‘‘
देखो,ये सब इमारतें देख रहे हो न !
ये गोल गुम्बद वाली...ये मेहराब़ वाली...और ये शंकू वाली...और ये वाली और ये वाली भी...चारो
ओर शोर है—कोई कहता है - ये वाला मेरा घर है...कोई कहता है वो वाला मेरा घर
है...कोई कहता है वो वाला मेरा घर है...। ये वाला सबसे बढ़िया है...ये वाला सबका
सिरताज है...इमारतों की श़क्लें ज़ुदा-ज़ुदा हैं, परन्तु सभी बने हुए हैं एक सी ही
ईंट-गारों से । बनाने वाले हाथ भी एक जैसे ही हैं- पांच उँगलियों वाले । बस, फ़र्क
इतना ही है कि बनने के साथ ही उनका अलग-अलग नाम हो गया है । और जानते हो— असल
झमेला इन सारे नामों से ही है । तुम्हारे जनमने के पहले तुम्हारा कोई नाम था क्या ?
तुम्हारा कोई घर था क्या ? जहां जनमे वही घर
हो गया न । जिस नाम से पुकार लिए गए - वस ‘
वहीं भर ’
होकर रह गए तुम । रत्ती भर भी इधर-उधर नहीं हो पाये । इन नामों ने जकड़ लिया
तुम्हें । इन बेतुके नामों की खूँटियों पर टंग गए तुम । इन चारदीवारों ने कैद कर
लिया तुम्हें । और इस कैदखाने को ही घर समझ लिया तूने—मेरा घर...अपना घर । दरअसल, इन सारी इमारतों में न कोई तुम्हारा घर है और न मेरा ही । इन
चारदीवारों में न कोई तुम्हें कैद कर सकता है और न मुझे ही । ये बिलकुल तय मान लो
कि इन इमारतों में मैं रहा ही नहीं कभी । क्यों कि यहां बहुत शोर-श़राबा है । बहुत
झगड़े-फस़ाद हैं । यूं कहो कि दुनिया के सारे फ़सादों की जड़ ये इमारतें ही हैं और
साथ ही है वो ‘
तुम्हारा वाला
’ नाम जिसे तुम्हारे अपने कहे जाने वाले
लोगों ने दे दिया था, ज़बरन थोप दिया था — अपने निजी स्वार्थ में । और तुम भी फंस
गए उनकी जाल में । तुमने कभी कोशिश भी नहीं की ये जानने की कि ‘ मैं ’
कौन हूँ ? तुम पक्के तौर पर
जान लो कि तुम वही हो जो मैं हूँ । मैं,
तुम और वो का झमेला खत्म करो । और सबसे बड़ी बात यह कि मुझे ढूढ़ने की कवाय़द
बिलकुल फ़िजूल है । मेरा कोई घर नहीं । मेरा कोई अता-पता ठिकाना नहीं । कहां
ढूढ़ोगे ? किसी की मत सुनो । ये सबके सब तुम्हें अपने-अपने
मक़सद के लिए बरगलाया है सिर्फ । तुम जहां हो, जैसे हो, जिस हाल में हो बस ‘थिर’
हो जाओ । बहुत भाग-दौड़ कर लिए रेगिस्तानी चश़्मे की तलाश़ में । अब चुप बैठ जाओ ।
मैं यहीं रहता हूँ...बिलकुल तुम्हारे पास ही...तुम्हारे ही भीतर...तुम्हारी ही सांसों
की डोर से बंधा हुआ सा। ’’
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