रजोधर्मःज्योतिषीय दृष्टि


रजोधर्मःज्योतिषीय दृष्टि

            प्रायः अज्ञानवश हम ग्रहों को ही कर्ता मान लेते हैं,जबकि बात ऐसी बिलकुल नहीं है। वस्तुतः इस पञ्च तत्त्वात्मक सृष्टि में सूर्यादि नवग्रहों को काल-संकेतक के रुप में स्वीकार किया गया है । महाभारत अनुशासनपर्व,अध्याय  १४५ में स्पष्ट कहा गया है – 
नक्षत्राणि ग्रहाश्चैव शुभाशुभ निवेदिका । 
मानवानां महाभागे न तु कर्मकराः स्वयम् ।।
प्रजानां तु हितार्थाय शुभाशुभविधिंप्रति । 
अनागतमतिक्रान्तं ज्योतिश्चक्रेण बोध्यते ।।
किन्तु तत्र शुभं कर्म सुग्रहैस्तु निवेद्यते ।
दुष्कृतस्याशुभैरेव समवायो भवेदिति ।।        
केवलं ग्रहनक्षत्रं न करोतु शुभाशुभम् । 
सर्वमात्मकृतं कर्म लोकवादो ग्रहा इति ।।
अर्थात ग्रहनक्षत्रादि मनुष्य को शुभाशुभ की सूचना देते हैं । वे स्वयं कोई काम करते नहीं,प्रत्युत प्रजाजन के हितार्थ ज्यौतिषचक्र के द्वारा कालत्रय (भूत,वर्तमान,भविष्य) में घटित होने वाले फलाफल का बोध मात्र कराते हैं। शुभकर्मफल हेतु शुभग्रहों से संकेत मिलता है और पापकर्मफल हेतु पापग्रहों से । मूल में जो भी है, वो सब अपना ही किया-कराया है । और इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मानव-जीवन के समस्त क्रिया-कलाप,उतार-चढ़ाव,सुख-दुःख,आधि-व्याधि सबकुछ ग्रहों से ही संकेतित होते हैं ।

यदि ऐसा ही है तो स्त्रियों का रजोधर्म यानी मासिकचक्र क्यों अछूता रह सकता है इनसे ! भारतीय ज्योतिर्विदों ने इसपर भी गहन प्रकाश डाला है । उन्हीं आलोकों में आज इसपर थोड़ी चर्चा करते हैं ।

            शाकद्वीपीय कुलभूषण आचार्य वराहमिहिर ने अपनी पुस्तक- बृहज्जातक ४-१ में संकेत दिया है—      
  कुजेन्दुहेतुः प्रतिमासमार्तवं गते तु पीडर्क्षमनुष्णदीधितौ ।  अतोन्यथास्थे शुभपुंग्रहेक्षिते नरेण संयोगमुपैति कामिनी ।।
             
सूचना-संकेत हेतु सभी ग्रहों का अपना-अपना क्षेत्र और विषय विभाजित है । प्रायः किसी एक बात की सूचना का संकेत एकाधिक ग्रह-राशियों द्वारा होता है । सूक्ष्म विचार करने हेतु ग्रहस्थिति,बलाबल,राशि,दृष्टि,युति,तत्व, स्वरुपादि अनेक बातों का एक साथ ध्यान रखना पड़ता है । किसी एक लक्षण (संकेत) से फलाफल का विनिश्चय करना बिलकुल हास्यास्पद है।

          उपर्युक्त प्रासंगिक विषय में विचारणीय विन्दु है - स्त्री का आर्तव निःसरण । आर्तव के निर्माण और निःसरण के लिए स्त्री-शरीर में गर्भाशय,डिम्बाशय,डिम्बनलिका,योनिपथ इत्यादि जिम्मेवार हैं । इन सभी अंग-उपागों के बारे में विभिन्न ग्रहों द्वारा शुभाशुभ स्थिति की सूचना मिलती है- जातका की जन्मकालिक ग्रह-स्थिति तथा गोचर संचरणादि से ।

      ध्यातव्य है आर्तव रक्त का ही एक विशिष्ट अंश है । वैज्ञानिक दृष्टि से भी स्पष्ट है कि रक्त का नब्बे प्रतिशत भाग जल तत्त्व है, जिस पर चन्द्रमा का आधिपत्य है और शेष दश प्रतिशत ठोस भाग अग्नितत्त्व हैं । यहां तक कि रक्त का जो लाल रंग है वो भी अग्नितत्त्व का सूचक है । अग्नितत्त्व (पित्त) मंगल का क्षेत्र है । रक्त का अल्पांश (रक्तवर्ण) ही प्रकटित है हमारी आँखों के समक्ष और घनीभूतता के कारण व्यापक जलतत्व गौण सा हो जाता है । वस्तिप्रदेश में त्रिकास्थि के भीतर सुरक्षित गर्भाशयादि अंगों पर क्रमशः बुध,शनि,शुक्रादि का भी प्रभाव है । पेड़ू और जननांग बुध की कन्याराशि के आधिपत्य में आते हैं । मंगल की वृश्चिकराशि की भी यहां अच्छी भूमिका है । कामेच्छा और वासना में चन्द्रमा के साथ मंगल का भी योगदान  है । शुक्रग्रह का योगदान शरीर के सप्तमधातु – शुक्र (वीर्य) पर है। ध्यातव्य है स्त्री-शरीर में आर्तव (रज) ही शुक्र के स्थान पर है । यही उसका सप्तम धातु है । इन्द्रिय जनित सभी पदार्थों पर शनि के बिना तो काम ही नहीं चल सकता । नियम,व्यवस्था और मर्यादा में लाने के लिए शनि की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है ।

         चन्द्रमा जल(रक्त) है और मंगल अग्नि (पित्त) है- ये स्पष्ट हो चुका है । मंगल से जब चन्द्रमा क्षुभित होता है यानी पित्त् से जब रक्त क्षुभित होता है, तब स्त्रियों को रजोदर्शन होता है— रजोदर्शन का यही ज्योतिषीय नियम है । ( ध्यातव्य है कि गर्भिणी,रोगिणी,बालिका,वृद्धादि इस नियम के अपवाद में हैं ।)
जैसे—किसी स्त्री के जन्मांकचक्र में वृश्चिक राशि के पांच अंश पर मंगल हैं । विचारणीय समय में चन्द्रमा यदि सिंहराशि पर है, तो हम चन्द्रगति क्रम से आकलन करके सहज ही जान सकते हैं कि अब से कितने समय बाद इस स्त्री का मासिकधर्म शुरु हो सकता है ।

यानी जन्म कुण्डली में जिस राशि पर मंगल हो चन्द्रमा वहां गति करते हुए पहुंच जाये,तभी आर्तवदर्शन होंगे । चन्द्रमा लगभग सताइश दिनों में भचक्र पूरी करता है । यही कारण है कि स्वस्थ और सामान्य स्थिति में स्त्रियों का मासिक चक्र भी इसी भांति चलता है । 

चन्दमा और मंगल की स्थिति (बलाबलादि) जन्मकुण्डली में अच्छी नहीं है, वे किसी तरह से पीड़ित, क्षुभित, बलहीन हैं यदि, तो निश्चित ही जातका को आर्तव सम्बन्धी विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । पंचम,सप्तम, लग्न, एकादश आदि भावों पर भी विचार करना होगा, ताकि भावी स्थिति और परिणाम—सन्तानादि पर इसका क्या-कैसा प्रभाव है ।

आमतौर पर ऐसी बातों का विचार करना जरुरी नहीं होता और न वो ज्योतिषी के पास प्रश्न लेकर ही आती है, किन्तु असामान्य परिस्थितियों (रजोरोध,रजसाधिक्य,कष्टरज आदि व्याधियों) में ज्योतिषीय विचार की आवश्यकता अवश्य होती है, ताकि कारण जान कर उसका सही निवारण हो सके । हालाकि ऐसे मामले में लोग सीधे चिकित्सक के पास जाते हैं। जाना भी चाहिए । किन्तु वहां से थकने-हारने के बाद ज्योतिषी की भूमिका शुरु होती है । ज्ञातव्य है कि ऐसी समस्याओं का सरल निदान और उपचार है ज्योतिष के पास । अस्तु ।

Comments