पृथ्वीदिवस — असहयोग न करने का संकल्प

पृथ्वीदिवस — असहयोग न करने का संकल्प

 आये दिन तरह-तरह के दिवस मनाने का चलन है । दिवस मनाने की इस परम्परा में स्थिति और सुविधा के अनुसार हम प्रायः एक कोरम भर पूरा कर लेते हैं । दिवस यानी दिन यानी वो एक दिन जिसे साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में से किसी एक दिन को हम किसी एक के नाम कर देते हैं । कुछ देर के लिए बैठक हो जाती है । इसी बहाने थोड़ा मिलना-जुलना हो जाता है । कुछ भाषणवाजी हो जाती है । व्यवस्था रही तो खाना-पीना भी हो जाता है । और फिर किसी अगले दिवस की योजना बनती है । दिवसों की उसी सूची में एक है—  पृथ्वी दिवस भी ।

पृथ्वी को हमारे यहां माता कहने-मानने की परम्परा रही है । वैसे तो हम मातृदिवस भी माना ही लेते हैं, भले ही माँवों को वृद्धाश्रम में क्यों न छोड़ आये हों । पुराणों में कथा मिलती है कि पृथ्वीवासियों के कर्मों से क्षुब्ध होकर पृथ्वी गौ का रुप धारण करके लोकपालक शेषशायी विष्णु के पास गुहार लगाती है । उसके दुःख से द्रवित होकर दयासिन्धु,करुणासागर विष्णु आश्वासन देते हैं—भूभार हरण करने का ।

पृथ्वी के आर्तनाद का ये सिलसिला प्रायः चलते रहता है और विष्णु द्वारा विभिन्न प्रकारों से उसके उद्धार का भी । इस घटना का आभास हमें श्रीकृष्ण के श्रीमद्भगवद्गीतान्तर्गत उद्घोष में मिलता है—
यदायदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।

अद्यतनकाल में पृथ्वी पर अनेक समस्यायें हैं, जिनमें ज्यादातर हमारी अपनी ही बनायी हुयी है । खैरियत ये है कि सृष्टि के पञ्चमहाभूत – आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी के सूक्ष्म स्वरुपों पर हमारा नियन्त्रण कदापि नहीं हो सकता , अन्यथा उसे भी नहीं बकसते । स्थूल घटकों को तो बरबाद करने में हमने कोई कसर छोड़ा ही नहीं है । निरन्तर विनाश की ओर घसीटे जा रहे हैं और इसे ही विकास कहे जा रहे हैं ।

 सच्चाई ये है कि पांच तत्त्वों में कोई भी शुद्ध नहीं रह गया है और इन सबकी अशुद्धि के लिए मुख्य रुप से हम स्वयं ही जिम्मेवार हैं । इस गैरजिम्मेवारी को यदि हम महसूस करते हैं और अपनी गलती कबूल करते हैं, तो हमारा एक मात्र कर्तव्य होता है कि हम इन अशुद्धियों को दूर करने का प्रयास करें ।

ध्यान रहे- प्रकृति स्वयं सब कुछ करने में समर्थ है । इसे किसी के सहयोग की रत्ती भर भी आवश्यकता नहीं है । वस मेरा कर्तव्य सिर्फ इतना ही है कि प्रकृति के कार्य में असहयोग न करें , क्यों कि असहयोग न करना, सहयोग करने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हुआ करता है । 

पेड़ नहीं लगा सकते कोई बात नहीं, पेड़ न काटने का संकल्प तो ले ही सकते हैं । पृथ्वी की उत्पत्ति जलतत्त्व से हुयी है, यानी जल ही उसका आधार है । जल नाम की सार्थकता इसी से सिद्ध होती है क्यों कि  ज+ल से बनने वाले इस तत्व से ही हमारा जीवन शुरु होता है, चलता है और इसी में लय यानी विलीन भी हो जाता है । पृथ्वी की आत्मा जल में संनिहित है । पृथ्वी पर फैली पड़ी नदियां ठीक उसी तरह हैं जैसे हमारे शरीर में नस-नाडियां । नस-नाड़ियों के बिना क्या हम जीवित रह सकते हैं ? 

हम इस जल को दूषित होने से तो बचा ही सकते हैं अपनी कोशिश और बुद्धि से । नदियों की सफाई के नाम पर शोर मचाने से, गोष्ठियां और सेमीनार करने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता कि हम दृढ़ संकल्पी होते—आगे से इन्हें गन्दा न करते  । और पक्की बात है कि हमसे कहीं अधिक तेजी से प्रकृति स्वयं ही इसे स्वच्छ कर देगी, यदि इसके साथ असहयोग करना हम बन्द कर दें ।

 कल्पना करें कि क्या हम अन्तःस्रावीग्रन्थियों ( Endocrine glands)  के बिना जिन्दा रह सकते हैं ? नहीं न । तो फिर  कंकरीट के जंगल बनाने की होड़ में पहाड़ों को नष्ट क्यों किये जा रहे हैं ? अंगुलीमाल को बुद्ध ने यही कह कर कायल किया था न कि यदि तुम एक टहनी को जोड़ नहीं सकते तो फिर तुम्हें क्या हक है कि किसी पेड़ को काटो ! पहाड़ों में पलीते लगाकर विस्फोट करके हर्षित होते हैं हम , किन्तु पलक झपकने भर के लिए भी पृथ्वी डोलती है यदि तो त्राहिमाम्-त्राहिमाम् होने लगता है । ये विरोधाभास कबतक चलेगा ! इसके लिए तो कुछ ठोस कदम उठाने ही होंगे न ?

अपराधी प्रायः अपना चेहरा छुपा कर चलते हैं । हम भी तो कुछ वैसा ही कर रहे हैं । तरह-तरह के     मॉस्क लगा कर सड़कों पर निकलते हैं, फिर भी सेनाटोरियम पटे पड़े हैं फेफड़ों के मरीज़ों से । परमात्मा का दिया हुआ सुन्दर मुखड़ा इस तरह से कब तक ढकते रहेंगे ?

अन्तरिक्ष तक को हमने बक्शा नहीं। विकास की अन्धाधुन्ध दौड़ में सेटेलाइटों की नुमाइश लगा रखें हैं । विश्वशान्ति पर संगोष्ठियां करते हैं और स्वयं में भयभीत, ब्रह्भोसों की तैयारी में जुटे हैं । ये तरह-तरह की मिसाइलें बनाकर किसे डरा रहे हैं या कहें खुद डरे हुए हैं और अपने भीतर के डर को छिपाने के लिए बाहरी डर पैदा करने का क्षुद्र प्रयास कर रहे हैं ?

.ये दिवस मनाने भर से कुछ होने-जाने को नहीं है । शेष तीनसौचौंसठ दिन तो फिर वही होगा न जो करते आ रहे हैं ?
अतः संकल्पी होना होगा— प्रकृति के साथ खिलवाड़ न करने का । अन्यथा वो महाशक्ति हमें कतयी माफ नहीं करेगी । अस्तु।  

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