भीड़तन्त्र की वाम साधना


भीड़तन्त्र की वाम साधना
     जैसा कि आप सभी जानते हैं — तन्त्र अनेक हैं । बल्कि यूं कहें कि तन्त्र ही अनेक नहीं हैं, तन्त्र के अर्थ भी अनेक हैं । इतना ही नहीं इस अर्थ के भी अनेक अर्थ हैं— हिन्दीवाला,अंग्रेजीवाला,इकोनोमिक्शवाला,साहित्यवाला... । ज़ाहिर सी बात है कि जहां अर्थ होगा अनर्थ भी होगा ही । अर्थ और अनर्थ का सम्बन्ध करीब-करीब चोली-दामन जैसा है ।
  बात हम तन्त्र की कर रहे थे । वो जो पुराना वाला तन्त्रशास्त्र है न, वहां दो तरह से साधना करने की बात कही जाती है- वो दाहिना वाला और वायां वाला । अंग्रेजीवाले इसी को लेफ्टिस्ट और राइटिस्ट कहते हैं ।  
 आदमी महाकाली तो है नहीं , जो इसके अठारह हाथ और अठारह पैर होंगे । अच्छा ही हुआ कि आदमी केवल आदमी हुआ और बनाने वाले ने इसे सिर्फ दो हाथ और दो ही पैर दिये ।  काली-दुर्गा नहीं, संयोग से यदि विष्णु भी हो जाता - चार हाथों वाला तो पता नहीं क्या से क्या कर गुज़ारता । ख़ैरियत है कि सिर्फ आदमी ही हुआ ।  वैसे गौर से देखें यदि तो आदमी भी कहां है ? आदमी जैसा दीखता है भर है ।  वो भी जब भीड़तन्त्र की साधना में आ जुटता है,तब थोड़ा-बहुत दीखने वाला आदमी वाला रुप भी ग़ायब हो जाता है । भीड़ का हिस्सा बनते ही तत्काल दो पैर और उग आते हैं और फिर भेंड़ बन जाता है । और आप जानते ही हैं कि भेंड़ एक बे-चारा सा प्राणी है, जिसे सदा गड़ेरिये के इशारे पर चलना होता है । वो खाता है प्रकृति का घास । रहता है खुले आकाश के नीचे । परन्तु मूड़-माड़कर सब छीन लेता है - वो कम्बलवाला ।  और इसके पास सिर्फ मिमियाने के सिवा और कुछ बचा नहीं रहता । किन्तु एक खास़ियत भी है- बड़ी जल्दी ही सब भूल-भाल जाता है । फिर वही घास,वही आकाश ।
   ये भीड़तन्त्र की साधना है न, आजकल बहुत पनप रही है— भक्तों की भीड़,फॉलोवरों की भीड़,गुरुओं की भीड़,चेलों की भीड़,सत्याग्रहियों की भीड़,असत्याग्रहियों की भीड़, क्रान्तिकारियों की भीड़,आतंकियों की भीड़,साधुओं की भीड़,सवाधुओं की भीड़...भीड़...भीड़...भीड़ ।
   ऐसा न सोचें कि इस तन्त्र में दक्षिण-साधना है ही नहीं । अरे भाई ! इसकी दक्षिण-साधना तो बिलकुल संविधान-सम्मत है । शुरु तो हुयी थी ये साधना दक्षिण विधि से ही । एक दुबले-पतले लकुटिवाले ने सिखाया था सबको कि कब आसन मारना है, कब आँखें मीचना है, कब खोलना है, कब आहुति देनी है...। 
 आदत वहीं से लगी, या कहें लगायी गयी,जो भी हो । मुख्य बात है कि लोकतन्त्र के सेहत के लिए इसे सर्वाधिक अच्छा समझा गया । किन्तु धीरे-धीरे हवा का रुख बदलता गया। और फिर दक्षिण को वाम बनने में देर ही कितनी लगती है ? लेफ्ट-राइट का डिफरेन्श ही कितना है, जब कि परिणाम में आसमान-जमीन का फ़र्क है । एक ओर आशुकारी चमत्कार की पूरी-पूरी सम्भावना है, तो दूसरी ओर प्रतीक्षा की अवधि ही अनिर्धारित है । ऐसे में वाम के विकास पर लोकतन्त्र के नायकों ने ज्यादा ध्यान दिया । और अब तो ऐसा लगता है कि इसके बिना लोकतन्त्र के प्राण ही नहीं बचेंगे।  जाहिर है कि इसमें चमत्कार जल्दी होता है । चमत्कार को नमस्कार करना, किसे अच्छा नहीं लगता ?   
वर्तमान में भीड़तन्त्र की एक मात्र साधना विधि रह गयी है - वाम वाली ही । दक्षिणवाली बिलकुल आउटडेटेड हो गयी है। एक्पायर्ड कहना ज्यादा अच्छा होगा ।
   दक्षिण वाली विधा में गुरु आगे-आगे होता था और चेला पीछे-पीछे । वाम का मतलब ही होता है ठीक उल्टा यानी चेला आगे,गुरु पीछे । हालाकि गुरु का पीछे रहना भी कोई जरुरी नहीं । दूरभाष और दूरदर्शन के जमाने में क्या साथ, क्या आगे, क्या पीछे ! यही कारण है कि वामतन्त्र में नवसिखुओं को सदा आगे रखा जाता है । ऐसा नहीं कि कमजोर विद्यार्थी को पिछली वेंच पर विठा दिया जाये । दरअसल यहां बैकबेन्चर कोई होता ही नहीं । कोई होना भी नहीं चाहता । पीछे रहेगा तो मीडिया के कैमरे में समायेगा कैसे ?
   समाजशास्त्री कहते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है । वो अकेला रह ही नहीं सकता । और आजकल तो और भी खतरा है अकेले रहने में, क्यों कि पहले भालू-भेड़िये जंगलों में  रहते थे और आदमी गांवों में । पर अब सब गडमड हो गया है । नये वाले संविधान ने छूट दे दी है - कोई भी कहीं भी रह सकता है – सर्व भूमि गोपाल की जहां चाहिए ठौर...। अतः सामाजिक प्राणी होने के नाते भीड़ में शामिल होना आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य हो गया है ।
   अन्य तन्त्रों की वाम साधना में सुनते हैं कि तत्काल दंड है । किन्तु भीड़तन्त्र की वामसाधना बिलकुल निरापद है । किसी तरह का कोई नियम-संयम,कायदा-कानून यहां लागू ही नहीं होता । फिर दण्डविधान का सवाल ही कहां उठता है । क्या आपने देखा है अब तक,सुना है कहीं भी कि भीड़ ने कुछ किया और उस पर किसी तरह की कारवायी हुयी ?
   असल में भीड़ कोई व्यक्ति तो है नहीं । हां, भीड़ की अभिव्यक्ति होती है सिर्फ । और शक्ति तो अभिव्यक्ति में ही निहित है न । अनुभवी लोग कहते हैं कि भीड़तन्त्र की सिद्धि ही लोकतन्त्र की मर्यादा है । लोक का तन्त्र । लोक मतलब – भीड़ , जिसके पास दिमाग नाम की कोई डिवाइस होती ही नहीं ।  रिमोट की वटन की तरह - कहीं बैठे रहो,काम कहीं होता रहे ।
     अब जरा इस साधना की सुपात्रता का भी विचार कर लें । वो गदहपचीसी वाली बात तो ध्यान में होगी ही । हर कोई जीवन में एक दफ़ा इस दौर से ज़रुर गुज़रा करता है । साधना की दृष्टि से ये अब्बल दर्जे का समय है । इस दौर के चेले बनाने में गुरु की सफलता शत प्रतिशत सुनिश्चित है । इधर नये दौर में बराबरी के दर्ज़े का ख्याल रखते हुए महिलाओं को भी पहली सूची में ऱखने का प्रावधान कर दिया गया है । भीड़तन्त्र की वामसाधना में इसके कई लाभ हैं- गुरु को भी और चेले-चेलियों को भी । महिला को आगे रखने का लाभ जब कुन्ती नन्दन अर्जुन को मिल सकता है,फिर औरों को क्यों नहीं ! साधक-पात्रता की तीसरी सूची में आते हैं वैसे साधक जो लम्बे समय से निठल्लू जीवन गुज़ारते हुए,किसी झुरमुट में,नदी किनारे के एकान्त-निर्जन स्थानों पर या किसी खाली पड़े लावारिश से मकानों में छोटी-छोटी टोली बनाकर, बावनपत्तों की साधना में निरन्तर रत रहते हैं । कुछ ऐसे लोग भी पात्रता-सूची में आते हैं जो दिन में तो खूब पसीना बहाते हैं, परन्तु शाम होते-होते पसीने के मोल को बोतलों या कहें पाउचों से तौलनें में जरा भी नहीं हिचकते । घर-गृहस्थी,चूल्हा-चौका से उन्हें ज्यादा वास्ता नहीं रहता । पीठ-पूजा के डर से बीबी रोटियां तो दे ही देती हैं । हालाकि वो बीबियां भी अब चतुर हो गयी है थोड़ी। भीड़तन्त्रसाधना उन्हें भी भा रही है।
       तो आइये,लोकतन्त्र की मर्यादा की रक्षा करें । भीड़तन्त्र की वामसाधना की दीक्षा जल्दी ले लें । अन्यथा भीष्म-द्रोण की तरह आप भी गुनहगार साबित हो सकते हैं । आपके अपने लोग ही नोच-नोच कर बांट-बूंट लेंगे- अपने-अपने हिस्से की भीड़ । क्यों कि चीरहरण अब पांडवों के जिम्मे है । कौरव तो नाहक बदनाम हैं ।।
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